इधर जब से मैं लौटकर आया कोई विशेष घटना नहीं हुई और नित्य की दिनचर्या में ही लगा रहा। मौलवी साहब अब नहीं आते थे। उर्दू में मैंने साधारण योग्यता प्राप्त कर ली थी जिससे मेरा काम अच्छी तरह चल जाता था।
यद्यपि मैं इतिहास का प्रेमी हूँ और साहित्य में अधिक रस नहीं मिलता, फिर भी कभी-कभी उर्दू कविता की पुस्तक मैं मँगवा लिया करता था। मैंने उर्दू कविता को खूब अच्छी तरह समझ लिया था और दो-तीन कविता पढ़कर इस परिणाम पर पहुँचा कि और आगे पढ़ने की आवश्यकता नहीं है।
बुलबुल और गुलाब, बिस्मिल अर्थात् जो अधमरा हो और कातिल, लैला और महमिल, मूसा और तूर पहाड़ का प्रकाश, घोंसला और बिजली, मयखाना और पियाला शराब-इतनी बातें आप जान जाइये फिर उर्दू कविता के सम्बन्ध में जानने की और कोई आवश्यकता नहीं है। इसमें बिस्मिल तो मैं ही कितनों को किरच कर मैसोपोटामिया में बना चुका था। उसमें कितने मरे भी होंगे, इसलिये कातिल की पदवी भी मुझे मिल सकती है। लैला को मैंने देखा नहीं। महमिल तो अरब के मैदान में कई ऊँटों पर मैंने देखा। शराब और पियाला तो दिन-रात साथ ही रहते थे, बुलबुल नहीं देखी, कभी अवसर मिला तो देखूँगा।
इधर पता लगा कि इस प्रान्त में एक और भाषा है जिसे हिन्दी कहते हैं। इसे वह लोग पढ़ते हैं जो मुसलमान नहीं हैं। इस देश में जो दो मुख्य जातियाँ हैं उनकी सभी बातें अलग-अलग हैं।
स्टेशनों पर तो देखने में आता था कि साइनबोर्ड पर लिखा था कि यह हिन्दू के लिये भोजन है, यह मुसलमान के लिये। मुझे कभी उनमें भोजन के लिये जाने का अवसर नहीं मिला। एक दिन इस मामले में मैं मूर्ख भी बन गया।
एक दिन अपने बेयरा से मैंने पूछा कि यहाँ निकट कहीं खेत हैं? उसने कहा कि यहाँ तो नहीं यहाँ से सात मील पश्चिम में हैं। मेरे जान-पहचान के जमींदार भी वहाँ हैं। मैंने कहा - 'एक दिन मैं चलूँगा।' रविवार के दिन उस गाँव में कार से पहुँचा। गाँव में बड़ी हलचल मची। मैंने जमींदार साहब से कहा कि मैं विशेष काम से आया हूँ। आपके यहाँ खेती होती है? उन्होंने कहा - 'हाँ।' मैंने कहा - 'यदि आप कष्ट करें तो मैं खेत पर आपके साथ चलूँ।'
हम लोग साथ-साथ चले। मैंने पूछा - 'आप तो मुसलमान हैं?' वह बोले - 'हाँ', फिर मैंने पूछा - 'यह फस्ल किस चीज की है?' वह बोले - 'धान की' मैंने कहा - 'मुझे जरा मुसलिम धान और हिन्दू धान के खेतों में ले चलिये, मैं वही देखने के लिये यहाँ तक आया हूँ।'
