बगावत

‘सेठ जी, आपका बच्चा खेलता है तो हमारा बच्चा खाता है’ गुब्बारों और बच्चों के के रंग-बिरंगे खेल-खिलौनों से लदी हुई अपनी साइकिल लेकर सेठ जी के हवेली में खड़ा सेठ जी से गुब्बारों और खिलौनों के मोल-भाव न करने की विनती कर रहा था।

सेठ जी के पोते ने साइकिल पर लदे गुब्बारों और खिलौनों में से अधिकतर पसंद कर लिये थे। यूं तो रामू, साइकिल, गुब्बारों और खिलौनों का सुबह से शाम तक साथ रहता पर बीच-बीच में जब कोई पसंद आकर बिक जाता तो पल-भर के लिए जुदाई महसूस होती। एक गुब्बारे का वजन ही कितना होता है पर एक गुब्बारा बिकने से भी साइकिल को ऐसा लगता जैसे उसका वजन उसके किसी अपने ही के बिछड़ जाने से कम हो गया है। फिर गुब्बारों में तो रामू की सांसें भरी होतीं। सुबह अपनी झोंपड़ी से निकलने से पहले बहुत सारे गुब्बारों में अपनी सांसें भर कर रामू निकलता। रामू की जिंदगी भारी थी और इसीलिए उसकी सांसें भी भारी थीं। इन भारी सांसों को झेलना भी हर किसी गुब्बारे के बस में नहीं होता। अनेक गुब्बारे तो इन भारी सांसों को झेलते हुए ही खत्म हो जाते।

‘अच्छा चलो, दाम कम नहीं करते, पांच गुब्बारे ही मुफ्त में दे दो’ मुनीम जी, पैसे दे दो।

खूब सारा सामान खरीदा गया था। सेठ जी का नौकर सामान लेकर हवेली के अन्दर जा रहा था और उनका पोता सामान के आगे-पीछे होता कूदता फांदता खुशी से चल रहा था। खुशी चीज ही ऐसी होती है।

रामू ने अनमने मन से पांच गुब्बारे मुफ्त में दिये थे। पर यकायक उसके मन में कुछ ख्याल आया और उसने सेठ जी से कहा ‘सेठ जी, बच्चे के जन्म-दिन पर बुलाइयेगा, हवेली को गुब्बारों से सजा दूंगा।’

‘अच्छा, जरूर बुलायेंगे, अगर तुम दाम ठीक लगाओगे। दस दिन के बाद ही मेरे पोते का जन्म दिन है। तुम सुबह ही आकर हवेली को गुब्बारों से सजा देना’ सेठ जी ने कहा।

अब रामू को पांच गुब्बारों को मुफ्त में देना अखरना बन्द हो गया था। उसे बहुत बड़ा काम मिल गया था।

‘कम से कम 500 गुब्बारे तो लग ही जायेंगे इस हवेली को सजाने में’ यह सोचते-सोचते रामू का पिचका हुआ चेहरा खुशी से भर आया था। रामू का चेहरा परिवार की जिम्मेदारियों के बोझ से पिचक चुका था। बापू तो चले गये थे पर बापू जी के भी बापू की साइकिल इस परिवार का अभी तक साथ निभा रही थी। रामू अपनी साइकिल को बड़े जतन और प्यार से रखता और अक्सर बुदबुदाता ‘तुम सारा दिन हमारा साथ देती हो, इतना बोझा उठाती हो, मैं सदा ही कृतज्ञ रहूंगा।’ यह सुनकर साइकिल भी इठलाती।

जितनी देर तक सेठ जी और रामू में सौदेबाजी हो रही थी उतनी देर में उसकी साइकिल के पास कुछ बच्चे आ खड़े हुए थे और गुब्बारों और खिलौनों को खुशी से देखते हुए वे अपने हाथों से बीच-बीच में उन्हें छू लेते, गुब्बारों पर हाथ फेर लेते। ठीक वैसे जैसे सुबह घर से बाहर निकलते समय उनकी माताएं अपने बच्चों की भगवान से खैर मांगकर उनके चेहरों पर ममता भरे हाथ फेरतीं। या फिर ऐसे जैसे फूलों के इर्द-गिर्द भंवरे और तितलियां मंडराने लगते हैं। उन्हें तो फिर भी परागकण मिल जाते पर बच्चों का मंडराना बेकार ही साबित होता था। इधर गुब्बारे और खिलौने भी सरल हृदय बच्चों का स्पर्श पाकर प्रसन्न होते।

