अपूर्व के इस तरह बाहर चले जाने पर सभी आश्चर्य में पड़ गए। बैरिस्टर कृष्ण अय्यर ने पूछा, “यह कौन है डॉक्टर? बहुत ही भावुक।”

उसकी बात में स्पष्ट उलाहना था कि ऐसे लोगों का यहां क्या काम है?”

डॉक्टर थोड़ा हंस पड़े।

प्रश्न का उत्तर दिया तलवलकर ने, “यह हैं मिस्टर अपूर्व हालदार! हमारे ऑफिस में मेरे सुपीरियर अफसर हैं। लेकिन बहुत अन्तरंग हैं। मेरे रंगून के प्रथम परिचय की कहानी नहीं सुनी। यह एक....”

सहसा भारती पर नजर पड़ते ही रुककर उसने कहा, “वह जो कुछ भी हो, प्रथम परिचय के दिन से ही हम लोग मित्र हैं।”

डॉक्टर हंसकर बोले, “भावुकता नाम की वस्तु सर्वदा बुरी नहीं होती कृष्ण अय्यर! और तुम्हारी तरह सभी को कठोर पत्थर बन जाने से काम नहीं चलेगा। ऐसा सोचना भी ठीक नहीं है।”

कृष्ण अय्यर बोले, “ऐसा मैं भी नहीं सोचता। लेकिन कमरे को छोड़कर उनके विचरने के लिए संसार में स्थान तो कम है नहीं।”

तलवलकर मन-ही-मन क्रोधित हो उठा। जिसे बार-बार अपना परम मित्र बता रहा है, उसे उसी के सामने अवांछित व्यक्ति सिध्द करने की चेष्टा से उसने अपना अपमान समझकर कहा, “मिस्टर अय्यर, अपूर्व बाबू को मैं पहचानता हूं। यह सच है कि हम लोगों के मंत्र की दीक्षा लिए उन्हें बहुत दिन नहीं हुए। लेकिन मित्र की अकल्पित मृत्यु से थोड़ा-सा विचलित हो जाना, हम लोगों के लिए भी कोई भयानक अपराध नहीं है। संसार में चलने-फिरने के लिए अपूर्व बाबू को स्थान की कमी नहीं है। और मुझे आशा है कि इस मकान में भी उनके लिए स्थान की कमी नहीं पड़ेगी।”

डॉक्टर बोले, “अवश्य नहीं पड़ेगी तलवलकर, अवश्य नहीं पड़ेगी।” फिर वह विशेष रूप से भारती को लक्ष्य करके बोले, “लेकिन यह मित्रता नाम की वस्तु संसार में कितनी क्षण भंगुर है भारती। एक दिन जिसके संबंध में सोचा भी नहीं जा सकता, दूसरे ही दिन जरा-सा कारण पैदा हो जाने पर हमेशा के लिए विछोह हो जाता है। यह भी संसार में कोई अस्वाभाविक नहीं है तलवलकर! इसके लिए भी तैयार रहना चाहिए। मनुष्य बहुत ही दुर्बल प्राणी है। संसार के धक्के संभालने के लिए इसी भावुकता की आवश्यकता पड़ती है।”

इन सब बातों का उत्तर नहीं, प्रतिवाद भी नहीं। सब मौन रहे। लेकिन भारती का चेहरा उदास हो उठा। भारती जानती है कि अकारण कुछ कहना डॉक्टर का स्वभाव नहीं है।

डॉक्टर ने घड़ी देखकर कहा, “मेरा तो जाने का समय हो रहा है भारती! रात की गाड़ी से जा रहा हूं तलवलकर!”

कहां और किसलिए? अपने आप बताए बिना अनावश्यक कौतूहल प्रकट करने का नियम इन लोगों में नहीं है।”

तलवलकर ने पूछा, “मेरे लिए आपका आदेश?”

डॉक्टर ने हंसकर कहा, “आदेश तो है, लेकिन एक बात है, बर्मा में स्थान का अभाव हो ही जाए तो अपने देश में नहीं होगा, यह निश्चित है। मजदूरों पर जरा नजर रखना।”

तलवलकर ने गर्दन हिलाकर कहा, “अच्छा, फिर कब भेंट होगी?”

डॉक्टर ने कहा, “नीलकांत जोशी के शिष्य हो तुम, फिर यह प्रश्न कैसे कर बैठे?”

तलवलकर चुप हो रहा। डॉक्टर ने कहा, “अब देर मत करो, जाओ। घर पहुंचते-पहुंचते भोर हो जाएगी। -और अय्यर, क्या यहीं प्रैक्टिस करने का निश्यच कर लिया है?”

कृष्ण अय्यर ने सिर हिलाकर सम्मति प्रकट की। किराए की गाड़ी बाहर खड़ी प्रतीक्षा कर रही थी। दोनों बाहर जाने लगे तो तलवलकर ने कहा, “अंधेरे में अपूर्व बाबू कहां चले गए। भेंट नहीं हुई....”

लेकिन इस बात का उत्तर देना किसी ने आवश्यक नहीं समझा। कुछ ही देर बाद गाड़ी की आवाज से मालूम हो गया कि वह लोग चले गए।

“तुम क्या समझती हो....अपूर्व चला गया?” डॉक्टर ने कहा।

भारती बोली, “नहीं सम्भव है आस-पास खोजने से मिल जाएंगे। आपसे बिना भेंट किए वह नहीं जाएंगे।”

डॉक्टर बोले, “तुम यही काम करो। अधिक नहीं ठहर सकता बहिन!”

“नहीं। वह इसी बीच आ जाएंगे,” यह कहकर दरवाजे के बाहर भारती ने नजरें दौड़ाई और परिचित पैरों की आवाज की प्रतीक्षा में बेचैन हो उठी। जी चाहा दौड़कर कहीं आप-पास से उसे पलभर में खोज लाए। लेकिन इतनी व्याकुलता दिखाने में उसे आज लज्जा मालूम हुई। डॉक्टर ने घड़ी की ओर देखा। भारती ने घड़ी पर नजर डाली। पांच-छ: मिनट से अधिक समय नहीं था।

“आप क्या पैदल ही जाएंगे?”

“नहीं। दो बजकर बीस मिनट पर बड़ी सड़क से एक घोड़ा गाड़ी गुजरेगी। छ:-सात आने में स्टेशन पहुंचा देगी।”

“पैसा न देने पर भी पहुंचा देगी। लेकिन जाने से पहले क्या सुमित्रा जीजी को देखने नहीं जाएंगे? वह सचमुच बीमार हैं।”

डॉक्टर ने कहा, “मैंने कब कहा कि बीमार नहीं हैं? लेकिन डॉक्टर को दिखाए बिना बीमारी कैसे अच्छी होगी?”

भारती बोली, “आपसे अच्छा डॉक्टर कौन मिलेगा?”

डॉक्टर ने मजाक में उत्तर दिया, “तब तो हो चुकी अच्छी। अभ्यास छूटे बहुत दिन बीत चुके हैं। फिर बैठा-बैठा किसी का इलाज करता रहूं, इतना समय कहां है मेरे पास?”

भारती बोल उठी, “आपके पास भला समय कहां है! कोई मर भी जाए तो भी आपको समय नहीं मिलगा। क्या देश का काम ऐसा ही होता है?”

डॉक्टर का हंसता हुआ चेहरा पलभर को गम्भीर होकर फिर पहले जैसा हो गया। भारती यह देखते ही अपनी गलती समझ गई। सुमित्रा कौन है? डॉक्टर के साथ उसका सबंध क्या है? और किस तरह वह इस दल में शामिल हुई, भारती को इस सबंध में कुछ भी मालूम नहीं था। इन लोगों की संस्था में व्यक्तिगत परिचय के प्रति जिज्ञासा निषिध्द माना जाता है। इसीलिए अनुमान के सिवा ठीक तौर से कुछ भी जान लेने का उपाय नहीं था। केवल स्त्री होने के नाते ही उसने सुमित्रा का मनोभाव कुछ-कुछ जान लिया था। लेकिन अपनी उसी अनुभूति को आधार मानकर इतना बड़ा इशारा कर बैठने से वह केवल संकोच में ही नहीं पड़ गई बल्कि भयभीत भी हो उठी। भयभीत वह डॉक्टर से नहीं सुमित्रा से हुई। यह बात किसी भी तरह उसके कान तक पहुंच जाने से काम बिगड़ जाएगा। उनका और परिचय मालूम न होने पर भी पहले से ही उस शांत, तीक्ष्ण, विद्या-बुध्दिशालिनी रमणी के दुर्भेद्य गम्भीरता के परिचय से कोई भी अपरिचित नहीं था। उनके स्वरूप और भाषण से उनके प्रखर सौन्दर्य के हर पदक्षेप से, उनके संयम-गम्भीर वार्तालाप से, उनके अचंचल आचरण की गम्भीरता से, इस दल में रहते हुए भी उनकी असीम दूरी को सब लोग भली-भांति अनुभव करते थे। यहां तक कि उनकी बीमारी के संबंध में भी अपने आप किसी प्रकार की आलोचना करने का भी किसी को साहस नहीं होता था। लेकिन एक दिन इस न बेधी जाने वाली कठोरता को बेधकर उनकी अत्यंत गुप्त दुर्बलता, उस दिन अपूर्व और भारती के सामने प्रकट हो गई थी जिस दिन एक आदमी को विदा करते समय सुमित्रा स्वयं को संभाल नहीं सकी थीं। और उसी से वह मानो अपने को सबसे अलग-बहुत दूर हटा ले गई हैं। वह विशाल व्यवधान, दूसरे की बिन मांगी सहानुभूति के आकर्षण से संकुचित होने का थोड़ा भी आभास मिलते ही उसकी अपने जीवन के प्रति अंतर में छिपी गूढ़ वेदना सहसा भड़क उठेगी, इस बात का अनुभव करके भारती का क्षुब्ध चित्त आशंका से भर जाता था।

डॉक्टर ने आराम कुर्सी पर अच्छी तरह लेटकर अपने दोनों पैर मेज पर फैला दिए और फिर आराम की सांस छोड़कर बोल उठे, “ओह....।”

भारती आश्चर्य से बोले, “आप तो खूब सो लिए?”

