मेरे मन में महात्माजी को देखने की उत्कट अभिलाषा होने लगी। जितना भी मैं उनके सम्बन्ध में पढ़ता था, उतना ही मेरे मन में विचित्र भाव उत्पन्न होने लगते थे। क्या कारण है कि इतना अधिक वेतन पानेवाले वायसराय के प्रति लोगों की इतनी श्रद्धा नहीं है। बड़े-बड़े राजाओं, महाराजाओं के प्रति, जिनकी शान चौदहवें लुई से भी बढ़कर है, वह भाव नहीं जो गांधीजी के प्रति है।
चित्र तो मैंने देखा था। कई प्रकार के पत्रों में, पुस्तकों में किन्तु विश्वास नहीं होता था कि यही व्यक्ति होगा। न तो बढ़िया सूट, न सिर पर बढ़िया पगड़ी, न पहलवानों का-सा शरीर। फिर बात क्या है? जान पड़ता है जो पुरानी पुस्तकों में पढ़ा है या तो कोई योगी है या जादूगर जिसने जादू इत्यादि सिद्ध किया है।
इन्हीं विचारों में मैं मग्न रहता था कि एक दिन 'सिविल ऐंड मिलिटरी गजट' में पढ़ा कि गांधी कानपुर आ रहे हैं। उसमें एक नोट भी था कि कानपुर में गांधी का आना बहुत ही भयंकर है। यह कुलियों का नगर ठहरा, यदि कुली बहक गये और गांधीजी के कहने में आ गये तो कानपुर अंग्रेजों के हाथों से निकल जायेगा। सत्तावन के गदर में भी यहाँ भयंकर घटनायें हो गयी थीं। ऐसी अवस्था में उनका यहाँ आना रोक देना अधिक उत्तम होगा।
मैंने भी पढ़ा तो भय मालूम पड़ने लगा। मैं समझने लगा कि अहिंसा-अहिंसा तो यह कहते हैं कि किन्तु जान पड़ता है छिपे-छिपे यह कोई अस्त्र-शस्त्र अवश्य रखते होंगे। साथी और चेले तो इनके संग बहुत रहते हैं। कांग्रेसी लोग सेना की भाँति होंगे और कुरते के भीतर पिस्तौल छिपाकर रखते होंगे कि जब जहाँ आवश्यकता पड़े हमला कर दिया जाये।
सरकार की ओर से उनका आना रोकने के लिये कोई आज्ञा नहीं निकली। आने की तिथि निकट होने लगी। अब मैं सोचने लगा कि जब ऐसे भयंकर व्यक्ति हैं तब सरकार ने उनका आना क्यों नहीं रोक दिया और 'सिविल ऐंड मिलिटरी गजट' ऐसे पत्र ने सलाह दी, उसकी सलाह भी नहीं मानी गयी। यह और भी विचित्रता थी। ऐसे ही पत्रों की राय पर चलने के कारण भारत में अंग्रेजों की सत्ता है। परन्तु सबसे प्रबल बात तो हृदय में मेरे थी, वह यह कि किसी प्रकार से भी उन्हें देखूँ।
मैंने सोचा कि आने की गाड़ी का पता लगाकर स्टेशन पहुँच जाऊँगा और किसी न किसी प्रकार से देख लूँगा। किन्तु क्लब में सुना कि वह दो स्टेशन पहले ही उतर जाते हैं। इस पर क्लब में विवाद भी हुआ कि कारण क्या है? एक आदमी ने बताया कि यह लाट साहब की नकल है। लाट साहब की गाड़ी जब चलती है तब यह नहीं बताया जाता कि वह किस गाड़ी से जायेंगे और किस समय उतरेंगे। गांधीजी भी तो उन्हीं के मुकाबले के हैं। वइ इतना तो कर नहीं सकते क्योंकि रेल पर उनका अधिकार नहीं है, इसलिये वह इतना ही करते हैं कि वह नहीं बताते हम कहाँ उतरेंगे।
