जितनी जिज्ञासा गंगा और यमुना हमारे अवचेतन या चेतन मन में जगाती हैं, उतनी ही दिलचस्पी हमें इनके उद्गम यानी गंगोत्री और यमनोत्री ग्लेशियरों को लेकर भी रही है. कहना ग़लत नहीं होगा कि ये ग्लेशियर न होते तो नदियां न होतीं. यानी उद्गम है, तो प्रवाह है और प्रवाह है तो जीवन है. क्या यह तथ्य गुरू और शिष्य या गॉडफ़ादर और प्रोटीज के सन्दर्भ में कायम रहता है? रमाकांत आचरेकर न होते या फिर राजसिंह डूंगरपुर न होते तो सचिन तेंदुलकर को सामने कौन और कैसे लाता? महमूद न होते तो अमिताभ बच्चन कब या कभी ‘अमिता...भ बच्चन’ बनते? ठीक इसी तरह जिस शख्स की हम बात कर रहे हैं, अगर वे न होते तो सोचिये, महान किशोर कुमार और महानतम लता मंगेशकर को कौन दुनिया के सामने लाता?
शायद इनको नयी पीढ़ी तो भूल चुकी होगी.
यहां बात राजस्थान के सुजानगढ़ क़स्बे में जन्मे संगीतकार खेमचंद प्रकाश की हो रही है. वे खेमचंद प्रकाश जिन्होंने लता मंगेशकर से फ़िल्म ‘महल’ (1949) का गाना ‘आएगा आने वाला’ और किशोर कुमार से ‘जिद्दी’ (1948) का ‘मरने की दुआएं क्यूं मांगूं, जीने की तम्मना कौन करे’ गवाकर दुनिया को दो सितारे दे दिए. आप कहेंगे, प्रतिभाएं किसी शख्स या परिस्थिति की मोहताज नहीं होतीं. तो यह बात बहस का मुद्दा हो सकती है कि अगर नूरजहां पाकिस्तान न गई होतीं या उनको खेमचंद प्रकाश, नौशाद या मदन मोहन जैसे संगीतकार मिले होते तो क्या वे लता को पीछे छोड़ देतीं?
खेमचंद प्रकाश को संगीत विरसे में मिला था. उनके पिता पंडित गोवर्धन प्रसाद जयपुर के महाराज माधो सिंह (द्वितीय) के दरबारी गायक थे. खेमचंद 19 बरस की उम्र में यहीं दरबारी गायक और कथक नृत्यकार बन गए. क़िस्मत में बॉम्बे (मुंबई) आना बदा था. पर देखिये, वही क़िस्मत पहले कहां-कहां लेकर गयी. बीसवीं सदी में भारत के राजाओं-महाराजाओं की स्थिति ख़राब थी. जयपुर से निकलकर खेमचंद प्रकाश कुछ दिनों के लिए राजा गंगा सिंह के बुलावे पर बीकानेर चले गए. वहां मन नहीं लगा तो नेपाल के राजदरबार में गायक हो गए. कुछ समय बाद वहां से कलकत्ता आकर रेडियो कलाकार बन गए. यहां उनकी मुलाकात संगीतकार तिमिर बरन से हुई जिन्होंने खेमचंद को ‘न्यू थिएटर्स’ के लिए अनुबंधित कर लिया. 1935 में आई पहली ‘देवदास’ का संगीत तिमिर बरन का ही था. कहते हैं कि इसके गाने ‘बालम आये बसो मेरे मन में’ और ‘दुःख के दिन अब बीतत नाहीं’ खेमचंद ने ही कंपोज़ किये थे. हालांकि, इनके गीतकार केदार शर्मा इनका क्रेडिट महान कुंदन लाल सहगल को देते हैं.
1938 में ‘न्यू थिएटर्स’ की एक और फ़िल्म आई थी ‘स्ट्रीट सिंगर’. वही जिसमें केएल सहगल ने ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए’ गाया था. इस फ़िल्म में एक हल्का-फुल्का गाना था ‘लो मैडम खा लो खाना’. यह खेमचंद पर फ़िल्माया गया था.
उन दिनों पृथ्वीराज कपूर अपनी थिएटर कंपनी ‘पृथ्वी थिएटर्स’ लेकर शहर-शहर घूमते थे. उन्होंने कलकत्ते में ये फ़िल्म देखी. ‘पापाजी’ खेमचंद की प्रतिभा पहचान गए और उन्हें बॉम्बे आने के लिए कह दिया. 1939 के आसपास खेमचंद प्रकाश सामान उठाकर मायानगरी चले आये.
1939 से लेकर 1943 तक खेमचंद ने कभी अच्छा और कहीं दरमियाना संगीत जिन फ़िल्मों में दिया था वे ‘गाज़ी सलाउद्दीन’, ‘फ़रियाद’ ‘खिलौना’, ‘चिराग’ आदि थीं. इस दौरान वे ‘सुप्रीम पिक्चर्स’ और ‘रणजीत मूवीटोन’ के साथ जुड़े. फिर 1943 में आई ‘तानसेन’ ने सब कुछ हमेशा के लिए बदल दिया. केएल सहगल से उन्होंने राग दीपक में ‘दिया जलाओ जगमग जगमग’ गवाकर तहलका मचा दिया. बताते हैं कि इस गीत के लिए खेमचंद ने महीने भर मेहनत की थी!
ग़ुलाम हैदर के साथ-साथ खेमचंद प्रकाश ने भी लता मंगेशकर की प्रतिभा को बहुत पहले ही भांप लिया था, तब, जब वे रणजीत मूवीटोन के लिए संगीत रचते थे. खेमचंद ने लता को गानों के लिए अनुबंधित करने की बात रणजीत के मालिक चंदूलाल शाह से की. शाह को लता की आवाज़ पसंद नहीं आई. खेमचंद और शाह में झगड़ा हो गया. लता को गवाने की ज़िद पर उन्होंने रणजीत मूवीटोन छोड़कर बॉम्बे टाकीज़ पकड़ लिया.
