दहकते अंगारो पर महकते फूलों की तरह नाचना यों तो अनहोनी बात लगती है, परन्तु हमारे यहाँ ऐसे कई अजब कलाकरिश्मे प्रचलित हैं जिनके साथ यहाँ का कलाकार असाधारण-विचित्र होता हुआ भी सामान्य साधारण बनकर जीता है। आग पर फाग खेलना और राग अलापना अपने आप में कितना संश्लिष्ट चित्रण है। आइए, इनका पर्यवेक्षण करें।
दहकती पगडंडी के चहकते पाँव:
उड़ीसा की ओर कटक से तीस मील, महा नदी के तट पर एक मंदिर है, जिसकी देवी है चोचका। यहाँ प्रतिवर्ष वैशाखी को एक बड़ा भारी भव्य मेला लगता है। दूर-दूर से दर्शनार्थी-मेलार्थी उमड पडते हैं और यहाँ अपनी मनौती पूर्ण करते हैं- आग पर चलकर। वैशाखी को प्रात: ही सभी मनोती बोले देवी के सम्मुख एकत्र हो जाते हैं। यहाँ ऑगन में सभी लोग जितना उन्हें बोला होता है उतना बड़ा गड्ढा अलग-अलग रूप मे खोदते हैं। यह गड्ढा लगभग एक फुट चौडा तो होता ही है। इसकी लम्बाई मनोती के अनुसार कर ली जाती है। गड्ढा खोदकर उसे कोयलों से पूरा भर दिया जाता है| तदनन्तर उन्हे घास-फूस से प्रज्वलित किया जाता है। ३० से लेकर १२० फुट तक की ५०-६० के करीब पगडंडियाँ बन जाती हैं। इनके दोनों सिरों पर एक-एक छोटा गला बना दिया जाता है, जिसमें देवी का चरणामृत दिया जाता है।
कोयले तेज हो जाते हैं, इधर दोपहर को सूर्य भी तेज हो जाता है, तब मनौतीवाले नदी में नहाकर पीले कपडे धारण करते हैं और देवी का प्रसाद पाकर अपनी-अपनी पगडंडी पकड़ते है। यहाँ पहले फल-फूल, चदनादि से देवी की पूजा करते हैं। अग्निपूजा के बाद चरणामृतभरे गड्ढे में पॉव डुबोकर अंगारों पर चल पड़ते हैं। दोनों सिरों पर चरणामृत में अपने पाँव डुबोते हुए अगारों पर चलने के बाद देवी के दर्शन कर उसे अपनी मनौती पूरी होने का देते हैं यह देवी का ही समझा जाता है कि इस दिन जो भी अगारा पकड लेता है, उस पर उसका कोई असर नही हो पाता है। आज की आग इन मनौतीधारियो के लिए सौभाग्य बनकर आती है, तव सब फूले-फूले फिरते नजर आते है।
आग, भक्त भोक्ताओं की फूल खूदी:
छोटा नागपुर; रांची, हजारीबाग और सिंहभूमि जिले के आदिवासी तथा पिछडे लोग माता पार्वती की पूजा के पक्के विश्वासी हैं। ज्येष्ठ-आषाढ में इधर का प्रत्येक गाँव- घर पूजा निमग्न रहता है। पुजारी गोसाई और प्रधान भक्त कठभोक्ता। दोनों मिलकर पूजादिन तय करते है और गाँव के बाल-युवा-वृद्ध को अपना सहयोगी भक्त-भोक्ता बनाते हैं। ये भोक्ता पूजादिन से एकमास अथवा पखवाडा पूर्व से प्रति संध्या उपवास करते हैं। रात को अर्द्धरात्रि के बाद खीर खाते हैं। पूर्णाहुति के रोज निर्जला एकादशी रखते हैं। इस दिन पाँच बार नहाते हैं। इसके बाद इन भोक्ताओं को दो खूटों के बल टाँग कर सिर नीचे कर झुलाया जाता है। इस समय धुवन की धूनी दी जाती है और इनके व्रत की परीक्षा के लिए इनकी पूरी जाँच की जाती है।
तदन्तर भोक्ताओं की गिनती के अनुसार नालियों बनाई जाती है, जो लगभग २०-३० फीट लम्बी, ३ फीट के करीब चौड़ी और एक फीट के करीब गहरी होती हैं! इनमें लकड़ियों के ढेर कर अंगारे तैयार किए जाते हैं। अंगारे तैयार हो जाने पर एक-एक भोक्ता आकर आग के समक्ष खड़ा रहता है। गोसाई सबको आग-पूजा करवाता है और तब काष्ठभोक्ता के पीछे-पीछे भोक्ता लोग उन धधकते हुए अंगारों पर चल पडते हैं। इनके पीछे-पीछे इनकी बहनें, माताएँ तथा स्त्रियाँ भी आग में प्रवेश कर जाती हैं। कई बार अंगारों पर चलने के बाद भोक्ता लोग कॉटो, झाड़ियों की ढेरियों पर लुढ़कते लोट- पोट होते अंत में महादेव के स्थान पर जाकर जल चढाते हैं।
शंकर और पार्वती के अटूट विश्वास के आगे आग भी अपना गुण धर्म खो देती है। नहीं तो क्या मजाल कि कोई उसे रौंदता चले और उसे कुछ असर अहसास तक न हो। आग पर चलने का यह पर्व मेला अपने आप में, सचमुच में कितना आदिम, ओजस्वी और यशस्वी लगता है। जीवन का यह सरस सौंदर्य कॉटों में फूल खिलाता हुआ, तब कितना छिटक पड़ता है। कितना जन्म सार्थक होता है तब कितने भव मधुमासे लगते हैं?