सौदेबाजी और बड़ा काम मिलने के बाद जब रामू वापिस अपनी साइकिल की ओर मुड़ा तो बच्चे साइकिल से हट गये और दूर से ही गुब्बारों और खिलौनों को देखकर खुश होने लगे। रामू ने पलभर उनकी ओर देखा और फिर साइकिल लेकर चल पड़ा। बच्चे भी साइकिल के पीछे-पीछे उछलते-कूदते चलने लगे ‘वो लाल वाला कितना सुन्दर गुब्बारा है’ ‘नहीं, लाल से अच्छा तो पीले वाला है’ ‘नहीं नीला बहुत सुन्दर है’। ऐसी आवाजें कुछ दूर पीछा करतीं और फिर शांत हो जातीं। गुब्बारे और खिलौने भी बच्चों को दूर होता देखते रहते जैसे पिता के कंधे पर संभला बच्चा पीछे की ओर देख रहा हो। बच्चों द्वारा इतनी तारीफ करने के बाद उन्हें कुछ पुरस्कार मिल जाता, ऐसा नहीं था। रामू कभी-कभी बच्चों को मीठी झिड़की से भी दूर हटा देता। खाली जेब बच्चों की कसक मन में ही रह जाती और फिर वे मुस्कुराते हुए किसी और गतिविधि में व्यस्त हो जाते।

आज रामू संध्याकाल से पहले ही घर पहुंच गया। रामू की पत्नी झुमरी उसे जल्दी वापिस आया देख हैरान हुई और बाहर जाकर देखा तो साइकिल पर काफी बोझ उतरा हुआ था। अन्दर लौट कर बोली ‘आज तो काफी सामान बिक गया है।’

‘झुमरी, ये तो कुछ भी नहीं, आज तो एक बहुत बड़ा आर्डर मिला है’ रामू ने खुशी की अतिरेक में कहा। पर इस खुशी में झुमरी को रामू के चेहरे पर शिकन भी दिखाई दी।

‘क्या बात है, कुछ चिंता है क्या?’ झुमरी ने पूछा।

‘हां, चिंता है। एक तो 500-600 गुब्बारे खरीदने के लिए पैसे चाहिए होंगे और फिर उन्हें फुलाना। समय भी कम मिलेगा। सेठ जी की हवेली पर जाकर करना पड़ेगा। पता नहीं कर सकूंगा या नहीं। सेठ जी से तो वायदा कर आया हूं।

‘चिंता न करो स्वामी’ झुमरी ने कहा ‘इसका भी कोई हल निकल आयेगा।’ रामू की चिंता का भार अपने ऊपर ले लिया था झुमरी ने। रात भर दोनों को नींद नहीं आई जिसके कई कारण थे। जागते-जागते ही सुबह हो गई थी।

‘मुझे कुछ सूझा है’ रामू अचानक बोला।

‘क्या?’ चूल्हा जलाती हुई झुमरी ने पास आकर पूछा।

‘मैं जब भी गुब्बारे बेचने निकलता हूं तो बहुत सारे बच्चे जो सारा दिन सड़कों पर धूल फांकते हैं वो बीच-बीच में साथ-साथ चलते रहते हैं। उन्हें उम्मीद होती है कि मैं उन्हें कोई गुब्बारा या खिलौना दे दूंगा। उनको इकट्ठा करके चला जाऊंगा और वे गुब्बारे फुलाने में मेरी मदद कर देंगे और मेरा काम समय से पूरा हो जायेगा’ रामू ने सुझाया।

‘नहीं, यह ठीक नहीं है, बच्चे तो आखिर बच्चे हैं, उनसे ऐसा मुश्किल काम नहीं करवाओ। 500 गुब्बारे फुलाना कोई आसान काम नहीं है। तुम ऐसा करो कि भीखू और मंगू को साथ ले जाना। उनकी मदद से तुम सारा काम समय से पूरा कर लोगे। उन दोनों को भी फायदा हो जायेगा’ झुमरी ने अपनी राय प्रकट की।

‘हां, यह ठीक है’ कहता हुआ रामू थोड़ी दूर एक झोंपड़ी में भीखू और मंगू के पास चला गया। दोनों आपस में भाई थे और जो काम मिल जाये उसी में गुजारा कर लेते थे। उन्होंने हामी भर दी। रामू की चिन्ता दूर हो गई। वह बाज़ार जाकर गुब्बारे भी खरीद लाया।