डॉक्टर नाराज होकर बोलें, “क्यों, क्या मैं घोड़ा हूं जो जरा-सा लेटते ही नींद आ जाएगी? मुझे नींद आ रही है। तुम लोगों की तरह खड़े-खड़े मैं नहीं सो सकता।”

“खड़े-ख़ड़े हम लोग भी नहीं सो सकते। लेकिन अगर कोई यह कहे कि आप दौड़ते-दौड़ते सो सकते हैं तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा। आपके इस शरीर से क्या कुछ नहीं हो सकता कोई नहीं जानता, लेकिन समय हो गया। इसी समय न चल पड़ने से गाड़ी नहीं मिलेगी। चली जाएगी।”

“चली जाने दो, बड़ी जोर की नींद आ रही है भारती। आंखें नहीं खोल सकता,” यह कहकर डॉक्टर ने आंखें मूंद लीं।

यह सुनकर भारती ने पुलकित मन से अनुभव किया कि केवल मेरे अनुरोध से ही आज उनका जाना स्थगित हो गया। नहीं तो नींद तो दूर, बिजली गिरने की दुहाई देकर भी उनके संकल्प में बाधा नहीं डाली जा सकती। उसने कहा, “अगर सचमुच ही नींद आ रही हो तो ऊपर जाकर सो जाइए न।”

डॉक्टर ने आंखें बंद किए ही पूछा, “तुम क्या अपूर्व की बाट देखती हुई सारी रात जागकर बिताओगी?”

भारती बोली, “मुझे क्या गरज? कोठरी में सो जाऊंगी।”

डॉक्टर बोले, “क्रोध करके लेटा तो जा सकता है लेकिन सोया नहीं जा सकता। बिछौने पर पड़कर छटपटाते रहने से बढ़कर दूसरी कोई सजा नहीं होती। इससे यही अच्छा होगा कि तुम उसे खोज लाओ। मैं किसी से नहीं कहूंगा।”

भारती का चेहरा लाल पड़ गया। कुछ देर मौन रहने के बाद स्वयं को संभाल कर बोली, “अच्छा डॉक्टर साहब, बिस्तर पर पड़कर छटपटाते रहने से बढ़कर और कोई सजा नहीं होती-यह बात आप कैसे जान गए?”

“लोग कहते हैं। वही सुनकर।”

“अपने अनुभव से नहीं जानते?”

डॉक्टर बोले, “बहिन, हम अभागों को तो सोने के लिए बिस्तर भी नसीब नहीं होते। फिर छटपटाना कैसा। इतनी बाबूगिरी के लिए फुर्सत कहां?”

भारती बोली, “अच्छा डॉक्टर साहब, सब लोग कहते हैं कि आप में क्रोध है ही नहीं। क्या यह बात सच है?”

“लोग झूठ कहते हैं। वह मुझे देख नहीं सकते।”

भारती हंसकर बोली, “या अत्यधिक प्यार करते हैं? वह तो यह भी कहते हैं कि आप में न मान है न अभिमान। न दया-माया है। हृदय आदि से अंत तक पत्थर बन गया है।”

डॉक्टर ने कहा, “यह भी अत्यधिक प्यार की बात है। इसके बाद?”

भारती बोली, “इसके बाद, उस प्रस्तर मूर्ति पर केवल एक प्रतिमा खुदी हुई है-जन्मभूमि की प्रतिमा। उसका न आदि है, न अंत है और न क्षय है। वह प्रतिमा हमें दिखाई नहीं देती। इसीलिए हम लोग आपके पास रह पाते हैं। नहीं तो....” कहते-कहते सहसा वह रुक गई। फिर बोली, “कैसे बताऊं डॉक्टर साहब, एक दिन जब में सुमित्रा बहिन के साथ बर्मा आयरन कम्पनी के कारखानें के पास से जा रही थी, उस दिन यहां कारखाने के नए बायलर की परीक्षा हो रही थी। लोग खड़े-खड़े तमाशा देख रहे थे। काले पर्वत के समान वह एक विशाल जड़-पिंड से अधिक और कुछ भी नहीं था। सहसा उसका दरवाजा खुल जाने पर ऐसा लगा मानों उसके भीतर आग का तूफान उठ रहा है। अगर उसमें इस पृथ्वी को भी उठाकर डाल दिया जाए तो वह इसे भी भस्म कर देगा। मैंने सुना है कि वह अकेला ही उस विशाल कारखाने को जला सकता है। दरवाजा बंद हो गया तो वह पूर्ववत शांत जड़-पिंड बन गया। उसके भीतर का रत्ती भर भी प्रकाश बाहर नहीं रहा। सुमित्रा बहिन के मुंह से गहरी सांस निकल गई। मैंने आश्चर्य से पूछा “क्या बात है जीजी!” सुमित्रा ने कहा, “इस भयंकर यंत्र को याद रखना भारती। इससे तुम अपने डॉक्टर साहब को पहचान सकोगी। यही है उनकी यथार्थ प्रतिमूर्ति।”

डॉक्टर ने अन्यमनस्क की तरह मुस्कराते हुए कहा, “सभी लोग क्या मुझे प्यार ही करते हैं? लेकिन नींद के मारे तो आंखों से अब कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा भारती। कुछ उपाय करो। लेकिन इससे पहले-वह आदमी कहां चला गया, क्या एक बार पता नहीं लगाओगी?”

“लेकिन आप यह बात किसी से कह नहीं सकते।”

“नहीं। लेकिन मुझ से लज्जा करने की आवश्यकता नहीं है।”

“नहीं। मनुष्य से ही मनुष्य को लज्जा होती है, “यह कहकर वह लालटेन लेकर बाहर चली गई।

लगभग पंद्रह मिनट बाद आकर बोली, “अपूर्व बाबू चले गए।”

आश्चर्य से डॉक्टर बोले, “इतने अंधेरे में अकेले?”

“ऐसा ही लगता है।”

“आश्चर्य है।”

“मैंने आपके लिए बिस्तर ठीक कर दिया है।”

“और तुम।”

“मैं फर्श पर कम्बल बिछाकर सो जाऊंगी।”

डॉक्टर बोले, “अच्छा चलो। लज्जा मनुष्य मनुष्य से करता है। मैं तो पत्थर रहा।”

ऊपर के कमरे में डॉक्टर लेट गए। भारती ने फर्श पर बिस्तर बिछा दिया।

डॉक्टर ने उसे देखकर कहा, “सब लोग मिलकर इस तरह मेरी उपेक्षा करते हैं तो मेरे आत्म सम्मान को चोट लगती है। यानी मुझसे कोई भय नहीं है।”

भारती बोली, “रत्ती भर भी नहीं। आपसे किसी का लेशमात्र भी अकल्याण नहीं हो सकता।”

डॉक्टर से हंसकर बोली, “अच्छा, किसी दिन पता चल जाएगा।”

बिछौने पर लेटकर भारती ने पूछा, “आपका सव्यसाची नाम किसने रखा था डॉक्टर साहब?”

डॉक्टर हंसकर बोले, “यह नाम दिया था पाठशाला में पंडित जी ने। उनके यहां आम का एक बहुत ऊंचा पेड़ था। केवल मैं ही ढेले भरकर उस पर लगे आमों को तोड़ सकता था। एक छत पर से कूदने पर मेरा दायां हाथ मोच खा गया। डॉक्टर ने उस पर पट्टी बांधकर मेरे गले से लटका दिया। यह देखकर सभी हाय-हाय करने लगे। लेकिन पंडित जी ने प्रसन्न होकर कहा, “जाने दो, ढेले की चोट खाने से मेरे आम तो बच गए। पकने पर शायद दो-चार मुंह में डाल सकूंगा।”

भारती बोली, “आप बड़े दुष्ट थे।”

डॉक्टर बोले, दूसरे दिन फिर आम गिराने लगा। पंडित जी को पता चल गया। उन्होंने मुझे पकड़ लिया। कुछ देर मेरी ओर देखकर बोले, “गलती हुई बेटा सव्यसाची। आम की आशा अब नहीं करता। दायां हाथ तोड़ चुके हो, बायां हाथ चल रहा है। बायां हाथ टूट जाने पर संभव है दोनों पैर चलेंगे। अब कष्ट मत करो। जो आम बचे हैं उन्हें मैं तुड़वा देता हूं।”

भारती बोली, “पंडित जी का दिया हुआ नाम है यह?”

डॉक्टर बोले, “हां, मेरा असली नाम तभी से लोग भूल गए।”

भारती फिर बोली, “अच्छा, सभी लोग जो कहते हैं कि देश और आप मिलकर एकाकार हो गए हैं। यह कैसे हुआ?”

डॉक्टर बोले, “यह भी बचपन की घटना है। इस बीच में क्या-क्या आया और चला गया, लेकिन वह दिन आज भी याद है। हमारे गांव के पास वैष्णवों का एक मठ था। एक दिन रात के समय डाकुओं ने उस मठ पर आक्रमण किया। रोने-धोने की आवाज से लोग इकट्ठे हो गए। लेकिन डाकुओं के पास एक देशी बंदूक थी, जिससे वह लोग गोलियां चलाने लगे। यह देखकर कोई उनके पास न जा सका। मेरे एक चचेरे भाई थे। अत्यंत साहसी और परोपकारी। वह जाने के लिए छटपटाने लगे। लेकिन जाने पर निश्चय ही मृत्यु होगी, यह सोचकर सबने उनको पकड़ लिया। अपने को किसी तरह न छुड़ा सकने पर वह वहीं से निष्फल उछल-कूद मचाने लगे और डाकुओं को गाली देने लगे, लेकिन उसका कोई फल नहीं हुआ। डाकुओं ने केवल एक बंदूक के जोर से दो-तीन सौ आदमियों के सामने बाबा जी को खूंटे में बांधकर जला डाला। मैं उस समय बालक था भारती! लेकिन आज भी मरते हुए बाबा जी की चीखें सुनाई पड़ती हैं। ओह, कितना हृदय विदारक आर्तनाद था वह।”

भारती ने पूछा, “इसके बाद?”

