राजस्थान की लोकनाट्य परम्परा मे मेवाड़ के गवरी और उसके साहित्य पर शोध प्रबंध लिखने के सिलसिले में में जब भीलों में प्रचलित सुप्रसिद्ध गवरी (राई) में वर्णित भारत-गीति-गाथा-कथा को पढ़ रहा था तब उसमें वर्णित देवी अंबाब का सातवें पियाल (पाताल) जाकर बडल्या (वट वृक्ष) लाना, देवल ऊनवा में उसकी स्थापना करना, मान्या जोगी का अपने चेलों सहित उसे देखने आना| देवी द्वारा चला को बड़ के भेंट चढाना, धार नगरी के राजा का बड कटवाने के लिए फौज भेजना, देवियों कार कंजरी रूप धारण कर श्राप देना, नोरता (नवरात्रा) की स्थापना करना, मानसरोवर का पानी गंदलाना, हठिया दानव का वहा फौज लेकर आना, देवी पर रीझना और अन्त में अपना शीश कटवाना, इस पर आनंदोल्लास में देवियों का नृत्योत्सव मनाना जैसे मुख्य प्रमुख घटना प्रसंगो ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया फलस्वरूप गणेश चतुर्थी १९५७ को मैं देवलम्नवा नामक स्थान के अध्ययन के लिए चल पड़ा।
लोकजीवन में बडल्या हीदवा सम्बन्धी गवरी में वर्णित भारत नामक गाथा गीत के विविध रूप सुनने को मिलते हैं। भारत के अनुसार इसकी कथा इस प्रकार है|
एक समय देवी अम्बाव को स्वप्न आया जिसमें उसे विशाल वटवृक्ष तथा नवरात्रि पूजन का दृश्य दिखाई दिया। मृत्युलोक मे पहले उसने ये दृश्य कभी नहीं देखे थे। इसलिए उन्हें देखने की उत्कण्ठा जागी (वटवृक्षतो राजावासुकि की बाड़ी में था। अतः किसी ऐसी देवी की खोज प्रारम्भ हुई जो पाताल में जाकर वासुकि की वाड़ी से वटवृक्ष ला सके। संयोग से रामू तथा केवल ये दो देवियां इसके लिए तैयार हो गई। उन्होंने प्रण किया कि -
“जब तक वटवृक्ष नहीं लायेंगी. देवलऊनवा नहीं जायेंगी। हिमालय जाकर हाड गालेंगी, नहीं तो काशी में करवत लेंगी|”
दोनों देविया बहुत भटकीं मगर उन्हें सफलता नहीं मिली। फलस्वरूप वे मरने निकलीं। देवी अम्बाव ने उन्हें ऐसा करने से रोका।
उसकी बाड़ी में प्रतिदिन एक भवग आता था। यह बडा जबर्दस्त था। बारह मन का उसका भार था तथा तेरह कोस तक उसकी गुजार सुनाई देती थी। एक दिन देवी अम्वाब ने भंवर्ग का रूप धारण किया और बाडी में जाकर बैठ गई। नित्य की तरह भंवरा नहा आया। देवी ने फदा डाल उसे आने जाने का भेद बताने को कहा पर उसने भेद नहीं दिया। इस पर देवी ने ताबे की पूंडी में तैल उकाला और भंवरे को उसमें डाल दिया। भंवग बड़ा छटपटाया। अन्त में उसने वासुकि की वाडी जाने का भेद दिया और मार्ग बताया।
देवी ने वहा से प्रस्थान किया और देवलऊनवा पहुँची। सब देवियों को एकत्र किया और पाताल में वासुकि की बाडी मे जाने का निश्चय किया। जाते समय देवी कुँडी में दूध भर गई ओर कह गई इसका दूध कभी सूखेगा नहीं। यदि सूख जाय तो समझ लेना मेरी मृत्यु हो गई है।
