तीन दिनों तक बम्बई रहने के बाद मैं कानपुर के लिये रवाना हुआ। बम्बई में कोई विशेष बात नहीं हुई। मैं जिस गाड़ी से चला उसका नाम बम्बई मेल है। काफी तेज है। रात का तो मुझे पता नहीं, परन्तु दिन में इतनी धूल गाड़ी में आती है कि शायद स्त्रियों को पाउडर लगाने की आवश्यकता न पड़े।
मुझे हल्की-हल्की नींद आ रही थी कि गाड़ी एकाएक खड़ी हो गयी और जोरों का शोर हुआ। जान पड़ा कि कहीं लड़ाई हो गयी है। यद्यपि गोली या तोप की गड़गड़ाहट नहीं सुनायी पड़ी, परन्तु कोलाहल ऐसा ही था। मैं अपने डब्बे के फाटक पर आ गया। देखा कि मुसाफिर लोग इस जोर से डब्बे की ओर चले जैसे क्षय के कीटाणु कमजोर फेफड़ों पर आक्रमण करते हैं।
ऐसे समय मुझे एक बात देखने में आयी जिससे मेरे रोंगटे खड़े हो गये। मैंने कभी भूत पर विश्वास नहीं किया। अनेक कहानियाँ भूतों की पढ़ी हैं, परन्तु उन्हें कभी मैंने सच नहीं समझा।
सवेरे का समय, कोई आठ बज रहे होंगे। दिन काफी चढ़ चुका था। भीड़ भी स्टेशन पर बहुत थी। मैं क्या देखता हूँ कि उसी भीड़ में से एक आदमी के बराबर कपड़े की मूर्ति प्लेटफार्म पर चल रही है। न हाथ है न पाँव। भारत के सम्बन्ध में अनेक कहानियाँ सुन रखी थीं। लन्दन की सड़क पर यदि ऐसी घटना हो तो तहलका मच जाये। परन्तु यहाँ तो किसी ने ध्यान ही नहीं दिया। सम्भव है कि यह भूत मुझे ही दिखायी पड़ा हो और लोग उसे न देख रहे हों।
परन्तु उस समय की मेरी घबराहट का कोई अनुमान नहीं कर सकता जब मैंने देखा कि भूत मेरी ही ओर आ रहा है। फिर देखता हूँ कि एक आदमी भी उसके साथ आगे-आगे है। उस आदमी की बहुत लम्बी दाढ़ी थी। अवश्य ही वह जादूगर था और भूत को लिये टहल रहा था। परन्तु उसका साहस तो देखिये कि इतनी भीड़ में दिन-दहाड़े भूत को लिये घूम रहा है!
देखते-देखते वह जादूगर आगे-आगे, और भूत पीछे-पीछे मेरे डब्बे के दरवाजे के आगे पहुँच गये। मेरे रोंगटे खड़े हो गये। पसीने से कमीज भीग गयी, पाँव के दोनों घुटने आपस में टकराने लगे। मैंने आँखें मूँद लीं, मुँह गाड़ी में भीतर की ओर कर लिया और अन्दर से हैंडिल जोर से पकड़कर दरवाजे से सटकर खड़ा हो गया। एक मिनट भी न बीता होगा कि बाहर से किसी ने दरवाजे पर धक्का दिया। मेरे हृदय की गति रुकने लगी। आँख खोलने का साहस न हुआ। किसी दैवी शक्ति की प्रेरणा से हैंडिल को अधिक जोरों से पकड़ लिया।
दरवाजे पर फिर एक धक्का हुआ और इस बार अंग्रेजी में किसी ने कहा - 'कृपा कर हट जाइये और दरवाजा खोलिये।' पता नहीं अंग्रेजी में जादूगर ने कहा कि भूत ने। जान पड़ता है कि भारत में अंग्रेजी खूब प्रचलित है। जादूगर यदि बोला था तो उसकी भाषा बहुत शुद्ध थी। जादूगर ही था। उसे क्या! कोई भी भाषा बोल सकता था। परन्तु मैं दरवाजा खोलकर अपनी जान क्यों आफत में डालता?