डॉक्टर बोले, “इसके बाद?”

डॉक्टर बोले, “बाबा जी को समूचे गांववालों के सामने मार डाला गया। डाकुओं ने लूटपाट का काम बड़ी आसानी से पूरा कर लिया। जाते समय डाकुओं के सरदार ने अपने पिता की सौगंध खाकर बड़े भैया को सुनाकर कहा, “आज तो हम लोग थक गए हैं। पर एक महीने के अंदर ही लौटकर हम इसका बदला लेंगे।” बड़े भैया जिला मजिस्ट्रेट के पास जाकर रोए-धोए कि मुझे एक बंदूक चाहिए। लेकिन पुलिस ने कहा, नहीं मिल सकती। क्योंकि दो साल पहले किसी अत्याचारी पुलिस इंस्पेक्टर के कान मल देने के अपराध में उन्हें दो महीने की जेल की सजा मिल चुकी थी। भैया से मजिस्टे्रट ने कहा, “जो इतना डरता है वह घर-द्वार बेचकर मेरे जिले से किसी दूसरे जिले में चला जाए।”

भारती उत्तेजित होकर बोली, “नहीं दी?”

डॉक्टर ने कहा, “नहीं, और यही नहीं, बडे भैया ने जब धनुष-बाण और बरछा बनवाया तो पुलिस उन्हें भी छीन ले गईं।”

“इसके बाद?”

“इसके बाद की घटना संक्षिप्त है। उसी महीने में सरदार ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर ली। इस बार उसके पास एक बंदूक और थी। घर के सभी लोग भाग गए। पर बडे भैया को कोई भी डिगा न सका। डाकू की गोली खाकर उन्होंने प्राण त्याग दिए।”

“प्राण त्याग दिए?”

“हां, गोली लगने के बाद चार घंटे जीवित रहे। गांव भर इकट्ठा होकर हो-हल्ला मचाने लगा। कोई डाकुओं को गाली देने लगा। कोई साहब को। केवल भैया चुपचाप पड़े रहे। देहाती गांव ही तो था। अस्पताल दस-बारह कोस दूर था। रात के समय डॉक्टर पट्टी बांधने के लिए आया तो भैया ने उसका हाथ हटाकर कहा, “रहने दो, मैं जीना नहीं चाहता।” यह कहते-कहते पत्थर के उस देवता की आवाज जरा-सी कांप उठी। बड़े भैया मुझे बहुत ही प्यार करते थे। मुझे रोते देखकर उन्होंने मेरी ओर देखा और फिर धीरे-धीरे बोले, “छि:! लड़कियों की तरह इस गाय, भेड़, बकरियों के सुर-में-सुर मिलाकर तू मत रो शैल! लेकिन राज्य करने के लोभ से जिन लोगों ने समूचे देश में मनुष्य कहलाने योग्य एक भी प्राणी बाकी नहीं छोड़ा, उन लोगों को अपने जीवन में कभी क्षमा मत करना?” घृणा से उसके मुंह से उफ, आह तक भी नहीं निकली और इस अभिशप्त पराधीन देश को चिरकाल के लिए वह छोड़कर चले गए। केवल मैं ही जानता हूं भारती- कितना बड़ा और विशाल हृदय उस दिन संसार से विदा हो गया।”

भारती चुपचाप बैठी रही। किसी समय एक छोटे से गांव में हुई दुर्घटना की कहानी ही तो है। डाका पड़ने पर दो-चार अज्ञात, अप्रसिध्द आदमियों के प्राण नष्ट हुए, इतना ही तो। जगत के बड़े-बड़े विरोधों के असहनीय दु:खों के मुकाबले में यह है क्या चीज? फिर भी इस पत्थर पर कितना गहरा घाव कर गई है। तुलना और गणना की दृष्टि से दुर्बलों के दु:खद इतिहास में हत्या की यह निर्ममता बहुत ही तुच्छ है। इस बंगदेश में ही रोजाना न जाने कितने लोग चोर-डाकुओं के हाथों मरते हैं। लेकिन इसमें क्या इतनी ही-सी बात है? क्या यह पत्थर इतने से आघात से ही विदीर्ण हो गया है? भारती को सहसा लगा, जैसे समूची बलि की दुस्सह लांछना और अपमान की ग्लानि से उस पत्थर के चेहरे पर काली स्याही की मोटी तह पोत दी है।

वेदना से भारती बोल उठी, “भैया....?

डॉक्टर ने गर्दन उठाकर पूछा, “मुझे बुला रही हो?”

भारती बोली, “हां.... क्या अंग्रेजों से तुम्हारी संधि नहीं हो सकती?”

“नहीं, मुझसे बढ़कर उनका शत्रु और कोई नहीं है।”

भारती मन-ही-मन दु:खी होकर बोली, “किसी से दुश्मनी या किसी का अहित करने की तुम कामना कर सकते हो, यह बात मैं सोच भी नहीं सकती भैया।”

डॉक्टर बोले, “भारती, यह बात तुम्हारे मुंह से ही शोभा दे सकती है। मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूं कि तुम सुखी होओ।” यह कहकर वह जरा हंस पड़े। लेकिन भारती जानती थी कि इस हंसी का कोई मूल्य नहीं है। शायद यह कुछ और ही हो।

डॉक्टर ने कहा, “भारती, हमारा देश उनके हाथों में चला गया है। इसी कारण मैं उनका शत्रु नहीं हूं। कभी यह देश मुसलमानों के हाथों में भी चला गया था लेकिन समस्त संसार में मानवता की इतनी बड़ी शत्रु जाति और कोई नहीं है। यही इन लोगों का व्यवसाय है। यही इनका मूलधन है। यदि तुमसे बन सके तो देश के सभी लोगों को, भले ही वह पुरुष हों या स्त्री, इस सत्य को समझा देना।”

भारती मौन बैठी न जाने क्या सोचने लगी। लेकिन एक समूची जाति के विरुध्द इतने बड़े अभियोग को सत्य मानकर उस पर विश्वास न कर पाई।


भारती के दल के एक आदमी ने आकर एक पत्र दिया। पत्र सुमित्रा के हाथ का लिखा हुआ था। पत्र में उसने लिखा था कि जैसी अवस्था में हो तत्काल पत्र वाहक के साथ चली आओ।

नीचे उतरकर देखा, दरवाजे के सामने परिचित गाड़ी खड़ी है लेकिन गाड़ीवान बदल गया है। लेकिन गाड़ी क्यों आई है? सुमित्रा के घर तक जाने में तीन-चार मिनट से अधिक समय नहीं लगता। उसने पूछा, “क्या बात है हीरा सिंह, सुमित्रा कहां हैं?”

हीरा सिंह पथ के दावेदार के सदस्य न होते हुए भी विश्वासपात्र है, पंजाबी सिख है। पहले हांगकांग पुलिस में सर्विस करता था। अब रंगून के तार घर में प्यून का काम करता है।

उसने धीरे से कहा, “चार-पांच मील दूर, बहुत ही गुप्त और आवश्यक सभा हो रही है। आपके न जाने से काम नहीं चलेगा।”

भारती ने प्रश्न नहीं किया। सांझ के अंधेरे में गाड़ी की खिड़कियां बंद करके चल पड़ी। हीरा सिंह सरकारी प्यून की यूनिफार्म में सरकारी साइकिल पर सवार होकर दूसरे रास्ते से चल पड़ा।

रात के लगभग दस बजे गाड़ी एक बगीचे में पहुंचकर रुक गई। हीरा सिंह पहले ही पहुंच चुका था। उसने गाड़ी का दरवाजा खोल दिया। सिर के ऊपर बड़े-बड़े पेड़ छाए हुए थे। जिसके कारण अंधकार इतना दुर्भेद्य हो गया था कि हाथ सुझाई नहीं दे रहा था। लम्बी-लम्बी और घनी घास के बीच एक पगडंडी का चिद्द मात्र दिखाई दे रहा था। इसी भयानक रास्ते पर हीरा सिंह अपनी साइकिल की छोटी-सी लालटेन की रोशनी से रास्ता दिखाते हुए आगे-आगे चलने लगा।

उस पगडंडी पर चलते ही भारती के मन में रह-रहकर यह विचार आने लगा कि इस भयंकर स्थान में आकर मैंने अच्छा नहीं किया।

थोड़ी देर बाद वह लोग एक टूटी-फूटी पुरानी इमारत के सामने पहुंच गए। बडे हाल के कोने में ऊपर चढ़ने की सीढ़ियां हैं। सीढ़ियां काठ की बनी हुई हैं। बीच-बीच में सीढ़ियों के कुछ तख्ते नहीं हैं। भारती हीरा सिंह का हाथ पकड़कर दूसरी मंजिल पर पहुंच गई। और फिर सामने का बरामदा पार करके बड़ी कठिनाई से निश्चित स्थान पर पहुंच गई। कमरे में एक चटाई बिछी थी। एक ओर दो मोमबत्तियां जल रही थीं। उन्हीं के पास सामने आसन पर सुमित्रा बैठी थी। दूसरे छोर पर डॉक्टर बैठे थे। उन्होंने स्नेह भरे स्वर में कहा, “आओ भारती, मेरे पास आकर बैठो।”

