सैकड़ों बरस पहले की बात है। धारानगर में धरमू नाम का एक चमार रहता था। वह अपने भाई-चामरोन्की तरह वह भी जूते बना कर अपनी रोज़ी रोटी चलाता था। वह उस गाव की चौकीदारी का काम भी करता था। वह रात रात भर जग कर पहरा देता और सारे शहर में गश्त लगाता रहता था और रात मे चिल्ला उठता

“होशियार...! जागते रहो..!"

इस तरह उसके दिन सुख से जा रहे थे। लेकिन उसे एक चिन्ता थी। उसके कोई बाल-बच्चे न थे। उसी शहर में एक पंडित जी रहते थे। जब धरमू रात भर पहरा देकर जब घर लौटता तभी पण्डित जी नहाने के लिए नदी पहुँचते थे। इस तरह दोनों में रास्ते मे रोज़ भेंट हो जाती थी।

एक दिन धरमू ने पण्डित जी को पालागन कर के कहा, “पण्डित जी! ऐसा अशीर्वाद दीजिए, जिससे मेरे एक सन्तान हो|”

यह सुन कर पण्डित जी ने उससे कहा, "धरमू..! ओरे धरमू...! क्यों बेकार सन्तान की चिन्ता करते हो? वे तो,

“||ऋणानुबन्ध रूपेण पशु, पत्नी, सुतायाः||”

“याने पशु, स्त्री, बाल-बच्चे, घर-चार सभी पहले जन्मों का कर्ज़ा चुकाने आते हैं और कर्जा चुकते ही चले जाते हैं।"

यह कह कर पण्डित जी नहाने चले गए। पण्डित जी के उपदेश से धरमू का मोह तो नहीं मिटा, उलटा एक उपाय सूझ गया। उसने सोचा,

“अगर कोई मेरा माल खा ले और बदले में मुझे कुछ नहीं मिलता हैं, तो वह मेरा ऋणी बन जाएगा। तब तो अगले जन्म में उसे मेरे घर पैदा होकर मेरा कर्जा चुकाना पड़ेगा। यह तो अच्छा उपाय सूझा।"

यह सोच कर धरमू मन ही मन बहुत खुश हुआ। इसी ख्याल से अब धरमू जूते बना कर हर किसी को मुफ्त में देना चाहता था। लेकिन लोग कहते,

"हमें क्या पड़ी है?? जो मुफ्त का माल लेकर तुम्हारे कर्जदार बनें| बिना पैसा दिए जूते हम नहीं ले सकते।"

ऐसा कह कर वे किसी दूसरे के यहाँ जूते खरीदने चले जाते थे।

कुछ दिन बाद जब धरमू ने देखा कि, इससे कोई फायदा नहीं हुआ तो उसने एक और उपाय किया। उसने मन ही मन इस तरह सोचा,

“हमारे शहर से नदी एक कोस दूर है। बीच में बाल का मैदान है। मैं एक जोड़ा जूता बना कर बीच मैदान में रख आऊँगा। बहुत से लोग नंगे पाँव आते-जाते रहते हैं। जब पैर जलेंगे तो कोई न कोई मेरे जूते पहन ही लेगा। इस तरह मेरा माल खाकर यह मेरा कर्जदार बन जाएगा।"

यह सोच कर उसने एक जोड़ा बढ़िया जूते बनाए और मैदान में रख आया। शाम तक उसने बड़ी बेचनी के साथ समय बिताया। लेकिन शाम को जब उसने फिर मैदान में जाकर देखा तो जूतों का जोड़ा जहाँ का तहाँ पड़ा था।

इस तरह दो-तीन दिन तक वह रोज शाम को जाकर देखता कि किसी ने जूतों का जोड़ा उठा लिया कि नहीं। लेकिन उसे बार-बार निराश होकर ही लौटना पड़ता था।

आखिर यह हिम्मत हार कर सोचने लगा कि शायद इस जन्म में उसे सन्तान का सुख बदा नहीं है। लेकिन जब एक रोज़ शाम को उसने जाकर देखा तो जूते गायब थे। अब धरमू की खुशी का ठिकाना न रहा। उसने सोचा कि आज मेरा नसीब खुला गया। तुरन्त उसने दौड़ते हुए घर जाकर अपनी औरत से यह खुशखबरी कही। उसे भी बहुत खुशी हुई। लेकिन उनको यह नहीं मालूम था कि, जूते किसने उठा लिए और न वे यह जानना ही चाहते थे।

एक दिन उन्हीं पण्डित जी को, जिन्होंने धरमू को उपदेश दिया था, किसी काम से पड़ोस के एक गाँव में जाना पड़ा। जब वे लौट पड़े तो दोपहर हो चुकी थी। पण्डित जी नंगे पाँव थे और जलती रेत में उनके पैर झुलस रहे थे। तलवों में फफोले उन्हें राह में जुते पहनने लगे थे। इतने में जुते का एक जोड़ा दिखाई दिया। उन्होंने इसे भगवान की कृपा समझ कर जूते पहन लिए।

