मेंहदी में दिया मेंहदी मे कई कलाएँ छिपी हुई हैं। जैसे मेह में कई कलाओं के रूप है। मेह है तो सब कुछ है। प्रकृति की सारी हरीतिमा है। रूप, रस, रंग और लावण्य है। ऐसे ही मेहदी में सब कुछ है। यह अपने में कई कलारंगों को रूपायित करने वाली है। है कोई ऐसा अन्य झाड़ जो लगता है, बंटता है, मडता है, रचना है और रस देता है प्रेम का, सुहाग का, सौभाग्य का, जीवन का। जो हरा है मगर लाल है। लाल है मगर हरा है। दिखता हरा है मगर निखरता लाल है। इसीलिए कई गीत हैं। सब गीतों में मेंहदी की महिमा है। 'मेहदी राचणी रे लाल’। 'प्रेम रस मेंहदी रावणी'। भंवर पल्लो छोड़ दो म्हारे हाथा में रचरई मेंहदी।' 'जग लाली रहे जैसे रंग मेंहदी'।
मेंहदी मेह ने दी। यह इस धरती का झाड़ नहीं है। सुमेरू पर्वत पर इसका बूटा जब पहली बार अवतरित हुआ तो चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश हो गया। बादल गरजने लगे। मधरे मधरे मेहुडा बरसने लगा। मेह ने इसे महक दी| बादल और बिजली ने इसे सहलाया। इन्द्र ने अपने सतरंग दिये। यह दूध से सीची गई। मेंहदी सोने की सिलाडी पर बटती है। गगा-जमुना के निरमल नीर में ओलीघोली जाती है। मही-मही मखमल से छनती है। रतन कटोरे में रखी जाती है। इसकी महिमा ही न्यारी है।
मेंहदी सुरगी है। जब यह आती है तो सुरंगी रितु आती है। इसका रंग अपना रंग है। चिरमी इसके सामने चुप है! लाल का सिर शर्म खारहा है। हिंगलू हार खा बैठा है। सिन्दूर लज्जित है। कुंकुंम का क्या रग। रंग तो मेंहदी का ही सुरंगा है। यह रंग जिस पर चढ जाता है उसे कोई बदरग नहीं कर सकता। राहगीर से नवोढ़ा मेंहदी उचवाने को कहती है। राहगीर कहता है- मेंहदी तो उचवा दूंगा मगर आधा शैय्या सुख लूंगा'। इस पर नवोढ़ा कहती है - 'केसरिया लाल, तुम्हें नहीं मालूम मेरे पर मेंहदी का रंग चढ़ा हुआ है। तुझे तो नहीं छोडूगी, तेरे बाप तक को देख लूंगी। तेरी मूंछों पर अंगारे धर दूंगी और तेरे माप की दाढी जला दूगी
कलात्मक मेंहदी माडते-मांडते अंगुलियो की रेखाएँ घिस गई है। साहित्य के सारे रसिक नौ रसों की गिनती में ही खोये रहे। प्रेमरस की ओर किसी का ध्यान नहीं गया जो मेंहदी ने दिया। प्रेम है तो रस है, जीवन है, उमंग है। यह रस नही है तो कुछ नहीं है। जीवन सूना, जग सूना, परिवार समाज और मनुष्य सब सूना सूना है। हथलेवे की मेहदी रचती है तो जीवन साथी का प्रेम देखा जाता है। अच्छी रचने पर अच्छा प्रेम। बोदी रचने पर अपरिपक्व प्रेम, बोदा प्रेम, झूठा और दिखावटी प्रेम। इसीलिए मेहदी बोने से लेकर उसे चूंटने छानने बांटने घोलने तक की सारी क्रियाएँ बडी सावधानी से की जाती|
प्रेम ऐसे ही नहीं उमडता है। मेंहदी के बंटने-बांटने से, रचने-रचाने से, मांडने- मडाने से प्रेम फूटता है। केवल मेंहदी की पत्तियां बांध लीजिये, कुछ नही होगा। प्रेम बटता है तो रचता है। जैसे मेंहदी बटती है तब रचती है। इसीलिए मेंहदी की महिमा अपरम्पार है। कोई त्यौहार उत्सव अनुष्ठान हो, मेंहदी आवश्यक है। मेंहदी गणगौर पर नारियों के हाथों में ओपती है। विभिन्न बूंटों में घेवर मिष्ठान्न देता है।
चक्र विजयश्री देता है। चूनड सुहाग बनाये रखता है। पील्या जच्चा को बच्चा देता है। चोपड मनोरंजन भरता है। बाजोट बत्तीसी भोजन और तैंतीसी तरकारियों से तर रखता है। गलीचा भरेपूरे परिवार को समृद्धि देता है। होली पर माडे जाने वाला बीजणी मांडणा ठंडक देता है। बतासा पान शकुन देता है। दीवाली का शंख दीवा दशों दिशाओं का यशस्वी जीवन देता है। तीज का लहरिया फूला फूला मन, फूल छाबडी, हराभरा परिवार, पतग सुनहरे सपन, कलियां कुंपल चटकता मन और धनक मोठडा मौसमी परिधान देता है?
