{ न इंतजार...न आलिंगन... }


       बसंत की सुहावनी संध्या । संध्या सुंदरी चुपचाप काली चुनरी पहने धरती पर उतर रही थी। देखो कैसी चुप्पी साधे, खामोश--- और हवा की क्या मजाल कि वह अपनी गति को तेज कर दे।  उसकी कान सुन्न न पड़ जाएगी और अभी, जब उसकी प्रिय सहेली चुपचाप उतर रही है, वह रुक जाएगी। और वह पहले सावधान करती है-चुप...चुप... चुप... किसी को कुछ भी मत कहना, मैं आ रही हूँ, कोई शब्द नहीं, कोई आवाज नहीं, बड़ा आई है इठलाने वाली , प्रीति तो एक कुंज में घिरी है। उसके पत्र-पत्रांको से उलझी, उसके नियमों को सविस्तार से परखती, पर इस भुलावे में मत रहना वह सबकुछ देख रही है, सुंदर समां की अलौकिक मल्लिका को, हां जी देखते नहीं उसके आनंद भरी चितवन।

        अब देखो, कोई उसके समीप आया है, अलबत्ता उसे इस खुशगवार और सिंदुरी शाम से कोई मतलब, कोई लगाव नहीं, कोई ग्रन्थिबन्धन नहीं,उसका आकर्षण बस प्रीति है।

         वह आकर उससे कुछ दुर पर खड़ा प्रीति के आनंद भरे चितवन को देख रहा है, और बहुत ही खामोशी के साथ। उसके चेहरे पर उतेजना है, आंखों में विचलित कर देने वाला अहसास  है, प्रीति के चुहचुहाते आकर्षण में डूबता उतरता। काश ! कि प्रीति उसके साथ प्रेमालाप के मीठे गीत को गुनगुनाती। तब कितना अच्छा होता! कितना सुखमय! लेकिन वहां तो सब खामोश हैं,  प्रीति, पत्रांक, और पुष्प। सब धन अलका होती, सब राग सितार और वह उसकी परिणीता। अगर कोई प्रीति के अन्तर्मन मे प्रणीत हो रहे कवि कल्पना सत्य को उजागर किए गए खजाने की टीका टिप्पणी करे या नहीं इसका कोई महत्व प्रीति नहीं रखती। वह खुद क्यों न उस कल्पना सत्य को समझ परखकर प्रेम ग्रंथ की रचना करे। वह वहीं बैठी जाने किस स्वगोधान को सजाने सँवारने में बैठी है। उसका अंग-प्रत्यंग निखर आया है। धानी चुंदरी के ऊपर और कुछ नहीं है, उसके कोमल और रोमांचक अंग को ढंके दुपट्टा कभी कभार स्वच्छता के साथ और कोमलता से, और स्निग्धता से लहरा लेने का प्रयत्न करती है और उसे दांव सम्हाल कर रखना पड़ रहा है। पैरों में कुछ भी नहीं है। न जुतियाँ, न चप्पलें, न सैंडिलें और गोरी-गोरी पिंडलियाँ, नाजुक-नाजुक बारीक अंगुलियां चुनरी के किनारे से बाहर झांक रही है, चेहरा उसी तरह झुका है। पत्रांको में उलझा, सिर पर दुपट्टे का किनारा अस्त व्यस्त हो रहा है, बेली में लटें कुछ इधर उधर बिखर गई है। जहाँ-तहाँ एक दो पौधे की पत्तियां बालों के घोसलों में उलझी हुई है। सुंदर, सौम्य, सभ्य, पढ़ी-लिखी और एक आदर्श शिक्षिका का यह वन्य रूप बड़ा मनमोहक जान पड़ता है।

         शोहदा निरन्तर देखे जा रहा है, उस सौंदर्य की मल्लिका को, उसके रूप का आकर्षण और यौवन की महक उसे उतेजित कर रहा था। उसके आकर्षण के मद में वह इतना खो गया कि वह स्वयं की उपस्थिति को भूल गया। अनायास ही जैसे उसे कोई सचेत कर रहा है_ "ऐ...क्या देखता है? प्यार करना है! सुख पाना है तो वार्ता क्यों नहीं करता?"

        शोहदा आतुर हो उठता है और उसके मुख से अनायास ही अस्फुट सा निकलता है---”प्रीति...”

        प्रीति चौंक गईं, मुड़कर पीछे देखने लगी, वह युवक जो शोहदा था, झेंप सा गया । हड़बड़ाकर बगलें झांकने लगा, जैसे आज उसकी चोरी पकड़ ली गई हो। प्रीति खिलखिलाकर हंस पड़ी। फिर वह अपने चेहरे पर कुछ ऐसी भाव बनाई जैसे कह रही हो---’मूर्ख , बदमाश!’ और वह तुनककर झाड़ियों से उलझ गईं।

          यह क्या? यह कैसी बातें निकल गई। कुछ कहते-कहते कहाँ अटक गया। शोहदा पछताने लगा, आखिर क्यों उसके मन मे संशय हो आया, संकोच या भय। प्रीति उसकी कमजोरी को ताड तो नहीं गई। कहां तो आया था अपनी नीलपरी से बात करने, अपने रोमान्स की, स्वप्निल जीवन की, प्यार के मीठे अहसास की। मन में कितनी कोमल भावनाएं जागृत हो रहा था, कितनी आकर्षक कल्पनाएं जन्म ले रहा था। लेकिन यहाँ पहुँचकर वह डर गया। सीधे अपने मन की बात को क्यों नहीं कह पाया वह?

