जिन-जिन लोगों ने कमरे में प्रवेश किया वह सभी अच्छी तरह जाने-पहचाने लोग थे।

डॉक्टर ने कहा, “आओ।” लेकिन उनके चेहरे का भाव देखते ही भारती समझ गई, कम-से-कम आज वह इसके लिए तैयार नहीं थे।

सुमित्रा के आने के बारे में उन्हें पता था। लेकिन सभी लोग उनके पीछे-पीछे चलते हुए इस पार आ इकट्ठे हुए हैं, इसकी जानकारी उन्हें नहीं थी। किसी भी तरह की कोई आकस्मिक घटना नहीं हुई है इसलिए उनकी जानकारी के बिना ही किसी तरह का गहन परामर्श हो चुका है। इसमें संदेह नहीं है। आगंतुक लोग आकर चुपचाप फर्श पर बैठ गए। किसी के आचरण से रत्ती भर भी आश्चर्य या उत्तेजना प्रकट नहीं हुई। यह बात स्पष्ट रूप से समझ में आ गई कि डॉक्टर के संबंध में भले न हो लेकिन डॉक्टर के आने के संबंध में वह पहले ही जान गए थे। अपूर्व के मामले को लेकर दल में इस प्रकार मतभेद पैदा हो जाएगा यह आशंका भारती के मन में थी। शायद आज ही इसका निश्चित निर्णय हो जाएगा। यह सोचकर भारती के हृदय में कंपकंपी होने लगी।

सुमित्रा के चेहरे पर उदासी थी। उसने भारती से कोई बात नहीं की। उसकी ओर अच्छी तरह देखा तक नहीं। ब्रजेन्द्र ने अपनी गेरुआ पगड़ी उतारकर अपनी मोटी लाठी से दबाकर पास रख ली और अपनी विशाल शरीर को काठ की दीवार से टिकाकर आराम से बैठ गया। उसकी गोलाकार आंखों की हिंस्र दृष्टि कभी भारती और कभी डॉक्टर के चेहरे पर चक्कर काटने लगी। रामदास तलवलकर चुप था। बैरिस्टर कृष्ण अय्यर सिगरेट जलाकर पीने लगा और नवतारा सबसे दूर इस तरह जा बैठी जैसे उसका किसी के साथ कोई संबंध ही न हो। आज वह भारती को पहचान भी न सकी हो। किसी के चेहरे पर मुस्कराहट तक का नाम नहीं था।

कुछ देर बाद ब्रजेन्द्र अपनी कर्कश आवाज से सबको चकित करता हुआ बोल उठा, “आपके स्वेच्छाचार की हम लोग निंदा करते हैं डॉक्टर! अगर मैं अपूर्व को कभी पा गया तो....!”

डॉक्टर ने वाक्य पूरा करते हुए कहा, “उसकी जान ले लोगे।” यह कहकर उन्होंने सुमित्रा से पूछा, “क्या तुम सभी लोग इस आदमी की बात का समर्थन करते हो?”

सुमित्रा सिर झुकाकर बैठी रही। अन्य किसी ने भी इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया।

कुछ पल चुप रहकर डॉक्टर बोले, “मालूम होता है कि तुम लोग समर्थन करते हो। और इस बीच इस विषय पर तुम लोगों में विचार-विमर्श भी हो चुका है।”

ब्रजेन्द्र बोला, “हां, हो चुका है। और इसका प्रतिकार होना भी हम लोग आवश्यक समझते हैं।”

डॉक्टर बोले, “मैं भी यही समझता हूं। लेकिन इससे पहले एक आवश्यक बात याद दिलाना चाहता हूं। सम्भव है अत्यंत क्रोधावेश में होने के कारण तुम लोगों को यह बात याद न रही हो। अहमद दुर्रानी हम लोगों के समूचे उत्तरी चीन का सेक्रेटरी था। उस जैसा निर्भीक और कार्य-कुशल आदमी हम लोगों के दल में कोई नहीं था। सन् 1910 ईस्वी में जापान द्वारा कोरिया राज्य को हड़प लेने के एक महीने बाद वह किसी रेलवे स्टेशन पर पकड़ा गया। उसे शंघाई में फांसी दी गई। सुमित्रा तुमने दुर्रानी को देखा था?”

