इस्लाम अभी तक बड़े पैमाने पर महत्वपूर्ण जांच से बचा हुआ है शायद इसीलिए क्यूंकि इतिहास गवाह है की ऐसी कोशिशों ने हमेशा हिंसक प्रतिशोध और बड़े पैमाने पर हिंसा को जन्म दिया है |

इस्लाम पर अमल : कहाँ हैं सोच और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ?

सोच और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की खिलाफत बदकिस्मती से  सिर्फ इस्लाम के मौलिक सिद्धांतों का हिस्सा नहीं है | दुनिया भर के इस्लाम के इतिहास में उस पर की गयी आलोचक जांच और उपहास का अंजाम हिंसक प्रतिरोध और बड़े पैमाने पर हिंसा से दिया गया है | हम यहाँ  शुरुआती और मध्य युग से कुछ उदाहरण दे रहे हैं पर हम ज्यादा ध्यान पिछले ५० सालों के आधुनिक  युग पर केन्द्रित करेंगे |

शुरुआती और मध्य युग
मनिचावाद  ईरान का धर्म था जो इस्लाम से पहले प्रचलन में था  | उसकी खोज दक्षिणी बेबीलोनिया में जन्मे मानी (२१६ -२७६ ऐ डी) ने की थी | इस  धर्म का जन्म  पर्शिया के ग्नोस्टिक परम्पराओं से हुआ है , और  उसकी सीखों को कई स्रोतों से लिया गया है ( जैसे ईसाई धर्म , बोद्ध धर्म और  पारसी धर्म ) और वह भले और बुरे के एक ही स्रोत से जन्मे होने की सोच को खारिज करता है | वह भले को बुरे से अलग करने के लिए गंभीर वैराग्य , और शाकाहारी होने जैसे नियमों का समर्थन करता है | वह शुरू में इतनी तीव्रता से फैला की कुछ समय के लिए इसाई धर्म को टक्कर देने लगा ( उत्तरी अफ्रीका में संत ऍगस्टीन ने भी इसका कुछ समय के लिए पालन किया) | इस्लाम के शुरुआती सालों में जो लोग मन में मनिचावाद से जुड़े सिद्धांतों को मानते थे और उपरी तौर पर इस्लाम का पालन करते थे उन्हें " ज़िन्दिक” नाम दिया गया | वह कुरान  की नज़र में पाखंडी थे | इस शब्द को बाद में हर तरह के विधर्म जैसे  खुली सोच , नास्तिकता और भौतिकवाद के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा | ८ से ११ सदी में कई विद्वानों को "ज़न्दका” आरोप के चलते मौत की सजा दी गयी | ७४२ ऐ डी में द्जाद इब्न दिरहम को स्वतंत्र इच्छा के  वर्चस्व का प्रचलन करने के लिए मौत के घाट उतार दिया गया | वो मानता था की कुरान का इश्वर से नजदीकी सम्बन्ध नहीं है उसको बनाया गया है और इसीलिए वह इश्वर की दैवीय शक्तियों से वंचित है , जैसे इश्वर का मोसेस से बात करना और अब्राहम से दोस्ती करना |

इसके बाद अबासिद खलीफों (७५० -१२५८ ऐ डी) ने काफिरों की जांच और उनको सजा देने के लिए एक परीक्षक और कुछ न्यायाधीशों को नियुक्त किया | भारी संख्या में ज़िन्दिक के सर कलम किये गए , उन्हें फांसी पर लटकाया  गया  या उनका गला घोंट दिया गया और उनकी किताबों को भी जला दिया गया  | सबसे पहले ७६० ऐ दी में इब्न अल मुक़फ्फा को मारा गया ( उसके हाथ पैरों को एक एक करके काटा गया और फिर आग में जलाया गया )- उसने इस्लाम , उसके पैगम्बर और उनके इश्वर के अस्तित्व पर सवाल उठाया था | इसके बाद स्वतंत्र विचारक जैसे इब्न अबी –ल-अवजा ( ७७२ ऐ डी में मारे गए ) , बशषर इब्न बुर्द (७८४/७८५  ऐ डी मंे मारे गए) सलीह ब अब्द अल कुद्दुस (७८३ ऐ डी में मारे गए ) हम्माद अज्रद , एबीएन बी अब्द अल हुमयद बी लहिक अल राक्कासी इन सब का भी यही अंजाम हुआ | इसी तरह अबू अल अथैया को ज्ञान को परमात्मा की मोजूदगी के बिना प्रतिबिंब, कटौती और अनुसंधान के माध्यम से अर्जित किये जाने वाली सोच के लिए सजा दी गयी |अल वार्रक जिन्होनें कई धर्मों के इतिहास में ईसाई धर्म की कई शाखाओं के समझदारी और संदेह से सम्बन्ध का आलोचक विश्लेषण लिखा था उनकी निर्वासन में मौत हुई | अरबी भाषा के सबसे उच्च कवियों में से एक अल मुतनब्बी (९१५ -९६५ ऐ डी) ने अपने शुरुआती लेखों में आत्मसंयम का समर्थन कर धार्मिक सिद्धांतों को ख़ारिज कर दिया था | उन्हें एक राजनितिक –धार्मिक आन्दोलन, जिसमें उन्होनें नयी कुरान के साथ पैगम्बर होने का दावा किया था , के बाद कैद कर लिया गया चैप्टर १० |