देवी ने अपने मेल से नेवला पैदा किया और उसे लेकर वासुकि की वाडी में पहुँची। वासुकि सोया हुआ था। वह उसे जगाने लगी। इस पर वहां पहरा देती हुई नागिन ने उसे रोका और कहा-
“ये बारह बरस की गहरी नींद में सोये हुए हैं। यदि जग गये तो तुम्हारा अनिष्ठ कर बेंठेगे। तुम्हें बडल्या चाहिये तो तुम चुपचाप ले जा सकती हो।”
देवी ने जवाब दिया “ऐसा करने पर तो मैं चोर कहलाऊंगी।”
बार-बार कहने पर भी जब नागिन ने नाग को नहीं जगाया तो उसे क्रोध आ गया और क्रोध ही कोध में नाग को उसका अँगूठा पकड जगा दिया। जगते ही, ज्योंही नाग की दृष्टि देवी पर पड़ी कि वह वहीं भस्म हो गई। उसके भस्म होते ही सुनहली ज्वाला तथा रूपहला धुंआ निकला और राख की ढेरी केसर वर्ण की हो गई। उधर देवलऊनवा मे ओखली का वह दूध सूख गया जिसे देवी भर कर आई थी। इससे देवियों में खलबली मच गई।
संयोग से शिव-पार्वती भ्रमण करते हुए नाग की वाड़ी में आ निकले। पार्वती की दृष्टि देवी की देरी पर पड़ी। वह इतनी मोहक तथा लुभावनी थी कि पार्वती उस पर मुग्ध हो गई। उसने शिवजी से इसका रहस्य जानना चाहा पर उन्होंने उसकी बात टाल दी। इस पर पार्वती अलोप हो गई और मक्खी बनकर शिवजी की जटा में जा बैठी। शिवजी के बहुत ढूंढने पर भी वह नहीं मिली। तब वे नारद के पास गये। नारद ने युक्ति बताई। उसके अनुसार शिवजी ने पार्वती को आवाज दी-
“पार्वती, तुम जहा भी हो आजाओ, तुम्हारे आने पर जो तुम कहोगी, वही करूंगा।”
यह सुन पार्वती दौडी-दौडी आई शिवजी ने ढेरी पर अमृत छिड़का और देवी को पुनर्जीवित कर पार्वती की इच्छा पूरी की। देवी उठ खडी हुई।
शिवजी ने उसे वर मागने के लिए कहा।
देवी ने कहा-
“यदि देना ही है तो यही वर दो कि मै वासुकि की मारी नही मर।”
शिव जी ने वरदान देने हुए कहा-
“मृत्युलोक में लाली नाम की लुहाग्नि रहती है। तुम उससे कटारी और जहरी फूल लेकर फिर यहा आना। फण काटते समय ज्योही नाग तुम्हारे फण मारे। तुम फूल पर उसका एक-एक फण झेलती हुई कटार से उसे काटती जाना और अन्त में जब वह विष रहित हो जाय तब नाग को मार कर यहा से वट वृक्ष ले जाना।”
शिव जी के कथनानुसार देवी लुहारिन के पास गई। वहां से कटारी तथा जहरी फूल लेकर पुनः नाग के पास आई और सोये हुए नाग को जगाया {नाग ने जोर की फूकार मारी। देवी ने फूल पर फूंकार झेली और कटारी से उसका फण काटडाला! इस तरह उसने नाग के सारे फण काट डाले। जब एक फण शेष रह गया तो नागिन ने देवी के पाव पकड़े और कहा
“कांचली के रूप में एक फण तो मेरे लिए छोड़ती जा।”
देवी ने शेष बचा वह फण उसके लिए छोड दिया। यहा से देवी बड के पास गई और उसे अपने साथ चलने को कहा। बड़ ने यह कह कर कि वहा उसका निर्वाह नहीं हो सकेगा। देवी के साथ चलने को मना कर दिया। देवी ने उसे बहुतेरा समझाया और कहा