सुमित्रा ने कहा, “हां।”

डॉक्टर ने कहा, “तब मैं छिता से टूटे हुए दल के पूर्ण गठन में व्यस्त था। मुझे इस बात की खबर तक नहीं मिली कि मेरा एक हाथ टूट गया है। जिस समय अदालत में उसके विरुध्द विचार का तमाशा हो रहा था, उस समय उसे बचा लेना तनिक भी कठिन नहीं था। हम लोगों के अधिकांश आदमी उन दिनों वहीं रह रहे थे। फिर भी इतनी बड़ी दुर्घटना कैसे हो गई, जानते हो? फैजाबाद के मथुरा दुबे ने बार-बार अत्यंत तुच्छ अविचार कुविचार की शिकायतें कर-करके दल के लोगों के मन को एकदम विषैला बना दिया था। दुर्रानी की मृत्यु से जैसे सभी की जान बच गई। मेरे लौट आने के बाद जब केंटन की मीटिंग में सारी बातें प्रकट हुईं तब दुर्रानी इस लोक में नहीं था। मथुरा दुबे भी टाइफाइड ज्वर से मर चुका था। प्रतिकार के लिए कुछ भी शेष नहीं रह गया था। लेकिन भविष्य के भय से उस रात की गुप्त सभा में दो अत्यंत कठोर कानून पास किए गए थे। कृष्ण अय्यर तुम तो वहां मौजूद थे, बताओ।”

कृष्ण अय्यर का चेहरा सूख गया। वह बोला, “आप जो इशारा कर रहे हैं, मैं उसे समझ नहीं पा रहा डॉक्टर।”

डॉक्टर ने रत्ती भर भी हिचके बिना कहा, “सुनो ब्रजेन्द्र, एक कानून था कि मेरे पीछे किसी काम की आलोचना नहीं हो सकती?”

ब्रजेन्द्र व्यंग्य से बोला, “आलोचना नहीं की जा सकती?”

डॉक्टर बोले, “नहीं, पीछे नहीं की जा सकती। लेकिन की जाती है, मैं यह जानता हूं। इसका कारण यह है कि उस दिन केंटन की सभा में जो लोग मौजूद थे वह दुर्रानी की मृत्यु से जितने उद्विग्न हो उठे थे मैं नहीं हुआ था। इसलिए यह काम होता चला आ रहा है और मैं भी अनदेखा करता चला आ रहा हूं। लेकिन यह भीषण अपराध है।”

ब्रजेन्द्र उपेक्षा भरे स्वर में बोला, “उसे भी कह डालिए।”

डॉक्टर बोले, “मेरे विरुध्द विद्रोह की भावना पैदा करना अत्यंत भयंकर अपराध है। दुर्रानी की मृत्यु के बाद मुझे सावधान हो जाना चाहिए था।”

ब्रजेन्द्र कठोर हो उठा, “सावधन होने की जरूरत दूसरों के लिए भी वैसी ही हो सकती है। यह जरूरत आपके लिए सर्वाधिकार के रूप में नहीं है।” यह कहकर उसने सबकी ओर देखा। लेकिन सब मौन बैठे रहे। किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया।

काफी देर बाद डॉक्टर ने धीरे-धीरे कहा, “इसकी सजा है-भयानक दंड। सोचा था, जाने से पहले और कुछ करूंगा। लेकिन ब्रजेन्द्र, तुम्हें सब्र नहीं हुआ। दूसरों के प्राण लेने के लिए तुम हमेशा तैयार रहते हो, लेकिन अपने ऊपर आ पड़ने पर कैसा लगता है, जानते हो?”

