का शीराज़ में पुनरागमन
तीस-चालीस साल तक भ्रमण करने के बाद सादी को जन्म–भूमि का स्मरण हुआ । जिस समय वह वहाँ से चले थे, वहाँ अशांति फैली हुई थी। कुछ तो इस कुदशा और कुछ विद्या लाभ की इच्छा से प्रेरित होकर सादी ने देशत्याग किया था। लेकिन अब शीराज़ की वह दशा न थी। साद बिन जंग़ी की मृत्यु हो चुकी थी और उसका बेटा अताबक अबूबक राजगद्दी पर था। यह न्याय-प्रिय, राज्य-कार्य-कुशल राजा था। उसके सुशासन ने देश की बिगड़ी हुई अवस्था को बहुत कुछ सुधार दिया था। सादी संसार को देख चुके थे। अवस्था वह आ पहुंची थी जब मनुष्य को एकांतवास की इच्छा होने लगती है, सांसारिक झगड़ों से मन उदासीन हो जाता है। अतएव अनुमान कहता है कि पैंसठ या सत्तर वर्ष की अवस्था में सादी शीराज़ आये। यहाँ समाज और राजा दोनों ने ही उनका उचित आदर किया। लेकिन सादी अधिकतर एकांतवास ही में रहते थे। राज-दरबार में बहुत कम आते-जाते। समाज से भी किनारे रहते। इसका कदाचित्त एक कारण यह भी था कि अताबक अबूबक को मुल्लाओं और विद्वानों से कुछ चिढ़ थी। वह उन्हें पाखंडी और उपद्रवी समझता था। कितने ही सर्वमान्य विद्वानों को उसने देश से निकाल दिया था। इसके विपरीत वह मूर्ख फ़कीरों की बहुत सेवा और सत्कार करता; जितना ही अपढ़ फ़कीर होता उतना ही उसका मान अधिक करता था। सादी विद्वान भी थे, मुल्ला भी थे, यदि प्रजा से मिलते-जुलते तो उनका गौरव अवश्य बढ़ता और बादशाह को उनसे खटका हो जाता। इसके सिवा यदि वह राज-दरबार के उपासक बन जाते तो विद्वान लोग उन पर कटाक्ष करते। इसलिए सादी ने दोनों से मुंह मोड़ने में ही अपना कल्याण समझा और तटस्थ रहकर दोनों के कृपापात्र बने रहे। उन्होंने गुलिस्तां और बोस्तां की रचना शीराज़ ही में की, दोनों ग्रंथों में सादी ने मूर्ख साधु, फ़कीरों की खूब ख़बर ली है और राजा, बादशाहों को भी न्याय, धर्म और दया का उपदेश किया है। अंध-विश्वास पर सैकड़ों जगह धार्मिक चोटें की हैं। इनका तात्पर्य यही था कि अताबक अबूबक सचेत हो जाय और विद्वानों से द्रोह करना छोड़ दे। सादी को बादशाह की अपेक्षा युवराज से अधिक स्नेह था। इसका नाम फ़ख़रूददीन था। वह बग़दाद के ख़लीफ़ा के पास कुछ तुहफ़े भेंट लेकर मिलने गया था। लौटती बार मार्ग ही में उसे अपने पिता के मरने का समाचार मिला। युवराज बड़ा पितृभक्त था। यह ख़बर सुनते ही शोक से बीमार पड़ गया और रास्ते ही में परलोक सिधार गया। इन दोनों मृत्युओं से सादी को इतना शोक हुआ कि वह शीराज़ से फिर निकल खड़े हुए और बहुत दिनों तक देश-भ्रमण करते रहे। मालूम होता है कि कुछ काल के उपरांत वह फिर शीराज़ आ गये थे, क्योंकि उनका देहांत यहीं हुआ। उनकी कब्र अभी तक मौजूद है, लोग उसकी पूजा, दर्शन (जि़यारत) करने जाया करते हैं। लेकिन उनकी संतानों का कुछ हाल नहीं मिलता है। संभवत: सादी की मृत्यु 1288 ई. के लगभग हुई। उस समय उनकी अवस्था एक सौ सोलह वर्ष की थी। शायद ही किसी साहित्य सेवी ने इतनी बड़ी उम्र पायी हो।
सादी के प्रेमियों में अलाउद्दीन नाम का एक बड़ा उदार व्यक्ति था। जिन दिनों युवराज फ़ख़रूद्दीन की मृत्यु के पीछे सादी बगदाद आए तो अलाउद्दीन वहाँ के सुल्तान अबाक़ ख़ांका वजीर था। एक दिन मार्ग में सादी से उसकी भेंट हो गयी। उसने बड़ा आदर-सत्कार किया। उस समय से अन्त तक वह बड़ी भक्ति से सादी की सेवा करता रहा। उसके दिये हुए धन से सादी अपने ब्याह के लिए थोड़ा-सा लेकर शेष दीनों को दान कर दिया करते थे। एक बार ऐसा हुआ कि अलाउद्दीन ने अपने एक गुलाम के हाथ सादी के पास पांच सौ दीनार भेजे। गुलाम जानता था कि शेख़साहब कभी किसी चीज़ को गिनते तो हैं नहीं, अतएव उसने धूर्तता से एक सौ पचास दीनार निकाल लिये। सादी ने धन्यवाद में एक कविता लिखकर भेजी, उसमें तीन सौ पचास दीनारों का ही जिश्क्र था। अलाउद्दीन बहुत लज्जित हुआ, गुलाम को दंड दिया और अपने एक मित्र को जो शीराज़ में किसी उच्च पद पर नियुक्त था लिख भेजा कि सादी को दस हजार दीनार दे दो। लेकिन इस पत्र के पहुंचने से दो दिन पहले ही उनके यह मित्र परलोक सिधार चुके थे, रुपये कौन देता? इसके बाद अलाउद्दीन ने अपने एक परम विश्वस्त मनुष्य के हाथ सादी के पास पचास हज़ार दीनार भेजे। इस धन से सादी ने एक धर्मशाला बनवा दी। मरते समय तक शेख़शादी इसी धर्मशाला में निवास करते रहे। उसी में अब उनकी समाधि है।