किसी समय सौराष्ट्र में गिरनार के पास मोहन नाम का एक गरीब लड़का रहा करता था । वह जिस जगह रहता था वह पहाड़ों से भरी थी। लोगों का कहना था कि उन पहाड़ों में एक पर बड़ी अजीब अजीब चीजें नज़र आती हैं। इसलिए मोहन हर रोज़ उन पहाड़ों पर घूमने जाता था।

 

इस तरह बहुत दिन तक घूमने के बाद उसे एक जगह एक गुफ़ा दिखाई दी। उस पर एक चट्टान किवाड़ की तरह भिड़ाई हुई थी। मोहन खड़ा खड़ा सोचने लगा कि अन्दर कैसे जाऊँ? इतने में किसी के आने की आहट सुन पड़ी। मोहन एक जगह छिप कर बैठ गया और देखने लगा कि कौन कहाँ जाता है!

 

थोड़ी देर में एक बूढ़ा वहाँ आया और उस दरवाज़े के सामने खड़ा होकर बोला

 

'रघु आया, खोल किवाड़! रघु आया, खोल किवाड़! रघु आया, खोल किवाड़!'

 

बस, दरवाज़ा खुल गया और बूढ़े ने अन्दर प्रवेश किया। थोड़ी देर बाद उसने फिर बाहर आकर कहा-

 

'रघु जाता, लगा किवाड़! रघु जाता, लगा किवाड़! रघु जाता, लगा किवाड़!'

 

बस, दरवाज़ा बन्द हो गया और बूढ़ा चला गया। बूढ़े के आँखों से ओझल होते ही मोहन लपक कर उस दरवाज़े के पास पहुँचा और बोला

 

'मोहन आया, खोल किवाड़!'

 

लेकिन किवाड़ न खुले। तब उसे याद आया कि बूढ़ा तीन बार बोला था। वह भी और दो बार बोला। बस, तुरन्त किवाड़ खुल गए। मोहन ने खुशी खुशी अन्दर प्रवेश किया। बड़ी विशाल गुफ़ा थी वह । देखने में एक नली सी गोल जान पड़ती थी। चारों ओर चट्टान ही चट्टान नज़र आती थी वहाँ छ: टीले थे जो गुफा की दीवारों से सटे हुए थे। और एक टीला बीचों बीच था।

 

वहाँ पहुँचते ही मोहन को एक सङ्गमर्मर का पत्थर दिखाई दिया। मोहन ने ज्यों ही उस पर पैर रखा त्यों ही वह फिसल कर नीचे गिर पड़ा और सङ्गमर्मर से पैर लगते ही वह टीला ज़ोर से चक्कर मारने लग गया। देखते ही देखते वह टीला ज़मीन के अन्दर घुस गया और उस जगह एक बड़ा सूराख बन गया।

 

अब मोहन के मन की उत्सुकता और भी बढ़ गई। क्योंकि उस सूराख में नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। मोहन उन सीढ़ियों पर से जल्दी जल्दी नीचे उतर गया। नीचे जाने पर उसे एक बहुत बड़ा दरवाज़ा और उसमें लगे हुए काठ के किवाड़ दिखाई दिए। इस दरवाज़े पर भी मोहन ने तीन बार मन्त्र पढ़ा। तब किवाड़ खुल गए और उसे राह मिल गई।

 

दरवाज़ा खुलते ही उसे बड़ी तेज़ रोशनी दिखाई दी। उस रोशनी में तरह तरह की किरणें थीं। एक एक किरण एक एक रङ्ग की थी। जब जब किरणें ज़मीन पर पड़तीं, तब तब रङ्ग बदल जाते और देखने में बहुत सुहावने लगते। इन रङ्गीले किरणों को जी भर कर देखने के बाद मोहन चार कदम आगे बढ़ा तो उसे और एक दरवाज़ा दिखाई दिया। इसमें जो किवाड़ लगे हुए थे उन पर तरह तरह के बेल बूटे कढ़े हुए थे। मोहन ने तीन बार  किवाड़ खोलने को कहा तो किवाड़ खुल गए।

 

अन्दर जाने पर उसे एक सुन्दर बाग दिखाई दिया। उसमें तरह तरह के पेड़ पौधे लगे हुए थे। तरह तरह के फूल खिल रहे थे और तरह तरह के पशु पक्षी स्वच्छन्द होकर विचर रहे थे। उस बगीचे के बीचोबीच गुलर का पेड़ था! और उसके निचे श्री दत्तात्रेय का स्थान था| यह सब देख कर मोहन का वहाँ से लौटने का मन न हुआ। परन्तु एक तरफ तो उसे भूख लग रही थी। दूसरी तरफ़ यह डर भी लग रहा था कि कहीं कोई आकर न पकड़ ले। इसलिए मोहन सावधानी से मन्त्र पढ़ कर, तीनों दरवाज़े बन्द करके वाहर आया और घर की ओर लौट चला।

 