ब्रजेन्द्र का मुंह काला पड़ गया। जल्दी से स्वयं को संभाल कर बड़े घमंड से बोला, “मैं एनार्किस्ट हूं। रिव्योल्यूशनरी हूं। प्राण मेरे लिए कुछ नहीं हैं। ले भी सकता हूं और दे भी सकता हूं।”

डॉक्टर ने शांत स्वर में कहा, “तब तो आज रात को देने ही पड़ेंगे, लेकिन बेल्ट निकाल पाने का समय नहीं मिलेगा। ब्रजेन्द्र मेरी आंख है। तुमको मैं पहचानता हूं।” यह कहकर उन्होंने फौरन पिस्तौल वाला हाथ उठा लिया। भारती ने व्याकुल होकर उनके उस हाथ को दबाए रखने की चेष्टा की लेकिन दूसरे हाथ से हटाते हुए बोले, “छि:।”

पलभर में कमरे में जैसे वज्रपात हो गया।

सुमित्रा के होंठ कांपने लगे। बोली, “अपने ही भीतर यह सब क्या हो रहा है, बताइए तो।”

तलवलकर अब तक चुप था। उसने धीरे से पूछा, “आपके दल के सभी नियम मुझे मालूम नहीं हैं आपसे मतभेद होने का दंड क्या मृत्यु है? अपूर्व बाबू बच गए हैं। इससे मुझे प्रसन्नता ही हुई है। लेकिन इसमें अन्याय कम नहीं हुआ है यह सत्य कहने के लिए मैं बाधय हूं।”

कृष्ण अय्यर ने सिर हिलाकर सम्मति दे दी। ब्रजेन्द्र की आवाज में अब उपहासपूर्ण श्रध्दा नहीं थी। अन्य लोगों की सहानुभूति से शक्ति पाकर बोला, “एक आदमी के प्राण जाने अगर जरूरी हैं तो फिर मेरे ही चले जाएं। मैं तैयार हूं।”

सुमित्रा ने कहा, “ट्रेटर के बदले अगर जाने-पहचाने कामरेड के खून की ही जरूरत है तो मैं भी दे सकती हूं डॉक्टर।”

डॉक्टर चुपचाप बैठे रहे। सुमित्रा की बात का उत्तर नहीं दिया।

दो मिनट के बाद मन-ही-मन मुस्कराकर बोले, “यह सब बातें बहुत ही पुराने समय की हैं। उस समय तुम लोग थे ही कहां? इस जाने-पहचाने कामरेड को मैं ही उसी समय से जानता हूं। जाने दो इस बात को। टोकियो के एक होटल में एक दिन सान्याल सेन ने कहा था, “निराशा सहने की शक्ति जिसमें जितनी कम हो उसे चाहिए कि वह रास्ते से उतनी ही दूर हटकर चले। इसलिए मैं सह लूंगा। लेकिन ब्रजेन्द्र मैंने तुम्हें झूठमूठ भय नहीं दिखाया है। मुझे दूसरी जगह जाना पड़ रहा है। डिसिप्लिन टूट जाने से मेरा काम नहीं चलेगा। अगर सुमित्रा तुम्हारे दल में शामिल हो रही है तो-आई विश यू गुडलक। लेकिन तुम मेरा रास्ता छोड़ दो। सुखाया में एक बार अटेम्पड कर चुके हैं। परसों फिर किया, लेकिन इसके बाद नहीं....।”

सुमित्रा ने उद्वेग से चौंककर पूछा, “इन सब बातों का अर्थ क्या अटेम्पड करना होता है।”

डॉक्टर ने इस प्रश्न को अपने कानों तक नहीं पहुंचने दिया। कृष्ण अय्यर ने सिर नीचा कर लिया, लेकिन उत्तर नहीं दिया। डॉक्टर ने जेब से घड़ी निकालकर देखी। फिर भारती का हाथ पकड़कर बोले, “चलो, तुमको डेरे पर पहुंचाकर मैं चला जाऊं। उठो।”

भारती सपने में डूबी-सी बैठी थी। इशारा पाते ही चुपचाप उठ खड़ी हुई। उसे अपने आगे करके डॉक्टर कमरे से बाहर निकल गए। दरवाजे पर से सबको सम्बोधित करके बोले, “गुडनाइट।”

