ज़िन्दगी हैं एक अंधेरे में चलती है जो, ढूंढते हुए कोई प्रकाश किरन ।
के मिल जाये कोई सहारा तो सुकून से व्यतीत हो जीवन ।
कभी दरिया पानी से भरा हुआ है, लहराये हरियाली मैदानों पर,
कभी बंजर सारी धरती है, दिखती है फटी हुई हाथों की रेखाओं पर ।
कभी मुस्कराये ऐसे के लगताहो जैसे, बस यही अपनी कहानी हो,
पर बस अगले मोड़ पर ही लगता है कि शायद यह बात बडी पुरानी हो ।
कठपुतली का ये खेल है शायद, या सतरंज का कोई खिलाडी हो,
डोर किसी और के हाथों में है, क्यूँ बनते ऐसे अनाड़ी हो ।
ये ज़िन्दगी, ख़्वाहिशें हजारों, हजारों ख्वाब सजाती है,
इसे खबर है शायद इसलिए हर पल मे कई रंग दिखाती हैं ।
हर क्षण मे कितनी खुशियाँ है, हर क्षण मे कितने दुःख है भरे,
सुख-दुःख इसके ही अंग हैं समझो, क्यूँ इनसे कोई इतना डरे ।
कहता हु मै,इक भँवरा दिवाना सा,
सोच वही हो जो चाहत हो, जो चाहत हो वही कर्म हो,
सपनों को तुम खुब संजोगो, पराई नजर मे क्यूँ रोवत हो,
अपनी चाल चलो कुछ ऐसे, मस्त मजे मे सब डौलत हो,
मस्त मजे मे सब डौलत हो ।।
शैलेश आवारी (07/08/2021)