अब हम विस्तार से एक ऐसा उदाहरण देंगे जिसने  एक तरीके से  सामूहिक हिंसा की शुरुआत की | १२८० ऐ डी में एक यहूदी दार्शनिक और चिकित्सक इब्न कम्मुना ने यहूदी धर्म , ईसाई धर्म और इस्लाम का अपनी किताब एग्जामिनेशन ऑफ़ द थ्री फैथ्स में आलोचक विश्लेषण किया | उन्होनें निष्कर्ष निकाला "हम ये नहीं कहेंगे की मुहम्मद ने पहले के धर्मों में मोजूद इश्वर और उसके लिए आज्ञाकारिता के ज्ञान में कुछ और योगदान किया है | " ऐसा कोई सबूत नहीं है की मोहम्मद जैसा दावा करता था उस  को उत्कृष्टता या औरों को उत्कृष्ट बनाने की कला हासिल हुई थी”| और " इसीलिए आज के दिन तक हम किसी को स्वेच्छा से इस्लाम में धर्म परिवर्तन करते नहीं देखते | डर , या सत्ता की चाह , या करों से बचने के लिए , बेईज्ज़ती से बचाव में , या कैद में , या किसी मुस्लमान औरत के प्यार में या ऐसी ही किसी वजह के लिए ज़रूर लोग इस्लाम को अपनाते हैं | ना ही हम किसी इज्ज़तदार ,अमीर और धार्मिक गैर मुस्लमान को जो अपने धर्म और इस्लाम दोनों से वाकिफ हो को इन सब वजहों के इलावा किसी और कारण से इस्लाम की तरफ रुख करते देखते हैं”| इसके बाद बगदाद में दंगे छिड गए और लेखक को गुप्त रूप से शहर को छोड़ना पड़ा | १३ सदी के इतिहासकार इब्न अल फुवती ने घटनाक्रम की जानकारी ऐसे दी है :

इस साल १२८४ में बगदाद में ऐसा मालूम पड़ा की यहूदी इब्न कम्मुना ने एक किताब लिखी थी जिसमें उसने भविष्यवाणियों की चर्चा बड़ी बेहयाई से की थी | इश्वर हमें उसने जो लिखा वो दोहराने से बचाए | गुस्साई भीड़ ने दंगे किये और उसके घर के बाहर उसे मारने के लिए इकठ्ठा हो गयी | आमिर और कुछ उच्च अधिकारी मुस्तान्सिरिया मदरसा पहुंचे और न्यायाधीश और कानून के शिक्षकों को मामले की सुनवाई के लिए बुलाया | उन्होंने इब्न कम्मुना को ढूँढा पर वह छुपा हुआ था | वह शुक्रवार का दिन था | न्यायाधीश नमाज़ सेवा के लिए निकला लेकिन भीड़ ने उसे रोक दिय तो वह वापस मुस्तान्सिरिया पहुंचा | आमिर भीड़ को शांत करने के लिए बाहर आया तो उसे गाली दी गयी और कहा गया की वह इब्न कम्मुना का साथी है और उसकी रक्षा कर रहा है | फिर आमिर ने पूरे बगदाद में हुक्म जारी किया की अगली सुबह शहर के बाहर इब्न कम्मुना को जलाया जायेगा | भीड़ शांत हो गयी और फिर इब्न कम्मुना की कोई बात नहीं हुई | इब्न कम्मुना को एक चमड़े से ढके बक्से में हिल्ला ले जाया गया जहाँ उसका बेटा अधिकारी की तरह कार्यरत था | वहां वह उस वक़्त तक रहा जब तक उसकी मौत नहीं हो गयी चैप्टर 1 ,[35]|

