मोमिन बहुत बेचैन था। पिछले कुछ दिनों से उसका वजूद कच्चे फोड़े सा बन गया था। काम करते वक्त, बातें करते वक्त, यहाँ तक कि सोचते  वक्त भी, उसे अजीब किस्म का दर्द महसूस होता था ऐसा दर्द जिसको वह बयान करना चाहता भी, तो न कर सकता। कभी कभी, बैठे बैठे, वह एकदम चौंक पड़ता। धुंधले धुंधले खयालात, जो आम हालातों में बेआवाज़ बुलबुलों की तरह पैदा होकर मिट जाया करते हैं, मोमिन के दिमाग में बड़े शोर के साथ पैदा होते और शोर ही के साथ फटते। उसके दिलोदिमाग के नर्म नाज़ुक पदों पर हर वक्त, जैसे कँटीले पैरों वाली चींटियाँ सी रेंगती रहती थीं।

एक अजीब किस्म का खिंचाव  उसके अंगों में पैदा हो गया था, जिसकी वजह से उसे बहुत तकलीफ़ होती थी। इसी तकलीफ़ की शिद्दत जब बढ़ जाती तो उसके जी में आता कि अपने आपको एक बड़ी सी ओखली में डाल दे और किसी से कहे

“मुझे कूटना शुरू कर दो।"

बावर्चीखाने में, गर्म मसाला कूटते वक्त, जब लोहे से लोहा टकराता और धमक से छत में एक गूंज सी दौड़ जाती तो मोमिन के नंगे पैरों को यह कँपकँपी बड़ी भली लगती। पैरों से होती हुई यह कँपकँपी, उसकी तनी हुई पिंडलियों और रानों में दौड़ती हुई उसके दिल तक पहुँच जाती, जो तेज़ हवा में रखे हुए दीये की लौ सा काँपने लगता।

मोमिन की उम्र पन्द्रह बरस की थी। शायद सोलहवाँ भी लगा हो। उसे अपनी उम्र के बारे में सही अन्दाज़ा नहीं था। वह एक सेहतमंद और तन्दुरुस्त लड़का था, जिसका बचपन तेज़ी से जवानी के मैदान की तरफ़ भाग रहा था। इस दौड़ ने जिसमें मोमिन बिलकुल अनजान था, उसके खून की हर बूंद में सनसनी पैदा कर दी थी। वह उसका मतलब समझने की कोशिश करता, पर नाकाम रहता।

उसके जिस्म में कई तब्दीलियाँ पैदा हो रही थीं। गर्दन, जो पहले पतली थी, अब मोटी हो गयी थी। बाँहों के पुट्ठों में ऐंठन सी पैदा हो गयी थी। कंठ निकल रहा था। छाती पर मांस की तरह मोटी हो गयी थी और अब कुछ दिनों से उसकी छातियों में गोलियाँ सी पड़ गयी थीं। जगह उभर आयी थी, जैसे किसी ने एक एक बण्टा अन्दर दाखिल कर दिया हो। उन उभारों को हाथ लगाने पर मोमिन को बहुत दर्द महसूस होता था। कभी-कभी, काम करने के दौरान अचानक जब उसका हाथ उन गोलियों से छू जाता तो वह तड़प उठता। कमीज़ के मोटे और खुरदरे कपड़े से भी उसको तकलीफ़देह सरसराहट महसूस होती थी।

गुसलखाने में नहाते वक्त या बावर्चीखाने में, जब कोई और मौजूद न हो, मोमिन अपनी कमीज़ के बटन खोलकर उन गोलियों को गौर से देखता, हाथों से मसलता, दर्द होता, टीसें उठतीं। सारा जिस्म फलों से लदे हुए दरख्तों की तरह, जिसे ज़ोर से हिला दिया गया हो, काँप- काँप जाता, इसके बावजूद, वह दर्द पैदा करने वाले इस खेल में मशगूल रहता। कभी-कभी ज़्यादा दबाने पर, वे गोलियाँ पिचक जातीं और उसके मुँह से एक लेसदार लुआब निकल आता। उसको देखकर, उसका चेहरा कान की लवों तक सुर्ख हो जाता।