अंगारों के फुहारे छोडते जसनाथी सिद्ध:
कतरियासर, लिखमादेसर, मालासर, साधासर, नारंगदेसर, चुनसम्म जैसे कई सारे सर और अन्य गाव जसनाथी सिद्धो के प्रमुख स्थल बने है| इनमे बारी नाम स परिचित जसनाथी मदिर मेले भरते हैं और जुम्मे जागरण के साथ-साथ सिनत्यक आयोजन| गाने वाले भी ये ही सिद्ध और नाचने वाले भी सिद्ध ये ही| नगारे और मजीर की जोरदार जगरन मे सबद, बानियों तथा भगत-चरित्रों का विविध राग-गगिनियों में आलाप। भगवी पगडी और गेरूई वेशभूषा में सिद्ध लोग एक अजीव वातावरण बना देते है और इधर नृत्य की तैयारी होती है।
शभी वृक्ष की ढेर-सी लकड़ियाँ एकत्र कर एक चबूतरा-सा बना दिया जाता है। इन लकड़ियों की आँच बहुत तेज होती है। लकड़ियाँ जलकर सब अंगारों के रूप में दहकने लगती है, तब गायक विशेष सबद गाना प्रारभ कर देते है। बाद्य तेज कर लिये जाते है और देखते ही देखते गायक मंडली के आगे विविध मुद्रा निकालने वाले जसनाथी अगारो के मच पर जा कूदते है। यहाँ अगारों की अलियां भर - भर उछालते है - जैसे पानी की बूंदें उछाली जाती हो। कभी मुंह में अंगारों को भर कर उनकी फुहारे छोडते है - जैसे हाथी अपनी सूंड से पानी की फुहार छोड़ता है और कभी अगारों की झोलियाँ भर-भर उचक-निचक करते हैं। आग इनके लिए तन्त्र एक खेल बन जाती है। राजस्थान का बीकानेर जिला इन आगनर्तकों के लिए जंग-प्रसिद्ध हो गया है।
कोई तत्र-मत्र या टोटका नही। केवल सिद्धाचार्य जसनाथजी की असीम कृपा। फले-फते कह कर अग्नि कूदकों का यह आश्चयजनक कमाल देखते ही बनता है।
नंगी औरत और आग का कूडा:
बीमारी-निवारण का एक अजीब तरीका, टोटका। घर-घर में कोई बीमारी फैलने की आशका होने पर अर्द्धरात्रि को अपने हाथों में डडे लिए प्रत्येक घर-दरवाजे को खटखटाती हुई - धमकमूसल खेमकुशल बोलती हुई श्मशान की ओर चल पड़ती हैं। इनके आगे रहती है एक नगी औरत अपने सिर पर आग जलता कुडा लिये! श्मशान में जाकर आग जले कूडे को पटक आती है और निश्चित हो लौटती है कि अब कोई बीमारी किसी घर में घुसपैठ नहीं कर पाएगी| जोधपुर का यह धमकमूसल बड़ा चर्चित रहा है।
कच्छी लोगों का अग्नि-मातम:
मध्य प्रदेश के जावरा में हुसैन टेकरी पर मोहर्रम के चालीस दिन बाद चेहल्लम के दिन क्या हिन्दू और क्या मुसलमान सभी टिड्डीदल की भाँति उमड पडते है। झांझ, ताशे और दोलक की पुरजोर बजबजाहट में कच्छी मुसलमानों के परिवार अपने बदन पर चाकू-छुरी मारते हुए अगारों पर मातम मनाते हुए चढ बैठते हैं। प्रात: ४ बजे से ही यहाँ बनी कोई ६ फीट गहरी, ४ फीट चौडी और ५० फीट लम्बी नाली में लकड़ियों का जलना प्रारभ हो जाता है। जब अगारे पूर्ण तेजी पर हो आते हैं, तब कच्छियों की कूद- कबड्डी