दशामाता हो कि करवा चौथ हो, दीयाड़ी नम हो कि तेजा दशम हो, फूली हो कि राखी हो, अहोई आठम हो कि भाई दूज, शीतला सातम हो कि नाग पांचम, लडकी ससुराल जाती हो कि पीहर आती हो; नारियों के हाथों में बिछुडा हथपान मछली कमल सांकल चौक षटकोण भमरा चकरी चटाई तारा कचनार जैसे मन भावन बूटे ख़िल पडते हैं। सावण में तो मेंहदी की बहार देखते ही बनती है। जब प्रकृति का प्रत्येक उपादान फूट पडता है तो मेंहदी की मरोड़ कैसे चुप बैठी रहेगी।
यही तो मेंहदी का मौसम है जब मेंहदी रचाकर रमणियां मेंहदीबाई बन बादाम सी बाग-बाग होती अपने मेंहदा लाल से अपना तन-मन रचाती रगती रूपसी सुवासित होती है। यह सब तो है पर यदि कोई नार अकेली है तो फिर मेंहदी उसके लिए लाग नहीं आग है। यह आग जहां मेंहदी लगा रखी है हथेलियों में, तलवों में; वहां भी है और दिल में तो है ही।
कहने वाले ने कहा भी क्या, खूव है
“मेंहदी ने गजब दोनों तरफ आग लगा दी
तलवों में इधर और इधर दिल में लगी है।”
इस आग ने प्रिया को ही नहीं, प्रिय को भी झकझाग है सलिए महती के पत्ते-पत्ते पर अपने हृदय की, प्रेम की वात लिखता रहा, इस आशा में शिकभी न कभी तो वह प्रियतमा के पास पहुचेगा और मेरी बात कहेगा। महदी समय में एक ऐसी रगरेजण है जो कई रंगों में उगती अकुरित होती है और हर रंग नयापन, अनोखापन लिये होता है । इसकी हर लाली की अपनी लीलीतमा जुदा है। प्रेम का ऐसा रंग अन्यत्र कहा मिलेगा। इसीलिए भावज आशिष देती है . "जग लाली रहे जसे रंग मेंहदी।"
यह मेंहदी हाग और सुहाग देती है। भाग और सुभाग देती है। राग और सुराग देती है। फाग और सुफाग देती है। भाव और सुभाव देती है। इसका रंग धीरे-धीरे चढता है और धीरे-धीरे उतरता है। इस रंग से दोनों रंगे जाते हैं। जिसके लगती है वह भी और जो लगता है वह भी बल्कि निरखने वाला भी रंगदार हुए बिना नहीं रहता।
बहिन ने भाई के हाथो मेंहदी दी और ससुराल भेजा। सालाहेलियों ने अपने बहनोई के हाथों को निरखा और पूछा- "किसने मांडे हैं इतने कलात्मक माडने?"