वह यह समझता कि उससे कोई गुनाह हो गया है। गुनाह और सबाब के बारे में मोमिन की जानकारी बहुत थोड़ी थी। हर वह काम, जो एक इन्सान दूसरे इन्सानों के सामने न कर सकता हो, उसके खयाल के मुताबिक गुनाह था। इसीलिए जब शर्म के मारे उसका चेहरा कान की लवों तक सुर्ख हो जाता तो वह झट अपनी कमीज़ के बटन बन्द कर लेता और मन में फ़ैसला करता कि आइन्दा ऐसी फिजूल हरकत कभी न करेगा। लेकिन इस इरादे के बावजूद, दूसरे या तीसरे दिन, तनहाई में वह फिर उस खेल में मशगूल हो जाता।

मोमिन से सब घरवाले खुश थे। बड़ा मेहनती लड़का था। जब हर काम वक्त पर कर देता था तो किसी को शिकायत का मौका कैसे मिलता? डिप्टी साहब के यहाँ उसे काम करते हुए सिर्फ तीन महीने हुए थे, लेकिन इस थोड़े से अर्से में, उसने घर के हर आदमी को अपने मेहनती मिज़ाज से प्रभावित कर दिया था। छह रुपये महीने पर नौकर हुआ था, पर दूसरे महीने ही उसकी तनख्वाह में दो रुपये बढ़ा दिये गये थे। वह उस घर में बहुत खुश था, इसलिए कि यहाँ उसकी कदर की जाती थी।

पर अब कुछ दिनों से वह बेकरार था। एक अजीब किस्म की आवारगी उसके दिमाग में पैदा हो गयी थी। उसका जी चाहता था कि सारा दिन, बेमतलब, बाज़ारों में घूमता फिरे या किसी सुनसान जगह पर लेटा रहे। अब काम में उसका जी न लगता था। लेकिन इस बेदिली के होते हुए भी, वह अपने काम में कोताही नहीं बरतता था। यही वजह थी कि घर में कोई भी, उसकी इस मानसिक उथल पुथल से वाकिफ़ न था।

रज़िया थी, सो वह दिन भर बाजा बजाने, नयी नयी फ़िल्मी धुनें सीखने और रिसालें पढ़ने में मशगूल रहती थी, उसने कभी मोमिन की निगरानी ही न की थी। शकीला अलबत्ता मोमिन से इधर उधर के काम लेती थी और कभी कभी उसे डाँटती भी थी; पर अब कुछ दिनों से वह भी चन्द ब्लाउज़ों के नमूने उतारने में बेतरह मशगूल थी। ये ब्लाउज़ उसकी एक सहेली के थे जिसे नयी नयी काट के कपड़े पहनने का बेहद शौक था। शकीला उससे आठ ब्लाउज़ माँगकर लायी थी और कागज़ों पर उसके नमूने उतार रही थी। इसीलिए  उसने भी कुछ दिनों से मोमिन की तरफ़ ध्यान नहीं दिया था।

डिप्टी साहब की बीबी बदमिज़ाज औरत नहीं थी। घर में दो नौकर थे। यानी मोमिन के अलावा एक बुढ़िया भी थी, जो ज़्यादातर बावर्चीखाने का काम करती थी। मोमिन कभी कभी उसका हाथ बँटा दिया करता था। डिप्टी साहब की बीबी ने, मुमकिन है, मोमिन की मुस्तैदी में कोई कमी देखी हो, पर उसने मोमिन से इसकी चर्चा नहीं की। और वह इन्कलाब, जिसमें मोमिन का दिलदिमाग और जिस्म गुज़र रहा था, उससे तो डिप्टी साहब की बीबी बिलकुल अनजान थी। चूँकि उसका कोई लड़का नहीं था, इसलिए वह मोमिन के ज़हनी और जिस्मानी बदलावों को नहीं समझ सकती थी। और फिर मोमिन नौकर था नौकरों के बारे में कौन सोचता है?