घर लौटने के बाद मोहन ने जो जो अजीब बातें देखीं थीं, जाकर सब अपनी नानी से कह सुनाई। नानी को मोहन से बहुत प्रेम था।  क्योंकि वही उसका सब कुछ था । वह हर बात में मोहन की मदद करती थी। नानी ने सब सुनकर तुरंत पहचान लिया की वह समर्थ रघुवीर के श्री दत्तात्रेय के स्थान पर जाकर आया हैं जो हिमालय मैं मौजूद हैं और उसके दर्शन बहुत दुर्लभ हैं| गिरनार के उस ख़ुफ़िया गुफा से वहा पहुचने की सुरंग बनी हैं जो सिर्फ पुण्यवान आत्मा होते हैं सिर्फ  वह उधर प्रवेश कर पाते हैं| यह सारा हाल सुनने के बाद नानी ने प्यार से पूछा

 

'बेटा मोहन! क्या वे चमत्कार मुझे नहीं दिखाओगे!'

 

नानी कभी उससे कुछ माँगती न थी। इसलिए मोहन उसकी बात न टाल सका।  दूसरे दिन वह उसे अपने साथ लेकर चला। उसने अपनी नानी से पहले ही बता दिया था कि गुफा देखने में खौफनाक होगी, लेकिन उससे डरना नहीं चाहिए। मन्त्र पढ़ कर उसने दरवाज़े खोले । अन्दर टीले वगैरह देख कर बूढ़ी पहले तो डर गई। लेकिन मोहन ने उसे धीरज बँधाया। रङ्गीन किरणें देख कर उसकी आँखें चौंधियाने लगीं। लेकिन बाग में जाकर जब उसने पेड़-पौधे, फल-फूल देखे तो उसके अचरज का ठिकाना न रहा। गुलर के पेड़ के निचे श्री दत्तात्रेय का स्थान देख नानी दंग रह गयी|

 

सब कुछ दिखाने के बाद मोहन ने लौटने की सोची। लेकिन चार कदम चल कर उसने पीछे घूम कर देखा तो नानी गायब थी। मोहन ने सारी गुफा छान डाली। ज़ोरज़ोर से पुकारा । लेकिन कहीं आहट न पाई। फिर वह घबरा कर घर की तरफ़ दौड़ा। उसने सोचा

 

'शायद वह मुझसे पहले ही घर पहुँच गई हो।' लेकिन नानी वहाँ नहीं थी।

 

तब वह फिर गुफ़ा की तरफ दौड़ा और पागल की तरह इधर उधर भटकने लगा। जब कुछ नहीं सूझा तो जाकर मन्त्र पढ़ कर दरवाज़ा खोलना चाहा। लेकिन इस बार दरवाज़ा नहीं खुला। अब मोहन को सचमुच बड़ा डर लगने लगा।

 

इतने में वह बूढ़ा साधू समर्थ रघुवीर जो उसे पहले दिन दिखाई दिया था, उसके सामने आ खड़ा हुआ। उसने कहा-

 

'नादान लड़के! अब तुम अपनी नानी को न पा सकोगे। तुम चोरी से इस गुफा में घुस आए थे; आगे कोई इस तरह न घुस पाए, इसलिए मैंने तुम्हारी नानी को रखवाली का काम सौंपा है। जो श्री दत्तात्रेय की परम भक्त हैं अब तुम जाते क्यों नहीं?' उसने डाँट कर कहा।

 

मोहन ने गिड़गिड़ा कर कहा

 

‘समर्थ रघुवीर ! मैं नानी के बिना एक पल भी नहीं रह सकता। मुझे छोड़ कर वह भी नहीं रह सकती। इसलिए दया कर उसे छोड़ दो। अपराध मेरा है। जो दण्ड देना हो मुझे दो। उसे इस बार किसी तरह माफ़ कर दो। फिर कभी तुम्हारी इजाज़त के बिना इस गुफा में कदम नहीं रखेंगे।'

 

इस पर समर्थ रघुवीर को तरस आ गया और उसने कहा

 

'लड़के! मैं उसे छोड़ नहीं सकता। लेकिन तुम बहुत गिड़गिड़ा रहे हो; इसलिए साल में एक बार आकर उसे देख लिया करो, इसकी इजाज़त देता हूँ। तुम मेरी बात पर विश्वास करो। वह तुम्हारे लिए ज़रा भी सोच नहीं कर रही है। बूढ़ी बहुत सुख से है। क्योंकि मैंने उससे कह दिया है कि तुम राजा के दामाद बनोगे। यह बात सुनते ही वह बिलकुल निश्चिन्त हो गई है।‘

 

उसकी बात सुन कर मोहन ने अचरज के साथ पूछा

 

'समर्थ रघुवीर! आप मेरी हँसी क्यों उड़ा रहे हैं ? मैं कहीं का कङ्गाल, राजा का दामाद कैसे बनूँगा ?'