यह वही स्टूडियो था जिसकी स्थापना देविका रानी के पति हिमांशु रॉय ने की थी और उनके पार्टनर थे संगीतकार मदन मोहन के पिता रायबहादुर चुन्नीलाल. इसी स्टूडियो से अशोक कुमार निकले और देवानंद की पहली हिट फ़िल्म ‘जिद्दी’ भी इसी का प्रोडक्शन थी. किशोर कुमार का पहला हिट गीत यहीं से आया. फ़िल्म के डुएट ‘ये कौन आया करके सोलह सिंगार’ की वजह से लता और किशोर एक साथ आये.
साल 1949 में बॉम्बे टाकीज़ ने अपनी सबसे बड़ी और शानदार फ़िल्म ‘महल’ प्रोड्यूस की. इसका संगीत खेमचंद की ज़िम्मेदारी था. लता उनके कैंप का स्थायी हिस्सा बन चुकी थीं. फ़िल्म के डायरेक्टर थे कमाल अमरोही. नक्शब के गीत ‘आएगा आनेवाला’ की शुरुआती लाइनें कमाल अमरोही ने लिखी थीं जिन्हें खेमचंद गाने में शामिल करना नहीं चाहते थे. पर अमरोही के इसरार के आगे हार गए. इन्ही दो पंक्तियों से गाने में ज़बरदस्त प्रभाव पैदा हो गया.
खेमचंद ने लता को इन्हें गाते हुए माइक से दूर जाकर फिर पास आने को कहा था. ‘धुनों की यात्रा में पंकज राग लिखते हैं, ‘खेमचंद प्रकाश इस गीत की धीमी लय को लेकर इतने आशंकित थे कि उन्होंने इसको फ़िल्म से निकालने का मन बना लिया था’. पर इस गीत की वजह से लता समकालीन गायिकाओं से मीलों आगे निकल गयीं और फिर बाकी इतिहास हो गया. इस गीत के मुखड़े में सिर्फ़ दो लफ्ज़ हैं-‘आएगा’ और ‘आनेवाला’ और शायद यह सबसे छोटे मुखड़े वाला गीत है. इसके बाद भी इसका कंपोज़िशन कमाल का है. ऐसी ही एक कोशिश आनंद बख्शी और एसडी बर्मन ने ‘इश्क़ पर ज़ोर नहीं’(1970) के गीत ‘ये दिल दीवाना है, दिल तो दीवाना है, दीवाना दिल है ये, दिल दीवाना’ बनाकर की थी, पर वह बात नहीं बनी’. ‘महल’ के गाने के बिना लता अधूरी हैं, खेमचंद प्रकाश अधूरे हैं और अधूरा रहेगा यह लेख ग़र वह गीत न बजाया.
‘लता सुर गाथा’ में यतींद्र मिश्र लिखते हैं कि ‘महल’ लता मंगेशकर के संघर्ष के शुरुआती दिनों की फ़िल्म है और इसके गानों के लिए उन्हें क्रेडिट न देकर रिकॉर्ड पर मधुबाला के किरदार ‘कामिनी’ का नाम दिया गया था!. उनके साथ एक बातचीत में वे कहती हैं, ‘खेमचंद जी का संगीत इतना दुरुस्त होता था कि उसकी रिहर्सल भी हम लोग न जाने कितनी बार करते’. शायद यही कारण है कि राजू भारतन लता मंगेशकर की जीवनी ‘अ बायोग्राफी’ में लिखते हैं, ‘रिकॉर्डिंग रुम में जाने से पहले यह धुन लता के पूरे अंतर्मन का हिस्सा बन चुकी थी’. लता मंगेशकर ने खेमचंद के साथ तीन फ़िल्मों के लिए गाने गाये थे. तीसरी फ़िल्म थी आशा (1948).
ठीक इसी प्रकार कुंदनलाल सहगल और खेमचंद प्रकाश की बात की जा सकती है. जानकरों के मुताबिक़ यह सवाल बेमानी है कि सहगल की गायकी ने ऐसे गीतों को हिट बनाया या खेमचंद प्रकाश की भावपूर्ण तर्ज़ों ने. दोनों ही एक दूसरे के पूरक थे. पंकज राग लिखते हैं कि खेमचंद सहगल के बिना भी माधुर्य रच सकते थे और यह बात उन्होंने ‘भर्तृहरि’(1944) के गानों को अन्य गायकों से गवाकर सिद्ध कर दी थी. वहीं 40 के दशक की गायिका ख़ुर्शीद के ज़्यादातर लोकप्रिय गाने खेमचंद प्रकाश ने ही रचे थे. एक बात और. मन्ना डे और नौशाद भी खेमचंद प्रकाश की निगहबानी में पले-बढ़े और पके.
खेमचंद प्रकाश ने कई फ़िल्मों में शानदार संगीत दिया. पर वे ‘महल’ के पार नहीं जा पाए. शायद क़िस्मत की बात थी कि इस फिल्म के रिलीज़ होने के चंद महीनों बाद, महज़ 42 साल की उम्र में 10 अगस्त, 1950 को वे चल बसे. ‘महल’ का संगीत उनका ‘स्वान सांग’ (अंतिम रचना) नहीं था, पर यकीनन यह उनकी, लता मंगेशकर की और बॉलीवुड की सर्वश्रेष्ठ रचनाओं में से एक है. अफ़सोस! वे अपनी सबसे बड़ी कामयाबी न देख पाए.