इस विदाई-शिष्टाचार का किसी ने उत्तर नहीं दिया। सभी अभिभूत से स्तब्ध बैठे रहें।

भारती के नीचे उतर जाने के बाद जब डॉक्टर ऊपर की ओर नजर रखकर धीरे-धीरे उतर रहे थे तभी सहसा शशि दरवाजे में से मुंह निकालकर बोला, “लेकिन मुझे तो आपसे बहुत जरूरी काम है डॉक्टर।”यह कहकर नीचे उतर उनके पास आ खड़ा हुआ और सांस रोककर बोला, “मेरी गणना तो मनुष्यों में की ही नहीं जाती डॉक्टर। आपके किसी काम आने की शक्ति मुझ में नहीं है लेकिन आपका ऋण जीवन पर्यन्त नहीं भूलूंगा।”

डॉक्टर ने स्नेहपूर्वक उसका हाथ खींचते हुए कहा, “कौन कहता है कि तुम मनुष्य नहीं हो? तुम कवि हो, गुणी हो, अनेक मनुष्यों से बड़े हो।”

“आप कहीं भी क्यों न रहें, मेरे पास जो कुछ है सब आपका है, इस बात को मत भूल जाइएगा।”

भारती ने उत्सुक होकर पूछा, “क्या बात है भैया?”

डॉक्टर ने हंसते हुए कहा, “दुर्दिन में तो इन्हें चिंता नहीं थी लेकिन अचानक अच्छे दिन आते ही उन्हें चिंता हो गई है कि कहीं ऐसा न हो कि इन्हें कृतज्ञता का ऋण याद ही न रहे। इसलिए कह रहे हैं कि जो कुछ इनके पास है सब मेरा है।”

भारती बोली, “ऐसी बात है शशि बाबू?”

शशि कुछ नहीं बोला।

डॉक्टर ने कहा, “याद रहेगा शशि, याद रहेगा। यह वस्तु संसार में इतनी सुलभ नहीं है कि कोई भूल जाए।”

शशि ने कहा, “आप कब जाइएगा?”

डॉक्टर बोले, “तुम तो उम्र में मुझसे छोटे हो। इसलिए आशीर्वाद देकर जा रहा हूं कि तुम सुखी रहो।”

शशि ने कहा, “क्या अगले शनिवार तक नहीं ठहर सकते?”

भारती बोली, “शनिवार को इनका विवाह होगा।”

डॉक्टर कुछ नहीं बोले। सामने ही कीचड़ में पड़ी टेढ़ी नाव पर यत्नपूर्वक भारती को चढ़ाकर स्वयं भी चढ़ गए।

शशि ने कहा, “शनिवार तक आपको रुकना होगा। जीवन में अनेक भीखें दी हैं। यह भी दीजिए। भारती, आपको भी उस दिन आना होगा।”

भारती चुप रही। डॉक्टर ने कहा, “यह नहीं आएगी शशि। अगर रुका रहा तो आऊंगा और तुम लोगों को आशीर्वाद दे जाऊंगा। मैं वचन देता हूं। अगर न आऊं तो समझ लेना कि सव्यसाची के लिए आना असम्भव था। लेकिन जहां भी रहूं प्रार्थना करूंगा कि तुम्हारा शेष जीवन सुख से बीते।” यह कहकर नाव चला दी।

भारती बोली, “आज अकेली होती तो इतना रोती कि नदी का जल बढ़ जाता। भैया, भविष्य में सभी को सुखी होने का अधिकार है। नहीं है केवल तुम को। शशि बाबू इतना अशोभनीय काम करने जा रहे हैं उन्हें भी जी खोलकर आशीर्वाद दे आए। लेकिन इस संसार में तुम्हें आशीर्वाद देने वाला कोई नहीं है। तुम गुरुजन हो, चाहे जो भी हो। लेकिन आज तुम्हें मैं आशीर्वाद दूंगी कि तुम्हारा भविष्य सुखमय हो।”

डॉक्टर हंसकर बोले, “छोटों का आशीर्वाद नहीं फलता। उसका फल उलटा होता है।”