बचपन से लेकर बुढ़ापे तक, वे तमाम मंज़िलें, पैदल तय कर जाते हैं और आसपास के आदमियों को खबर तक नहीं होती। मोमिन का भी बिलकुल यही हाल था। वह कुछ दिनों से अनेक मोड़ मुड़ता मुड़ता, ज़िन्दगी के ऐसे रास्ते पर आ निकला था जो ज़्यादा लम्बा तो नहीं था, पर खतरों से भरा था। इस रास्ते पर उसके कदम कभी तेज़ तेज़ थे, कभी धीरे धीरे।

वह, दरअसल, जानता नहीं था कि ऐसे रास्तों पर किस तरह चलना चाहिए! उन्हें जल्दी तय कर जाना चाहिए या कुछ वक्त लेकर, आहिस्ता आहिस्ता, इधर-उधर की चीज़ों का सहारा लेकर, तय करना चाहिए। मोमिन के नंगे पाँव के नीचे आने वाली जवानी की गोल गोल, चिकनी बट्टियाँ फिसल रही थीं। वह अपना तवाज़न बनाए नहीं रख पा रहा था। इसीलिए बेहद बेचैन था।

इसी बेचैनी की वजह से कई बार काम करते करते चौंककर, वह अचानक किसी खूटी को दोनों हाथों से पकड़ लेता और उसके साथ लटक जाता। फिर उसके मन में इच्छा होती कि टाँगों से पकड़कर उसे कोई इतना खींचे कि वह एक महीन तार बन जाए। ये सब बातें उसके दिमाग के किसी ऐसे कोने में पैदा होती थीं कि वह ठीक तौर पर उनका मतलब नहीं समझ सकता था।

अनजाने तौर पर वह चाहता था कुछ हो। क्या हो? वह कुछ हो। मेज़ पर करीने से चुनी हुई प्लेटें, एकदम उछलना शुरू कर दें। केतली पर रखा हुआ ढकना, पानी के एक ही उबाल से, ऊपर को उड़ जाये। नल की जस्ती नाली पर वह दबाव डाले तो वह दोहरी हो जाये और उसमें से पानी का एक फव्वारा सा फूट पड़े। उसे एक ऐसी ज़बरदस्त अंगड़ाई आये कि सारे जोड़ अलग अलग हो जायें और उसमें एक ढीलापन पैदा हो जाये कोई ऐसी बात हो जाये, जो उसने पहले कभी न देखी हो।

मोमिन बहुत बेचैन था। रज़िया नयी फ़िल्मी धुनें सीखने में मशगूल थी और शकीला कागज़ों पर ब्लाउज़ों के नमूने उतार रही थी। जब उसने यह काम खत्म कर लिया तो वह नमूना, जो उन सबमें अच्छा था, सामने रखकर, अपने लिए ऊदी साटन का ब्लाउज़ बनाने लगी। अब रज़िया को भी, अपना बाजा और फ़िल्मी गानों की कॉपी छोड़कर, उस ओर ध्यान देना पड़ा।

शकीला हर काम बड़े ढंग और चाव से करती थी। जब सीने पिरोने बैठती तो उसकी बैठक बड़ी इत्मीनान भरी होती थी। अपनी छोटी बहन, रज़िया की तरह वह अफ़रा तफ़री पसन्द नहीं करती थी। एक एक टाँका सोच समझकर बड़े इत्मीनान से लगाती थी ताकि भूल की गुंजाइश न रहे। नाप जोख भी उसकी बहुत सही थी। इसलिए कि पहले कागज़ काटकर, फिर कपड़ा काटती थी। यूँ, वक्त तो ज़्यादा खर्च होता, पर चीज़ बिलकुल फिट तैयार होती।