“वहां मैं तुम्हे अनेक यत्नों से रखूगी। नित्य दूध दही पिलाऊगी और इठ्योत्तर मानवी भेंट चढाऊंगी।”
इस पर बड़ राजी हो गया। देवी ने देवलऊनवा लाकर एक काली चट्टान पर उसे स्थापित कर दिया। कई दिनों तक देवी बड़ को दूध दही से सींचती रही पर मानवी भेंट चढ़ाने का अवसर उसके हाथ नहीं आया। एक दिन उसे पता लगा कि यहीं कहीं पहाड़ों में भान्या नामक जोगी तपस्या कर रहा है उसके साथ उसके इठ्योत्तर चेले भी हैं। देवी ने यह अच्छा अवसर पाया। वह जोगी के पास गई और बड की सारी घटना कह सुनाई। जोगी ने प्रसन्न हो बड देखने की इच्छा व्यक्त की। देवी उसे निमंत्रण देकर चली आई। समय पाकर जोगी ने अपने चेलों सहित बड़ के लिए प्रस्थान किया। देवी ने उसकी अच्छी आवभगत की। एक दिन जोगी अपने चेलों को वहीं छोड़ कर धारनगर के राजा जेल से मिलने चला गया। पीछे से अवसर पाकर देवी ने सभी चेलों को बड भेंट चढा दिये। जोगी लौटा। अपने चेलो को मौत के घाट पाकर वह बडा दुखी हुआ| वहां से वह पुन: धारनगर गया और राजा से कहा-
“देवलऊनवा का जो बड है, वह मानव भक्षी है। उसने मेरे सभी चेलों का भख ले लिया है, अतः उसे कटवाकर उसकी जड़ों मे तैल डलवाया जाय नहीं तो मैं शाप दूगा जिससे तुम्हारा राज्य नष्ट हो जायेगा।”
राजा ने जोगी की बात मानली और अपनी सेना को बह काटने का आदेश दिया| बन बड़ के पत्ते पत्ते पर बैठ किया, सभी मक्खीया वहा से उडी| मार्ग में धारया भील मिला। पी के कानी, सवामन धान, थोडी नर, मर कर मबिखयां उड़ाने का ठेका हिंसा को देव अबाव की आण दिला कर उसके उदार दुष्ट थपित हो गई। हि यो अम्बाव तथा चामुण्डा ने कजरियों का रूप की बिया: अपने साथ देविया सेकडों की तादाद में गारे, सारे १५५१ पदों में फसलों पर हाथ साफ किया तथा सूअरों माने तंग आकर कंजरियों को राज्य से बाहर रिया नहीं मानी। उन्होंने कहा-
"हम वरत बांधेगी भोर- गजा की आज्ञा से उन्होंने वरत बाधी और जानकायों को इनाम इकराम मांगने को वह बोला धारया को नवरात्रा व्रत तथा पूजन का आदेश दिक बाली : पर पूजा करता, वह गीत गाती। दिन सभी लिया पात विसर्जित करने चलीं। इसमें देवों ने भी भाग लिगा था मगर को साधी का मुंह होने के कारण वहीं छोड़ दिया गया। उन्हें जब यह बात शुभावशोधित हर और मंत्र द्वारा उड़द फेंकने लगे। इससे देवों के रथ उलट ये के मासे : देवी को इसका पता नहीं लगा। वे दौडे-दौड़े धारया में, पास मोअगने मुरली देदकर गप्पत की करामात का फल बताया। देवी अमन को मनाने का बीड़ा उठाया। वह उनके पास गई। उन्होंने प्रत्येक मालिक भी पूर्वा अपना वाहा। देवी ने यह बात सहर्ष स्वीकार की।