भारती जल्दी से डॉक्टर के पास जा बैठी। उसके कंधो पर बायां हाथ रखकर डॉक्टर ने जैसे चुपचाप उसे ढाढ़स बंधाया। हीरा सिंह अंदर नहीं आया। दरवाजे के पास ही खड़ा रहा। भारती ने चारों ओर नजर डाली। जो लोग बैठे थे उनमें से पांच-छ: को तो वह बिल्कुल ही नहीं पहचानती थी। परिचितों में से डॉक्टर और सुमित्रा के अतिरिक्त रामदास तलवलकर और कृष्ण अय्यर थे।

अपरिचितों पर नजर डालते ही सबसे पहने उसकी नजर एक भयानक चेहरे वाले आदमी पर पड़ी। वह गेरुए रंग का लम्बा चोला पहने था। सिर पर बहुत बड़ी पगड़ी थी। उसका मुंह बड़ी हांड़ी की तरह गोलाकार और शरीर गैंडे के समान स्थूल, मांसल और सूखा था। बड़ी-बड़ी आंखों के ऊपर भौंहों का चिद्द तक नहीं। कड़ी-कड़ी सींकों की तरह खड़ी मूंछें शायद दूर से गिनी जा सकती थीं। रंग तांबे जैसा। उसे देखते ही स्पष्ट मालूम हो जाता था कि वह अनार्य मंगोलिया जाति का है। उस वीभत्स भयानक आदमी की ओर भारती आंख उठाकर नहीं देख सकी। दो मिनट तक समूचे कमरे में सन्नाटा छाया रहा। फिर सुमित्रा ने पुकारकर कहा, “भारती, मैं तुम्हारे मन की बात जानती हूं? इसलिए मेरी इच्छा नहीं थी कि तुम्हें यहां बुलाकर दु:खी करूं। लेकिन डॉक्टर ने ऐसा नहीं करने दिया। जानती हो, अपूर्व बाबू ने क्या किया है।”

भारती मौन देखती रह गई।

सुमित्रा बोली, “वोथा कम्पनी ने रामदास को बर्खास्त कर दिया है। अपूर्व की भी वही दशा होती। लेकिन कमिश्नर के सामने हम लोगों की सारी बातें सच-सच कह देने से ही उसकी नौकरी बच गई। वेतन कम नहीं था। पांच-छह सौ के लगभग होगा।”

रामदास बोला, “हां।”

सुमित्रा बोली, 'पथ के दावेदार' विद्रोहियों का दल है और हम लोग छिपाकर रिवाल्वर रखते हैं-यह सारी बातें भी उन्होंने बता दीं। इसके लिए क्या दण्ड है भारती?”

भयंकर आकृति वाला आदमी गरजकर बोला, “डेथ।”

भारती चुप थी।

रामदास बोला, “सव्यसाची ही डॉक्टर बने हैं। यह समाचार उन्हें मिल चुका है। अपूर्व बाबू ने यह बात बता देने में कसर नहीं रखी है। होटल के कमरे में ही उन्हें पकड़ा जा सकता है। इसके पहले मैं राजनीतिक अपराध में दो वर्ष जेल काट चुका हूं, यह भी बता दिया।”

सुमित्रा ने कहा, “भारती, तुम जानती हो कि डॉक्टर पकड़े जाएंगे तो उसका परिणाम क्या होगा? फांसी हो जाएगी। अगर उससे बच भी गए तो 'ट्रांसोप्रोट्रेशन'। सभासदगण, आप लोग इस अपराध का दंड क्या निश्चित करते हैं?”

सभी एक साथ बोल उठे-”डेथ।”

“भारती, तुम्हें कुछ कहना है?”

भारती ने सिर हिलाकर बताया-”कुछ नहीं।”

वह भयंकर आदमी बोला, “यह भार मैं अपने ऊपर लेता हूं।”

कृष्ण अय्यर ने दरवाजे की ओर देखकर हीरा सिंह से कहा, “बगीचे के कोने में एक सूखा कुआं है। कुछ अधिक मिट्टी डालकर और फिर उसके ऊपर थोड़ी सूखी पत्तियां डाल देनी चाहिए। गंध न निकलने पाए।”

हीरा सिंह बोला, “इस काम में कमी न होगी।”

तलवलकर बोला, “अब बाबू साहब को बुलाकर सजा सुना देनी चाहिए।”

अपूर्व के अपराध का विचार पांच मिनट में ही समाप्त हो गया। विचार करने वालों की राय जितनी संक्षिप्त थी उतनी ही स्पष्ट भी। समझ में न आने योग्य कोई जटिलता नहीं थी।

भारती ने सब कुछ सुन लिया। लेकिन उसके कानों और बुध्दि के बीच कहीं एक ऐसी दुर्भेद्य दीवार खड़ी हो गई थी कि कोई भी बाहरी वस्तु उसे बेधकर अंदर नहीं पहुंच सकती थी। इसी से आरम्भ से अंत तक जो कोई कुछ कहता था भारती आकुल दृष्टि से उसके मुंह की ओर मुड़कर देखने लगती थी। केवल इतनी ही बात उसकी समझ में आ रही थी कि अपूर्व ने बहुत बड़ा अपराध किया है इस देश में उसका जीवन संकट में है। लकिन वह संकट इतना निकट आ पहुंचा है, यह वह बिल्कुल नहीं समझ सकीं।

सुमित्रा के इशारे से एक आदमी उठकर बाहर चला गया और दो मिनट के बाद ही अपूर्व को लेकर आ गया। अपूर्व के दोनों हाथ पीठ की ओर रस्सी से मजबूती के साथ बंधे हुए थे और कमर में एक भारी पत्थर झूल रहा था।

दूसरे ही पल भारती चेतना शून्य होकर डॉक्टर के शरीर पर लुढ़क पड़ी। लेकिन इस समय सबकी नजरें अपूर्व पर टिकी हुई थीं। इसलिए डॉक्टर के सिवा और कोई इस बात को नहीं जान सका।

भारती के यहां पहुंचने से पहले ही अपूर्व का बयान लिया जा चुका था। उसने कोई भी बात अस्वीकार नहीं की थी। ऑफिस के बड़े साहब और पुलिस के बड़े साहब दोनों ने मिलकर उससे सारी बातें जान ली थीं। लेकिन उसने इस दल और देश से इतनी बड़ी शत्रुता कैसे की, इस बात को वह अब भी नहीं जान सका था।

आज दिन के दस बजने से पहले ही रामदास ने आकर यह खबर सुमित्रा को सुना दी थी। दण्ड निश्चित हो गया। यह संक्षेप में इस प्रकार है।

ऑफिस की छुट्टी के बाद आज अपूर्व पैदल घर जाने का साहस न कर सकेगा। यह सोचकर इन लोगों ने किराए की गाड़ी हीरा सिंह की सहायता से ऑफिस के पास खड़ी कर दी। इस फंदे में अपूर्व ने सहज ही पांव रख दिए। कुछ देर चलाकर गाड़ीवान ने कहा एक भारी रोलर के टूट जाने के कारण गली का मोड़ बंद हो गया है। घूमकर जाना होगा। अपूर्व ने स्वीकार किया और उसके बाद अन्यमनस्क-सा हो गए। लेकिन घण्टे भर बाद जब उसे होश हुआ तो देखा, हीरा सिंह गाड़ी में पिस्तौल लिए खड़ा है।

सुमित्रा ने पुकारकर कहा, “अपूर्व बाबू, हम लोगों ने आपको प्राण-दंड दिया है। आपको कुछ कहना है?”

अपूर्व ने सिर हिलाकर कहा, “नहीं।”

डॉक्टर ने पूछा, “हीरा सिंह तुम्हारी पिस्तौल कहां है?

हीरासिंह ने सुमित्रा की ओर इशारा किया।

डॉक्टर ने हाथ बढ़ाकर कहा, “पिस्तौल देखूं तो सुमित्रा?”

सुमित्रा ने बेल्ट से पिस्तौल खोलकर डॉक्टर के हाथ में दे दी।

डॉक्टर ने पूछा, “और किसी के पास रिवाल्वर है?”

और किसी के पास नहीं है-यह बात सबने बता दी। तब सुमित्रा की पिस्तौल अपनी जेब में रखकर डॉक्टर ने हल्की-सी मुस्कराहट के साथ कहा, “तुमने कहा, तुम लोगों ने प्राण-दंड दिया है। लेकिन भारती ने नहीं दिया।”

सुमित्रा ने भारती की ओर देखकर कहा, “भारती नहीं दे सकती।”

डॉक्टर ने कहा, “दे पाना उचित नहीं है। क्यों भारती?”

भारती चुप रही। इस कठिनतम प्रश्न के उत्तर में उसने औंधी लेटकर डॉक्टर की गोद में अपना मुंह छिपा लिया।

डॉक्टर ने उसके सिर पर एक हाथ रखकर कहा, “अपूर्व बाबू ने जो कुछ कर डाला है, वह लौट नहीं सकता। उसका परिणाम हम लोगों को भोगना ही पड़ेगा। दंड देने पर भी और न देने पर भी भोगना पड़ेगा। इसलिए इसकी आवश्यकता नहीं। भारती इनका भार अपने ऊपर ले ले।”

सुमित्रा ने कहा, “नहीं।”

सभी एक साथ बोल उठे, “नहीं।”

वह भयानक आदमी सबसे अधिक उछला। उसने अपने दोनों पंजे उठाकर भारती की ओर इशारा करके कोई बात कही।

सुमित्रा ने कहा, “हम सबका मत एक ही है। इतने बड़े अन्याय को प्रश्रय देने से हम लोगों का सारा काम टूट-फूटकर समाप्त हो जाएगा?”

डॉक्टर ने कहा, “अगर समाप्त हो जाए तो उसका उपाय ही क्या है?”