शकीला भरे भरे जिस्म की सेहतमंद लड़की थी। हाथ पाँव गुदगुदे थे। गोश्त भरी उँगलियों के आखिर में, हर जोड़ पर एक एक नन्हा गड्ढा था। जब मशीन चलाती थी तो ये नन्हे  नन्हे गड्ढे, हाथ की हरकत से कभी गायब हो जाते थे। शकीला मशीन भी बड़ी इत्मीनान से चलाती थी। आहिस्ता आहिस्ता, उसकी दो या तीन उँगलियाँ, बड़ी खूबसूरती के साथ मशीन की हत्थी घुमाती थीं। कलाई में एक हल्का सा ज़ोर पैदा हो जाता था, गर्दन ज़रा उस तरफ़ को झुक जाती थी और बालों की एक लट, जिसे शायद अपने लिए कोई पर्याप्त जगह न मिलती थी, नीचे फिसल आती थी। शकीला अपने काम में इतनी मशगूल रहती थी कि उसे हटाने या जमाने की कोशिश ही नहीं करती थी।

जब शकीला, ऊदी साटन सामने फैलाकर, अपनी नाप का ब्लाउज़ काटने लगी तो उसे टेप की ज़रूरत महसूस हुई क्योंकि उसका अपना टेप, घिस घिसाकर, बिलकुल टुकड़े टुकड़े हो गया था। लोहे का गज़ मौजूद था, पर उससे कमर और छाती की नाप कैसे ली जा सकती थी, उसके अपने कई ब्लाउज़ मौजूद थे, लेकिन अब चूँकि पहले से कुछ मोटी हो गयी थी, इसीलिए सारी नाप दोबारा लेना चाहती थी।

कमीज़ उतार कर उसने मोमिन को आवाज़ दी। जब वह आया तो उसने कहा-

“जाओ मोमिन, दौड़कर छह नम्बर के फ़्लैट से कपड़े का गज़ ले आओ। कहना शकीला बीबी माँगती”

मोमिन की निगाहें शकीला की सफ़ेद बनियान के साथ टकरायीं। वह कई बार शकीला बीबी को ऐसी बनियानों में देख चुका था। लेकिन आज उसे एक अजीब किस्म की झिझक महसूस हुई। उसने अपनी निगाहों का रुख दूसरी तरफ़ फेर लिया और घबराहट में कहा,

“कैसा गज़ बीबी जी?"

“कपड़े का गज़! एक गज़ तो यह तुम्हारे सामने पड़ा है, यह लोहे का है। एक दूसरा गज़ भी होता है, कपड़े का। जाओ, छह नम्बर में जाओ और दौड़कर उनसे वह गज़ ले आओ। कहना, शकीला बीबी माँगती हैं।" शकीला ने जवाब दिया

छह नम्बर का फ़्लैट बिलकुल करीब था। मोमिन फ़ौरन ही कपड़े का गज़ लेकर आ गया। शकीला ने यह गज़ उसके हाथ से ले लिया और कहा

“यहीं ठहर जाओ, इसे अभी वापस ले जाना।" फिर उसने अपनी बहन रज़िया से कहा,

“इन लोगों की कोई चीज़ अपने पास रख ली जाये तो वह बुढ़िया तगादे कर-कर के, परेशान कर देती है।...इधर आओ, यह गज़ लो और यहाँ से मेरी माप लो।"

रज़िया ने शकीला की कमर और सीने की माप लेनी शुरू की तो उनके बीच कई बातें हुईं। मोमिन दरवाज़े की दहलीज़ में खड़ा, तकलीफ़देह खामोशी से, ये बातें सुनता रहा।

“रज़िया, तुम खींचकर माप क्यों नहीं लेतीं? पिछली दफ़ा भी यही हुआ। तुमने माप लिया और मेरे ब्लाउज़ का सत्यानास हो गया। ऊपर के हिस्से पर अगर कपड़ा फिट न आये तो इधर-उधर बगलों में झोल पड़ जाते हैं।"

“कहाँ का लूँ, कहाँ का न लूँ!-तुम तो अजीब मुसीबत में डाल देती हो। यहाँ की माप लेनी शुरू की थी तो तुमने कहा, 'ज़रा और नीचे से लो'... ज़रा छोटा-बड़ा हो गया तो कौन-सी आफत आ जायेगी।"

“भई वाह...चीज़ के फ़िट होने में ही तो सारी खूबसूरती है। सुरैया को देखो, कैसे फिट कपड़े पहनती है। मजाल है, जो कहीं शिकन पड़े। कितने खूबसूरत मालूम होते हैं ऐसे कपड़े...अब तुम माप लो..."