फलतः २५ पूर्वका बलोलो। मानस की गाल पर सभी ने अपने डेरे डाले। कालका का काला, का लाल, अम्बाल का भगवा, रामापीर का सफेद, इस प्रकार नौ लाख देवों के अलग- अगलने। देवियों ने पानी विसर्जित की। इससे सरोवर का पानी गंदा हो गया। पानी मंदा मार रियाँ रीती लौटीं। रावले बैल म्यासे रहे। यह खबर जब हठिया को लगी तो उसने अपने सेणे को बुलाया और कहा - मानसरोवर जाकर पता लगाओ, चावण्डा कौनसी धरती की राडे है जो उधम मचा रही है? उन्हें यहाँ पकड लाओ। यहाँ लाकर उनसे वायदा डलवाओ, पीसणा पीसवाओ और वालक्ये रखवाओ।' सेणा संगवर पर, गया। देवियों ने उसे कोडों से बुरी तरह पीटा। जब वह लौट कर नहीं आया तो हठिये ने हसण्या नामक दानव को भेजा। देवियों ने उसे भी तीर द्वारा मार गिराया। यह खबर पा हठिये को बडा गुस्सा आया। वह नीले घोडे पर सवार हो सरोवर पर आया। देवियां उसे देख भागने लगी। भागती हुई देवी अम्बाव का चीर उसके हाथ आ गया। देवी के सामने उसने शादी का प्रस्ताव रखा। इसे स्वीकार करते हुए देवी ने भाड़िया नम आसाढ सुदी नवमी) के लग्न तय किये। यथा समय हठिया बारात लेकर आया। सीम पर हीरां दासी अगवानी करने गई और नेग के रूप में पाच मुड लेने को कहा। हठिये ने मुड की बजाय पांच मोहरें देनी चाहीं पर हीरा ने नहीं मानी। वहां से बारात पनघट पर आई जहां हीरा ने पचास मुंड प्राप्त किये। पनघट से चलकर बारात तोरण पर आई। हीरा ने कहा-तोरण का नेग सौ मुंडो का है, सौ मोहरो से काम नहीं चलेगा। सास ने आरती उतारी। हठिया चंवरी में आया।
अम्बाव ने कहा - “यदि चंवरी में तू जीत गया तो मुझे शादी कर ले जाना और यदि कहीं हार गया तो यहीं तेरा सिर काट लिया जायगा।”
हठिया यह बात मान गया पर देवी को परास्त करने में वह असमर्थ रहा। इससे विवश हो उसे अपना सिर कटाना पड़ा। देवियों ने इस उल्लास में नृत्य का उत्सव मनाया। नृत्य का यह उल्लास गवरी के प्रत्येक खेल में देखने को मिलता है। एक अन्य कथा के रूप लोकजीवन में प्रचलित जिस घटना कथा का ऊपर उल्लेख किया गया है। उसी तरह की, इस संबंध की, एक कथा और सुनने को मिलती है जो इस प्रकार कही जाती प्रलय होने पर सारी सृष्टि का विध्वंस हो गया, केवल एक सुमेरु पर्वत बच रहा। अत: देवी अम्बाव सभी देवियों को लेकर पर्वत पर चली गई। वह छः-छ: महीने की नींद लेती। उसके आँख बन्द करते ही सातवें पाताल से बड आता जो छाया कर उसकी रक्षा करता और देवी के पलक खोलते ही वह वहां से अदृश्य हो जाता! अदृश्य होते हुए एक बार देवी ने उसे देख लिया और कोंपले पकडते हुए कहा -
“यहीं पृथ्वी पर क्यों नहीं बस जाते हो ताकि सातवें पाताल से इतनी दूर बार-बार आने का चक्कर तो मिटे?”