भारती बोली, “झूठ है। मैं छोटी नहीं हूं। एक दूसरी दृष्टि से तुमसे बड़ी हूं। जाने से पहले तुम सुमित्रा जीजी के साथ हमेशा के लिए संबंध तोड़ देना चाहते हो। यह मैं नहीं होने दूंगी। तुम कहोगे कि मैं सुमित्रा को प्यार नहीं करता। लेकिन तुम पुरुषों के प्यार का मूल्य ही कितना है भैया? जो आज है, वह कल नहीं रहता। अपूर्व बाबू भी तो मुझे प्यार नहीं कर सके। लेकिन मैं कर सकी हूं। मेरा कर सकना ही सब कुछ है। ततैये में मधु इकट्ठा करने की शक्ति नहीं तो इसके लिए किससे झगड़ा करने जाऊं। लेकिन आज मैं तुमसे कहे देती हूं भैया कि इस संसार को नचाने वाले प्रभु कोई भी हों, नारी हृदय के प्रेम का मूल्य चुकाने के लिए उन्हें अपूर्व बाबू को लेकर मेरे हाथों सौंप देना ही पड़ेगा।” कुछ उत्तर पाने की आशा में भारती पलभर स्तब्ध रहकर बोली, “भैया, तुम मन-ही-मन हंस रहे हो?”

“कहां? नहीं तो।”

“जरूर। नहीं तो तुमने उत्तर क्यों नहीं दिया?”

डॉक्टर हंस पड़े। बोले, “उत्तर देने के लिए कुछ था ही नहीं भारती, तुम्हारे संसार को नचाने वाले प्रभु को भी अगर इस जबर्दस्ती को मानकर चलना पड़ता तो तुम्हारी सुमित्रा जीजी की क्या हालत होती, जानती हो?-ब्रजेन्द्र के हाथों में स्वयं को हर प्रकार से सौंप देने पर ही जान बचती।”

भारती चकित नहीं हुई। आज की घटना के बाद से यही संदेह उसके मन में बढ़ता जा रहा था। उसने पूछा, 'ब्रजेन्द्र क्या उनको तुमसे भी अधिक प्यार करते हैं?”

डॉक्टर बोले, “बताना कुछ कठिन है। यह अगर शुध्द आकर्षण ही हो, मानव समाज में इसकी तुलना नहीं मिल सकती। लाज नहीं, शर्म नहीं, सम्भ्रम नहीं। हित-अहित का ज्ञान लुप्त। पशुवत् उन्मत्त आवेग, जो आंखों से नहीं दीखता, वह उसके मन का परिचय पा ही नहीं सकता। भारती, अगर तुम्हारे भैया के पास यह दोनों हाथ जैसी चीज न होती तो सुमित्रा के लिए आत्महत्या के अतिरिक्त दूसरा कोई मार्ग ही नहीं था। संसार को नचाने वाले तुम्हारे प्रभु भी इतने दिनों इन लोगों की इज्जत किए बिना नहीं रह सके हैं।” यह कहकर वह भारती के झुके हुए सिर पर अपने दोनों हाथ रखकर धीरे-धीरे थपकियां देने लगे।

भारती बोली, “भैया, इतना जानते हुए भी तुम इसी परिस्थिति में सुमित्रा को छोड़कर चले जाना चाहते हो? तुम इतने निष्ठुर हो सकते हो, मैं सोच भी नहीं सकती।”

डॉक्टर बोले, “हां, सच ही मैंने यही चाहा था। इस बीच अगर पुलिस उसे जेल न भेज देगी तो लौट आने पर किसी दिन मुझे यह काम पूरा करना पड़ेगा।”

भारती के हृदय को गहरा आघात लगा। डॉक्टर समझ गए लेकिन कुछ भी न कहकर उस पार जाने के लिए दोनों पतवारें खींचकर नाव खेने लगे।

बहुत देर बाद भारती ने पूछा, “अच्छा भैया, यदि मैं तुम्हारी सुमित्रा होती तो क्या तुम मुझे भी इसी तरह छोड़कर चले जाते?”

