दोहा-- सुमति बढावन सबहि जन, पावन नीति प्रकास ।

टिका चाणक्यनीति कर, भनत भवानीदास ॥१॥

मैं उन विष्णु भगवान को प्रणाम करके कि जो तीनों लोकों के स्वामी हैं, अनेक शास्त्रों से उद् धृत राजनीतिसमुच्चय विषयक बातें कहूंगा ॥१॥

दोहा-- तत्व सहित पढि शास्त्र यह, नर जानत सब बात ।

काज अकाज शुभाशुभहिं, मरम नीति विख्यात ॥२॥

इस नीति के विषय को शास्त्र के अनुसार अध्ययन करके सज्जन धर्मशास्त्र में कहे शुभाशुभ कार्यको जान लेते हैं ॥२॥

दोहा-- मैं सोड अब बरनन करूँ , अति हितकारक अज्ञ ।

जाके जानत हो जन, सबही विधि सर्वज्ञ ॥३॥

लोगों की भलाई के लिए मैं वह बात बताऊँगा कि जिसे समभक्त लेने मनुष्य सर्वज्ञ हो जाता है ॥३॥

दोहा-- उपदेशत शिषमूढ कहँ; व्यभिचारिणि ढिग वास ।

अरि को करत विश्वास उर, विदुषहु लहत विनास ॥४॥

मूर्खशिष्य को उपदेश देनेसे, कर्कशा स्त्री का भरण पोषण करने से ओर दुखियों का सम्पर्क रखने से समझदार मनुष्य को भी दुःखी होना पडता है ॥४॥

दोहा-- भामिनी दुष्टा मित्र शठ, प्रति उत्तरदा भृत्य।

अहि युत बसत अगार में, सब विधि मरिबो सत्य ॥५॥

जिस मनुष्य की स्त्री दुष्टा है, नौकर उत्तर देनेवाला (मुँह लगा) है और जिस घर में साँप रहता है उस घरमें जो रह रहा है तो निश्चय है कि किसीन किसी रोज उसकी मौत होगी ही ॥५॥

दोहा-- धन गहि राखहु विपति हित, धन ते वनिता धीर ।

तजि वनिता धनकूँ तुरत, सबते राख शरीर ॥६॥

आपत्तिकाल के लिए धनको ओर धन से भी बढकर स्त्री की रक्षा करनी चाहिये । किन्तु स्त्री ओर धन से भी बढकर अपनी रक्षा करनी उचित है ॥६॥

दोहा-- आपद हित धन राखिये, धनहिं आपदा कौन ।

संचितहूँ नशि जात है, जो लक्ष्मी करु गौन ॥७॥

आपत्ति से बचने के लिए धन कि रक्षा करनी चाहिये । इस पर यह प्रश्न होता है कि श्रीमान् के पास आपत्ति आयेगी ही क्यों ? उत्तर देते हैं कि कोई ऐसा समय भी आ जाता है, जब लक्ष्मी महारानी भी चल देती हैं । फिर प्रश्न होता है कि लक्ष्मी के चले जानेपर जो कोछ बचा बचाया धन है, वह भी चला जायेगा ही ॥७॥

दोहा-- जहाँ न आदर जीविका, नहिं प्रिय बन्धु निवास ।

नहिं विद्या जिस देश में, करहु न दिन इक वास ॥८॥

जिस देश में न सम्मान हो, न रोजी हो, न कोई भाईबन्धु हो और न विद्या का ही आगम हो, वहाँ निवास नहीं करना चाहिये ॥८॥

दोहा-- धनिक वेदप्रिय भूप अरु, नदी वैद्य पुनि सोय ।

बसहु नाहिं इक दिवस तह, जहँ यह पञ्च न होय ॥९॥

धनी (महाजन) वेदपाठी ब्राह्मण, राजा, नदी और पाँचवें वैद्य, ये पाँच जहाँ एक दिन भी न वसो ॥९॥

दोहा-- दानदक्षता लाज भय, यात्रा लोक न जान ।

पाँच नहीं जहँ देखिये, तहाँ न बसहु सुजान ॥१०॥

जिसमें रोजी, भय, लज्जा, उदारता और त्यागशीलता, ये पाँच गुण विद्यमान नहीं, ऎसे मनुष्य से मित्रता नहीं करनी चाहिये ॥१०॥

दोहा-- काज भृत्य कूँ जानिये, बन्धु परम दुख होय ।

मित्र परखियतु विपति में, विभव विनाशित जोय ॥११॥

सेवा कार्य उपस्थित होने पर सेवकों की, आपत्तिकाल में मित्र की, दुःख में बान्धवों की और धन के नष्ट हो जाने पर स्त्री की परीक्षा की जाती है ॥११॥

दोहा-- दुख आतुर दुरभिक्ष में, अरि जय कलह अभड्ग ।

भूपति भवन मसान में, बन्धु सोइ रहे सड्ग ॥१२॥

जो बिमारी में दुख में, दुर्भिक्ष में शत्रु द्वारा किसी प्रकार का सड्कट उपस्थित होनेपर, राजद्वार में और श्मशान पर जो ठीक समय पर पहुँचता है, वही बांधव कहलाने का अधिकारी है ॥१२॥

दोहा-- ध्रुव कूँ तजि अध्र अ गहै, चितमें अति सुख चाहि ।

ध्रुव तिनके नाशत तुरत, अध्र व नष्ट ह्वै जाहि ॥१३॥

जो मनुष्य निश्चित वस्तु छोडकर अनिश्चित की ओर दौडता है तो उसकी निश्चित वस्तु भी नष्ट हो जाती है और अनिश्चित तो मानो पहले ही से नष्ट थी ॥१३॥

दोहा-- कुल जातीय विरूप दोउ, चातुर वर करि चाह ।

रूपवती तउ नीच तजि, समकुल करिय विवाह ॥१४॥

समझदार मनुष्य का कर्तव्य है कि वह कुरूपा भी कुलवती कन्या के साथ विवाह कर ले, पर नीच सुरूपवती के साथ न करे । क्योंकि विवाह अपने समान कुल में ही अच्छा होता है ॥१४॥

दोहा-- सरिता श्रृड्गी शस्त्र अरु, जीव जितने नखवन्त ।

तियको नृपकुलको तथा , करहिं विश्वास न सन्त ॥१५॥

नदियों का, शस्त्रधारियोंका, बडे-बडे नखवाले जन्तुओं का, सींगवालों का, स्त्रियों का और राजकुल के लोगों का विश्वास नहीं करना चाहिये ॥१५॥

दोहा-- गहहु सुधा विषते कनक, मलते बहुकरि यत्न ।

नीचहु ते विद्या विमल, दुष्कुलते तियरत्न ॥१६॥

विष से भी अमृत, अपवित्र स्थान से भी कञ्चन, नीच मनुष्य से भी उत्तम विद्या और दुष्टकुल से भी स्त्रीरत्न को ले लेना चाहिए ॥१६॥

दोहा-- तिय अहार देखिय द्विगुण, लाज चतुरगुन जान ।

षटगुन तेहि व्यवसाय तिय, काम अष्टगुन मान ॥१७॥

स्त्रियों में पुरुषकी अपेक्षा दूना आहार चौगुनी लज्जा छगुना साहस और अठगुना काम का वेग रहता है ॥१७॥

इति चाणक्यनीतिदर्पणो प्रथमोऽध्यायः ॥१॥

Please join our telegram group for more such stories and updates.telegram channel