हम देखेंगे की जिन लोगों ने अपने विचारों से मुसलमानों की धार्मिक भावनाओ को ठेस पहुंचाई है उनकी निर्मम हत्याओं की कहानी अभी तक चल रही है |

आधुनिक युग १९५०-२०१४
अब हम कुछ ऐसी घटनाओं का ज़िक्र करेंगे जहाँ इस्लाम की आलोचना के फलस्वरूप हिंसक प्रतिरोध और सामूहिक हिंसा हुई |

अपनी  किताब ट्वेंटी थ्री इयर्स , अ स्टडी ऑफ़ प्रोफेटिक कैरियर में ईरान के विद्वान अली दशति (१८९४ -१९८२ ) ने इस्लामी परमपरा के मुताबिक मुहम्मद द्वारा किये हुए चमत्कारों को ख़ारिज और मुसलमानों की इस सोच को की कुरान इश्वर की वाणी है को अस्वीकार कर दिया | इसके बजाय उन्होनें दलील दी की कुरान में मौलिक तौर पर कुछ भी नया नहीं है – कुरान के सभी नैतिक उपदेश पहले से स्वयं स्पष्ट और आम तौर पर स्वीकार किये गए हैं | उन्हें ८३ साल की उम्र में ३ साल तक खोमीनी जेल में प्रताड़ित किया गया जब तक १९८४ में उनकी मौत नहीं हो गयी | १९६७ में भीड़ सीरिया की सड़कों पर उतर आई जब सीरियन सेना की पत्रिका जयश अश शब् ने इश्वर , धर्म  और खास तौर पर इस्लाम पर सवाल उठाता एक लेख छापा| इस लेख के लेखक और उसके दो संपादकों को सजा के तौर पर कठिन परिश्रम के साथ जेल में उम्रकैद की सजा सुनाई गयी | सूडान के धर्मशास्त्री ताहा महमूद को १९६८ में स्वधर्मत्यागी घोषित किया गया और कुरान के कानून नियम के स्रोत होने के योगदान को कम करने के लिए १९८५ में सबके सामने फांसी दी गयी | १९८३ में अल्जीरिया के बुद्धिजीवी रचिद बौदज्देरा को धर्म के खिलाफ आलोचक टिप्पणी देने के लिए फतवा जारी किया जिसमें उन्हें मारने की धमकी दी गयी | चैप्टर 1 [३५]

१९९३ में बंगलादेशी लेखिका तसलीमा नसरीन ने  एक हिन्दू परिवार को मुसलमानों के हाथों मिले दुःख पर लज्जा नाम की किताब लिखी |बाद के एक साक्षात्कार में दावा किया गया की वह कुरान को बदलने की मांग  कर रही हैं ( उनका कहना है की उन्होनें सिर्फ इस्लाम के धार्मिक कानून  शरिया को ख़ारिज करने की मांग की थी) | मुसलमानों ने उनकी किताब पर प्रतिबन्ध लगाने की मांग की और बार बार उन पर हमला किया , उनकी मौत की मांग की , उनके सर पर इनाम रखा और उन्हें मारने की धमकी दी | कई लाखों प्रदर्शनकारियों ने उन्हें " इस्लाम की निंदा करने के लिए शाही ताकतों द्वारा नियुक्त काफिर बताया”| उन्होनें बांग्लादेश छोड़ दिया और उसके बाद स्वीडन ,कोल्कता और दिल्ली में वास किया लेकिन अपना इस्लाम विरुद्ध रवैय्या नहीं बदला | २००६ में कोलकत्ता के टीपू सुल्तान मस्जिद के इमाम ने उसको इनाम देने की घोषणा की जो तसलीमा के मूंह को काला  करेगा |२००७ में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल बोर्ड ने उनके सर पर ५००००० रूपये का इनाम रखा और जब तक वह माफ़ी मांग , अपनी किताबें जला भारत से चली नहीं जाती तब तक उसे हटाने से इंकार कर दिया | अपनी हैदराबाद की एक यात्रा में उन् पर मुस्लिम राजनितिक दल ऐ आई एम् आई एम् के सदस्यों के नेतृत्व में जुटी भीड़ ने हमला किया | एक हफ्ते बाद कोलकत्ता के मुस्लमान नेताओं ने उनके ऊपर एक पुराने फतवे को सजीव कर दिया जिसमें उनको मारने वाले को असीमित पैसा देने की बात कही गयी थी | इसके बाद एक मुस्लिम एकाई ने शहर में इतना दंगा किया की उसे रोकने के लिए भारतीय सेना को आना पड़ा | उन्हें कोलकता से हटाया गया और वहां पर अब उनकी कोई पहचान नहीं है [12]|