डॉक्टर हंसने लगे। बोले, “लेकिन तुम तो सुमित्रा नहीं हो। तुम भारती हो। इसलिए तुम्हें छोड़कर नहीं जाऊंगा। काम के लिए नियुक्त करके जाऊंगा।”

भारती ने व्यग्र होकर कहा, “मुझे बचाओ भैया, तुम लोगों की खून-खराबी में अब मैं शामिल नहीं हूं। तुम्हारी गुप्त समिति का काम अब मुझसे नहीं होगा।”

डॉक्टर ने कहा, “इसका अर्थ तो यही है कि तुम भी इन लोगों की तरह मुझे छोड़कर जाना चाहती हो।”

यह सुनकर भारती क्षोभ से व्याकुल हो उठी। बोली, “इतनी बड़ी अन्यायपूर्ण बात तुम मुझसे कह सकते हो भैया। तुम जो इच्छा हो कह सकते हो। लेकिन मैं अपनी ही इच्छा से तुम्हें छोड़कर चली गई, यह बात याद आने पर एक दिन भी जीवित रह सकती हूं, ऐसा तुम्हारा खयाल है? मैं तुम्हारा ही काम करती रहूंगी जब तक कि तुम अपनी इच्छा से मुझे छुट्टी न दोगे।” थोड़ी देर रुककर बोली, “लेकिन मैं जानती हूं कि मनुष्य की हत्या करते हुए घूमते रहना ही तुम्हारा वास्तविक काम नहीं है। तुम्हारा वास्तविक काम है मनुष्य को मनुष्य की तरह जीवित रखना। मैं तुम्हारे इसी काम में लगी रहूंगी और मैं यही सोचकर तुम लोगों की बीच आई थी।”

डॉक्टर ने पूछा, “यह मेरा कौन-सा काम है?”

भारती बोली, “पथ के दावेदारों को गुप्त समिति के रूप में परिणत करने की जरूरत नहीं है। कारखाने के मजदूर-मिस्त्रियों की हालत मैं अपनी आंखों से देख आई हूं। उनके पास कुशिक्षा और उनकी जानवरों जैसी हालत-अगर समूचे जीवन में उनका रत्ती भर भी प्रतिकार कर सकूं तो इससे बढ़कर मेरे जीवन की सार्थकता और क्या हो सकती है? सच बताओ भैया, यह क्या तुम्हारा काम नहीं है।”

डॉक्टर बोले, “यह काम तुम्हारा नहीं है भारती। तुम्हारे लिए दूसरा काम है। यह काम सुमित्रा का है। मैंने इस काम का सारा भार उसी पर छोड़ रखा है।”

भारती चुप रही।

डॉक्टर ने उसी तरह शांत और मृदु स्वर में कहा, “तुमसे कह देना ही उचित है भारती। कुछ थोड़े से कुली-मजदूरों की भलाई के लिए ही मैंने 'पथ के दावेदार' की स्थापना नहीं की है। इसका लक्ष्य बहुत बड़ा है। उस लक्ष्य के लिए, हो सकता है किसी दिन इन्हीं लोगों को भेड़-बकरियों की तरह बलि चढ़ा देना पड़े-तुम उसमें मत रहना बहिन। तुम इसे न कर सकोगी।”

भारती चौंककर बोली, “यह तुम क्या कह रहे हो भैया? क्या मनुष्यों की बलि चढ़ाओगे?”

डॉक्टर ने कहा, “मनुष्य हैं कहां? जानवर ही तो हैं।”

भारती बोली, “मनुष्य के संबंध में तुम मजाक में भी ऐसी बात मुंह से मत निकालना, कहे देती हूं। झूठ-मूठ डराने की कोशिश मत करो।”

डॉक्टर बोले, “नहीं भारती, झूठ-मूठ नहीं। सचमुच डराने की कोशिश कर रहा हूं जिससे मेरे चले जाने के बाद तुम कुली-मजदूरों की भलाई के चक्कर में न पड़ो। इस तरीके से इनकी भलाई नहीं की जा सकती। इनकी भलाई की जा सकती है केवल क्रांति के द्वारा। इसी मार्ग पर चलने के लिए मैंने पथ के दावेदार की रचना की है। क्रांति शांति नहीं है। उसे हमेशा हिंसा के बीच से ही कदम रखकर चलना पड़ता है। यही उसका वरदान है और यही अभिशाप! एक बार यूरोप की ओर ध्यान से देखो। हंगरी में ऐसा ही हुआ है। कुली-मजदूरों के खून से उस दिन नगर के सभी राजपथ रक्तिम हो उठे थे। जापान में तो अभी उसी दिन की बात है-उस देश में भी मजदूरों के दु:ख का इतिहास बिंदु बराबर भी इससे भिन्न नहीं है। मनुष्य के चलने का मार्ग बिना उपद्रव नहीं बनता भारती।”