जीजाजी ने बहिन का नाम लिया तो वे बोल उठी - "ऐसी सुगणी बहिन को चूदड ओढाओ और चूडा पहनाओ जिसने इतने प्यारे-प्यारे मांडणे मुलकाये हैं।"
सुहागिन के मेंहदी रचे हाथों पर पति भी रीझा है।
उसने कहा- "धण मेरी, मेहदी रचे ये हाथ मेरे हिरदे पर रख दे। मैं इन पर हीरे जवाहरात न्यौछावर कर दू।"
मेंहदी अपने बालम से भी अधिक प्यारी है बहु को।
इसीलिए वह कह बैठती है- "भंवर पल्ला छोड़ दो, म्हारे हाथों में रचरई मेंहदी।"
यही नहीं, अपने प्रिय को पढना-लिखना छोड अपने मेंहदी रचे हाथ निरखने तक को बाध्य कर देती है - "पढणो लिखणो छोड़ दो सजी निरखो गोरी रा हाथ ।”
मेंहदी का आनंद उल्लास और हुलास शब्दों में बाधने का नही, हिरदे में सांधने का है। मेंहदी के माहात्म्य के फलस्वरूप अर्जुन एक बड़ा कुंड बनाता है और उसमें मेंहदी घोलता है। तीनों लोकों में यह खबर फैल जाती है। इसके छींटे मात्र से लोगों के भाग्य उदित हो जाते हैं। वासुदेव बलराम भी अपनी पगड़ियो को मेंहदी के छींटों से पवित्र सुभग करते हैं। यह मेंहदी बड़े जतन से, बडे सलीके से, बडे करीने से लगाई जाती है। सोये- सोये मेहदी नहीं दी जाती न धूप में दी जाती है। दिन का दोपहर तिपहर का वक्त भी इसके लिए वर्जित कहा गया है। मेंहदी पांवों में पगथली के बीच भी नहीं लगाई जाती। यह स्थान भाई के लिए छोडा जाता है ताकि उस पर भार न आ सके। मेंहदी की टीकी लगाना लोड समझा जाता है।
विधवा भी और कुवारी भी मेहदी नही लगाती। बना-बनी के मेहदी गानों में बन को मेहदी सा बताया गया है। बना, मेहदी बना इतना रचीला, गमीला है जिनानी, मेंहदी बनी उसे अपनी मुट्ठी में, अपनी हथेली में कैद कर रखना चाहीर- "बना हिंदी सरीखा गचणा थानै राख मुठडी माय ।" ऐसी प्रेम प्रगाढिनी महदी का रसविज्ञो न कही कोई उल्लेख नहीं किया और न कही प्रेम रस को विवेचित किया जन्मकि हकीकत में यही रस जन-जन में, लोक जीवन में सर्वाधिक रूप से परिव्याप्त है।
मेंहदी हाथों में ही नहीं, पावों मे भी दी जाती है। इसकी जो भातें माडी जाती है उन्हें और अधिक सुन्दर आकर्षक तथा कलात्मक बनाने के लिए उनके आस-पास भाति-भाति की भरण भरी जाती है। यह भरण दो-दो खडी लकीरों के रूप में दी जाती है जो “जावा" कहलाती है। जावा के अलावा चीरण, डबके तथा डोरे भी उकेरे जाते हैं। डोरों के बीच बारीक-बारीक बेलें भरी जाती हैं। ये बेलें हथेली के पीछे भी खींची जाना है। इसे भाईवेल कही जाती है। बेल के अलावा सुआ फूल फूलडी फूलपत्नी पायल कमल फूलमाल पानबेल झिलमिल तारा मोतीडा बाजोट चोपड़ गलीचा फूलकमल अम माहणे भी मांडे जाते हे। ऊगली के ऊपरी टोप की मेंहदी नाखून डूबा मेहदी कहलाती है। अगुलियो के पास से लेकर पांव के चारो ओर डोरा मांडा जाता है। इस डोरे से टूता हुई दो-दो तीन-तीन पखुड़ियों की बेले बनाई जाती हैं। मेहदी के ऐसे भात- बूटे-आभूषणों को भी मात करते पाये जाते हैं।
आईये, आप भी मेहदी के कलात्मक मांडणे मांडिये और इसका रंग बांटिये। मेहदी का रंग और रस सब ओर फैले। सबका जीवन सुरंगा बने। प्रेम रस मेंहदी सबको मुबारक हो।