साँझ हो रही थी, जब एक लोमडी
अंगूरों के मचान निकट थी खडी।
उस मचान पर लटके काले अंगूर
पर उन्हें न छू सकती थी वह मजबूर ।
उछली वह ऊपर की ओर बार बार ।
किन्तु गई वह मेहनत सारी बेकार ।
उलटे उसके पैरों में आई चोट
लंगडाती चली वहाँ से तुरंत लौट ।
मिला अचानक उसको राह में बिलाव,
बोला वह-'मौसी, क्या हाल ? म्याव! म्याव!
क्यों लंगडाती हो? क्या गिर पडी, कहीं?
या निर्बल पैरों में जोर अब नहीं?"
कहा लोमडी ने-'मैं क्या कहू बिलाव !
न में कहीं गिर पडी, न निर्बल हैं पाँव ।
अंगूरों के मचान निकट थी खडी;
पीछे से कुछ आहट कान में पडी।
जब तक मुड देखें इक मोटा चूहा
मुझे काट कर मचान पर जा बैठा ।'
'अरे! कहाँ छिपा दुष्ट ? दिखा दो अगर
मजा चखा, उस का गर्व चूर कर'
पों योला वह बिलावः बस, अब क्या था?
चली लोमडी उसको साथ ले वहाँ-
काले अंगूर लटक रहे थे जहाँ !
और एक गुच्छे को दिखा कर कहा-
'देखो, वह पत्तो में छिप कर बैठा
वही दुष्ट, जिसने था मुझको काटा।"
इक छलांग में बिलाव ऊपर चढ कर
रौदने लगा मचान को इधर उधर;
नीचे काले अंगूर टपकने लगे।
वाह! लोमडी के तो भाग अप जगे!
लगी निगलने अंगूर वह खुशी-खुशी,
ऊपर करता बिलाव धमाचौकडी ।
आखिर थक कर बिलाब पूछने लगा-
'अजी! किधर है चुहा, किधर वह भगा?'
'खोजो न वहीं होगा, जायेगा कहाँ ?'
खूब लोमडी ने फल, ठुसते कहा।
जी भर खा कर अपनी गह चल दिया।
वह बेचारा बिलाव यों छला गया ।
इसी तरह धूर्तों के हाथों में कैंस कर
गर्वीले जन बनते बेवकूफ सत्वर ।