कपकपातीं शीत की रातें ,

लिख रहा हूँ गुनगुने कुछ गीत ।। 

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बदल रहीं व्यंजनाएँ ,

क्या कहें किसको सुनाएँ ।

     रास्ते काँटों भरे हैं ,

 मन नयन आँसू झरे हैं ।

सिले होंठों पर दबी बातें ,

बेबफा हो जैसे निठुर मीत ।।

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चल पड़े हुईं हवाएँ साथी

हाथ दीपक जूझती बाती ।

मुकुट सब मोती जड़े हैं ,

महल में राजा खड़े हैं ।

फूस के घर से,जुड़े नाते ,

हरे हारे टूटती है रीत ।।

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आ जरा देहरी जगाएं

कुछ दिनों का रत जगा ।

धीरता की  धारणा हो,

 मिले सुख फिर रस पगा ।

जा रही है यामिनी अब

लगी रचने उषा नवगीत ।।

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©श्याम सुंदर तिवारी

   खण्डवा म.प्र.

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