किसी को यह नहीं समझना चाहिए कि अनार्यों ने हमें कुछ नहीं दिया। वास्तव में प्राचीन द्रविड़ लोग सभ्यता की दृष्टि से हीन नहीं थे। उनके सहयोग से हिंदू सभ्यता को रूप-वैचित्र्य और रस-गांभीर्य मिला। द्रविड़ तत्व-ज्ञानी नहीं थे। पर उनके पास कल्पना शक्ति थी, वे संगीत और वस्तुकला में कुशल थे। सभी कलाविद्याओं में वे निपुण थे। उनके गणेश-देवता की वधू कला-वधू थी। आर्यों के विशुद्ध तत्वज्ञान के साथ द्रविड़ों की रस-प्रवणता और रूपोद्भाविनी शक्ति के मिलन से एक विचित्र सामग्री का निर्माण हुआ। यह सामग्री न पूरी तरह आर्य थी, न पूरी तरह अनार्य -यह हिंदू थी। दो विरोधी प्रवृत्तियों के निरंतर समन्वय-प्रयास से भारतवर्ष को एक आश्चर्यजनक संपदा मिली है। उसने अनंत को अंत के बीच उपलब्ध करना सीखा है, और भूमा को प्रात्यहिक जीवन की तुच्छता के बीच प्रत्यक्ष करने का अधिकार प्राप्त किया है। इसलिए भारत में जहाँ भी ये दो विरोधी शक्तियाँ नहीं मिल सकीं वहाँ मूढ़ता और अंधसंस्कार की सीमा न रही; लेकिन जहाँ भी उनका मिलन हुआ वहाँ अनंत के रसमय रूप की अबाधित अभिव्यक्ति हुई। भारत को ऐसी चीज मिली है जिसका ठीक से व्यवहार करना सबके वश का नहीं है, और जिसका दुर्व्यवहार करने से देश का जीवन गूढ़ता के भार से धूल में मिल जाता है। आर्य और द्रविड़, ये दो विरोधी चित्तवृत्तियाँ जहाँ सम्मिलित हो सकी हैं वहाँ सौंदर्य जगा है; जहाँ ऐसा मिलन संभव नहीं हुआ, वहाँ हम कृपणता और छोटापन देखते हैं। यह बात भी स्मरण रखनी होगी कि बर्बर अनार्यों की सामग्री ने भी एक दिन द्वार को खुला देखकर नि:संकोच आर्य-समाज में प्रवेश किया था। इस अनधिकृत प्रवेश का वेदनाबोध हमारे समाज ने दीर्घ काल तक अनुभव किया।
युद्ध बाहर का नहीं, शरीर के भीतर का था। अस्त्र ने शरीर के भीतर प्रवेश कर लिया; शत्रु घर के अंदर पहुँच गया। आर्य-सभ्यता के लिए ब्राह्मण अब सब-कुछ हो गए। जिस तरह वेद अभ्रांत धर्म-शास्त्र के रूप में समाज-स्थिति का सेतु बन गया, उसी तरह ब्राह्मण भी समाज में सर्वोच्च पूज्य पद ग्रहण करने की चेष्टा करने लगे। तत्कालीन पुराणों, इतिहासों और काव्यों में सर्वत्र यह चेष्टा प्रबल रूप से बार-बार व्यक्त हुई है जिससे हम समझ सकते हैं कि यह प्रतिकूलता के विरुद्ध प्रयास था, धारा के विपरीत दिशा में यात्रा थी। यदि हम ब्राह्मणों के इस प्रयास को किसी विशेष संप्रदाय का स्वार्थ-साधन और क्षमता-लाभ का प्रयत्न मानें, तो हम इतिहास को संकीर्ण और मिथ्या रूप में देखेंगे। यह प्रयास उस समय की संकट-ग्रस्त आर्य-जाति का आंतरिक प्रयास था। आत्मरक्षा का उत्कट प्रयत्न था। उस समय समाज के सभी लोगों के मन में ब्राह्मणों का प्रभाव यदि अक्षुण्ण न होता तो चारों दिशाओं में टूट कर गिरने वाले मूल्यों को जोड़ने का कोई उपाय न रह जाता।
इस अवस्था में ब्राह्मणों के सामने दो काम थे - एक, पहले से चली आ रही धारा की रक्षा करना, और दूसरा, नूतन को उसके साथ मिलाना। जीवन-क्रम में ये दोनों काम अत्यंत बाधाग्रस्त हो उठे थे, इसलिए ब्राह्मणों की क्षमता और अधिकार को समाज ने इतना अधिक बढ़ाया। अनार्य देवता को वेद के प्राचीन मंच पर स्थान दिया गया। रुद्र की उपाधि ग्रहण करके शिव ने आर्य-देवताओं के समूह में पदार्पण किया। इस तरह भारतवर्ष में सामाजिक मिलन ने ब्रह्मा-विष्णु-महेश का रूप ग्रहण किया। ब्रह्मा में आर्य-समाज का आरंभकाल था, विष्णु में मध्याह्नकाल, और शिव में उसकी शेष परिणति।
यद्यपि शिव ने रुद्र के नाम से आर्य-समाज में प्रवेश किया, फिर भी उसमें आर्य और अनार्य दोनों मूर्तियाँ स्वतंत्र हैं। आर्य के पक्ष से वह योगीश्वरी है - मदन को भस्म करके निर्वाण के आनंद में मग्न। उसका दिग्वास संन्यासी के त्याग का लक्षण है। अनार्य के पक्ष से वह वीभत्स है - रक्तरंजित गजचर्मधारी, भाँग और धतूरे से उन्मत्त। आर्य के पक्ष से वह बुद्ध का प्रतिरूप है और वह सर्वत्र बौद्ध मंदिरों पर सहज ही अधिकार करता है। दूसरी ओर, वह भूत-प्रेत इत्यादि श्मशानचर विभीषिकाओं को, और सर्प-पूजा, वृषभ-पूजा, लिंग-पूजा और वृक्ष-पूजा को आत्मसात करते हुए समाज के अंतर्गत अनार्यों की सारी तामसिक उपासना को आश्रय देता है। एक ओर, प्रवृत्ति को शांत कर के निर्जन स्थान में ध्यान और जप द्वारा उसकी साधना की जाती है; दूसरी ओर, चड़क पूजा इत्यादि विधियों से अपने-आपको प्रमत्त करके, और शरीर को तरह-तरह के क्लेश में उत्तेजित करके उसकी आराधना होती है। इस तरह आर्य-अनार्य की धाराएँ गंगा-जमुना की तरह एक हुईं; लेकिन उसके दो रंग एक-दूसरे के समीप हो कर पृथक रहे।