तीन-चार दिनों के बाद कप्तान ऑसहेड दौड़े हुए मेरे यहाँ आये। उनके हाथ में एक पीला-सा कागज था। कार्ड होता तो कोई निमन्त्रण-पत्र होता। मैंने समझा किसी अच्छे सिनेमा का पास है, परन्तु जब वह आ गये और उन्होंने मेरे हाथ में से उसे दिया तब पता चला कि कचहरी में बुलाहट का समन है।
मैंने कहा कि इसमें चिन्ता की क्या बात है? वह आदमी बच गया। फिर हम लोग सैनिक हैं। जब हम हथेली पर जान रखकर इतने बड़े देश की रक्षा करते हैं तब क्या दो-चार आदमियों को दबा देने की भी सुविधा नहीं मिल सकती! सेना के लिये तो बड़ी-बड़ी सुविधायें मिलती हैं। किन्तु अदालत की बुलाहट थी, जाना आवश्यक था। कर्नल साहब से कहा गया। उन्होंने पूछा मजिस्ट्रेट हिन्दुस्तानी है या अंग्रेज। मुझे पता नहीं था। पूछा कि दोनों में क्या अन्तर होता है? उन्होंने कहा - 'हाँ। मैं तो हिन्दुस्तानी मजिस्ट्रिेट को अधिक पसन्द करता हूँ। हिन्दुस्तानी मजिस्ट्रेट से जैसा काम चाहे करा लो। अंग्रेज मजिस्ट्रेट से यदि अपन मन का काम कराना हागा तब उसका प्रभाव तुम्हारे बैंक पर पड़ेगा और हिन्दुस्तानी मजिस्ट्रेट हिन्दुस्तानियों के लिये जो भी हों अंग्रेजों के एक पत्र से उस पर सफलता मिल सकती है। एक अंग्रेज के पत्र का हिन्दुस्तानी अफसर पर वही प्रभाव पड़ता है जैसा तोप का किले पर। खैर, देखा जायेगा।'
मुझे ऑसहेड ने गवाही में रख दिया। हम लोग निश्चित दिन कुछ देर से अदालत पहुँचे। देखा तो वहाँ बड़ी भीड़ थी। अनेक मुसलमान सज्जन जिनकी संख्या चार-पाँच सौ से कम न होगी एकत्र थे। मैंने समझा कोई बात होगी। ऑसहेड के वकील एक मुंशीजी थे। काली लम्बी अचकन थी, लम्बा-चौड़ा पायजामा था। पाँव के जूते से जान पड़ता था कि जब से मोल लिया गया कभी पॉलिश नहीं हुई। सिर पर टोपी न थी। नाक पर चश्मा था। सुना था कि बड़े नामी वकील हैं।
मैंने वकील साहब से पूछा कि आज कोई बड़ा संगीन मुकदमा है क्या? इतनी भीड़ एकत्र है। वकील साहब ने कहा - 'नहीं, यह उसी मुसलमान की ओर से आये हैं।' मैंने पूछा - 'यह लोग क्या करेंगे?' वकील ने कहा कि यह लोग रुपये-पैसे से और जो कुछ सहायता कर सकेंगे करेंगे और यह भी तो उस व्यक्ति को जानना चाहिये कि मेरे साथ इतने आदमी हैं।
मैंने पूछा कि फिर उस हिन्दू के साथ इसके तिगुने होंगे क्योंकि उनकी आबादी तो यहाँ कई गुनी अधिक है। वकील साहब ने कहा कि हिन्दू जाति वीर जाति है। वह चाहती है कि सब लोग अपने पाँव पर खड़े हों। सहायता लेने से लोग दुर्बल हो जाते हैं और एक-दूसरे के आश्रित हो जाते हैं। इस प्रकार दूसरे की सहायता लेकर वह अपने पैर में कुल्हाड़ी नहीं मारना चाहते। वह तो यदि पैसे वाला न होगा तो उसे वकील भी मिलेगा कि नहीं इसमें सन्देह है।