दो दिन आने की तिथि के पहले हम लोगों को सरकार की ओर से सूचना मिली कि हम लोगों को सशस्त्र मशीनगन के साथ तैयार रहना होगा। मैं सोचता था वही बात हुई। गांधीजी के साथ अवश्य छिपे सशस्त्र सेना रहती होगी। नहीं तो हम लोगों को मशीनगन के साथ तैयार रहने की क्या आवश्यकता थी। जहाँ उनका व्याख्यान होने वाला था उसी के पास एक सेठ का घर था। उसी के भीतर चालीस सैनिकों को रहने की आज्ञा दी गयी और कहा गया कि यह न प्रकट हो कि यहाँ किसी प्रकार का सैनिक अड्डा है।
जो भी हो, मुझे देखने का अवसर मिल गया। हम लोग सवेरे वहाँ उसी घर में जाकर जम गये। भोजन का प्रबन्ध होटल से था। जिसका व्यय सेठ ने अपनी ओर से किया था। सेठ ने मुझसे कहा कि आप यह एक पत्र मुझे लिख दें तो मेरा बड़ा उपकार हो कि सेठ ने हम लोगों की बड़ी खातिर की। मैंने पूछा कि इससे तुम्हें क्या लाभ होगा? कुछ रुई की बिक्री बढ़ जायेगी? उसने कहा कि नहीं मैं कलक्टर साहब को दिखाऊँगा तो मुझको कोई टाइटिल मिल जायेगा। मुझे बड़ी हँसी आयी। मैंने कहा - 'अच्छा।'
तब संकोच के साथ कहने लगा कि एकाध वाक्य यह भी लिख दीजियेगा कि गांधी की बड़ी बुराई करता था। इससे मेरा काम बन जायेगा। मैंने कहा कि तुम सचमुच बुराई करता हो तो आज की सभा में जाकर करो या जाकर कलक्टर साहब से करो। मैं यह नहीं लिख सकता।
छः बजे से सभा का समय था। तीन बजे से लोग मैदान में जमा होने लगे। बूढ़े, जवान, स्त्री, लड़के सभी एकत्र थे। अंग्रेजों को छोड़कर सभी जातियाँ जान पड़ीं। मुसलमान कम थे। कम से कम तुर्की टोपी लगानेवाले। मैं ऊपर से देख रहा था। दूरबीन भी लगा ली थी। छः बजते-बजते तो धरती दिखायी ही नहीं देती थी। ठीक छः बजे गांधीजी मोटर पर वहाँ पहुँचे। उनके साथ और भी कई मोटरें थीं।
आते ही बड़े जोर से 'महात्मा गांधी की जय' का नारा लगा। यह इतने जोर का था कि हम लोगों ने समझा कि यह आक्रमण का संकेत न हो और सैनिकों को तैयार होने की आज्ञा देने ही वाले थे, किन्तु कुछ हुआ नहीं। गांधी महाशय गाड़ी से उतरे। देखा कि लोग उन्हीं की ओर खिसकने की चेष्टा कर रहे हैं। फिर यह भी दिखायी पड़ा कि लोग उनके पाँव की ओर हाथ कर रहे हैं। यदि वह मोटर से न आये होते तो यह जान पड़ा कि उनके पाँव में काँटा धँस गया है; उसी को निकालने की चेष्टा लोग कर रहे हैं।
महात्मा गांधी की परीक्षा लेने का प्रबन्ध था। जो मंच बना था वहाँ तक जाने के लिये कोई राह नहीं बनायी गयी थी। देखना था कि जो भारत को स्वतन्त्र करना चाहता है, वह इतना जनसमूह चीरकर जा सकता है कि नहीं।
फिर देखा कि अनेक लोगों ने उनके चारों ओर एक घेरा बना लिया और भीड़ के सागर को पार करने लगे। लोगों को यह सुनकर आश्चर्य होगा कि महात्मा गांधी पन्द्रह मिनट में मंच पर पहुँच गये। जितने लोग अभी तक बैठे थे, खड़े हो गये और सब लोगों में हलचल हो गयी। इस हचलचल में कितने लोग जो आगे थे, पीछे हो गये और पीछे वालों ने अपनी कुहनियों और कन्धों के बल से आगे के लिये राह बना ली। किन्तु कोई वहाँ से टला नहीं। जिन महिलाओं की गोद में शिशु थे, उन्होंने अपने रुदन से महात्मा जी का स्वागत किया क्योंकि वे बोल नहीं सकते थे। जितने लोग वहाँ उपस्थित थे, सब लोग कुछ-न-कुछ कह रहे थे। इसलिये शोर इतना हो रहा था जितना फ्रांस की क्रान्ति के समय।