यह कहकर शकीला ने साँस के ज़रिये अपना सीना फुलाना शुरू किया। जब अच्छी तरह फूल गया तो साँस रोककर, उसने घुटी-घुटी आवाज़ में कहा-

“लो अब जल्दी करो।"

जब शकीला ने सीने की हवा निकाली तो मोमिन को ऐसा लगा कि उसके अन्दर रबड़ के गुब्बारे फट गये हैं। उसने घबराकर कहा-

“गज़ लाइए बीबी जी...दे आऊँ।"

शकीला ने उसे झिड़क दिया

“ज़रा ठहर जाओ।"

यह कहते समय, कपड़े का गज़ उसके नंगे बाजू से लिपट गया। जब शकीला ने उतारने की कोशिश की तो मोमिन को उसकी सफ़ेद बगल में, काले काले बालों का एक गुच्छा नज़र आया। मोमिन की अपनी बगलों में भी ऐसे ही बाल उग रहे थे, पर यह गुच्छा उसे बहुत भला मालूम हुआ। एक सनसनी सी उसके सारे बदन में दौड़ गयी। एक अजीब सी इच्छा उसके मन में पैदा हुई कि ये काले काले बाल उसकी मूंछे बन जायें बचपन से वह भुट्टों के काले और सुनहरे बाल निकालकर, अपनी मूंछे बनाया करता था। उनको अपने ऊपरी होंठों पर जमाते समय जो सरसराहट उसे महसूस होती थी, उसी तरह की सरसराहट, इस इच्छा ने उसके ऊपरी होंठ और नाक में पैदा कर दी।

शकीला का बाजू अब नीचे झुक गया था और बगल छिप गयी थी, पर मोमिन अब भी काले काले बालों का वह गुच्छा देख रहा था। उसकी तसव्वुर में शकीला का बाजू, देर तक वैसे ही उठा रहा और उसके काले बाल बगल में झाँकते रहे। थोड़ी देर बाद शकीला ने मोमिन को गज़ दे दिया और कहा,

“जाओ, वापस दे आओ। कहना, बहुत बहुत शुक्रिया अदा किया है।"

मोमिन गज़ वापस देकर, बाहर सहन में बैठ गया। उसके दिलो दिमाग में धुंधले धुंधले खयाल पैदा हो रहे थे। देर तक वह उनका मतलब समझने की कोशिश करता रहा। जब कुछ  समझ में न आया तो उसने अचानक अपना छोटा सा ट्रंक खोला, जिसमें ईद के लिए नये कपड़े बनवाकर रखे थे। जब ट्रंक का ढकना खुला और नये लढे की बू उसकी नाक तक पहुँची तो उसके मन में ख्वाहिश हुई कि नहा धोकर और नये कपड़े पहनकर, वह सीधा शकीला के पास जाये और उसे सलाम करे उसकी लट्टे की सलवार किसी तरह फड़ फड़ करेगी और उसकी रूमी टोपी...रूमी टोपी का खयाल आते ही, मोमिन की निगाहों के सामने उसका फूंदना आ गया और फूंदना फ़ौरन ही उन काले बालों के गुच्छे में बदल गया जो उसने शकीला की बगल में देखा था।

उसने कपड़ों के नीचे से अपनी नयी रूमी टोपी निकाली और उसके नर्म और लचकीले दिने पर उसने हाथ फेरना शुरू किया ही था कि अन्दर से शकीला बीबी की आवाज़ आयी- “मोमिन।”

मोमिन ने टोपी ट्रक में रखी, ढकना बन्द किया और अन्दर चला गया, जहाँ शकीला नमूने के मुताबिक ऊदी साटन के कई टुकड़े काट चुकी थी। उन चमकीले और फिसल फिसल जाने वाले टुकड़ों को एक जगह रखकर, वह मोमिन से बोली,

“मैंने तुम्हें इतनी आवाजें दीं। सो गये थे क्या?"