इतने में गाड़ी ने सीटी दी। मैंने सोचा, जान बची। परन्तु भूत और उसके साथ जादूगर! जो न कर डाले।
फिर आवाज आयी - 'प्लीज' और जोर से दरवाजे पर उसने धक्का दिया और उसने कुछ कहा, पता नहीं कोई मन्त्र पढ़ा अथवा भूत से कुछ बात की। उस भूत ने पटरी पर पाँव रखा। मैं चिल्लाकर अपनी सीट पर गिर गया।
मैं कितनी देर बेहोश रहा, कह नहीं सकता। सम्भवतः बीस मिनट तक रहा हूँगा। गाड़ी सर्राटे के साथ चली जा रही थी। मुझे होश आ गया परन्तु आँखें खोलने का साहस नहीं होता था। पर बरबस आँख खुल गयी। उस समय उस जादूगर की करामात देखकर मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उस भूत को उसने स्त्री बना दिया। कपड़ा तो चारों ओर वैसा ही था। केवल चेहरा मुझे दिखायी दिया। परन्तु ज्यों ही मेरी और उसकी आँखें चार हुई; उसने तुरन्त अपना मुँह ढक लिया। केवल दो मिनट मैंने उसका चेहरा देखा। सचमुच वह चुड़ैल थी, जिसे जान पड़ता है इस जादूगर ने बाँध रखा था।
मैं सोचने लगा कि यह कैसा जादूगर है? इसे क्यों लिये जा रहा है? इसने यदि इसे बनाया है तो कपड़े से ढकने की क्या आवश्यकता थी? मैं अपनी सीट पर बैठ गया। इधर-उधर देखकर एक उपन्यास निकाला, पर पढ़ने में जी नहीं लगा।
थोड़ी देर बाद उसी ने मुझसे पूछा - 'आप कहाँ जायेंगे?' मैंने कहा - 'मैं कानपुर जाऊँगा।' मैं चुप रहा। मुझे पूछते भय लगता था। कहीं मुझे कुछ बना दे! सोचते-सोचते मुझमें कुछ साहस आया। मेरा पिस्तौल मेरे बक्स में था। वह गार्ड के डिब्बे में था। नहीं तो कोई कठिनाई न होती। फिर भी मैंने पूछने की हिम्मत की। पूछा - 'आप कहाँ जायेंगे?'
'लखनऊ।'
'यह आपके साथ क्या है?'
'क्या मतलब आपका?'
मैं कुछ घबरा-सा गया। बोला - 'क्षमा कीजियेगा। मेरा मतलब है, वह आपके साथ कौन है?'
मेरा प्रश्न सुनकर जान पड़ता था वह कुछ नाराज-सा हुआ। परन्तु वह बिगड़ा नहीं। गम्भीर मुद्रा में उसने उत्तर दिया - 'यह मेरी स्त्री है।'
मुझे सुनकर विश्वास नहीं हुआ। स्त्री है तो इस भाँति चोगे में लपेटने की क्या आवश्यकता थी? मुझे जानने की बड़ी उत्सुकता हुई। मैं अधिक जानना चाहता था। मैंने उसके बारे में पूछा तो पता चला कि वह लखनऊ में सरकारी नौकर - डिप्टी कलक्टर है। मेरी बार-बार इच्छा होती थी कि पूछूँ - आपने अपनी स्त्री को इस प्रकार क्यों रखा? एक कारण यह हो सकता था कि उसका चेहरा सुन्दर और अच्छा नहीं था और यह सरकारी नौकर अच्छे पद पर थे। लोग इनकी स्त्री को इस प्रकार देखेंगे तो इन्हें लज्जित होना पड़ेगा।