वह मेरी ओर बड़ी देर तक देखते रहे। फिर उन्होंने न जाने क्या मेरे बेयरा से कहा। उसने कहा - 'हुजूर, इस समय चलें फिर कभी आयेंगे।' मेरी समझ में बात नहीं आयी। मैंने कहा - 'आप नहीं जायेंगे तो मैं ही जाऊँगा।' वह और भी घब़डाया। उसने कहा - 'आप सचमुच क्या चाहते हैं' मुझे क्रोध आया। मैंने कहा - 'देखना क्या, मुझे हिन्दू और मुसलमान दोनों धान दिखाइये।' उसने कहा कि धान में तो कोई ऐसी चीज नहीं होती। मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने पूछा -'और गेहूँ में?' उसने कहा कि किसी अनाज में ऐसा भेद नहीं होता। मुझे उस पर विश्वास नहीं हुआ। मैंने कर्नल साहब से पूछा। वह मुझ पर बहुत हँसे। बोले - 'अनाज हिन्दू-मुसलमान नहीं होता। पकने पर वह जो पकाये उस जाति को हो जाता है।'
मैंने कहा - 'तो भाषा भी एक ही होगी। हिन्दू बोले, तो हिन्दी और मुसलमान बोले, तो उर्दू। कर्नल साहब ने कहा कि बात तो कुछ ऐसी ही है। बस थोड़ा दायें-बायें का अन्तर है। मैंने पूछा कि वह क्या? उन्होंने कहा कि जैसे अंग्रेजी लिखी जाती है बायें से दायें वह तो हिन्दी और दायें से बायें उसी को लिख दीजिये अरबी अक्षरों में तो उर्दू।
मैंने कहा - 'तब तो बहुत कम अन्तर है। यह लोग मिलकर तय क्यों नहीं कर लेते कि एक ही ओर से एक ही अक्षर में लिखें। इससे तो अनेक कामों में बड़ी आसानी हो सकती है।' कर्नल साहब ने धुआँ फेंकते हुए कहा -'यदि तुम्हारे विचार के कुछ लोग यहाँ आ जायें तो ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ उखड़ जाये। तुम क्या चाहते हो कि भारतवासी एक हो जायें?' मैंने कहा कि इससे एकता और अनेकता में क्या बाधा अथवा लाभ हो सकता है? यह तो पढ़ने-लिखने की बातें हैं।
कर्नल साहब ने कहा - 'तुम अभी नहीं जानते। केवल भाषा के प्रश्न पर यहाँ के लोग एक हजार वर्ष तक लड़ सकते हैं।'
मैंने कर्नल साहब से कहा कि जो हो, मैं हिन्दी भी थोड़ी पढ़ना चाहता हूँ। जैसे उर्दू के लिये मौलवी का आपने प्रबन्ध करा दिया था उसी भाँति इसका भी प्रबन्ध कर दें तो बड़ी कृपा होगी। एक पंडित तीन-चार दिनों बाद आये। उनके माथे पर उजली और लाल कई रेखायें बनी थीं। पता चला कि वह एक स्कूल में हिन्दी और संस्कृत पढ़ाते हैं। मैंने अपना मत उन पर प्रकट किया कि मैं थोड़ी हिन्दी जान लेना चाहता हूँ। पहला वाक्य जो उन्होंने कहा वह मैंने तुरन्त ही उनके जाने के बाद लिख लिया-क्योंकि वह मेरे लिये एक नई बात थी। उन्होंने कहा - 'जो है सो हिन्दी भाषा पढ़ने में अपना जो है सो समय क्यों जो है सो बरबाद करते हैं। जो है सो संस्कृत पढ़िये। तब जो है सो आपको यहाँ का हाल जान पड़ेगा जो है सो।'
पहले मैंने समझा, आधी हिन्दी 'जो है सो' से बनी है। तब तो मुझे बड़ी जल्दी आ जायेगी। दूसरे दिन मैंने सोचा, मैं भी हिन्दी बोलूँ। मैंने पंडितजी से कहा - 'जो है सो मुझसे पैसे लेकर जो है सो एक अच्छी किताब जो है सो बाजार से खरीद दीजिये जो है सो।'
पंडितजी मुझ पर बहुत रुष्ट हो गये। बोले - 'आप मुझे चिढ़ाते हैं? गुरु को चिढ़ाने से कभी विद्या नहीं आ सकती।' पीछे पता चला कि यह हिन्दी की विशेषता नहीं, बल्कि यह एक ठेका है।