सुमित्रा के साथ ही पांच-सात आदमी गरज उठे, “उपाय क्या है? देश के लिए, स्वाधीनता के लिए हम लोग और कोई बात नहीं मानेंगे। आपके अकेले की बात से कुछ नहीं हो सकता।”

लोगों को गरजना बंद हो जाने पर डॉक्टर ने उत्तर दिया। इस बार उनकी आवाज आश्यर्चजनक रूप से शांत और नर्म सुनाई दी। उसमें रत्ती भर भी उत्साह और उत्तेजना नहीं थी। उन्होंने कहा-”सुमित्रा, विद्रोह को प्रश्रय मत दो। तुम लोग जानते हो कि मेरे अकेले का मत तुम एक सौ आदमियों से भी अधिक कठोर है।”

फिर उस भयंकर मनुष्य को सम्बोधित करके बोले, “ब्रजेन्द्र बटाविया में एक बार तुमने मुझे दंड देने के लिए विवश किया था, अब दूसरी बार विवश मत करो।”

भारती ज्यों-की-त्यों पड़ी थी। उसका शरीर थर-थर कांप रहा था। उसकी पीठ पर प्यार से हाथ फेरते हुए डॉक्टर ने स्वाभाविक स्वर में कहा, “डरो मत भारती, अपूर्व को मैं अभय देता हूं।”

भारती ने मुंह ऊपर नहीं उठाया। उसे विश्वास भी नहीं हुआ। उसके दाएं हाथ की उंगलियां अपनी मुट्ठी में दबाकर उसे अपनी ओर खींचकर धीरे-धीरे कहा, “लेकिन इन लोगों ने तो अभय दिया नहीं, सहज देंगे भी नहीं। लेकिन यह लोग इस बात को नहीं समझते कि मैं जिसे अभय दे दूं उसे छुआ भी नहीं जा सकता।” फिर तनिक हंसकर बोले, “अच्छा खाना नहीं मिलता भारती। आधा पेट खाकर ही दिन कट जाते हैं। फिर भी यह लोग समझते हैं कि मैंने जिसे अभय दे दिया उसे छुआ जा सकता है। इन थोड़ी-सी दुबली-पतली उंगलियों के दबाव से आज भी ब्रजेन्द्र जैसे बड़े-से-बड़े बाघ के पंजे चूर-चूर हो जाएंगे। क्या कहते हो ब्रजेन्द्र।”

चटगांव को मग धुंधला मुंह लिए चुप रह गया। डॉक्टर ने कहा, “लेकिन अपूर्व अब यहां न रहे तो अच्छा है। यह देश चला जाए। अपूर्व ट्रेटर नहीं है। स्वदेश को सम्पूर्ण हृदय से प्यार करता है। लेकिन बहुत ही दुर्बल है। हम लोग सदस्यों से भी अनुरोध कर सकते हैं कि अब सभा समाप्त कर दीजिए।” यह कहकर उन्होंने सुमित्रा की ओर देखा।

सुमित्रा उन्हें कभी तुम और कभी आप कहकर सम्मान के साथ सम्बोधित किया करती थी। अब भी उसी तरह बोली, “अधिकांश सदस्यों का मत जहां किसी व्यक्ति विशेष की शारीरिक शक्ति की तुलना में महत्वहीन हो, उसे और जो चाहे कहा जाए, सभा नहीं कह सकते। लेकिन इस नाटक का अभिनय कराने का ही अगर आपका इरादा था तो दोपहर के पहले ही क्यों नहीं बता दिया था?”

डॉक्टर ने कहा, “अभिनय होता तो अच्छा होता। लेकिन विशेष स्थिति के कारण अगर अभिनय हो भी गया सुमित्रा तो यह तो तुम लोगों को मानना पड़ेगा कि अभिनय अच्छा ही रहा।”

रामदास बोला, “ऐसा हो सकता है, मैंने सोचा भी नहीं था।”

डॉक्टर बोले, “मित्रता नामक वस्तु कितनी क्षणभंगुर है, इस बात को भी तुमने कभी सोचा था तलवलकर? ऐसा सत्य संसार में दुर्लभ ही है।”

कृष्ण अय्यर ने कहा, “तुम लोगों की बर्मा की एक्टिविटी समाप्त हो गई। अब भाग जाना पड़ेगा।”

डॉक्टर बोला, “पड़ेगा ही। लेकिन समय को देखते हुए स्थान छोड़ देना और एक्टिविटी छोड़ देना एक चीज नहीं है अय्यर। अगर बहुत दिन तक किसी स्थान पर निश्चिंत भाव से रहने को जगह न मिले तो उसके लिए शिकायत करना हम लोगों को शोभा नहीं देता।” यह कहकर वह भारती को इशारा करके उठ खड़े हुए और बोले, “हीरा सिंह, अपूर्व बाबू के बंधन खोल दो। चलो भारती तुम लोगों को किसी निरापद स्थान पर पहुंचा दूं।”

हीरा सिंह आदेश पालन करने के लिए बढ़ा तो सुमित्रा ने कठोर स्वर में कहा, “अभिनय के अंतिम अंक में तालियां बजाने को जी चाहता है। लेकिन यह कोई बात नहीं है। बचपन में शायद कहीं किसी उपन्यास में पढ़ी थी। लेकिन यह युगल मिलन हम लोगों के सामने हो जाता तो और कहीं कोई कमी न रह जाती। क्या कहती हो भारती?”

भारती लज्जा से मानो मर जाने की स्थिति में हो गई। डॉक्टर ने कहा, “लज्जित होने की तो इसमें कोई बात है नहीं भारती। बल्कि मैं चाहता हूं कि अभिनय समाप्त करने के जो मालिक हैं वह किसी दिन इसमें जरा-सी कमी न रखें।” फिर जेब से सुमित्रा की पिस्तौल निकालकर उसके पास रखकर बोले, “मैं इन लोगों को पहुंचाने जा रहा हूं। लेकिन भय की कोई बात नहीं है। मेरे पास पिस्तौल और भी है।”

डॉक्टर ने कनखियों से ब्रजेन्द्र की ओर देखकर हंसते हुए कहा, “तुम लोग जो मजाक में कहा करते थे कि मैं उल्लू की तरह अंधेरे में भी देख लेता हूं, इस बात को तुम लोग आज भूल मत जाना।”

यह कहकर वह अपूर्व को साथ लेकर बाहर जाने के लिए तैयार हो गए।

सहसा सुमित्रा खड़ी होकर बोली, “क्या फांसी की डोरी अपने ही हाथ से अपने गले में डाले बिना काम नहीं चल सकता?”

डॉक्टर ने हंसते हुए कहा, “एक साधारण डोरी से डरने से कैसे काम चलेगा सुमित्रा?”

किसी काम को हाथ में लेने से पहले मनुष्य को मृत्यु का भय दिखाना कितना अर्थहीन है। यह याद करके सुमित्रा स्वयं ही लज्जित हो गई। बोली, “सब कुछ तितर-बितर हो गया। लेकिन फिर कब भेंट होगी?”

डॉक्टर ने कहा, “कोई आवश्यकता पड़ने पर ही होगी।”

“वह आवश्यकता कभी पड़ेगी।”

“जरूर पडेग़ी” यह कहकर अपूर्व और भारती को साथ लेकर वह सावधानी से नीचे उतर गए।

जो गाड़ी भारती को लेकर आई थी अभी तक खड़ी थी। गाड़ीवान को जगाकर उसमें तीनों बैठकर चल पड़े।

बहुत देर की खामोशी भंग करके भारती ने पूछा, “भैया, हम लोग कहां जा रहे हैं?”

“अपूर्व के घर” डॉक्टर ने उत्तर दिया।

लेकिन दो मील चलने के बाद जब गाड़ी रुकवा कर डॉक्टर उतरने लगे तो भारती ने आश्चर्य से पूछा, “यहां क्यों?”

डॉक्टर ने कहा, “अब लौटूंगा। वह लोग प्रतिक्षा कर रहे होंगे, कुछ-न-कुछ निर्णय तो हो ही जाना चाहिए।”

“निर्णय?” भारती व्याकुल होकर बोली, “यह न हो सकेगा। आप मेरे साथ चलिए।” लेकिन यह कहते ही भारती सुमित्रा की तरह उदास हो गईं। फिर धीरे से बोली, “तुम्हारी मुझे बहुत जरूरत है भैया।”

“मैं जानता हूं। अपूर्व बाबू, क्या परसों जहाज से घर जा सकेंगे?”

अपूर्व बोला, “जा सकूंगा।”

भारती बोली, “भैया मुझे घर जाना होगा।”

डॉक्टर बोले, “नहीं। तुम्हारे कागज-पत्र, 'पथ के दावेदार' का खाता पिस्तौल-कारतूस-नवतारा सब हटा चुकी होगी। सुबह तलाशी में देशी शराब की बोतल और टूटा हुआ बेहला, पुलिस के साहब को इसके अलावा और कुछ हाथ नहीं लगेगा। कल नौ-दस बजे के लगभग घर लौटकर रसोई तैयार करके खाने-पीने के बाद तुम्हें जरा-सा सो रहने के लिए भी शायद समय मिल जाएगा। रात को दो-तीन बजे के लगभग फिर मिलूंगा। कुछ खाने-पीने को रखना।”

भारती चुप रही। मन-ही-मन बोली, इस तरह अत्यधिक सजग न होने पर क्या इस मरणयज्ञ में कोई साथ आना चाहता है?

“भैया, तुम सबके हित-अहित की चिंता रखते हो। संसार में मेरा अपना कोई नहीं है। अपने पथ के दावेदार से मुझे विदा मत कर देना भैया।”

अंधेरे में ही डॉक्टर ने बारबार सिर हिलाकर कहा, “भगवान के काम से किसी को विदा कर देने का अधिकार किसी को नहीं है लेकिन इसकी धारा तुम्हें बदल देनी पड़ेगी।”

भारती ने कहा, “तुम्हीं बदल देना।”

डॉक्टर ने इसका उत्तर नहीं दिया। सहसा व्यग्र होकर बोले, “भारती, अब मेरे पास समय नहीं है। मैं जा रहा हूं।” यह कहकर पलक झपकते ही अंधेरे में गुम हो गए।


स्थान की कमी के कारण गाड़ी में दोनों एक-दूसरे से सटकर बैठे थे। एक घंटे तक गाड़ी घरघराती हुई चलती रही। लेकिन दोनों में कोई बातचीत नहीं हुई। गाड़ी आकर अपूर्व के घर के दरवाजे पर रुक गई। भारती दरवाजा खोलकर अपूर्व के साथ उतर आई। उसने गाड़ीवान से पूछा, “कितना किराया हुआ?”