नियत दिन पर तड़के सुबह झुमरी ने रामू को खाना खिलाने के साथ-साथ रामू तथा भीखू और मंगू के लिए खाने की पोटली बना कर दे दी। तीनों सेठ जी की हवेली पर पहुंच गये और सेठ जी से आज्ञा लेकर गुब्बारे फुलाने और सजाने का काम आरम्भ कर दिया। रामू अनुभवी था अतः वह जल्दी-जल्दी गुब्बारे फुलाये जा रहा था। भीखू और मंगू से तो कई बार गुब्बारे छिटक कर दूर चले जाते। उन्हें रामू ने समझाया और फिर वे भी धीरे ही सही पर ठीक से गुब्बारे भरने लगे। थक कर जिसका मुंह लाल हो जाता वह कुछ पल विश्राम कर लेता। बीच-बीच में कुछ गुब्बारे फट भी जाते। अथक परिश्रम के बाद गुब्बारे फुला लिये गये और हवेली के जिस स्थान पर जन्म दिन मनाया जाना था वहां सजा दिये गये। कुछ गुब्बारे हवेली के द्वार पर भी सजा दिये गये। रंग-बिरंगे गुब्बारों से हवेली की छटा निराली हो गई थी।

‘सेठ जी, सजावट का काम पूरा हो गया है’ कहकर रामू हाथ बांध खड़ा हो गया।

‘मुनीम जी, गुब्बारे गिन कर रामू को पैसे दे दो। और हां, इन्हें कुछ मिठाई भी दे देना। आज मेरे पोते का जन्मदिन है। मुझे अच्छा लगेगा’ कहते हुए सेठ जी हवेली में चले गये।

रामू, भीखू और मंगू हवेली से बाहर निकले तो रामू ने देखा वही रोज वाले बच्चे खड़े थे। ‘काका, आज तो खूब सारे गुब्बारे लगाए, बहुत सुन्दर लग रहे हैं’ एक बच्चे ने ललचायी निगाहों से कहा।

बच्चों की तरफ मुस्कुरा कर देखते हुए वे तीनों वहां से चले गए। इधर इतने सारे गुब्बारों ने बच्चों के दिलों में हलचल पैदा कर दी थी। ‘इतने सारे गुब्बारों में से तीन-चार गुब्बारे मिल जाते तो मजा आ जाता’ एक ने जोर से कहा। यह सुनकर हवेली का चौकीदार बाहर आया और बच्चों को वहां से हटने के लिए डांटने लगा। बच्चे अनमने मन से पीछे हटने लगे। पर गुब्बारों में आकर्षण कहीं ज्यादा था और बच्चे फिर-फिर हवेली के द्वार पर आकर खड़े हो जाते।

‘भइया, तीन-चार गुब्बारे हमको भी दे दो’ एक बच्चे ने हवेली के चौकीदार से कहा।

‘चलो दूर हटो, यहां मत खड़े हो’ चौकीदार ने जोर से डांटा। डांट सुनकर सजे हुए गुब्बारों ने मायूस बच्चों की ओर देखा और दुःखी हुए। चौकीदार द्वारा जोर से डांटे जाने पर सेठ जी भी बाहर आये और माजरा समझा। ‘चलो बच्चो, यहां भीड़ मत करो’ सेठ जी ने कहा।

‘हमको 3-4 गुब्बारे दे दो’ बच्चों की भीड़ में से एक बालिका ने कहा।

‘चौकीदार, इन्हें हटाओ यहां से, मैले कुचैले कपड़ों में यहां की सुंदरता बिगाड़ रहे हैं’ समझाते हुए सेठ जी अन्दर चले गये। अब चौकीदार डंडा लेकर बच्चों के पीछे पड़ गया तो बच्चे डर के मारे भागने के लिए पलटे। एक बालिका गिर गई और उसे चोट लग गई। गिरने से लगी चोट से ज्यादा उसे डंडे की चोट का भय था। अतः जैसे-तैसे वह उठ खड़ी हुई और भाग गई। गुब्बारों ने यह सब देखा, उन्हें भी बहुत परेशानी हुई।

‘यह अच्छा नहीं हुआ। मासूम बच्चों का दिल टूट गया। मेरा बस चलता तो मैं खुद ही बच्चों के पास चला जाता’ एक गुब्बारे ने कहा। ‘हां, हां, हम भी’ कई स्वर साथ उभरे। मायूस हो चुके मासूम बच्चों के लिए गुब्बारों ने आपस में मंत्रणा की। ‘हां, हां, जितना हो सकेगा ऐसा ही करेंगे’ हां में हां मिली।

