पुराने जमाने में स्वामी भोजनानन्द नामक एक कपटी साधु रहता था। वह गाँव-गाँव घूमकर लोगों को अच्छी अच्छी कहानियाँ सुनाता और लम्बे लम्बे उपदेश देता था। यही उसका पेशा था। अन्य लोग उसे बड़ा भारी भक्त समझते थे। उसने लम्बी दाढ़ी बढ़ा ली थी और गेरुण वस्त्र पहन लिए थे। गले में रुद्राक्ष की मालाएँ भी लटकती थीं। जहाँ चार आदमी मिल जाते वहीं यह व्याख्यान देने लगता,

“भाइयो और बहनो..! हमेशा सच बोलो..! किसी को ठगो मत..! हमेशा दान धर्म करते रहो। धन का लोभ छोड़ दो और अपने पराए का भेद भूल जाओ। हमेशा कर्तव्य का ध्यान रखो। कर्म करो, मगर फल की आशा न रखो। कर्म के फल का भार स्वामी भोजनानन्द पर छोड़ दो। वही तुम्हारी नैया खेचंकर पार पहुंचा देंगे। इसी राह पर चलने से तुम तर सकते हो।”

इस तरह स्वामी भोजनानन्द जब व्याख्यान झाड़ने लगते तो सुनने वाले, क्या बच्चे, क्या बूढ़े, गया औरत, क्या मई, सभी सुध-बुध खो बैठते और एक स्वर से “स्वामीजी की जय” बोलने लगते। दुनिया के काम-काज से उनका जी उचट जाता और उनमें से ज्यादातर लोग स्वामीजी के चेले बन जाते। जब इस तरह से बहुत लोग उसके चेले बन गए तो उसने भगवान की पूजा के बहाने उनसे बहुत सा रुपया जमा कर लिया।

इस रुपए से उसने भगवान की एक सोने की ठोस मूर्ति बनाकर अपनी झोली में छिपा ली। इस बगुला भगत का बनावटी रूप देख कर सब लोग धोखा खा गए। वे सब आपस में एक दूसरे से कहते, “हमारे स्वामीजी तो मानों भगवान के अवतार हैं। देखो न, उन्हें धन तथा रूप का मोह छू तक नहीं गया है। सचमुच हमारे भाग से ही ऐसे गुरु हमें मिल गए।”

इस तरह थोड़े ही दिनों में उसका नाम छोटे-छोटे गांवों में भी फैल गया। बहुत से धनी-मानी लोग उसके चेले बन गए। जहाँ देखो, वहीं स्वामीजी की चर्चा होने लगी। अब लोगों में उन्हें अपना मेहमान बनने के लिए होड़ सी होने लगी। सभी उन्हें अपने घर बुलाना चहते। हर कोई उन्हें अपने घर खिला पिला कर असनी से तर जाना चाहता था और स्वामीजी भी ऐसे दयालु थे कि, किसी को निराश करना नहीं चाहते थे। लेकिन बेचारे करते क्या उनके पास काफ़ी समय न था। स्वामीजी बहुत से गाँवों में घूमे। कितने ही अमीर लोग स्वामी जी को भोजन करा कर बड़ी आसानी से तर गए।

भला, स्वामीजी के सिया यह काम और कौन कर सकता था? आखिर एक दिन स्वामी जी के एक ग़रीब चेले की बारी आई। उसका न्यौता स्वामी जी ने स्वीकार कर लिया। इससे बढ़कर और क्या हो सकता था? लेकिन वह बेचारा बहुत गरीब था। उसे कोई उपाय न सूझा कि वह उन्हें क्या खिलावे? अगर स्वामीजी की सेवा में कोई त्रुटी रह गई तो डूब मरने के लिए कि, कहीं भर पानी तक न मिलेगा। अगर स्वामीजी का रोज दुलेगा तो उसे कितना बड़ा पाप लगेगा...! आखिर किसी न किसी तरह उसने भोजन का सारा प्रबन्ध कर लिया। स्वामीजी भोजन के लिए आए तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। ऐसा तर माल तो उन्हें बड़े-बड़े अमीरों के घर से भी न मिला था। उन्होंने खाने-पीने के बाद पूछा,

“बेटा..! हमने तो सुना था कि तुम बड़े ग़रीब हो। फिर तुमने ऐसा राजसी भोग कहाँ से जुटाया?”