मोमिन की ज़बान लड़खड़ाने लगी,

“नहीं...नहीं, बीबी जी।"

"तो क्या कर रहे थे?"

"कुछ...कुछ भी नहीं।"

“कुछ तो ज़रूर कर रहे होगे?"

शकीला सवाल किए जा रही थी, पर उसका ध्यान असल में ब्लाउज़ की ओर था, जिसे अब उसे कच्चा करना था। मोमिन ने खिसियानी हँसी के साथ जवाब दिया,

"ट्रंक खोलकर, अपने नये कपड़े देख रहा था।"

शकीला खिलखिलाकर हँस पड़ी। रज़िया ने भी उसका साथ दिया। शकीला को हँसते देखकर मोमिन को एक अजीब सा सुकून महसूस हुआ और इस सुकून ने उसके मन में यह ख्वाहिश पैदा की कि वह कोई ऐसी बेवकूफ़ाना हरकत करे, जिससे शकीला बीबी को और हँसने का मौका मिले। इसलिए लड़कियों की तरह झेंपकर और लहज़े में शरमाहट पैदा करके, उसने कहा,

“बड़ी बीबी जी से पैसे लेकर मैं रेशमी रूमाल भी लाऊँगा।"

शकीला ने हँसते हुए पूछा,

“क्या करोगे उस रुमाल का?"

मोमिन ने झेंपकर जवाब दिया,

“गले में बाँध लूँगा, बीबी जी...बड़ा अच्छा लगेगा।“

यह सुनकर शकीला और रज़िया, दोनों देर तक हँसती रहीं।

“गले में बाँधोगे तो याद रखना, उसी से फाँसी दे दूंगी।"

यह कहकर शकीला ने अपनी हँसी दबाने की कोशिश की और रज़िया से कहा,

“कमबख़्त ने मुझे काम ही भुला दिया।

रज़िया, मैंने इसे क्यों बुलाया था?"

 रज़िया जवाब न देकर उस नयी फ़िल्मी धुन को गुनगुनाने लगी, जिसे वह दो दिन से सीख रही थी। इस बीच शकीला को खुद ही याद आ गया कि उसने मोमिन को क्यों बुलाया था,

“देखो मोमिन, मैं तुम्हें यह बनियान उतारकर देती हूँ। दवाइयों की दुकान के पास जो एक नयी दुकान खुली है न वही, जहाँ उस दिन तुम मेरे साथ गये थे। वहाँ जाओ और पूछकर आओ कि ऐसी छह बनियानों का वह क्या लेगा...कहना हम पूरी छह लेंगे, इसलिए कुछ रिआयत ज़रूर करे...समझ लिया न?"

मोमिन ने जवाब दिया, “जी हाँ।”

“अब तुम परे हट जाओ।"

मोमिन बाहर निकलकर दरवाज़े की ओट में हो गया। कुछ लम्हों के बाद बनियान उसके पैरों के पास आ गिरी और अन्दर से शकीला की आवाज़ आयी,

“कहना, हम इसी किस्म की, इसी डिज़ाइन की, बिलकुल यही चीज़ लेंगे। फ़र्क नहीं होना चाहिए।"

मोमिन ने ‘बहुत अच्छा' कहकर, बनियान उठा ली, जो पसीने के कारण कुछ गीली हो रही थी जैसे उसे किसी ने भाप पर रखकर फ़ौरन हटा लिया हो। बदन की बू भी उसमें बसी हुई थी। मीठी मीठी गर्मी थी। ये सारी चीजें उसको बड़ी भली लगीं। उस बनियान को, जो बिल्ली के बच्चे की तरह मुलायम थी, वह अपने हाथों से मसलता, बाहर चला गया।