१९८८ में भारतीय मुसलमान लेखक सामन रुश्दी ने एक किताब लिखी सैटेनिक वर्सेज  जहाँ उन्होनें बताया की इस्लाम के पैगम्बर ने कुरान में ३ पद्य जोड़े थे जिनमें मेक्का में अरब द्वारा पूजित तीन देवियों की तारीफ लिखी थी ; और बाद में जब फ़रिश्ते गेब्रियल ने उन्हें बताया की ये पद्य शैतान ने उनके मन में डाले हैं , उन्होनें उन पद्यों को किताब से हटा दिया | इन पद्यों की चर्चा इस्लाम के शुरुआती किताबों जैसे मुहम्मद की पहली जीवनी पृष्ट १६५ -१६७ [32] और अबू जफ़र मुहम्मद इब्न जरीर अल तबरी द्वारा लिखित किताब तारीख अल तबरी ( एक पर्शिया के इतिहासकार जो ८३९ -९२३ ऐ डी के दौरान वहां रहते थे )  में कई बार की गयी  है  पृष्ट ११४-११५ [३१]| लेकिन दुनिया भर के मुसलमानों को एक दस्तावेज उदाहरण का उल्लेख मात्र भी निंदक लगा | उनकी किताब पर   हिंसक विरोधों के बाद ,कई देश जिनमें मुसलमान आबादी है , में प्रतिबन्ध लगा दिया गया : भारत, बांग्लादेश, सूडान, दक्षिण अफ्रीका, श्रीलंका, केन्या, थाईलैंड, तंजानिया, इंडोनेशिया, सिंगापुर, वेनेजुएला और पाकिस्तान| ईरान के सर्वोच्च धार्मिक अधिकारी अयातुल्ला खोमीनी ने उन्हें मारने के लिए मुसलमानों को फतवा जारी  किया| एक बॉम्बर मुस्तफा महमूद मज़ह ने लन्दन में स्थित एक होटल में १९८९ में रुश्दी को मारने के लिए बनाये गए बम से खुद को उड़ा लिया |  शहीद स्मरणोत्सव के इस्लामी विश्व आंदोलन ने उसे शहीद घोषित किया और तहरान के एक कब्रिस्तान जहाँ ईरान –इराक की लडाई में मरे सैनिकों की कब्रें हैं  वहां उसके लिए एक मज़ार बनाई | उनकी माँ को ईरान में रहने के लिए आमंत्रित किया गया |

जुलाई १९९१ में रुश्दी की किताब के जापानीज अनुवादक हितोशी इगाराशी को चाकू मार उनकी हत्या कर दी गयी और इटालियन अनुवादक एत्तोरे कैप्रियल को भी चाकू मार घायल कर दिया गया | इस घटना के दो साल के भीतर अज़ीज़ नेसिं तुर्की भाषा के अनुवादक पर हमला बोला गया जिसमें 37 लोगों की मौत हो गयी | अक्टूबर १९९३ में विलियम न्य्गार्द , एक नॉर्वे का प्रकाशक ओस्लो में मरते मरते बचा | बेल्जियम में जिन दो मुस्लिम नेताओं ने खोमीनी के फतवे का विरोध किया था उन्हें मार दिया गया |कैलिफ़ोर्निया में २ और इंग्लैंड में 5 किताबों की दुकानों पर आग के बम फेंके गए | मुंबई में दंगों में 12 लोगों की मौत हो गयी | २०१२ में जब रुश्दी को जयपुर साहित्य मेले के लिए बुलाया गया तो मुसलमानों ने विरोध की धमकी दी | हिंसा से बचने के लिए भारतीय इंटेलिजेंस ब्यूरो ने रुश्दी को ये कह मेले में आने से मना कर दिया की उन्हें मारने के लिए ४ कातिलों को नियुक्त किया गया | जिन ४ भागिदार्रों ने इस किताब के हिस्से पड़े थे उन्हें गिरफ्तारी से बचने के लिए भारत से जाना पड़ा | उस मेले के अध्यक्ष विलियम डरीम्प्ल को मौत की धमकी दी गयी | अंत में आयोजकों ने मेले में रुश्दी के विडियो वार्ता को भी ख़ारिज कर दिया[24,25] |

