भक्त एक मद्रासी आया, घर का बहुत बड़ा धनवान।
माल खजाना बेहद उसका, केवल नहीं रही संतान॥
 
लगा मनाने साईंनाथ को, बाबा मुझ पर दया करो।
झंझा से झंकृत नैया को, तुम्हीं मेरी पार करो॥
 
कुलदीपक के बिना अंधेरा, छाया हुआ घर में मेरे।
इसलिए आया हूं बाबा, होकर शरणागत तेरे॥
 
कुलदीपक के अभाव में, व्यर्थ है दौलत की माया।
आज भिखारी बनकर बाबा, शरण तुम्हारी मैं आया॥
 
दे-दो मुझको पुत्र-दान, मैं ऋणी रहूंगा जीवन भर।
और किसी की आशा न मुझको, सिर्फ भरोसा है तुम पर॥
 
अनुनय-विनय बहुत की उसने, चरणों में धर के शीश।
तब प्रसन्न होकर बाबा ने, दिया भक्त को यह आशीष॥
 
'अल्ला भला करेगा तेरा' पुत्र जन्म हो तेरे घर।
कृपा रहेगी तुझ पर उसकी, और तेरे उस बालक पर॥
 
अब तक नहीं किसी ने पाया, साईं की कृपा का पार।
पुत्र रत्न दे मद्रासी को, धन्य किया उसका संसार॥
 
तन-मन से जो भजे उसी का, जग में होता है उद्धार।
सांच को आंच नहीं हैं कोई, सदा झूठ की होती हार॥
 
मैं हूं सदा सहारे उसके, सदा रहूंगा उसका दास।
साईं जैसा प्रभु मिला है, इतनी ही कम है क्या आस॥
 
मेरा भी दिन था एक ऐसा, मिलती नहीं मुझे रोटी।
तन पर कपड़ा दूर रहा था, शेष रही नन्हीं सी लंगोटी॥
 
सरिता सन्मुख होने पर भी, मैं प्यासा का प्यासा था।
दुर्दिन मेरा मेरे ऊपर, दावाग्नी बरसाता था॥
 
धरती के अतिरिक्त जगत में, मेरा कुछ अवलंब न था।
बना भिखारी मैं दुनिया में, दर-दर ठोकर खाता था॥
 
ऐसे में एक मित्र मिला जो, परम भक्त साईं का था।
जंजालों से मुक्त मगर, जगत में वह भी मुझसा था॥
 
बाबा के दर्शन की खातिर, मिल दोनों ने किया विचार।
साईं जैसे दया मूर्ति के, दर्शन को हो गए तैयार॥
 
पावन शिरडी नगर में जाकर, देख मतवाली मूरति।
धन्य जन्म हो गया कि हमने, जब देखी साईं की सूरति॥
 
जब से किए हैं दर्शन हमने, दुख सारा काफूर हो गया।
संकट सारे मिटै और, विपदाओं का अंत हो गया॥
 
मान और सम्मान मिला, भिक्षा में हमको बाबा से।
प्रतिबिंबित हो उठे जगत में, हम साईं की आभा से॥
 
बाबा ने सन्मान दिया है, मान दिया इस जीवन में।
इसका ही संबल ले मैं, हंसता जाऊंगा जीवन में॥
 
साईं की लीला का मेरे, मन पर ऐसा असर हुआ।
लगता जगती के कण-कण में, जैसे हो वह भरा हुआ॥
 
'काशीराम' बाबा का भक्त, शिरडी में रहता था।
मैं साईं का साईं मेरा, वह दुनिया से कहता था॥
 
सीकर स्वयं वस्त्र बेचता, ग्राम-नगर बाजारों में।
झंकृत उसकी हृदय तंत्री थी, साईं की झंकारों में॥
 
स्तब्ध निशा थी, थे सोए, रजनी आंचल में चांद सितारे।
नहीं सूझता रहा हाथ को हाथ तिमिर के मारे॥
 
वस्त्र बेचकर लौट रहा था, हाय! हाट से काशी।
विचित्र बड़ा संयोग कि उस दिन, आता था एकाकी॥
 
घेर राह में खड़े हो गए, उसे कुटिल अन्यायी।
मारो काटो लूटो इसकी ही, ध्वनि पड़ी सुनाई॥
 
लूट पीटकर उसे वहां से कुटिल गए चम्पत हो।
आघातों में मर्माहत हो, उसने दी संज्ञा खो॥
 
बहुत देर तक पड़ा रह वह, वहीं उसी हालत में।
जाने कब कुछ होश हो उठा, वहीं उसकी पलक में॥
 
अनजाने ही उसके मुंह से, निकल पड़ा था साईं।
जिसकी प्रतिध्वनि शिरडी में, बाबा को पड़ी सुनाई॥
 
क्षुब्ध हो उठा मानस उनका, बाबा गए विकल हो।
लगता जैसे घटना सारी, घटी उन्हीं के सन्मुख हो॥
 
उन्मादी से इधर-उधर तब, बाबा लेगे भटकने।
सन्मुख चीजें जो भी आई, उनको लगने पटकने॥
 
और धधकते अंगारों में, बाबा ने अपना कर डाला।
हुए सशंकित सभी वहां, लख तांडवनृत्य निराला॥
 
समझ गए सब लोग, कि कोई भक्त पड़ा संकट में।
क्षुभित खड़े थे सभी वहां, पर पड़े हुए विस्मय में॥
 
उसे बचाने की ही खातिर, बाबा आज विकल है।
उसकी ही पीड़ा से पीड़‍ित, उनकी अंत:स्थल है॥
 
इतने में ही विविध ने अपनी, विचित्रता दिखलाई।
लख कर जिसको जनता की, श्रद्धा सरिता लहराई॥
 
लेकर संज्ञाहीन भक्त को, गाड़ी एक वहां आई।
सन्मुख अपने देख भक्त को, साईं की आंखें भर आई॥

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