फिर उन्होंने चारों ओर नजर दौड़ाई कि शायद जूतों का मालिक कहीं दीख पड़े। लेकिन जब कोई नहीं दिखाई दिया, तो उन्होंने सोचा कि शहर में जाकर पूछ-ताछ करूंगा और जिसका यह जोड़ा होगा उसे दाम चुका दूँगा। यह सोच कर जूता पहने घर चले गए। शाम को उन्होंने शहर के सभी चमारों से पूछ-ताछ की। लेकिन किसी को इसकी ख़बर न थी। जब पण्डित जी ने धरमू से पूछा तो उसने भी साफ इन्कार कर दिया।

पण्डित जी ने बड़ी कोशिश की कि जूतों के मालिक का पता लगा लें और उसे दाम चुका दें। पर उनकी सारी कोशिशें बेकार हुई। अब पण्डित जी इसी चिन्ता में घुलने लगे। कुछ ही दिनों बाद वे बीमार पड़े और चल बसे। उन्हें उन जूतों का ऋण चुकाने के लिए धरमू के घर जन्म लेना पड़ा। धरमू की स्त्री की कोख से एक चाँद-सा बच्चा पैदा हुआ। उसे देख कर चमार टोली के सभी लोग अचरज में आ गए। धरमू ने बड़े प्यार से उसका नाम रखा देवदत्त।

देवदत्त जब सयाना हुआ तो वह भी जूते बनाने लगा। लेकिन वह जो कमाता उस में उसका बाप एक पाई भी न छूता था। उस को मालूम था कि अगर वह बेटे की कमाई में हाथ लगाएगा तो उसका कर्जा चुक जाएगा। तब बेटा उसका नहीं रहेगा। इसलिए उसने अपनी औरत को भी चेता दिया था,

"खबरदार..! देवदत्त के हाथ से तुम एक कौडी भी न लेना...!!”

देवदत्त को भी अपने पिछले जन्म का हाल मालूम था। उसे यह भी मालूम था कि क्यों उसे धरमू के घर जन्म लेना पड़ा है..! इसीलिए उस जूते के जोड़े का दाम चुका कर यह किसी न किसी तरह उऋण होना चाहता था। पर उसके माँ बाप उसकी कमाई में से एक पाई भी नहीं लेते थे। इसलिए जितनी जल्दी वह चाहता था, उतनी जल्दी उसे छुटकारा नहीं मिला।

एक दिन धरमू को किसी काम पर गाँव से बाहर जाना पड़ा। इसलिए उसने जाते समय अपने बेटे को बुझ कर कहा,

'बेटा...! मैं एक ज़रूरी काम से बाहर जा रहा हूँ। इसलिए आज रात मेरे बदले तुम्हीं पहरा दे देना।"

रात को देवदत्त अपने पिता की आज्ञा के अनुसार शहर में पहरा देने गया। वह अपने एक दोस्त को भी साथ लेता गया जिससे समय आसानी से कट जाए। दोनों शहर में गली-गली घूम कर पहरा देने लगे। जब एक पहर रात बीत गई, तब देवदत्त के दोस्त ने उससे कहा

“भाई..! पहर रात बीत गई। अब एक बार हाँक लगाओ जिससे लोगों को मालूम हो कि, तुम सो नहीं रहे हो।”

तब देवदत्त ऊँचे स्वर से यह श्लोक पढ़ने लगा 

“माता नास्ति, पिता नास्ति, नास्ति बंधु सहोदरः। अर्थम् नास्ति, गृहम् नास्ति, तस्मात् जाग्रत..! जाग्रत..!”

यह सुनकर उसका दोस्त अचम्भे में बोला, “भाई, इस मन्तर सुन पड़ गया और यह मंत्र का मायने क्या है?”

देवदत्त ने कहा, “अरे भाई..! यह भी समझ न सके..?? सुनो माता-पिता, बंधु- बान्धव, धन-दौलत और घर-बार कुछ भी अपने नहीं हैं। यह सब माया का खेल है। इसलिए होशियार रहो। यही इस श्लोक का मतलब है।"

इतने में दूसरा पहर लगा। तब देवदत्त ने यह श्लोक पढ़ा

“काम को लोभम वंदे तिष्ठति तस्कराः ज्ञानरापहारस्य तस्मात् जाग्रत...! जाग्रत...!”

फिर दोस्त के पूछने पर उसने इस श्लोक का मायने बताया, “काम, क्रोध और लोभ, रूची चोर इस देह में छिपकर, ज्ञान रूपी रत्न को चुरा ले जाने के लिए ताक में बैठे हैं। इसलिए सावधान रहो।"

यह सुन कर उसके दोस्त को बड़ा अचरज हुआ और उसने कहा, “भाई..! तुम्हारी बातें सुन कर तो मेरे अचरज का ठिकाना नहीं रहा। आज तक मैंने माल और रुपया-पैसा चुरा ले जाने वाले चोरों का ही हाल सुना था। लेकिन ज्ञान रूपी रत्न चुरा ले जाने वाले इन निराले चोरों का नाम तो मैंने कभी नहीं सुना था। न जाने, तुमने यह सब कहाँ से सीखा है??”

