खन्ति च सोवचस्सता समणानं च दस्सनं |
कालेन धम्मसाकच्छा एतं मंगलमुत्तमं ||९||


क्षमा, गोड बोलणें, श्रमणांची भेट घेणें आणि योग्य काळीं धर्मचर्चा हें उत्तम मंगल होय ||९||

तपो च ब्रह्मचरियं च अरियसच्चान दस्सनं |
निब्बानसच्छिकिरिया च एतं मंगलमुत्तमं ||१०||


तपश्चर्या, ब्रह्मचर्या, आर्य सत्यें जाणणें आणि निर्वाणाचा साक्षात्कार करून घेणें हें उत्तम मंगल होय ||१०||
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१ शेवटचें धम्मचक्कप्पवतनसुत्त पहावें
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फुट्ठस्स लोकधम्मेहि चिंत्तं यस्स न कंपति |
असोकं विरजं खेमं एतं मंगलमुत्तमं ||११||


(लाभ आणि हानी, यश आणि अपयश, निंदा आणि स्तुति, सुख आणि दु:ख ह्या आठ) लोकस्वभावांशी संबंध झाला असतां ज्याचे चित्त चंचल होत नाहीं, शोकरहित, निर्मळ व सुखरूप राहतें, हें (त्याचें) उत्तम मंगल होय ||११||

एतादिसानी कत्वान सब्बत्थमपराजिता |
सब्बत्थ सोत्थिं गच्छन्ति तं तेसं मंगलमुत्तमं ||१२||

अशा मंगलांचे आचरण करून कोठेंहि पराभव न पावतां जे स्वस्तिसुख मिळवतात, ते त्यांचे उत्तम मंगल होय ||१२||

||मंगलसुत्तं निट्ठितं||
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