 

'लड़के! मेरी बात कभी झूठी नहीं होती। तुम कुछ चिन्ता न करो ! पहले यहाँ से चले जाओ!'

 

यह कह कर समर्थ रघुवीर ने उसको वहाँ से ज़बर्दस्ती भगा दिया। समर्थ रघुवीर की बात पर चाहे विश्वास हो या न हो, उसके किए कुछ नहीं हो सकता था। इसलिए मोहन घर लौट आया और किसी तरह दिन बिताने लगा। वह हर साल एक बार जाकर अपनी नानी को देख आता। इस तरह उसके जीवन के सोलह साल बीत गए और वह जवान बन गया ।

 

मोहन के पड़ोस में एक गरीब परिवार रहता था। वे जङ्गल से लकड़ियाँ चुन लाते और उन्हें बेच कर अपनी जीवनी चलाते थे । उन बेचारों के कोई सन्तान न थी। एक दिन वह लकड़हारा जङ्गल में लकड़ियाँ लाने गया था कि उसे एक झाड़ी में किसी बच्चे के रोने की आवाज़ सुनाई दी। जाकर देखने पर उसे एक बड़ी खूबसूरत लड़की दिखाई दी। भगवान की देन समझ कर वह उस बच्ची को घर लाकर पालने लगा।

 

धीरे धीरे जब वह लड़की सयानी हुई तो उसने उसका मोहन के साथ ब्याह कर दिया। क्योंकि मोहन भी पड़ोस में ही रहता था और लोग उसकी बड़ी बड़ाई करते थे। मोहन अपनी पत्नी के साथ सुख से दिन बिता रहा था|

 

एक दिन उसके घर एक दम्पति मेहमान बन कर आए। मोहन ने उन्हें आसन पर बिठाया और खातिर की मोहन की स्त्री अन्दर से पीने के लिए पानी ले आई। उसके देहली पर कदम रखते ही मेहमान की स्त्री उसकी ओर गौर से देखने लगी। नज़दीक आने पर उसने और भी गौर से देखा। न मालूम क्यों, मोहन की पत्नी का हृदय भी उसकी ओर खिंच रहा था। दोनों के दिलों में एक तरह की अज्ञात खलबली मच रही थी।

 

अचानक मोहन की स्त्री को उस नई आई हुई औरत ने गले से लगा कर माथा चूम लिया। तब मोहन की स्त्री को बहुत अचरज हुआ। यह देख कर उस मेहमान ने भी मोहन की स्त्री के सिर पर हाथ फेरा। तब उसे उसके बालों मे बिलकुल बिचोबीच एक मस्सा नजर आया जो आसानी से दिखाई नाही देता| वह मस्सा उनकी खोई हुई संतान का जन्म चिन्ह था|

 

वे दोनों  'मेरी बेटी! मेरी बेटी! कह कर बड़े आनन्द से उस लडकी को जी भर कर देखने लगे. उनके आंसू निकल आये|

 

यह सब पहले मोहन की समझ में न आया । इतने में बहुत से दरबारी और नौकर चाकर सब वहाँ आ गए। तब उन दम्पति ने मोहन की स्त्री को उन सब को दिखा कर कहा

 

'हमारी बिटिया मिल गई। अब हमारे सारे कष्ट दूर हो गए।'

 

यह सुन कर सब लोगों ने अपनी खुशी जाहिर की। तब मोहन की समझ में आ गया कि वे दोनों राजा रानी हैं और उसकी स्त्री उनकी बेटी है।

 

तब राजा ने मोहन को बुला कर कहा

 

'बेटा! बारह साल पहले हमारी लाड़ली बिटिया खो गई थी। इकलौती होने के कारण हम इसे बड़े लाड़ प्यार से पालते थे और बहुत से गहने पहनाते थे। कोई चोर डाकू इसे उठा ले गए होंगे। उन्होंने गहने छीन कर इसे जङ्गल में छोड़ दिया होगा। उस दिन से हम छद्म वेष धारण कर इसकी खोज करते ही आ रहे हैं। आज हमारा श्रम सफल हुआ। सचमुच हमारे भाग्य अच्छे हैं।'

 

'यह वास्तव में मेरा सौभाग्य है!" मोहन ने आनन्द से कहा।

 

उसी दिन मोहन को अपनी नानी को देखने भी जाना था। इसलिए वह अपनी पत्नी, राजा रानी और दरबारियों को भी अपने साथ ले गया और उन्हें गुफ़ा के चमत्कार  दिखाए। नानी ने मोहन और उसकी पत्नी को आशीर्वाद दिया।

 

मोहन समर्थ रघुवीर दादा को प्रणाम करके कहने लगा

 

'पहले मुझे आपकी बात पर विश्वास नहीं हुआ था। लेकिन वह सच निकली।'

 

समर्थ रघुवीर तब मुसकुराने लगे और उन्होंने नव दम्पति को आशीर्वाद दिया। अन्त में सब लोग खुशी खुशी राज महल को लौट गए।

 

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