सोमाली मुस्लिम जन्म अमेरिकी कार्यकर्ता, लेखक और राजनीतिज्ञ अयान हिरसी अली ने नैतिकता के मोजूदा मापदंडों पर इस्लाम के पैगम्बर का आंकलन किया था : इस्लाम के पैगम्बर ने ५३ साल की उम्र में छह या सात साल की लड़की से विवाह किया था और जब वह ९ साल की थी तो उससे शारीरिक सम्बन्ध स्थापित किये थे  वॉल्यूम ७ [३१]| उन्होनें औरतों को दिए गए सिमित अधिकार , भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगे प्रतिबधों और व्यभिचार के लिए सजा के विषयों पर इस्लाम की आलोचना की | २००२ में उन्होनें एक ऐसी लघु फिल्म का वौइस् ओवर रिकॉर्ड किया जिसमें मुस्लमान औरतों को प्रताड़ित किये जाने की तस्वीरों के साथ कुरान के पद्य दिखाए जा रहे थे | इस फिल्म में एक नग्न अदाकारा जिसके शरीर पर कुरान के पद्य लिखे थे को एक अर्द्ध पारदर्शी बुर्के में दिखाया गया |इस फिल्म के निर्देशक थीओ वन गोघ को एक मुस्लिम आतंकवादी संगठन के सदस्य ने गोली मार दी | मरने के बाद कातिल ने वन गोघ का गला काट दिया और एक ख़त में  हिरसी को मारने की धमकी दी | इसके बाद उनकी ज़िंदगी पर खतरे के लव्जों वाला  गीत इन्टरनेट पर डाल दिया गया | वह गायब हो गयीं और डच सरकार सुरक्षा सेवाओं ने उन्हें नीदेर्लान्ड्स के कई जगहों पर रख अंत में अमेरिका भेज दिया | एक बार उन्हें नीदेर्लान्ड्स में एक सुरक्षित घर इसीलिए छोड़ना पड़ा क्यूंकि  उनके पड़ोसियों को उनके जीवन पर खतरे की वजह से उनके  वहां रहने से आपत्ति थी | डच राज्य ने उनकी सुरक्षा पर ३.५ लाख यूरोस खर्च कर दिए थे |एक निजी न्यास स्थापित किया गया जो उनकी सुरक्षा ( और अन्य मुस्लमान काफिरों की भी )के लिए पैसा इकठ्ठा कर सके | वह अभी भी वन गोघ के साथ किये गए काम के लिए गर्व महसूस करती हैं [१३]|

भारत के डेक्कन हेराल्ड अख़बार ने एक विकलांग लड़के मोहम्मद के ऊपर एक लघु कहानी छापी थी जिसका नाम था "मोहम्मद द इडियट” | बैंगलोर की मुस्लमान जनता ने , जो की करीब १० % हैं , उसे अपने धर्म की अवहेलना मान लिया , और एक 5000 आदमियों की भीड़ ने अख़बार के दफ्तर को जलाने की कोशिश की | इसके बाद हुए दंगों में ४ की जान चली गयी और ५० घायल हो गए |

मुस्लिम गुटों ने एक मुस्लमान विरोधी फिल्म – इनोसेंस ऑफ़ मुस्लिमस के विरोध में दुनिया भर की  अमेरिकन और जर्मन एम्बेसी पर पथराव किया | [17]  मशहूर फिल्म अभिनेता कमल हस्सन द्वारा उत्पादित और निर्देशित फिल्म विश्वरूपम में से ७ सीन हटाने पड़े क्यूंकि ये माना जा रहा था की उन्हें दिखने से मुस्लिम भीड़ उत्तेजित हो सकती है [१८]|द लास्ट टेम्पटेशन ऑफ़ क्राइस्ट  एक ऐसी किताब जिसमें क्राइस्ट को यौन क्रियाएं सोचते हुए दिखाया गया है , उसे भी ईसाईयों के लिए रोष्कारी माना गया , उसके विरोध में  भी दुनिया भर में  प्रदर्शन हुए ; लेकिन फ्रांस को छोड़ इनमें से कोई भी प्रदर्शन हिंसक नहीं हुई  [३५]| इस फिल्म पर  दक्षिणअमेरिका के दो राज्यों में प्रतिबन्ध लगाया गया , पर उसी देश में उसे  न सिर्फ  बेहतरीन निर्देशक के ऑस्कर के लिए नामांकन मिला अपितु जब फिल्म प्रदर्शित हुई तो सभी सिनेमा घरों पर पूरी मोजूदगी से सफल रही [33,34]| डा विन्ची कोड को कुछ ईसाई गुटों ने आलोचक माना लेकिन फिल्म बेहद सफल रही – २००६ में उसने दुनिया भर में दूसरी सबसे ज्यादा कमाई की | उसमें ये माना गया है की येशु ने मैरी मैग्डालेन से शादी की थी और उनके वंशज आज भी जिंदा हैं | लेकिन दुनिया भर में ख़ास तौर से एशिया ( न की ईसाई प्रधान देश अमेरिका और यूरोप) में बड़े पैमाने पर लेकिन अहिंसक विरोध हुए और भारत में इस फिल्म पर ४ राज्यों में प्रतिबन्ध लगाया गया जिनमें  ईसाई प्रधान राज्य नागालैंड शामिल था [१९-21]| एक फिल्म को सेंसर बोर्ड ने इसिलए रोक रखा है क्यूंकि वह ईसाईयों की भावनाओ को ठेस पहुंचाती है , और भारत के सेंसर बोर्ड ने इससे पहले भी ईसाई धर्म और इस्लाम की भावनाओं को ठेस पहुँचाने वाली फिल्मों में से कई  सीन हटवाए हैं [२३]| इसके विपरीत एक हाल की फिल्म पी के जिसमें मंदिर ,भगवान और पंडितों का मजाक बनाया गया था उसमें से कोई सीन नहीं हटाये गए[२३] |वह दुनिया भर में सफलता से चल रही है (एक दो विरोधों के साथ ) , ख़ास तौर पर हिन्दू प्रधान देश भारत में जहाँ उसकी कमाई ६०० करोड़ रुपयों  से ज्यादा रही है |