जब भाव ताव पूछकर बाज़ार से लौटा तो शकीला उस ऊदी साटन के ब्लाउज़ की सिलाई शुरू कर चुकी थी, जो मोमिन की रूमी टोपी के फंदने से कहीं ज़्यादा चमकीला और लचकदार था। यह ब्लाउज़ शायद ईद के लिए तैयार किया जा रहा था, क्योंकि ईद अब बिलकुल करीब आ गयी थी।

मोमिन को एक दिन में कई बार बुलाया गया। धागा लाने के लिए, इस्तरी निकालने के लिए, सूई टूट गयी तो नयी सूई लाने के लिए! शाम के करीब जब शकीला ने बाकी काम दूसरे दिन पर उठा दिया तो धागे के टुकड़े और ऊदी साटन की बेकार कतरनें उठाने के लिए भी उसे बुलाया गया।

मोमिन ने अच्छी तरह जगह साफ़ कर दी। बाकी सब चीजें उठाकर बाहर फेंक दीं, मगर साटन की चमकीली कतरनें अपनी जेब में रख ली...बिलकुल बेमतलब, क्योंकि उसे मालूम न था कि वह उनका क्या करेगा? दूसरे दिन उसने जेब से कतरनें निकाली और अकेले में बैठकर उनके धागे अलग करने लगा। देर तक वह इस खेल में लगा रहा, यहाँ तक कि धागों के छोटे बड़े टुकड़ों का एक गुच्छा सा बन गया। उसको हाथ में लेकर वह दबाता रहा, मसलता रहा लेकिन उसकी कल्पना में शकीला की वही बगल थी जिसमें उसने काले काले बालों का एक छोटा सा गुच्छा देखा था।

उस दिन भी उसे शकीला ने कई बार बुलाया ऊदी साटन के ब्लाउज़ की हर शक्ल उसकी निगाहों के सामने आती रही। पहले जब उसे कच्चा किया गया था तो उस पर सफ़ेद धागे के बड़े बड़े टाँके, जगह जगह फैले हुए थे। फिर उस पर इस्तरी की गयी, जिससे उसकी सब सिलवटें दूर हो गयीं और चमक भी दूनी हो गयी।

इसके बाद, कच्ची हालत, में ही शकीला ने उसे पहना, रज़िया को दिखाया। दूसरे कमरे में सिंगार मेज़ के पास जाकर, आईने में खुद को हर पहलू से अच्छी तरह देखा। जब पूरी तरह इत्मीनान हो गया तो उसे उतारा। जहाँ तहाँ तंग या खुला था, वहाँ निशान बनाए, उसकी सारी खामियाँ दूर कीं। एक बार फिर पहनकर देखा।

जब बिलकुल फ़िट हो गया तो पक्की सिलाई शुरू की। इधर साटन का यह ब्लाउज़ सिया जा रहा था, उधर मोमिन के दिमाग में अजीबोगरीब खयालों के टाँके से उधड़ रहे थे। जब उसे कमरे में बुलाया जाता और उसकी निगाहें चमकीली साटन के ब्लाउज़ पर पड़तीं तो उसका जी चाहता कि वह हाथ से छूकर उसे देखे..सिर्फ छूकर ही नहीं, बल्कि उसकी मुलायम और रोयेंदार सतह पर दूर तक हाथ फेरता रहे अपने खुरदरे हाथ। उसने उस साटन के टुकड़ों से उसकी कोमलता का अन्दाज़ा कर लिया था।

धागे, जो उसने उन टुकड़ों से निकाले थे, और भी ज़्यादा मुलायम हो गये। थे। जब उसने उनका गुच्छा बनाया तो दबाते वक्त उसे लगा था कि उनमें रबड़ की सी लचक भी है। वह जब भी अन्दर ब्लाउज़  को देखता, उसका खयाल फ़ौरन उन बालों की तरफ़ दौड़ जाता, जो उसने शकीला की बगल में देखे थे। काले-काले बाल। मोमिन सोचता था, 'क्या वे भी इस साटन की ही तरह मुलायम होंगे?'