गाड़ीवान ने हंसकर कहा, “नाट ए पाई-गुडनाइट टू यू।” यह कहकर गाड़ी हांकता हुआ चला गया।

भारती ने पूछा, “तिवारी है?”

“हां।”

ऊपर जाकर, दरवाजा खटखटाकर अपूर्व ने तिवारी को जगाया। किवाड़ खोलकर दीपक की रोशनी में तिवारी की नजर सबसे पहले भारती पर पड़ी। अपूर्व कल ऑफिस गया था और आज भोर की बेला में घर लौटा है रात बिता कर। साथ में भारती है। इसलिए तिवारी को समझने के लिए कुछ बाकी नहीं रहा। क्रोध से उसका सम्पूर्ण शरीर जलने लगा और बिना कुछ कहे वह तेजी से अपने बिस्तर पर जाकर चादर ओढ़ कर सो गया।

तिवारी भारती को बहुत प्यार करता था। एक दिन इसी ने उसे आसन्न मृत्यु के मुंह से बचाया था। इसलिए ईसाई होने पर भी श्रध्दा की दृष्टि से देखता था। लेकिन इधर कुछ दिनों से जो परिस्थिति उत्पन्न हुई थी उससे तिवारी के मन में अपूर्व के संबंध में तरह-तरह की संभव-असंभव समझकर दुश्चिन्ताएं जग उठी थीं। यहां तक कि जाति नष्ट होने तक की। सर्वनाश की वह मूर्ति आज एकदम तिवारी के मन पटल पर साकार अंकित हो उठी।

उसे इस तरह सो जाते देख अपूर्व ने पूछा, “किवाड़ बंद नहीं किए तिवारी?”

भारती बोली, “मैं बंद कर देती हूं।”

अपूर्व ने अपने सोने के कमरे में जाकर देखा, बिछौना ज्यों-का-त्यों पड़ा है।

भारती बोली, “आप आराम कुर्सी पर बैठिए। मैं सब ठीक कर देती हूं।”

अपूर्व ने पुकारा, 'तिवारी, एक गिलास पानी ला दे।”

पानी की सुराही और गिलास की ओर इशारा करके बिछौना बिछाती हुई भारती बोली, “सोते हुए आदमी को क्यों जगाते हैं अपूर्व बाबू, आप ही ले लीजिए।”

एक ही सांस में गिलास खाली करके अपूर्व बैठने जा रहा था कि भारती ने कहा, “अब वहां नहीं, बिछौने पर सो जाइए।”

अपूर्व शांत बालक की तरह लेट गया। मसहरी डालकर भारती उसे चारों ओर से दबाने लगी तो अपूर्व ने पूछा, “तुम कहां सोओगी?”

भारती ने आराम कुर्सी की ओर उंगली उठाकर कहा, “सवेरा होने में अब घंटा भर रह गया है। आप सो क्यों नहीं जाते?”

अपूर्व ने उसका हाथ पकड़कर कहा, “वहां नहीं, मेरे पास बैठो।”

“आपके पास?” भारती के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। अपूर्व और चाहे जैसा भी हो, इन मामलों में वह कभी आत्म विस्मृत नहीं होता था। कितनी ही रातें उन्होंने एक कमरे में बिताई थीं। लेकिन मर्यादा के विरुध्द उसके आचरण से कोई इशारा या बात प्रकट नहीं हुई थी।

अपूर्व ने कहा, “यह देखो, उन लोगों ने मेरा हाथ तोड़ दिया, तुम मुझे इन लोगों के बीच क्यों खींच ले गईं।”

उसकी बात का अंतिम अंश सहसा रुलाई से रुंध गया। भारती मसहरी को एक ओर से उठाकर उसके पास बैठ गई। जांच करके उसने देखा, कसकर बांधने के कारण हाथों में जगह-जगह काली नसें उभरकर फूल आई हैं। अपूर्व की आंखों में से आंसू गिर रहे थे। भारती ने आंचल से उन्हें पोंछकर सांत्वना भरे स्वर में कहा, “डर की कोई बात नहीं। मैं तौलिया भिगोकर लपेट देती हूं। दो-एक दिन में सब ठीक हो जाएगा।”

यह कहकर वह उठ गई और स्नान घर से एक अंगोछा भिगोकर ले आई और उसे हाथ पर बांधकर बहुत ही कोमल स्वर में बोली, “जरा सो जाने की कोशिश कीजिए, मैं आपके माथे पर हाथ फेर देती हूं।” यह कहकर धीरे-धीरे हाथ फेरने लगी।

अपूर्व बोला, “कल जहाज मिलता तो कल ही चला जाता।”

भारती बोली, “परसों ही चले जाइएगा।”

“गुरुजनों की बात न मानने का फल है। मां ने मुझे मना किया था।”

“मां शायद आपको आने देना नहीं चाहती थीं।”

“लेकिन मैंने अनसुना कर दिया। उसी का यह फल हुआ। होनहार होकर रहता है। दुर्गा-दुर्गा कहते हुए परसों जहाज पर बैठ जाऊं,” कहकर उसने लम्बी सांस ली।

लेकिन इसके साथ ही दूसरे व्यक्ति ने जो उसकी सांस की अपेक्षा सैकड़ों गुना गहरी सांस ली, वह उसे नहीं जान सका।

अपूर्व बोला, “इस मकान में पांव धरते ही तुम्हारे पिता से झगड़ा हुआ, अदालत में जुर्माना हुआ। मुझे इसी से चेत जाना चाहिए था।”

भारती चुप रही।

“तिवारी ने मुझे बार-बार सावधान किया। पांच सौ रुपए महीने की नौकरी चली गई। इस उम्र में कितने लोग पाते हैं। फिर यह हाथ मैं लोगों के सामने दिखाऊंगा कैसे?”

भारती ने धीरे-धीरे कहा, “तब तक हाथ के दाग मिट जाएंगे।”

उसके मुंह से इससे अधिक बात नहीं निकली। अपूर्व के सिर पर जो हाथ अब चलना नहीं चाहता था। इस अत्यंत साधारण और तुच्छ व्यक्ति को वह मन-ही-मन प्यार करने लगी है, इस बात को अनुभव करके वह अपने आप ही लाज के मारे मर सी गई। यह बात उसके दल के बहुत से लोग जान गए हैं। आज अपूर्व की जान बचाने जाकर वह उन सबके सामने अपराधिनी और सुमित्रा की नजरों में छोटी हो गई है। लेकिन इस अत्यंत तुच्छ व्यक्ति की हत्या करने की नीचता-और ओछेपन से वह उन लोगों को बचा सकी है - इस बात को मानकर उसे गर्व का अनुभव भी हुआ।

अपूर्व बोला, “दाग तो सहज में जाएगा नहीं। कोई पूछेगा तो क्या उत्तर दूंगा? इसीलिए तो लोग कहा करते हैं कि बंगालियों के लड़के बी.ए.-एम.ए. पास तो कर लेते हैं लेकिन बड़ी नौकरी नहीं संभाल सकते।

“अच्छा, अब सो जाइए” यह कहकर भारती उठ खड़ी हुई।

“माथे पर थोड़ी देर और हाथ फेर दो भारती।”

“नहीं, मैं बहुत थक गई हूं।”

“तो रहने दो, रात भी अब बाकी नहीं रही।”

भारती पास की कोठरी में डेक चेयर पर जा बैठी। अपूर्व के कमरे में अच्छी आराम कुर्सी थी। लेकिन उस तुच्छ आदमी की उपस्थिति में एक ही कमरे में रात बिताने में आज उसे अत्यंत लज्जा महसूस हुई। उसे खयाल आया कि किस तरह और कितनी अगाध करुणा से अपूर्व सुनिश्चित और आसन्न मृत्यु से मुक्ति पा गया है।

लेकिन इतनी बड़ी बात वह जैसे एकदम भूल ही गया है। उसने अपने घनिष्ट मित्र तलवलकर के प्रति, अपने दल के प्रति और विशेष रूप से उस डॉक्टर के प्रति कैसा जघन्य अपराध किया है, यह बात उसे याद ही नहीं है। चिंता है तो केवल बड़ी नौकरी और हाथों के दाग की।

जब भारती को सामने वाली खुली खिड़की से भोर का उजाला दिखाई दिया तो उसने चुपचाप द्वार खोला और तेजी से पैर बढ़ाकर सड़क पर पहुंच गई।


अगले दिन तीसरे पहर सभी बातों और सारी घटनाओं का विस्तार से एक-एक कर वर्णन कर चुकने के बाद अंत में भारती ने कहा-”अपूर्व बाबू महान पुरुष हैं, ऐसा समझने की भूल मैंने कभी नहीं की लेकिन यह भी नहीं सोचा था कि वह इतने साधारण और तुच्छ आदमी हैं।”

डॉक्टर सव्यसाची उसकी ओर देखकर गम्भीर स्वर में बोले, “लेकिन मैं जानता था। वह इतना तुच्छ न होता तो क्या तुम्हारे इस अथाह प्रेम को इतने तुच्छ कारण से छोड़कर चला जाता? जाने दो। जान बच गई बहिन।”

इधर-उधर बिखरी चीजों, विशेष रूप से फर्श पर बिखरी पड़ी पुस्तकों के ढेर देखने से ही यह बात समझ में आ जाती है कि कुछ देर पहले पुलिस इस कमरे की तलाशी ले चुकी है। उन सबको संवारकर रखती हुई भारती बातचीत कर रही थी। अपने हाथ का काम बंद करके आश्चर्य से आंखें उठाकर बोली, “तुम हंसी कर रहे हो भैया?”