सितम्बर २००५ में डेनिश अख़बार ज्य्ल्लान्ड्स –पोस्टें  ने 12 सम्पादकीय कार्टून छापे जिसमें से अधिकतर इस्लाम के पैगम्बर के थे | दुनिया भर में हिंसक विरोध हुए जिनमें २०० लोगों की मौत हो गयी | हर देश जिसमें थोड़ी भी मुस्लमान आबादी थी जैसे नाइजीरिया, कनाडा, भारत, अमरीका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, केन्या, और महाद्वीपीय यूरोप भर में व्यापक प्रदर्शन हुए | इन विरोधों में नाइजीरिया के मुसलमानों ने स्थानीय इसाईयों पर हमला किया | कई पश्चिमी एम्बस्स्यियों पर भी हमला हुआ : लेबनान और सीरिया में डेनिश , ऑस्ट्रियन और नार्वेजियन एम्बेसी को भारी नुक्सान पहुंचा | कई जगहों पर ईसाईयों और उनके गिरिजाघरों को भी निशाना बनाया गया | कार्टून  बनाने वालों को मौत की धमकी मिलने के बाद छुपना पड़ा | ज्य्ल्लान्ड्स पोस्टेन और उससे जुड़े अख़बारों की संपत्ति और कर्मचारियों और डेनिश राज्य के प्रतिनिधियों को कई बार निशाना बनाया गया | अमेरिका में हेडले और राणा को ज्य्ल्लान्ड्स पोस्टें के खिलाफ आतंकवादी गतिविधि आयोजित करने का दोषी पाया गया और २०१३ में उन्हें सजा दी गयी | २००९ में येल विश्वविद्यालय की प्रेस ने कार्टून को और मोहम्मद के अन्य प्रतिरूप को छापने से इंकार कर दिया क्यूंकि उन्हें अपने कर्मचारियों की सुरक्षा की फ़िक्र थी | कई अख़बारों को बंद कर दिया गया और कुछ संपादकों को बर्खास्त, बेईज्ज़त या गिरफ्तार किया गया जो किसी तरह से उन कार्टून को दुबारा छापना कहते थे | कुछ देश जैसे दक्षिणी अफ्रीका , में सरकार के आदेश से इन कार्टून के छपने प्रतिबन्ध लगा दिया गया | डेनमार्क के खिलाफ मध्य पूर्व में एक उपभोक्ता बहिष्कार आयोजित किया गया | इस बहिष्कार के चलते डेनमार्क के मध्य पूर्व के सबसे बड़े निर्यातक को शुरुआती दिनों में हर रोज़ १० लाख क्रोनर( 1.6 लाख अमेरिकी डॉलर , 1.३ लाख यूरोस ) का नुक्सान उठाना पड़ा | ९ सितम्बर २००६ को बीबीसी न्यूज़ ने बताया की इस बहिष्कार की वजह से डेनमार्क का कुल निर्यात ४ महीनों में 15.5 प्रतिशत से घट गया है | बीबीसी ने अनुमान लगाया की डेनिश व्यवसाय को १३४ लाख यूरोस नुक्सान हुआ है पर इसमें से काफी अमेरिका में ज़बरदस्त बिक्री की वजह से पूर्ण हो गया [२६]|