चेला सिर हुफा कर बोला, “यह सब स्वामीजी की कृपा है।”

स्वामीजी ने मन ही मन सोचा, “मालूम होता है, इस पर हमारे व्याख्यानों का जादू खूप चढ़ा है।”

उन्होंने चेले से कहा, “बेटा..! तुम्हारी सेवा, विनय और शील देख कर हम बहुत प्रसन्न हो गए हैं। इसलिए, हमारी यह इच्छा है कि और दो चार दिन यहीं ठहर कर तुम्हारे मन को आनन्द पहुँचायें।”

यह सुन कर उसके दूसरे सब चेले अचरज में पड़ गए।

उन्होंने सोचा, “स्वामीजी तो बड़े-बड़े अमीरों के घर भी एक-दो दिन से ज्यादा नहीं ठहरते। सचमुच यह बड़ा भाग्यशाली है। नहीं तो इसकी झोपड़ी में स्वामीजी क्यों ठहरना चाहते..?”

लेकिन स्वामीजी की यह बात सुनते ही उस गरीब के सिर पर पहाड़-सा टूट पड़ा। यहाँ तो एक ही दिन की दावत में उसका दिवाला निकल गया था। फिर चार दिन तक स्वामी जी को वह क्या खिलाएगा...! आखिर किसी तरह उस बेचारे ने अपने आप को धांढस बँचाया। उसे स्वामीजी का उपदेश खूब याद था।

स्वामीजी ने कहा था, “आपने पराए का भेद भुला दो। कर्म करो, मगर फल का भार स्वामी भोजनानन्द पर छोड़ दो।”

उसने आज इन बातों को याद किया। उस गरीब के घर स्वामीजी चार दिन ठहरे। राजा-महारजाओं के घर भी उनकी वैसी आव-भगत नहीं हुई थी। स्वामीजी उस थेले से बहुत खुश हुए। उन्होंने उसे अनगिनत आशीप दिए। लेकिन उनके मन में बार-बार अचरज होता। वे बार-बार उससे पूछते,

“बेटा..! हमने तो सुना था तुन बड़े ग़रीब हो। फिर तुमने इतनी धूम धाम से हमारी सेवा टहल कैसे की...?”

चेला हर बार यही जवाब देता, “यह सब स्वामीजी की कृपा है। नहीं तो मेरी बिसात ही क्या...??”

चार-पाँच दिन हो जाने के बाद स्वामीजी वहाँ से चलने लगे। जाने के पहले उन्होंने अपने चेले को बुला कर डेढ़-दो घंटे तक लम्बा उपदेश दिया। सब कुछ सुन कर चेले ने इतना ही कहा,

“सब स्वामीजी की कृपा है।”

राह में थोड़ी दूर चलने के बाद स्वामी जी के मन में एक खटका पैदा हुआ। जाने क्यों, उन्हें अपनी झोली बहुत हल्की मालूम हुई। उन्होंने थरथराते हाथों से झोली खोली और टटोल कर देखा। सोने की मूर्ति हाथ आई। अरे इतनी हल्की...! बाहर निकाल कर उलटा-पुलटा किया... तो मालूम हुआ कि मूर्ति अन्दर से खोखली हो गई है| पसेरी भर सोने में से सिर्फ चार-पाँच तोला ही बच गया है। स्वामीजी की आँखों के आगे अंधेरा छा गया और उन्होंने मन ही मन कहा,

“मैंने आज तक लाखों को उपदेश दिया और हजारों को मुक्ति पाने का उपाय बतलाया। लेकिन आज मुझे एक ऐसा चेला मिला जिसने मेरी आँखों की पट्टी खोल दी और मुझे मुक्ति का मार्ग दिला दिया।"

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