“नहीं तो?”

“जरूर कर रहे हो।”

डॉक्टर बोले, “मुझ जैसे आदमी से, जो बम-पिस्तौल लिए लोगों की हत्या करता फिरे, ऐसे मजाक की आशा करती हो?”

भारती बोली, “मैं तो यह नहीं कहती कि तुम मनुष्यों की हत्या करते फिरते हो। यह काम तो तुम कर ही नहीं सकते। लेकिन मजाक के अतिरिक्त यह और क्या हो सकता है? दो-तीन घंटे के अंदर ही जो सब कुछ भूलकर केवल हाथ के दाग और पांच सौ रुपए की नौकरी याद रख सका उससे बढ़कर क्षुद्र व्यक्ति तो मैं दूसरा नहीं देख पाती। तुमने कहा था कि मेरा मोह है। अच्छी बात है अगर ऐसा हो तो आशीर्वाद दो कि मेरा यह मोह हमेशा के लिए दूर हो जाए और मैं पूरे तन-मन के साथ तुम्हारे देश के काम में लग जाऊं।”

डॉक्टर हंसकर बोले, “तुम्हारे मुंह की भाषा तो मोह काटने के लिए उचित ही मालूम हो रही है, इसमें बिल्कुल संदेह नहीं, लेकिन कठिनाई यह है कि तुम्हारे गले की आवाज में इसकी हल्की-सी झलक तक नहीं है। खैर, वह चाहे जो हो भारती, हमारे देश का काम तुम तिलभर नहीं कर सकोगी। तुम से तो अपूर्व बाबू ही बहुत अच्छे हैं, तुम लोगों में एक दिन समझौता भी हो सकता है।”

भारती बोली, “इसकी अर्थ है कि मैं देश को प्यार नहीं कर सकती?”

“अनेक परीक्षाएं देने से पहले कुछ नहीं कहा जा सकता।”

“भैया, मैं तुम्हारी सभी परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो सकूंगी। तुम्हारे काम में इतने स्वार्थ, इतने संदेह और इतनी क्षुद्रता के लिए स्थान नहीं है।”

उसकी उत्तेजना पर डॉक्टर हंस पडे और फिर नाटकीय मुद्रा में अपने माथे को ठोकते हुए बोले, “हाए रे मेरे दुर्भाग्य! देश का अर्थ तुमने क्या समझ लिया है? लम्बी-चौड़ी जमीन, नदी और पहाड़? केवल एक अपूर्व के कारण ही तुम्हें जीवन से अरुचि हो गई। वैरागिन होना चाहती हो। तुम यह नहीं जानती कि यहां सैकड़ों-हजारों अपूर्व ही नहीं उनके बड़े भाई लोग भी रहते हैं। और पराधीन देश का सबसे बड़ा अभिशाप यह कृतघ्नता ही तो है। जिसकी सेवा करोगी वह ही तुम्हें संदेह की नजरों से देखेंगे। जिनके प्राण बचाओगी, वह ही तुम्हें बेच देना चाहेंगे। मूर्खता और कृतघ्नता पग-पग पर सुई की तरह पांव में चुभती रहेगी, यहां न श्रध्दा है, न सहानुभूति। कोई पास तक नहीं बुलाएगा। कोई कोई सहायता देने नहीं आएगा। विषैला नाग समझकर लोग दूर हट जाएंगे। देश प्यार करने का यही पुरस्कार है भारती। यदि इससे अधिक का दावा करना हो तो वह परलोक में ही हो सकता है। इतनी भयंकर परीक्षा तुम क्यों देने जाओगी बहिन! मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूं कि अपूर्व के साथ सुख से रहो। मैं निश्चित रूप से जानता हूं कि अपनी समस्त दुविधाओं और संस्कारों को दबाकर किसी दिन वह तुम्हारे मूल्य को अवश्य जान जाएगा।”

भारती की आंखें आंसुओं से भर उठीं। कुछ देर चुपचाप मुंह झुकाए रहकर उसने पूछा, “क्या तुम मुझ पर विश्वास न कर पाने के कारण किसी तरह मुझे विदाकर देना चाहते हो भैया?”

उसके इस सरल और संकोच रहित प्रश्न का कोई ऐसा ही सीधा-सा उत्तर शायद डॉक्टर के होंठों पर नहीं आया। हंसकर बोले, “तुम्हारी तरह ममता, माया कोई सहज में छोड़ सकता है बहिन? लेकिन कल तुम अपनी आंखों से ही तो देख चुकी हो कि इसमें कितनी चोरी-छिपा या कितनी हिंसा और कितना भीषण क्रोध भरा हुआ है। तुम्हारी ओर देखने से लगता है कि तुम इन कार्यों के लिए नहीं हो। तुम्हें इसमें खींच लाना उचित नहीं हुआ। तुमसे काम लेने का एक दिन है-वह दिन जिस दिन मेरे लिए छुट्टी लेने का परवाना आएगा।”

इस बार भारती अपने आंसुओं को न रोक सकी। लेकिन फौरन हाथ से पोंछकर बोली, “तुम भी अब इन लोगों के साथ मत रहो भैया।”

उसकी बात सुनकर डॉक्टर हंस पड़े, बोले, “इस बार बहुत ही मूर्खता की बात हो गई भारती।”

भारती ने विचलित हुए बिना कहा, “मैं जानती हूं। लेकिन यह सभी लोग बहुत ही भयंकर और निष्ठुर हैं।”

“और मैं?”

“तुम भी बड़े निर्दयी हो।”

“सुमित्रा कैसी लगी भारती?”

भारती का सिर झुक गया। लज्जा के कारण उत्तर न दे सकी। लेकिन उत्तर मांगा भी नहीं गया।

कुछ देर दोनों चुपचाप बैठे रहे। लेकिन इस छोटी-सी खामोशी में ही उस आश्चर्यमय व्यक्ति के उससे भी अधिकर आश्चर्यमय हृदय के रहस्य से आवृत्त अंतस्थल में सहसा बिजली-सी कौंध उठी।

लेकिन दूसरे ही पल डॉक्टर ने सब कुछ दबाकर बच्चे की तरह सिर हिलाकर स्निग्ध स्वर में कहा, “अपूर्व के साथ तुमने बहुत बड़ा अन्याय किया है भारती। इतना भयंकर कांड इसमें छिपा है कि इसकी उस बेचारे ने कल्पना भी शायद नहीं की होगी। तुमसे सच कहता हूं, इतना छोटा, इतना क्षुद्र वह बिल्कुल नहीं है। नौकरी करने विदेश आया है, घर में मां है, भाई हैं। देश में बंधु-बांधव हैं। सांसारिक उन्नति करके दस-पांच में बड़ा आदमी बनेगा-यही उसकी आशा है। लिखना-पढ़ना सीखा है। भले आदमी का लड़का है। पराधीनता की लज्जा अनुभव करता है। और वह बंगाली लड़कों की तरह वास्तव में देश का कल्याण चाहता है। इसीलिए जब तुमने कहा कि 'पथ के दावेदार' के सदस्य बन जाओ, तब उसने कह दिया, 'बहुत अच्छा।' तुम्हारी बात मान लेने से उसका कभी कोई अहित नहीं होगा, उसे विश्वास है। इस पराए देश में, आपद-विपद में तुम्हीं एक मात्र सहारा थीं। पर तुम ही उसे अचानक मृत्यु के मुंह में धकेल दोगी, क्या वह जानता था?”

भारती ने आंख पोंछने के लिए मुंह नीचा करके कहा, “तुम उनके लिए इतनी वकालत क्यों करते हो? वह इसके योग्य नहीं है। सारी बातें कल उनके मुंह से ही सुन चुकी हूं। इसके बाद उन पर श्रध्दा रखना उचित नहीं है।”

डॉक्टर ने हंसकर कहा, “जीवन में अगर एक अनुचित काम तुम कर डालोगी तो क्या होगा? तुमने ध्यान से नहीं देखा भारती, लेकिन मैंने देखा है। उन लोगों ने जब उसे रस्सी से बांध तो वह अवाक् हो गया। उन लोगों ने पूछा, “तुमने यह सब बातें कही हैं।” उसने कहा, “हां।” उन लोगों ने कहा, “इसका दंड है मृत्यु, तुमको मरना होगा।”- इसके उत्तर में वह टकटकी बांधे ताकता रह गया। मैं जानता हूं, उस समय उसकी विह्नल आंखें किसी को खोज रही थीं। इसीलिए मैंने तुम्हें बुलाने के लिए आदमी भेजा था बहिन। अब उसने तुमको चाहे जो भी कुछ कहा हो भारती, लेकिन इस धक्के से वह अब तक शायद संभल नहीं सका है।”

भारती अपने आप पर काबू न रख सकी। आंखों से झर-झर आंसू बहाते हुए बोली, “मुझे यह सब बातें सुना रहे हो भैया? तुम से बढ़कर अधिक विपत्ति में और कोई नहीं पड़ा। फिर भी केवल मेरा मुंह देखकर उन्हें बचाने के लिए तुमने घर-बाहर दुश्मन पैदा कर लिए।”

“यह बात तो है।”

“फिर तुम उनको बचाने क्यों गए। बताओ?”

