किसी समय 'रणधीर सिंह' नामक एक राजा मणिपुर नामक नगर में राज करता था। उसकी रानी का नाम लक्ष्मी देवी था। उसकी जैसी पतिव्रता स्त्री संसार में कोई नहीं थी। वह रानी थी। उसका पति उसे प्यार करता था। दुनियाँ में उसे किसी चीज़ की कमी न थी। तो भी वह हमेशा उदास रहा करती। कारण यह था कि उसके कोई सन्तान न थी।

सन्तान पाने के लिए उसने अनेकों पूजा-पाठ करवाए। सभी देवताओं की मनौतियों मानीं । अपने हाथों सदावत बाँटे। निर्धन लड़कियों के व्याह करवाए। जगह-जगह कुँए और तालाब खुदवाए। समी तीथों की यात्रा कर आई। लेफिन सन्तान न हुई। तब रानी ने अपने मन में सोचा- 'राज-पाट और धन-धाम से क्या लाभ है जब मेरी गोद सूनी पड़ी है। रानी बन कर बाँझ होने से तो पत्थर बनना अच्छा था। तब तो मुझे बाँझ की उपाधि न मिलती!"

उस नगर से थोड़ी दूर पर भद्रगिरि नामक एक पहाड़ था। उस पहाड़ पर मद्रदन्त नामक एक मुनि तपस्या में लीन रहा करते थे। इसीलिए उस पहाड़ का नाम भद्रगिरि पड़ गया था।

रानी ने सोचा- "मैं जाऊँ उस पहाड़ पर। मुनि के पैरों पड़ कर अपना दुखड़ा सुनाऊँ। शायद उन्हें दया आ जाए और कोई न कोई उपाय बता दें।"

उसने अपने मन की बात राजा से कही। राजा ने तुरन्त उसकी इच्छा के अनुसार प्रबन्ध कर दिया। फिर शुभ मुहूर्त देख कर रानी भद्रगिरि पहाड़ के लिए चल पड़ी। आगे-आगे कुछ घुड़ सवार चल रहे थे। रानी की पालकी बीच में थी। उसके पीछे बहुत-सी दासियाँ थीं।

रानी की सवारी देखने के लिए शहर के सभी स्त्री-पुरुष, बाल-बच्चे घरों से बाहर निकल आए। थोड़ी ही देर में रानी पहाड़ के पास जा पहुँची। उसने घुड़सवारों और दासियों को वहीं पहाड़ के नीचे छोड़ दिया। स्वयं तीन दासियों को साथ लेकर यह पहाड़ पर चड़ने लगी। बेचारी को कमी पैदल चलने का अभ्यास तो था नहीं। इसलिए उसके पैरों में छाले पड़ गए और जल्दी ही उसकी साँस फूलने लगी। लेकिन उसने हिम्मत न हारी और बहुत मुश्किल से वहाँ चढ़ी जहाँ मुनि भद्रदन्न तपस्या कर रहे थे।

मुनि निश्चल समाधि में बैठे थे। उनके चारों ओर लता-बेलें छा गई थीं। उनके चालों में चिड़ियों ने घोंसले बना लिए थे। । मास-फूस इस तरह उग आई थी कि मुनि उनसे ढकसे गए थे और पहचानना मुश्किल था। रानी बड़ी सावधानी से उनके पास पहुंची और प्रणाम किया। लेकिन मुनि अपने ध्यान में डूबे हुए थे। उन्हें दुनिया की कोई खबर न थी। इसलिए न वे हिले, न जुले और न उनकी नज़र ही खुली। रानी चुपचाप खड़ी रही। उनके ध्यान में कोई बाधा न डाली। यह डर रही थी कि कही मुनि गुस्सा न हो जाएँ।

थोड़ी देर तक सोच विचार कर उनको जगाने के लिए उसने एक उपाय किया। उसने एक हाँडी में थोड़ा पानी और चावल मैंगाया। फिर उसने दो पत्थर लाकर उन पर हाँडी चढ़ा दी और तीसरे पत्थर के बदले अपना घुटना टिका दिया। तब उसने हॉडी के नीचे आग सुलगा दी। थोड़ी देर में आग भडक उठी। उसका घुटना जल गया। उसने चीख कर अपना घुटना खींच लिया। हाँडी नीचे दुलक गई और चावल जमीन पर बिखर गए।

तुरन्त मुनि भद्रदन्त ने आँखें खोल कर कहा-"बेटी! तुम किसी राज-घराने की नारी मालूम होती हो। शायद तुम्हें कभी अपने हाथों रसोई बनाने की आदत नहीं हो। इसीलिए तुम्हें चूल्हा सुलगाना नहीं आता है। जाओ, और एक पत्थर ले आओ और तीनों पर हाँडी चढ़ाओ। इस तरह तो घुटना ही जला लोगी!"