दिन ढलने के साथ-साथ मेहमानों का आना शुरू हो गया। उनके साथ आये बच्चे गुब्बारों को देख बहुत खुश हो रहे थे। उनकी नज़र गुब्बारों पर ही अटक गई और वे माता-पिता का हाथ छुड़ा कर उन्हें कूदते हुए पाने की कोशिश करने लगे। गुब्बारे उनका हाथ पास आते ही दूर हो जाते। जन्मदिन मनाना शुरू किया जा चुका था। केक कटा और सभी मंे बंटा। जन्मदिन के गीत गाये गये। बच्चों को टूथपिक दे दी गई ताकि वे गुब्बारों को फोड़ कर आनन्द का शोर कर सकें।

बच्चे गुब्बारों के पास दौड़े। योजना के अनुसार गुब्बारे बच्चों के हाथों में आने से बच रहे थे। बच्चे परेशान हो रहे थे। गुब्बारे बगावत कर बैठे थे। बच्चों का मायूसी भरा रुदन सुनकर उनके माता-पिता का ध्यान उनकी ओर गया।

‘यह हमारे हाथ ही नहीं आ रहे’ एक अमीरजादे ने कहा तो उसके पिता ने आराम से गुब्बारे को दीवार से अलग कर के दे दिया। ऐसा ही अनेक माता-पिता ने किया। तब तक सेठ जी नौकरों को आदेश दे चुके थे कि बच्चों को गुब्बारे उतारने में मदद करें। थोड़ी देर तो बच्चे गुब्बारों से खेलते रहे। पर गुब्बारों को इस बात की कोई खुशी नहीं थी। गुब्बारों से खेलकर थकते हुए बच्चों ने गुब्बारों को फोड़ना चाहा। पर बगावत का फैसला किये हुए गुब्बारों ने अपनी देह को सख्त कर लिया और बच्चे टूथपिक की मदद से भी गुब्बारे फोड़ नहीं पा रहे थे। ये देख गुब्बारे खुश थे।

बच्चों को असफल देख्कर फिर उनके माता-पिता ने उन्हें साथ दिया। बच्चों से टूथपिक लेकर खुद ही फोड़ने लगे। सख्त जान हो चुके गुब्बारों में से कुछ ने माता-पिता की ताकत के समक्ष हथियार डाल दिये और शहीद होते हुए साथियों की ओर ऐसे देख रहे थे मानो कह रहे हों ‘क्षमा करना दोस्तो, इससे अधिक शक्ति नहीं है।’ यह देख उनके साथी दुःखी हुए पर इस दुःख ने उन्हें मज़बूत किया। वे फिर ऐसे बने रहे कि उन पर टूथपिक चुभाने का असर नहीं हुआ। आखिर में 60-70 गुब्बारे बच रहे बाकी सब धीरे-धीरे शहीद हो गये।

बच्चे और उनके माता-पिता थक चुके थे। यह देख सेठ जी उकता गए और क्रोधित होकर नौकरों को उन्हें बाहर फेंकने का आदेश दिया ‘ये बेकार हैं, इन्हें जलाकर फोड़ दो।’ ‘नहीं ऐसा करने से यहां जलने की बदबू फैल जायेगी और सारा मजा खराब होगा’ एक ने सलाह दी। ‘इन्हें सजा तो मिलनी चाहिए। अच्छा तो इन्हें हवेली से बाहर फेंक दो’ सेठ जी ने आदेश दिया। नौकरों ने आदेश का पालन किया और जो 10-20 गुब्बारे नीचे उतारे जा चुके थे उन्हें बाहर फेंक दिया। बाकी ऊपर टंगे रहे।

बाहर वाले मायूस बच्चे हवेली की रौनक देखने के लिए हवेली के इर्द-गिर्द ही चक्कर लगा रहे थे। गुब्बारे बाहर फेंके जाते ही उनकी नज़र पड़ी और वे उन्हें उठाने दौड़ पड़े। जब बच्चों ने देखा उन्हें कोई रोक नहीं रहा है तो उन्होंने मिलकर सभी गुब्बारे उठा लिए और अपने घरों की ओर चल पड़े। आज गुब्बारों ने जो बगावत की थी उससे मायूस बच्चों को प्रसन्नता मिली थी। बच्चे गुब्बारे देखकर बहुत खुश थे और बगावत करने वाले गुब्बारे बच्चों को देखकर। खुश होते बच्चे यह नहीं समझ पा रहे थे कि इन गुब्बारों को बाहर क्यों फेंक दिया गया? उन्हें यह जानने की अधिक उत्सुकता भी नहीं थी। आखिर उन्हें मनवांछित खुशी जो मिल गई थी।

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