आख़िरकार ब्लाउज़ तैयार हो गया। मोमिन कमरे के फ़र्श पर गीला कपड़ा फेर रहा था कि शकीला अन्दर आयी। कमीज़ उतारकर उसने पलंग पर रखी। उसके नीचे उसी किस्म की सफ़ेद बनियान थी, जिसका नमूना लेकर मोमिन भाव पूछने गया था उसके ऊपर शकीला ने अपने हाथ का सिला हुआ ब्लाउज़ पहना। सामने के हुक लगाए और आईने के सामने खड़ी हो गयी। मोमिन ने फ़र्श साफ़ करते करते, आईने की तरफ़ देखा। ब्लाउज़ में अब जान सी पड़ गयी थी। एक-दो जगह पर वह इतना चमकता था कि मालूम होता था, साटन का रंग सफ़ेद हो गया है

शकीला की पीठ मोमिन की तरफ़ थी, जिस पर रीढ़ की हड्डी की लम्बी झिरी ब्लाउज़ फिट होने के कारण अपनी पूरी गहराई के साथ नुमायाँ थी। मोमिन से रहा न गया, इसलिए उसने कहा,

“बीबी जी, आपने दर्ज़ियों को भी मात कर दिया है।"

शकीला अपनी तारीफ़ सुनकर खुश हुई, पर वह रज़िया की राय जानने के लिए बेचैन थी, इसलिए वह सिर्फ़ 'अच्छा है न?' कहकर बाहर दौड़ गयी। मोमिन आईने की तरफ़ देखता रह गया, जिसमें ब्लाउज़ का काला और चमकीला अक्स देर तक मौजूद रहा।

रात को, जब वह फिर उस कमरे में सुराही रखने के लिए आया तो उसने झूटी पर लकड़ी के हैंगर में उस ब्लाउज़ को देखा। कमरे में कोई मौजूद नहीं था। चुनांचे, आगे बढ़कर उसने पहले ध्यान से उसे देखा, फिर डरते डरते उस पर हाथ फेरा। ऐसा करते हुए उसे यूँ लगा कि कोई उसके जिस्म के मुलायम रोयें पर हौले हौले, बिलकुल हवाई लम्ज़ की तरह हाथ फेर रहा है।

रात को जब वह सोया तो उसने कई ऊटपटाँग सपने देखे डिप्टी साहब ने उसे पत्थर के कोयलों का एक बड़ा ढेर कूटने को कहा। जब उसने एक कोयला उठाया और उस पर हथौड़े की चोट लगाई तो वह नर्म-नर्म बालों का एक गुच्छा बन गया. ये काली खांड के महीन महीन तार थे, जिनका गोला बना हुआ था। फिर ये गोले, काले रंग के गुब्बारे बनकर, हवा में  उड़ने लगे बहुत ऊपर जाकर ये फटने लगे।...फिर आँधी आ गयी और मोमिन की रूमी टोपी का फूंदना कहीं गायब हो गया वह फूंदने की तलाश में निकला. देखी और अनदेखी जगहों में घूमता रहा...नये लढे की बू भी कहीं से आनी शुरू हुई।

फिर न जाने क्या हुआ। एक काली साटन के ब्लाउज़ पर उसका हाथ पड़ा...कुछ देर वह किसी धड़कती हुई चीज़ पर अपना हाथ फेरता रहा। फिर एकाएक हड़बड़ाकर उठ बैठा। थोड़ी देर तक वह कुछ समझ न सका कि क्या हो गया है। इसके बाद उसे डर, हैरानी और एक अनोखी टीस का एहसास हुआ। उसकी हालत उस वक्त अजीबोगरीब थी. पहले उसे एक तकलीफ़देह गर्मी-सी महसूस हुई। फिर कुछ लम्हों के बाद एक ठण्डी सी लहर उसके जिस्म पर रेंगने लगी।

 

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