रानी यही चाहती थी। वह मन ही मन खुश हुई और मुनि को फिर दण्डवत करके अपनी राम-कहानी सुनाने लगी। अन्त में औचल फैला कर, चरणों में माया टेक कर वह बोली-

“मुनिवर ! कोई ऐसा उपाय बताने की कृपा कीजिए जिससे मैं सन्तान का मुंह देख सकूँ।“

 "लेकिन तुम्हारे भाग्य में सन्तान तो है नहीं।" मुनि ने कुछ सोच कर कहा।

यह सुनते ही रानी मूर्छित हो कर गिर पड़ी। उसकी यह दशा देख कर मुनि को दया आ गई। उन्होंने ध्यान लगा कर देखा तो मालूम हुआ कि रानी के सन्तान तो हो सकती है। लेकिन उसमें माता-पिता की जान का खतरा है। अगर लड़की हुई तो माता के प्राण न बचेंगे और लड़का हुआ तो पिता की जान खतरे में पड़ेगी। यह सब उन्हें साफ़-साफ दीख पड़ा। लेकिन उन्होंने रानी से यह सब नहीं बताया। वे बोले-

"बेटी| यहाँ से थोड़ी दूर पर उत्तर की ओर सांपों के राजा नागेन्द्र की बाँधी है। उसके चारों ओर चार बड़े-बड़े साल के पेड़ हैं। उनके बीच में बाँधी है और ठीक बाँधी के अपर एक आम का पेड़ है। उस पेड़ में बहुत से आम फले हुए हैं। तुम वहाँ जाकर पहले बाँधी की प्रदक्षिणा करना। फिर उस पेड़ से सात फल तोड़ना। घर जाकर नदी में स्नान कर उन सातों आमों का रस निचोड़ कर पी जाना। अवश्य तुम्हारी कामना पूरी होगी।"

रानी मुनि को प्रणाम करके बड़ी खुशी के साथ यहाँ से चली और सीधे नागेन्द्र की बाँधी के पास पहुंची। चारों ओर चार सालके पेड़ थे। बीच में बाँधी और बाँधी पर उगा हुआ एक आम का पेड़। पेड़ की डालियाँ फलों से लदी हुई थीं। रानी ने भक्ति-भाव से बाँधी की प्रदक्षिणा की और पेड़ पर चढ़ गई। लेकिन जल्दी में वह मुनि की हिदायत भूल गई और आँचल भर फल तोड़ कर नीचे उतरी।

उतरते ही उसे मुनि की बात याद हो आई। घबरा कर उसने गिन कर देखा तो आँचल में सात ही फल निकले। उसे सन्तोष न हुआ। लालच के मारे वह फिर पेड़ पर चढ़ गई और आँचल भर पल तोड़ लाई । लेकिन नीचे उतर कर देखा तो फिर सात के सात ही निकले।

वह तीसरी बार फिर पेड़ पर चढ़ी और फल तोड़ने लगी। एकाएक धरती डोल उठी और पेड़ झुलने लगा। रानी के हाथ-पैर ढीले पड़ गए। बाँधी में से बारह फन वाला नागेन्द्र क्रोध से फुतकारता बाहर निकला और आम के पेड़ पर चढ़ने लगा। यह देख कर रानी के प्राण सूख गए।

"कौन हो तुम, जो बिना मेरी इजाजत मेरे पेड पर चढ रही हो और फल तोड़ रही हो?देखि अब कैसा दंड मिलता है तुमको !" नागेन्द्र सरसराता पेड़ पर चढ़ रहा था।

"हाय रे मगवान! तुमने क्या किया ! अभी तो मेरी कामना पूरी नहीं हुई। मैंने जिसके लिए इतना कष्ट उठाया उस सन्तान का मुँह तो देखा ही नहीं! मैं निसन्तान ही मरने जा रही हैं।

“हे नागेन्द्र! मेरी प्रार्थना सुनो! अपराध का दण्ड तो मुझे दो। लेकिन इतनी कृपा करो कि अभी मुझे छोड़ दो। जब मैं सन्तान का मुँह पहली बार देख लेंगी तब से नौ महीने के बाद शेष-पूनों को आकर मुझे डस लेना। तब तक तो मेरी जान बचा दो।" रानी ने कातर हो कर कहा।

बहुत अच्छा, तू जा ,मैं तेरी बात माने लेता हूँ। तुम्हारे सात लडकियाँ होंगी। सबसे छोटी लड़की को मेरा नाम रख देना। लेकिन अपना वादा भूलना मत" नागराज ने कहा।

"हाय! नागराज! तो क्या सभी लड़कियाँ ही होंगी। क्या मेरे भाग्य में लड़का नहीं लिखा है। कम से कम एक लड़का तो दे दो।" रानी ने बड़ी दीनता  से कहा।

 

" लेकिन अगर लड़का हुआ तो तुम्हें अपने सुहाग से हाथ धोना पड़ेगा।' नागेन्द्र ने कहा।

तब मुझे लड़कियों ही दो। मैं सुहागिनी रह कर ही मरु। क्या लड़कियों से वश नहीं चलता?" रानी ने कहा। नागेन्द्र रानी को वादे की याद दिला कर अपने बिल में चला गया।