इतने में तीसरा पहर हुआ और देवदत्त ने तीसरा श्लोक पढ़ा,

“कम्मदुःखम्, जरादु:खम, जापादुः सम् पुनः पुनः संसार-सागरं दुःखम् संसात् जाग्रत..! गामव..! दोस्त के पूछने पर उसने इस लोक का अर्थ बताया,

“जन्म लेने में दुख है, बुढ़ापे में दुख है और स्त्री के साथ घर-गिरस्ती चलाने में दुख है। यह संसार ही दुखों का सागर है। इसलिए होशियार..!"

यह सुन कर उसके साथी ने कहा, “अरे..! उधर तुम्हारा बाप तो जल्दी से जल्दी तुम्हारी शादी करने की कोशिश में लगा है। इधर तुम वेदान्त बघार रहे हो..! यह तो खूब रही।"

इसका देवदत्त ने कुछ जवाब नहीं दिया| सिर्फ मुस्कुराया। इतने में चौथा पहर हो चला। जब देवदत्त ने यह श्लोक पढ़ा,

“बढ़ते लोके कमंगा बहुचितपा आयुक्षीणम् न जानाति, तस्मात् जाग्रत ! जाग्रत!”

यह श्लोक सुन कर उसका दोस्त खडा का खड़ा रह गया। यह क्या जाने कि देवदत्त इतना बड़ा विद्वान कैसे से बन गया| यह तो उसे एक मामूली चमार ही समझता था। तब उसने इस चौथे का अर्थ पूछा।

देवदत्त ने बताया, “आशा, चिंता, और कर्म, इन तीनों से संसार बँध जाता है। इनमें फँस कर लोग यह भी नहीं जानने पाते कि दिन-दिन उनकी आयु नष्ट हो रही है। इसलिए में लोगों को लेता रहा हूँ कि सावधान..! इनके जाल में न फँसना। यही है इसका अर्थ है|"

उस शहर के राजा को उस रात अच्छी तरह नींद न आई थी। उसने करवटें बदलते हुए देवदत्त के चारों श्लोक सुने। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ।

उस ने मन ही मन सोचा, “यह कैसा चौकीदार है? यह तो बड़े-बड़े पण्डितों के भी कान काटता है।”

इसलिए सवेरा होते ही उसने अपने सिपाहीयों को हुकुम दिया-, “जाओ, उस पहरेदार को जिसने कल रात को यहाँ पहरा दिया था बुला लाओ!"

सिपाही लोग देवदत्त को बुला कर राजा के पास ले आए। उसे देखते ही राजा ने उसे प्रणाम करके कहा, “तुम कोई मामूली पहरेदार नहीं हो। तुम्हारे जैसा पण्डित तो मेरे राज भर में नहीं है। तुम कृपा कर के मेरी यह तुच्छ भेंट लो और मुझे आशीर्वाद दो।"

यह कह कर उसने देवदत्त को अशर्फियों की एक थैली देकर बिदा किया। पहले तो देवदत्त ने सोचा कि वह थैली लेने से इन्कार कर दे। लेकिन कुछ सोचने-विचारने के बाद उसने थैली ले ली। उसके मन में यह ख्याल हुआ कि शायद इससे पिता का कर्जा चुकाने में कोई मदद मिले? दूसरे दिन धरमू गाँव से लौटा।

देवदत्त सोचने लगा कि, किस उपाय से थैली पिता को दे? उसे यह अच्छी तरह मालूम था कि उसके हाथ से धरमू कोई चीज़ नहीं लेगा। उसे कोई सूरत नज़र नहीं आ रही थी। इतने में चमार टोली में आग लग गई। सब लोग अपने घरों से माल निकालने लग गए। देवदत भी अपने घर से माल-असबाब निकालने लगा। भरमू उन चीजों को उठा-उठा कर दूर रख जाता था।

इसी गड़बड़ी में देवदत्त ने यह थैली जो राजा ने दी थी, पिता के हाथ में डाल दी। जल्दी जल्दी में धरमू का भी ध्यान उस थैली की ओर नहीं गया। उसने सोचा कि वह भी घर की कोई चीज़ है। इसलिए बिना सोचे-समझे उसे हाथ में ले लिया और थोड़ी दूर पर असबाब के साथ रख आया। ज्यों ही धरमू ने वह थैली ली, देवदत्त का कर्जा चुक गया।

अग्नी-देव ने उसे अपनी गोद में छिपा लिया। धरमू चिल्ला कर दौड़ा। पर उस थैली को देख कर ठिठक गया,

“ओह..! मेरा कर्ज तो उसने चुका दिया..! उसके मुँह से सिर्फ इतना ही निकला। वह हाथ मख्ता खड़ा रह गया।”

इस तरह उसने अपने ऋण का बोज उतार दिया..!!

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