इस पर बड ने कहा -
“यदि तुम मुझे यहां लाना चाहती हो तो पाताल आकर ला सकती हो।”
देवी पाताल गई और बड़ के साथ साथ नीम केल, परवा मोगरा केतकी बेर आदि के पेड लायी|
दिन्यः देत्रियां प्रतिदिन उसे सींचती और कुरेद कुल १८-२२ मानापटी तो अम्बाव बड़ी चिंतित हुई। कुरेट कर देखने पर ही ऐसा हुआ है। सभी माया और उसे पानी की बजाय प्रतिदिन दूध-दही से सजायी जाती है|
भाकिया कमान: आठवें ही दिन कर्कोपलें फूट आई ! आमजन की या बाय गभूमे होकर बारह वीघे में फैल जायेगा तो मैं उसके पुन र मी। यह हुआ बारह बीघे में बड़ फैला; फला- फूला नजीब की चिता लगी। बड़ के पास ही बेर की झाडी थी। देवी ने उस पर - Ram कि मैं वापिस लौटूं तब तक तुम बेरों से लालमाटी रई - लता से दिया जब नोट कर आई तो उसने झाड़ी को पूरी लय या "मने र देकर दूर से अपना टोकरा भर लिया। उसे लेकर वह गाव में गई जाभी का मन मुटी और देती और अपने टोकरे में छिपा सेती? में भोट लिए उसने इठ्योतर बालक एकत्र कर लिये। उस को गले में घाटे पर मामा देव से उसकी भेट गुमा दि है। देवों के रहस्य का उसे पहले ही पता बल, काकरकिट घाटे को पार करा देने को कहा। देवी पलको आननीयर अंग में से वैसा करने को बाध्य होना पड़ा| मामादेव ने टोकर अमर लिया और देवी के साथ साथ घाटा चढ़ना प्रारम्भ कर दिया। रासन में धनुराई से एक बालक छोड़ता जाता और उसकी बजाय एक-एक पत्थर को ताइस प्रकार उसने सारे ही बालक सस्ते में छोड़ दिये और उसने मन्दसे माटोकरको भारिया।
देवी को इस रहस्य का किंचित भी पता न बला मारने पर या राशनी को वह टोकरा संभला दिया और अपनी क्षेत्री बडल्ये पहुंची। यहां बालक भेंट चढ़ाने के लिए ज्योंही उसने अपना टोकरा देशालाओं के पर ही पत्थर देखकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ और थोड़ी निरामा भी किसी अवसर की टोह में रहने लगी। उन्हीं दिनों वहां बड़ा अकाल पारी पार भाल्या नाम का एक जोगी रहता था जिसके ठयोत्तर चले थे। अकाल के मारे बर अपने चेहरों को लेकर वहां से चल दिया। लौटते समय चला ने जोगी ने कहा-
“गुरूजी! काफी देशाटन हो गया है| आसपास का कोई स्थान ऐसा नहीं बचा मान देखा गया हो म एक दमल्या होदयां अवश्य देखना रह गया है, यदि आज्ञा हो तो उसे भी देख लिया जाय।”
जोगी ने कहा-
“तुम लाग जाओ और बडल्या देख आ जाओ। जब भी मै आवाज लगाऊं; फौरन चले आना। चेलों में प्रस्थान किया। वहा पहुँचने पर देवी ने उन्हें बड के भेंट चढा कर सिर का चबूतरा तथा धड़ की तलाई बना दी। बहुत समय व्यतीत हो जाने पर जब चेले नहीं पहुंचे तो जोगी ने उनको आवाज दी, मगर जब चेले वहा नही पहुंच पाये तो उसे अनिष्ट होने की आशंका हो आई। वह उन्हे ढूढने निकला। बड के वहा आकर उसने जो लहू-लुहान देखा उससे वह सारी घटना भाप गया। यह बड राजा जेल की सीमा में पड़ता था अत: वह गजा के पास पहुँचा और मानव-भक्षी बड को जडमूल से कटवाने के लिए कहा! राजा अपनी सेना सहित वहां पहुंचा। रामू केवल को इस बात का पता चल गया।
