ओम मणिपर्हुं
कर्म को सिद्धांत है यह, लेहु याको जानि।
पाप के सब पुंज की ह्नै जाति है जब हानि,
जात जीवन जबै सारो लौ समान बुताय
तबै ताके संग ही यह मृत्यु हू मरि जाय।
'हम रहे,' 'हम हैं', 'होयँगे हम' कहौ जनियहबात,
समझौ न पथिकन सरिस पल के घरन में बहु,भ्रात!
तुम एक छाँड़त गहत दूजो करत आवत बास
सुधि राखि अथवा भूलि जो कछु होत दु:ख सुपास।
¹रहि जात है कछु नाहिं प्राणी मरत है जा काल,
चैतन्य अथवा आतमा नसि जात है ज्यों ज्वाल।
रहि जात केवल कर्म ही है शेष विविध प्रकार,
बहु खंड तिनसों लहत उद्भव जन्म जोरनहार।
जग माहिं तिनको योग प्रगटत जीव एक नवीन,
सो आप अपने हेतु घर रचि होत वामें लीन।
ज्यों पाटवारो कीट आपहि सूत कातत जाय
पुनि आप वामें बसत है जो लेत कोश बनाय।
सो गहत भौतिक सत्व औ गुण आपही रचि जाल-
ज्यों फूटि विषधर अंड केंचुर दंष्ट्र गहत कराल,
ज्यों पक्षधार शरबीज घूमत उड़त नाना ठौर,
लहि वारितट कहुँ बढ़त, फेंकत पात, धारत मौर।
या नए जीवन की प्रगति शुभ अशुभ दिशि लै जाय।
जब हनत काल कराल पुनि निज क्रूर करहि उठाय।
रहि जात तब वा जीव को जो शेष शुद्धि विहीन
सो फेरि झंझावात झेलत सहत ताप नवीन।
पै मरत है जब जीव कोऊ पुण्यवान सुधीर
बढ़ि जाति जग की संपदा कछु, बहत सुखद समीर।
मरु भूमि की ज्यों धार बालू बीच जाति बिलाय।
ह्नै शुद्ध निर्मल फेरि चमकति कढ़ति है कहुँ जाय।
या भाँति अर्जित पुण्य अर्जित करत है शुभकाल,
यदि पाप ताको देत बाधा रुकति ताकी चाल।