रानी के मन की सारी चिन्ता दूर हो गई। यह खुशी-खुशी नीचे उतर आई और दास दासियों के साथ नगर को लौट पड़ी। रानी के लौट आने की खबर सुन कर राजा बड़े आनन्द से अगवनी करने आया। वह उसे चड़ी धूम-धाम के साथ महल में ले गया।

दूसरे दिन रानी ने नहा धोकर एक सोने की कटोरी में सातों आमों का रस निचोड़ा और मन ही मन मुनि भद्रदन्त और नागेन्द्र का नाम ले कर उसे पी मई। रस पीने के छ: घडी बाद रानी के गर्भ रह गया। उसका मुँह पीला पड़ गया। सातवीं घड़ी में रानी को प्रसव-पीडा आरंभ हुई। अनेकों चतुर दाइयों ने आकर रानी की देख-भाल की। आठवी घड़ी में रानी के सात लड़किया पैदा हुई। राजा ने तुरन्त शहर भर में खुशियों मनाने का हुक्म दे दिया। लड़कियों के जन्म के तीन महीने बाद

राजा ने राज भर में पूजापाठ करवाया। पुरोहित ने आकर राजा की सातों लड़कियों का नामकरण किया। बड़ी का गुणवत्ती, दूसरी का रूपवती, तीसरी का भाग्यवती, चौथी का हेमवती, पाँचवीं का सुखवती, छठी का बुद्धिवती और सबसे छोटी का नाम नागवती रखा गया।

लड़कियों के चाँद से मुखड़े देखती, हँसती-खेलती रानी दीन-दुनियों को भूल गई। बेचारी को बिलकुल होश न रहा कि दिन बीत चले हैं। एक दिन उसने पुरोहित से पूछा कि शेष-पूनों कब है। पुरोहित ने पत्रा देखकर उत्तर दिया-

"आज से तीसरे दिन।“

सुनते ही रानी सिर से पाँव तक कॉप उठी। तीन दिन के बाद नागेन्द्र आकर उसके प्राण हर लेगा। फिर उसकी फूल सी कोमल संतान की देखभाल कौन करेगा! अगर राजा दूसरा ब्याह कर ले! तब तो सौतेली माँ इनके लिए नागिन बन जाएगी। हाय भगवान ! इन अनाथ बच्चियों की क्या दशा होगी? यह सोच कर रानी ने राजा को बुलावा भेजा और उससे सारी कहानी कह दी। अन्त में यह भी कह दिया कि अब उसकी जिन्दगी के तीन ही दिन बाकी है।

यह सुनते ही राजा पर मानों गाज गिरी। मूर्छित हो कर बह वहीं गिर पड़ा।

राजा को इस हालत में देख कर मन्त्रियों ने कहा-"महाराज ! आप कुछ चिंता न करें। हम ऐसा उपाय करेंगे कि नागेन्द्र रानी जी का बाल भी बांका न कर सकेगा।"

फिर मन्त्रियों ने बीच बाजार में दो बहुत ऊँचे खम्भे गड़वाए। एक सोने का सन्दूक बनवा कर उन खम्भो से लटका दिया। उस सन्दूक में रानी लेट गई। उसे चारों तरफ से बन्द करके ताला जड़े दिया गया। फिर उन खम्भों के चारों तरफ बड़ी गहरी खाइयाँ खोद कर उनमें तेल मर दिया गया और उसमें आग लगा दी गई। शहर के सभी दरवाजे मजबूती से बन्द कर दिए गए और सैकड़ों हथियार-बन्द सिपाही घूम घूम कर पहरा देने लगे। सारा शहर सावधान था।

सब यही सोच रहे थे—'देखें, अब नागेन्द्र कैसे आता है और रानी को कैसे डसता है।'

 

शेष-पूनों आई। नागेन्द्र बहुत देर तक रानी की राह देखता रहा। लेकिन जब यह नहीं आई तो उसे बड़ा गुस्सा आया। यह अपने चारहों फन फैला कर फुतकार उटा। फिर सरसराता नगर की तरफ चला। दूर से वहाँ की तैयारियाँ देख कर उसके गुस्से का वारपार न रहा।

सूक्ष्म-रूप धारण कर वह उड़ा और सीधे रानी के सन्दूक में जा पहुंचा।

“अरी विश्वास-घातिनी! तूने सिर्फ़ अपना वादा ही नहीं तोड़ा। उलटे मुझे मरवाने की कोशिश की ! बोल-चुप क्यों हो गई!" नागेन्द्र ने जीभ लप-लपा कर कहा।

“नागराज! इसमें मेरा कोई अपराध नहीं। यह सब मेंरी इच्छा के विरुद्ध हुआ है। मैं तो अपना वादा पूरा करना ही चाहती थी।" रानी ने साहस बटोर कर कहा।

किन्तु उसी समय उसे अपनी उन अबोध बचियों की याद आ गई और वह वहीं मूर्छित होकर गिर पड़ी।

 
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