वे दौड़ी-दौड़ी भंवर नृतने हूवारकाट्ये गई और भंवरा दानव को भंवरों के लिए कहा। उसने मना कर दिया, तब देवियो ने कहा कि तुम्हारे जितने भंवर मृत्यु को प्राप्त होंगे उतने ही सोने के बनाकर दे दिये जायेंगे। इस पर वह राजी हो गया। देवियों ने भंवरों को लाकर बड़ के पने-पत्ते पर बैठा दिये। सेना जब बड के पास आई तो भँवर उडे; इससे वह भाग खडी हुई। मार्ग में धारिया मिला जो थोड़े से अमल के डोड़े तथा सेर भर अनाज से भंवर उड़ाने के लिए तैयार हो गया। वह बड के पास आया और भँवर उडाने के लिए गूंज दी। इससे बड़ रोया। रोने पर उसके आसू देवियो के वस्त्र पर पडे। वस्त्र भीग गये। देवियां वहां से भागने लगी कि सेना ने उनको पकड़ लिया और घुडसाल के नीचे उतार दिया। देवी अम्बाव के पास इस बात की खबर देने का उनके पास कोई साधन नहीं रहा। अन्त में उन्होंने पवन देव से कहा कि वह किसी भी तरह बड़ का पत्ता उनके पास पहुँचा दे ताकि देवी को वे अपना सदेश उस पर लिख दें! पवन ने यही किया। अस्तबल के छोटे से छिद्र के रास्ते से मुड़ता- मुडता बड़ का पत्ता देवियों के पास पहुंचा। उन्होंने अम्बाव को सदेश लिखा-
“म्हां दोई राजा जेलरे घोडा रे
ठाण नीचे रूकाणी थकी हां
झट आई ने म्हाणे तारो।”
इसका मतलब (हम दोनों राजा जेल के अस्तबल के नीचे रोकी हुई हैं। शीघ्र आकर हमारा उद्धार करो।) पवन ने सदेश पहुंचाया। पत्ता उडता-उड़ता देवलऊनवा के माणक चोक में पहुचौँ। देवी ने सदेश पढा और राजा से बदला लेने के लिए नट का भेष बनाकर धारनगर को चल पडी। वहा गाव के बाहर अपना डेरा डाला और उपद्रव मचाना प्रारम्भ कर दिया। राजा ने उसे बुलवाया और बिना खेल दिखाये ही इनाम-इकराम लेकर चले जाने को कहा। इतने में देवी ने राजा के झरोखे तक वरत बांधकर खेल दिखाना प्रारम्भ कर दिया। खेल ही खेल मे उछलती हुई वह गवाक्ष में जा पहुँची जहां उसने राजा का वध कर गूंगा होने का शाप मांडयो में सामूहिक गम्मत का आयोजन में प्रदर्शित की जाती है। "यो। सपि उन पटना ने गवरी को साधारण नृत्य की भासन पर प्रतिधित किया। तदनुसार कालका, मान, जग, नट, नोरता, हठिया, कालू, कीर, नारायान से रखास्त दृश्यों के रूप में देवियों की सम्पूर्ण कथा इन यामो लगे जब गवरी ने इस कथा के रूप मे विशुद्ध नयनाय प्रकार अब सम्पूर्ण समाज, गाँव ओर लोकसत्ता स्वाभाविक था कि इसमें लोकजीवन भी अपने विभिनयत: मीशा, वाणिया, गरडा, खेतु, भोपा, गोमा, माही, कानजी, शईता जैसे खेल गवरी में गौ मोदिया का काला स्थल माना जाता है। आबई आदि का जो उल्लेख आया है जनवास नामक अंटा का पुराना मन्दिर में इसे देवलमालिया भी कहते है जसरसा के नाम से भी प्रसिद्ध है। भूगर ने भाई और काले पत्थर का कुटिल लिपि का एक वाले का है। ऊनवास के पास ही बड बदाम हाल में लाई थी। यही बड़ बड़ल्या हींदना के नाम बार जीये में फैला हुआ था! थाली जितने छ। करने की।
इसकी कई शाखा-प्रशाखाएँ थीं। नयाँ। किसी समय इस बड़ के पप: लोमीटर दूर है। यहा, जहा अब गुलाब की पर भा गुलाब की झाडियां वाला यह आज भी मानव राजनगर (वर्तमान राजसमंद) का से ३० किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में है। इसी के पास बाबह गान आवासीय, राजसमन आज तो स्वतत्र जिले के रूप में जाना जाता है| खमनौर के पास ही मोलेला नामक गांव है जहां के कुम्हारों द्वारा निर्मित माटी की मूर्तिया (लोक प्रतिमाएं) राजस्थान, मालवा, गुजरात तक के देव-देवरों में प्रतिष्ठित की जाती है। देश के ही नहीं, विश्व के कई संग्रहालयों मे यहां की बनी मूर्तियां शोभा बढ़ा रही हैं। हल्दीघाटी, देवल ऊनवा, मोलेला का यह पूग क्षेत्र ही भक्ति और शक्ति का कमाल रहा है। जहां भक्ति है वहा शक्ति का निवास रहता है और शक्ति बिन भक्ति के चल नहीं सकती। इस दृष्टि से इस पूरे परिक्षेत्र का सम्यक अध्ययन और अन्वेषण आवश्यक है।