चलने लगती है। अंत में वहीं पर बने एक कुएँ मे, झालरे के पानी में ये लोग स्नान कर लेते हैं। कहते हैं पहले यह कुआँ बावडी था, जिसमें पानी की बजाय दूध भरा रहता था पर जब लोगों ने दूध को दूध नहीं रहने दिया, तो वही दूध पानी बन गया। अहमद नगर की ओर ताजियों पर मुसलमान फकीर -अल्लाह ओ अकबर की वाणी लिये आग पर निकलता था जिसे दोनों ओर दो आदमी पकडे रहते थे। महाराष्ट्र के सोनई गाँव मे बालाजी का मंदिर है। चैत्र सुदी १२ से पूर्णिमा तक चार दिन का बडा भारी उत्सव होता है। नि.सतान औरतें सतान होने पर अपनी मनौती के फलस्वरूप आग पर निकलती हैं तब बालाजी के सम्मुख ८x२ की जमीन पर अंगारे दहका कर निकलती है। इसे पुजारी दोनों ओर से पकड़े रहते हैं।
भोपों द्वारा दांतों तले जलते गोले दबाना:
राजस्थान के भोपे अपने अत्यंत कठिन, अजीब विचित्र कला-करिश्मों के लिए प्रसिद्ध हैं। इनमें अग्नि के माध्यम से कई कठिन प्रदर्शन उनकी विशेषता है। माताजी के भोपे अपने सिर पर जलती हुई अंगीठी रखकर आग पर बडा कलात्मक नृत्य करते हैं। अर्द्धरात्रि के बाद उनकी यह कला बडा निखार लाती है। मिट्टी के अत्यधिक गर्म गोलों को अपने दाँतों से उठाना, लोहे की गरमागरम साट को तैल के हाथों से सूतना उनके अन्य विचित्र कला प्रदर्शन हैं, जिन्हें देखकर चकित हुए बिना नही रहा जाता।
भारत के दक्षिण-पूर्व के आदिवासी तो आग पर चलने का त्यौहार मनाते है। गाँव के बाहर एक लबा गढा खोदकर आग जला देते है और सबके सब उस पर चल निकलते हैं। एक बड़ा-सा मेला भर जाता है। सारा गाँव आग-सा उल्लास लिये थिरक उठता है। गुजरात के खेडा जिले का पलाना गाँव होली के प्रभाव मे आकर होली के दिन उसके अंगारों में अंगडाइयाँ भरता देखा जाता है। किशोर और किशोरियों होली की आग-ज्वाला में अपने को केसरवरणी पाकर धन्य करती हैं।
पत्थरों की आग यात्रा:
फिजी द्वीप के लोग आग त्यौहार मनाते हैं। एक विशाल खड्डा खोदकर बड़े हिगो फिरना लकड़ियाँ इस प्रकार तीन-चार बार लकडी-पत्थर जमा कर आग लगाई जाती है। लकड़ियों के साथ-साथ जब पत्थर भी जलकर गर्म शोले बन जाते हैं तब लोग इन पर चल पड़ते है। प्रशात महासागर के उर्मात द्वीप मे भी लकड़ियों के स्थान पर पत्थर जमा कर अग्मि यात्रा की जाती है। तमिलनाडू में धार्मिक पर्वो पर ऐसी यात्रा शुभ मानी गई है। बैगा लोग रामनवमी पर लोहे की जंजीरो को अग्नि में तपाकर उन्हें अपने नगे हार्थों से दोहने का उत्सव मनाते हैं।
मनुष्य वास्तव मे आग है। आग उसके जीवन की ज्योति, ज्वाला, चेतना और चपला है। आग उसे राग और रश्मि देती है, फाग और फगुआ लुटाती है। इसलिए वह आग को नाना रूपो में वरण कर अपनी जीवन-बाती को जलाए-जिलाए रखता है।