कोई ऐसा स्थान नहीं था जहाँ हम लोग बैठ सकें। समन में लिखा था - 'दस बजे आना।' हम लोग ग्यारह बजे पहुँचे। फिर भी मजिस्ट्रेट साहब का पता नहीं था। मैं तो यों ही साथ में गया था। कोई विशेष काम न था। गवाही जिस दिन होती उस दिन जाता। किन्तु केवल यहाँ का रंग-ढंग देखने के लिये आ गया था।
दो बजे मजिस्ट्रेट महोदय पधारे। जैसे रसायनशात्र, दर्शन इत्यादि शब्दों के अर्थ साधारण बोली के अर्थ से भिन्न होते हैं, उसी भाँति भारतीय कचहरी की भाषा में दस का अर्थ दो होता है। परन्तु तब भी बुलाहट नहीं हुई। वकील साहब ने ऑसहेड से कहा कि यदि आप एक रुपया खर्च करें तो मैं पेशकार को देकर पहले आपको पुकरवा लूँ; जल्छी छुट्टी मिल जायेगी। अब मैंने समझा कि सचमुच समय का मूल्य होता है। ऑसहेड ने कहा कि मैं जो कुछ नियमित व्यय होगा उससे अधिक देने के लिये तैयार नहीं हूँ। परिणम यह हुआ कि चार बजे लोग बुलाये गये और न जाने क्या दो-एक वकील साहब से बात हुई और फिर यह हुआ कि बीस दिन बाद तारीख पड़ी और ऑसहेड महोदय और मैं लौट आये।
दूसरी तारीख पर मैं नहीं गया। ऑसहेड साहब चाय इत्यादि पीकर साढ़े तीन बजे वहाँ पहुँचे तो पता चला कि मजिस्ट्रेट महोदय किसी गाँव में गये हैं क्योंकि वहाँ ईख के खेत में टिड्डियों का एक बड़ा गिरोह आक्रमण कर गया। उस दिन भी वह चुपचाप लौट आये। तीसरी तारीख पर फिर मजिस्ट्रेट साहब नहीं थे। उनकी साली ने अपने पति को तलाक दिया था। उसी मुकदमे में वह गवाह थे; इलाहाबाद चले गये थे। चौथी तारीख को कानपुर के ही एक मेले में उनकी तैनाती थी। उस दिन भी मुकदमा पेश नहीं हुआ। पाँचवीं तारीख को ऑसहेड तुरन्त लौट आये। और सीधे मेरे पास आये।
मैंने पूछा - 'आज बड़ी जल्दी लौट आये?' उसने कहा कि आज ईद की छुट्टी है। कचहरी बन्द है। मैंने कहा कि छुट्टी के दिन कैसे तारीख डाल दी; क्या मजिस्ट्रेट के पास डायरी नहीं रहती? तब पता चला कि कुछ ऐसे त्योहार होते हैं जिनके लिये कुछ निश्चय नहीं रहता कि कब होंगे। चन्द्रमा के उदय तथा अस्त होने पर वह त्योहार पड़ते हैं। चन्द्रमा ऐसी मादकता में पड़ा रहता है कि कभी-कभी वह भूल जाता है कि हमें आज उदय होना है। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार चन्द्रमा शराब का भाई है, इसलिये मादकता स्वाभाविक है। इसलिये पता नहीं था कि आज छुट्टी है।
अब की बार ऑसहेड ने कर्नल साहब को लिखा। उन्होंने कमिश्नर को लिखा कि हमारे अफसरों को बड़ा कष्ट होता है। बार-बार जाने से अनेक कार्यों का हरज भी होता है, यद्यपि काम के विचार से हम लोगों को जितना अवकाश था उतना मरने पर भी लोगों को नहीं होगा। इस पत्र का परिणाम यह हुआ कि छठी तारीख पर मुकदमा एक-दूसरे मजिस्ट्रेट की कचहरी में भेज दिया गया। सम्भवतः इन्हें कोई और काम नहीं था, केवल इस मुकदमे के लिये ही यह मजिस्ट्रेट बनाये गये थे।