“अपूर्व को बचाने गया? अरे छि:.... मैं बचाने गया। भगवान की इस अमूल्य कृति को, जो वस्तु तुम लोगों की तरह साधारण नारी को ध्यान में रखकर तैयार हुई है। क्या कोई मूर्ख ऐसा है जो ब्रजेन्द्र जैसे बर्बरों को उसे नष्ट कर डालने के लिए दे देता? केवल इतनी ही बात थी भारती। ....केवल इतनी है। अन्यथा मनुष्य के प्राणों का मूल्य क्या हम लोगों की दृष्टि में कुछ है? एक प्राणी कोड़ी के बराबर नहीं।”....कहकर डॉक्टर हंसने लगे।

भारती ने आंखें पोंछते-पोंछते कहा, “क्यों हंसते हो भैया? तुम्हारी हंसी देखकर मेरे बदन में आग लग जाती है। जी चाहता है, तुम्हें आंचल में बांधकर किसी जंगल में ले जाकर सदा के लिए छिपाकर रख दूं। जो लोग तुम्हें पकड़कर फांसी देंगे, वह ही क्या तुम्हारा मूल्य जानते हैं? उन्हें क्या ज्ञान हो जाएगा कि उन्होंने संसार का कितना बड़ा सर्वनाश कर डाला है? अपने देश के ही आदमी तुमको हत्यारा, डाकू, खून का प्यासा, न जाने क्या-क्या कहते हैं। लेकिन मैं सोचती हूं कि तुम्हारे हृदय में इतना स्नेह, और इतनी करुणा है, कि तुम इन लोगों के साथ कैसे हो?”

डॉक्टर ने कहा, “तुम्हें एक कहानी सुनाता हूं। नीलकांत जोशी नाम का एक मराठा युवक था। तुमने उसे नहीं देखा। लेकिन मैंने जब से तुम्हें देखा है, उसकी याद आती रहती है। वह भी ठीक तुम्हारे जैसा ही था। रास्ते में मुर्दे को ले जाते देखकर उसकी आंखों से आंसू गिरने लगते थे। एक रात हम दोनों ने कोलम्बो के एक पार्क में आश्रय लिया। पेड़ के नीचे पड़ी एक बेंच पर सोने के लिए गए तो देखा, उस पर एक आदमी सोया पड़ा है। आदमी की आहट पाते ही वह कहने लगा-'पानी पानी.....।' चारों और असह्य दुर्गंध आ रही थी। दियासलाई जलाकर उसके मुंह की ओर देखते ही समझ में आ गया कि उसे हैजा हो गया है। नीलकांत उसकी बीमारी में लग गया। पौ फटने लगी तो मैंने कहा, 'जोशी' यह आदमी सांझ के अंधेरे में नौकरों की नजर से बचकर इस पार्क में रह गया है। लेकिन सवेरा होने पर यह यहां नहीं रहने पाएगा। हम लोगा वारंट शुदा मुजरिम हैं। यह तो मरेगा ही, साथ ही हम लोग भी फंस जाएंगे। चलो, यहां से खिसक चलें।'.... नीलकांत रोने लगा। बोला, 'इस हालत में इसे छोड़कर कैसे जाऊं भाई। तुम जाओ। मैं यहीं रह जाता हूं।' मैंने बहुत समझाया, लेकिन जोशी को वहां से नहीं हिला सका।”

भारती ने भयभीत होकर पूछा, “इसके बाद क्या हुआ?”

डॉक्टर ने कहा, “समझदार आदमी था। सवेरा होने से पहले ही उसने आंखें मूंद लीं। तब मैं नीलकांत को वहां से हटा सका। पलभर मौन रहकर, लम्बी सांस भरकर बोले, “सिंगापुर में जोशी को फांसी हो गई। वह सेना के सैनिकों के नाम बता देने पर उसे क्षमा किया जा सकता था, गवर्नमेंट ने बहुत कोशिशें कीं। लेकिन जोशी ने जो एक बार मना किया तो फिर उसमें कोई अंतर नहीं हुआ। अंत में उसे फांसी दे दी गई, जिनके लिए उसने प्राण दिए, उन्हें वह अच्छी तरह पहचानता भी नहीं था अब भी वैसे लड़के इस देश में जन्म लेते हैं भारती। नहीं तो मैं भी शेष जीवन तुम्हारे आंचल के नीचे छिपाकर बिता देने को सहमत हो जाता।”

भारती ने एक लम्बी सांस ली।

डॉक्टर बोले, “नर-हत्या करना मेरा व्रत नहीं है बहिन।”

“लेकिन आवश्यकता पड़ने पर?”

“लेकिन ब्रजेन्द्र की आवश्यकता और सव्यसाची की आवश्यकता एक नहीं है।”

भारती बोली, “मैं जानती हूं, लेकिन मैं तुम्हारी ही आवश्यकता की बात पूछ रही हूं भैया।”

डॉक्टर ने यह सुनकर धीरे-धीरे कहा, “मेरी उस आवश्यकता का दिन कब आएगा, कौन जानता है? लेकिन भारती तुम यह जानना मत चाहो। उसके स्वरूप को तुम कल्पना में भी सहन न कर पाओगी।”

“इसके अतिरिक्त क्या और कोई मार्ग नहीं है?”

“नहीं।”

भारती हत बुध्दि-सी हो गई। व्याकुल होकर बोली, “इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं हो सकता भैया?”

“नहीं, मार्ग अवश्य है। स्वयं को भुलावे में डालने के अनेक मार्ग हैं लेकिन सत्य तक पहुंचने के लिए और कोई दूसरा मार्ग नहीं है।”

भारती स्वीकार न कर सकी। मधुर स्वर में बोली, “भैया, तुम ज्ञानी हो। इस एकमात्र लक्ष्य को सामने रखकर तुम संसार भर में घूम आए हो। तुम्हारी जानकारियों की सीमा नहीं है। मैंने तुम जैसा महान व्यक्ति और कोई नहीं देखा। मुझे तो ऐसा लगता है कि तुम्हारी सेवा करते हुए मैं सारा जीवन बिता सकती हूं। तुम्हारे साथ मेरा तर्क करना शोभा नहीं देता। बोलो, मेरे अपराध क्षमा कर दोगे?”

डॉक्टर ने हंसकर कहा, “भला तुमने क्या अपराध किया है?”

भारती उसी स्निग्ध विनय से बोली, “मैं ईसाई हूं। बचपन से ही अंग्रेजों को अपना आत्मीय समझकर इतनी बड़ी हुई हूं। आज उनके प्रति मन में घृणा पैदा करते हुए बहुत कष्ट होता है, लेकिन यह बात तुम्हारे अतिरिक्त और किसी के सामने नहीं कह सकती। फिर भी तुम लोगों की तरह ही मैं भारतवर्ष के बंग देश की लड़की हूं। मुझ पर अविश्वास मत करो।”

उसकी बात सुनकर डॉक्टर ने स्नेहपूर्वक अपना दायां हाथ उसके माथे पर रखकर कहा, “यह आशंका क्यों करती हो भारती, तुम जानती हो, तुम पर मेरा कितना विश्वास है। तुम्हें कितना स्नेह करता हूं।”

भारती बोली, “जानती हूं। और क्या मेरी ओर से ठीक यही बात तुम नहीं जानते भैया? तुम्हें भय नहीं है। तुमको भय दिखाया भी नहीं जा सकता। केवल इसीलिए तुमसे नहीं कह सकती कि तुम अब इस मकान में मत आना। लेकिन यह भी जानती हूं कि आज रात के बाद फिर कभी-नहीं नहीं, सो नहीं। शायद बहुत दिनों तक फिर भेंट न हो। उस दिन जब तुमने सारी अंग्रेज जाति पर भीषण आरोप लगाया था, मैंने प्रतिवाद नहीं किया था। लेकिन ईश्वर से निरंतर यही प्रार्थना करती रही हूं कि इतना बड़ा विद्वेष कहीं तुम्हारे अंतर के सम्पूर्ण सत्य को ढक न दे। भैया, फिर भी मैं तुम लोगों की ही हूं।”

डॉक्टर बोले, “मैं जानता हूं तुम हमारी हो।”

“तो इस मार्ग को तुम त्याग दो।”

डॉक्टर चौंक पड़े, “कौन-सा मार्ग?”

“विप्लववादियों का यह मार्ग।”

“छोड़ने को क्यों कहती हो?”

भारती ने कहा, “तुमको मैं मरने नहीं दे सकती। सुमित्रा मरने दे सकती है, लेकिन मैं नहीं। मैं भारत की मुक्ति चाहती हूं-निष्कपट और निस्संकोच भाव से। दुर्बल, पीड़ित और भूखे-नंगे भारतवासियों के लिए अन्न-वस्त्र चाहती हूं। स्वाधीनता के आनंद का उपभोग करना चाहती हूं। इतने बड़े सत्य तक पहुंचने के लिए इस निर्मम कार्य के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है, मैं ऐसा सोच भी नहीं सकती। विश्व भ्रमण करके तुमने केवल इसी मार्ग को जाना है। सृष्टि के आरम्भ से आज तक के स्वाधीनता के सैकड़ों तीर्थयात्रियों के पद चिद्द ही तुम्हारी दृष्टि में स्पष्ट हो उठे हैं। लेकिन विश्व मानव की एकांत सदबुध्दि की धारा क्या इस प्रकार समाप्त हो गई है कि इस रक्त रेखा के अतिरिक्त किसी मार्ग का चिद्द कभी दिखाई ही नहीं देगा? ऐसा निष्ठुर विधान किसी प्रकार भी सत्य नहीं हो सकता। भैया, मानव की इतनी बड़ी परिपूर्णता तुम्हारे अतिरिक्त मैंने और कहीं भी नहीं देखी। निष्ठुरता के बहु प्रचलित मार्ग पर अब तुम मत चलो। वह द्वार शायद आज भी बंद है। उसे हम लोगों के लिए खोल दो। विश्व के समस्त प्राणियों को प्यार करते हुए हम तुम्हारा अनुसरण करते हुए बढ़ते रहें।”

भारती के सिर पर हाथ रखकर, दो-चार बार थपकियां देकर डॉक्टर बोले, “अब समय नहीं है बहिन, मैं जा रहा हूं।”

“कोई उत्तर नहीं दोगे भैया?”

“भगवान तुम्हारा भला करें,” उत्तर में बस इतना कहकर डॉक्टर धीरे-धीरे बाहर निकल गए।

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