एक फ्रेंच व्यंगात्मक साप्ताहिक अख़बार चार्ली हेब्दो जो , कार्टून, रिपोर्ट, बहस की कला, और चुटकुले छापती है उसने ज्य्ल्लान्ड्स पोस्टें के 12 कार्टूनों को २००६ में  फिर से छापा और उसके साथ अपने भी कुछ और कार्टून जोड़ दिए | २०११ में उन्होनें इस्लाम के पैगम्बर के कुछ और कार्टून छापे | उनके दफ्तर पर आग के बम फेंके गए और उनकी वेब साईट को हैक कर लिया गया | २०१२ में उन्होनें मोहम्मद के  नग्न हास्य चित्र  छापे | ७ जनवरी २०१५ को अल्जीरिया मूल के दो फ्रेंच मुस्लिम भाई अख़बार के पेरिस के दफ्तर में घुस गए और अल्लाहु अकबर और "पैगम्बर का बदला पूरा हुआ” के नारों के साथ  गोली चलाने लगे |उन्होनें 12 लोगों का क़त्ल किया जिनमें अख़बार के कर्मचारी और  दो पुलिस अफसर शामिल थे , ११ को घायल किया जिसमें से ४ गंभीर रूप से घायल हुए | एक महिला आगंतुक को इसिलए बक्श दिया गया क्यूंकि वह औरत थी , आर इन शर्तों पर की वह इस्लाम में परिवर्तित होगी , कुरान पढ़ेगी और बुरखा पहनेगी | बाद में जब दोनों भाई उत्तरी पेरिस में स्थित एक गोदाम से भाग रहे थे तो पुलिस ने उन्हें गोली मार दी | इसक तुरंत बाद इन भाइयों से सम्बंधित एक बंदूकधारी ने पूर्वी पेरिस में स्थित एक सुपरमार्केट में कुछ लोगों को बंदी बना लिया | ४ बंदियों को बंदूकधारी ने मार दिया , और बाद में खुद भी पुलिस की गोली का शिकार हो गया [२८]|

ये प्रतिक्रियाएं इसके बिलकुल विपरीत थीं जब भारतीय मुस्लिम चित्रकार एम् एफ हुसैन ने हिन्दू प्रधान देश भारत में हिन्दू देवी और देवताओं की नग्न तसवीरें बनायीं | ख़ास तौर से उन्होनें बनाये थे 1) नग्न देवी लक्ष्मी गणेश के सर पर बैठी हुई २) एक बाघ के साथ यौन क्रीडा करती हुई देवी दुर्गा ३) नग्न देवी सरस्वती वीना पकडे हुए ४) नग्न देवी पार्वती  अपने पुत्र गणेश के साथ ५)नग्न हनुमान जो नग्न सीता को नग्न रावण की जंघा पर बेठे हुए  देख रहे हैं ६) और दो बार नग्न भारत माता – एक बार भारत के आकार में अपने नग्न शरीर पर भारत के राज्यों के नाम लिखवाये हुए , बंगाल की खाड़ी के बगल में  एक नग्न साधू के साथ | लेकिन उन्होनें पैगमबर को क्या किसी भी मुस्लिम व्यक्ति को नग्न नहीं दर्शाया | उन्होनें एक पूर्ण वस्त्र पहने मुस्लमान राजा को एक नग्न ब्राह्मण के साथ दिखाया | उनकी तस्वीरों में मुस्लमान औरतें पर्दा करती थीं और जिन मुस्लिम कवियों की उन्होनें तसवीरें बनायीं वह पूर्ण रूप से कपडे पहने थे |कुछ हिन्दुओं ने उनकी प्रदर्शनियों पर जा कर विरोध किया और आपराधिक शिकायतें भी दर्ज कीं लेकिन किसी ने उन्हें मारने का आदेश नहीं दिया | इन विरोधों के दौरान न तो कोई मारा गया न ही घायल हुआ [24] | हुसैन बाद में भारत से चले गए लेकिन इस पलायन को उन्होनें विद्रोह के बजाय नए देश में मिल रहे कर फायदों का नतीजा बताया [२९]| वह काफी सालों बाद बढती उम्र के चलते ख़तम हो गए | उनकी हिन्दुओं की भावनाओं को ठेस पहुँचाने का भारत सरकार , न्यायपालिका , राजनितिक दल और मीडिया ने समर्थन किया | हाल ही में एक सऊदी अरब की घटना में , एक लेखक को १० साल जेल और २० हफ़्तों तक १००० कोड़ों की सजा दी गयी क्यूंकि उसने सऊदी अरब के मौलानाओं और नैतिकता पुलिस की निंदा की थी [३०]|