       उसने सोचा। लेकिन यह भी तो कोई बात नहीं हुई, प्रीति मग्न है तो मग्न है रहे, उसे कुछ कहना है तो कह डाले, लेकिन यह तो अधिकार हो गया जैसे, उसकी भावनाओं को कद्र न करना, क्या हक है उसे, अब छोड़ो भी इन बातों को। शोहदा की बात पर या उसके मुख पर आते-जाते भावों को पढ़कर प्रीति पुनः खिलखिलाकर हंसी थी। शोहदा का हिम्मत बढ़ गया-----”आज बच्चों की छुट्टी जल्दी कर दी क्या? पिताजी कहाँ हैं तुम्हारे।” शोहदा भावुक और शान्त, बस इतना ही कह पाया।

       “नहीं हैं, क्यों ?” प्रीति तपाक से पिछले बात का उत्तर दे दी।

        “मैं तुमसे बातें करना चाहता हूँ प्रीति, बहुत सारी बातें” आखिर शोहदा दिल को कड़ा करके बोल ही दिया। फिर वह चारों ओर देखने लगा, जैसे कोई उनदोनों की उपस्थिति को देख न ले। देखकर कोई गलत अर्थ न निकाल ले। किसी को कोई गलत शक हुआ तो बेकार ही बवाल फैल जाएगा।

         “अच्छा आज बहुत सारी बातें करोगे, कभी किसी से एकाध लब्ज बोला भी है” प्रीति शोखी से मुस्कुरा कर बोली।

        आह...!  प्रीति के इसी सदाबहार मुस्कराहट पर तो शोहदा मर मिटा है’ शोहदा को संशय भी हो रहा था कि यदि वह उसके किसी बात का बुरा मान गई तो क्या होगा? इसीलिए वह काफी सावधान भी था।

       “आज मौसम कितना अच्छा है। अच्छी-अच्छी बातें ऐसे ही अवसरों पर तो की जाती है प्रीति।" शोहदा एक-एक शब्द को बहुत ही सहजता के साथ बोला था।

        “लेकिन मैं तुमसे बात नहीं करता बदमाश”.....! प्रीति मुँह चिढ़ाते हुए उठी और लपककर वहाँ से चल दी।

        शोहदा को लगा किस अधिकार के साथ वह कह गई, शोहदा सुलगते रहने के लिए वहां अकेला रह गया , उसे लगा कि जलती हुई लकड़ी पर अचानक वारिस ने हमला बोल दिया और उसकी प्रत्येक चिंगारियों को सुला दिया गया।

         शोहदा जब से प्रीति के अंग प्रत्यंग को देखा है, और उस देखने मात्र से ही वह एक प्रकार के अलौकिक आनंद से भर उठा है। उस सुखद अनुभूति को पाने के लिए वह पागलों के समान प्रीति को एक झलक देख लेने के लिए बेचैन रहता है। फिर पता नहीं कैसे उसे यह भी अहसास होने लगा कि आए दिन प्रीति को लेकर उसके मन मे अनेक सुखद कल्पनाएं कुलबुला रहा है। और वह हमेशा उसके याद में, उसकी प्रतीक्षा में हौले-हौले सुलग रहा है। सुलगता ही जा रहा है। हर वक्त सोते जागते, खाते पीते, रास्ता चलते, आंखों के सामने बस एक ही तस्वीर सजीव हो उठता है, और मन की जुवान पर एक ही प्यारा सा नाम गूंजता  है--------प्रीति.... प्रीति... प्रीति...।  वह अपने तमाम दिनचर्चा को ताख पर रखकर पता नहीं दिन में कितने गलियों को रौंदता है, कितने गीत के कड़ियों को गुनगुनाता है, कितने कुत्तों को दौड़ाता है और अपना सबकुछ मान चुका प्रीति के मकान के कितने चक्कर काटता है। उसे अहसास हो गया है कि प्रीति के बिना वह जिंदा नहीं रह सकता, कल्पना ही नहीं कर सकता है। उसकी कल्पनाएं, उसकी इच्छाएं, उसकी भावनाएं सब कुछ प्रीति में रच-बस गया है। वह आकर्षण,  वह उतावलापन क्या उसका कभी पीछा नहीं छोड़ेगा।

        फिर प्यार.......जब पहली बार उसके भावनाओं की आधार शिला पर यह अनमोल शब्द गुंजा था, वह चौंक पड़ा था। जब बोध हुआ था, शर्म से पलकें मूंद लिया था वह। लेकिन यह प्यार हुआ कैसे---न प्रीति से कोई बात, न इंतजार, न आलिंगन..........।

          हमारी भावनाएं तब बहुत जल्द गतिशील हो जाती है, जब हम किसी आकर्षक, उतेजक, अनावृत वस्तु या दृश्य को देखते हैं। कुछ तस्वीरें हमारी मस्तिष्क की चेतना को झकझोर देती है और उसे पाने के लिए हमे हमेशा उकसाता रहता है, तब हम अपने सारे आदर्श और नैतिकता को ताख पर रख कर उसे पाने के लिए मचल उठते हैं, और उस ओर तीव्र वेग के साथ दौड़ लगा देते हैं। यह परम सत्य है। महाभारत के अमर पात्र महाराजा शान्तनु ने गंगा और सत्यवती को देख कर उसे पाने के लिए विकल हुए थे। महर्षि व्यास एक भील पुत्री को देख कर मचले थे, देवता इंद्र अहिल्या पर मोहित हुए थे, राजा दुष्यंत शकुंतला के सौंदर्य के सामने मात खाया था। यह उनके आकर्षण के प्रति भावनाएं ही थी। फिर एक साधारण सा मनुष्य को अपने भावनाओं पर क्या अधिकार है। वह तो स्वयं ही एक शक्ति है, जिस प्रकार समुद्र में उठता हुआ ज्वार।

..........क्रमशः.......
 

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