सारांश
इन घटना क्रम से पता चलता है की मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं को किसी तरह से ठेस पहुँचाने से पूरी दुनिया में भारी हिंसा शुरू हो जायेगी , यानी की ,उन स्थानों पर जहाँ काफी मुस्लिम आबादी है , ये बात अलग है की ये देश भूगोलिक तौर पर ३ महाद्वीपों (एशिया ,यूरोप ,अफ्रीका ) में बंटे हुए हैं और उन पर भिन्न कानून लागू होते हैं , भिन्न भाषाएँ बोली जाती है और संस्कृतियाँ भी सब की अलग अलग हैं | ये अन्य धार्मिक समुदायों की प्रतिक्रियाओं से बिलकुल विपरीत है जहाँ इस तरह के गुनाहों के विरोध मुख्यतः शांतिपूर्वक ही रहते हैं और वहीँ पर होते हैं जहाँ वह समुदाय बहुमत में है | ख़ास तौर से एक ही देश भारत में रहने वाली हिन्दू और मुस्लिम समुदाय जब उनकी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचती है बिलकुल विपरीत प्रतिक्रिया देते हैं | इसीलिए ऐसा लगता है की समुदाय का व्यव्हार धर्म के सिद्धांतों से प्रभावित होता है |

निष्कर्ष
शुरुआती ७ सदी में जन्मा इस्लाम सभी समकालीन धर्मो में सबसे कम उम्र का है | ये कहा जा सकता है की वह ईसाई धर्म के विकास वाली अवस्था में ही है, जिससे उसके मूल सिद्धांत भी मिलते हैं और जो 15 सदी में विकसित होना शुरू हुआ था | इस समय के दौरान ईसाई धर्म की दुनिया में स्वतंत्र सोच पर भारी  सजा दी जाती थी | मसलन 17 सदी में गैलिलियो को सजा दी गयी क्यूंकि उसकी वैज्ञानिक खोज बाइबिल में लिखे उपदेशों के विरुद्ध थी | वोल्तैरे के दर्शनशास्त्र के प्रमुख लेख १८ सदी में सामने आये | अगर इतिहास अपने  को दोहराता है तो क्या हम उस समय में पहुँच गए हैं जहाँ इस्लाम की प्रबुद्ध संवीक्षा और उसके बाद सुधार लागू  हो जाएँ | दूसरी तरफ ये सोच एक काल्पनिक  ख्याल भी हो सकता है क्यूंकि इस्लामिक समाज में असहनीयता और बढ रही है? याद कीजिये जब हम सुरक्षा से मुस्लमान क्षेत्रों में इस्लाम की निंदा कर सकते थे वह समय बहुत पहले का नहीं है – अस्साद की सीरिया , शाह का  ईरान और अतातुर्क की तुर्की में | इस्लाम इस वक़्त एक महत्वपूर्ण मोड़ पर है |

निष्कर्ष में मैं यही कहना चाहूंगी की कई प्रतिष्ठित विद्वानों और कार्यकर्ताओं , मुस्लमान और गैर मुस्लमान दोनों , ने इस सोच की दिशा में कई महत्वपूर्ण कदम उठाएं हैं : दयानंद सरस्वती [67], अली दशति  [68], राम स्वरूप [42, 69], सीताराम गोयल [70], अनवर शेख [71], अली सिना [72], इब्न वार्रक  [41], सैम हैरिस [73], रॉबर्ट स्पेन्सर [74] इनमें से कुछ है | ये सभी व्यक्ति इस कार्य को अंजाम देने की कोशिश करते रहे फिर चाहे उन्हें निजी तौर पर कोई भी कीमत जैसे गालियां देना, बहिष्कार, क़ैद और मौत की धमकी आदि का सामना करना पड़े – इनमें से मुस्लमान विद्वानों को भी उन धार्मिक सिद्धांतोंके विरुद्ध जाना पड़ा जिनके साथ वह बड़े हुए थे | हम उनका  शुक्रिया अदा नहीं कर सकते हैं|

Source: http://www.dailyo.in/politics/there-is-no-freedom-of-thought-and-expression-in-islam-part-2/story/1/1498.html
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