भारती सिहरकर बोली, “यह मैं नहीं जानती। लेकिन उन सब भयानक उपद्रवों को क्या तुम इस देश में भी खींच लाओगे? कारखानों के रास्ते में क्या मजदूरों के रक्त की नदी बहा देना चाहते हो?”

डॉक्टर ने सहज भाव से कहा, “अवश्य चाहता हूं महामानव के मुक्ति सागर में मानवीय रक्त धारा तरंगित होकर दौड़ती जाएगी, यही मेरा स्वप्न है। इतने दिनों का पर्वत जैसा विशाल पाप धुलेगा किस चीज से? और इस धुलाई के काम में अगर तुम्हारे भैया के दो बूंद रक्त की भी आवश्यकता पड़ेगी तो मैं हंसकर बहाऊंगा।”

भारती बोले, “इतना तो मैं आपको पहचानती हूं भैया। लेकिन क्या देश में अशांति फैला देने के लिए ही तुम जाल बिछाकर बैठे हो? इससे बड़ा आदर्श क्या आपके पास नहीं है?”

डॉक्टर बोले, “आज तक तो मिला नहीं बहिन, बहुत घूम चुका, पढ़ चुका और विचार कर चुका। लेकिन भारती, अशांति उत्पन्न करने का अर्थ अकल्याण उत्पन्न करना नहीं है। शांति, शांति सुनते-सुनते कान बहरे हो गए हैं। इस असत्य का प्रचार किन लोगों ने किया, जानती हो? दूसरों की शांति का हरण करके जो प्रासादों में बैठे हैं, वह ही इसके प्रवर्तक हैं। वंचित, पीड़ित नर-नारियों को लगातार यह मंत्र सुनाकर उन लोगों को ऐसा बना दिया है कि वे अशांति के नाम से ही चौंक उठते हैं और सोचने लगते हैं कि शायद यह पाप है, अमंगल है। बंधी हुई गाय खड़ी-खड़ी मर ही जाती है, लेकिन पुरानी रस्सी को तोड़कर मालिक की शांति भंग नहीं करती, इसीलिए तो आज दरिद्रों के चलने का मार्ग एकदम बंद हो गया है। फिर भी उन्हीं लोगों की अट्टालिकाओं तथा प्रासादों को तोड़ने के काम में हम लोग भी उन्हीं लोगों के साथ मिलकर, अशांति कहकर रोने लगेंगे तो रास्ता कहां मिलेगा? यह नहीं हो सकता भारती। यह संस्था कितनी प्राचीन, कितनी पवित्र, कितनी ही सनातन हो, मनुष्य से बड़ी नहीं है। आज उन सब को हमें तोड़ चलना होगा।”

भारती सांस रोककर बोली, “इसके बाद?”

डॉक्टर बोले, “इसके बाद-वह फिर मजदूरों के दल में जाकर उन्हीं हत्यारों के द्वार पर हाथ फैलाते हैं, उन्हें उसकी दया भी मिलती है।”

“इसके बाद?”

“इसके बाद फिर एक दिन वह लोग दल-बध्द होकर पुराने अत्याचारों के प्रतिकार की आशा से हड़ताल कर बैठते हैं। तब फिर वही पुरानी कहानी दोहराई जाने लगती है।”

पलभर को भारती का मन फिर निराशा से भर गया। धीरे-धीरे बोली, “तब ऐसी हड़ताल से क्या लाभ है भैया?”

डॉक्टर की आंखों की दृष्टि अंधेरे में चमक उठी। बोले, “लाभ? यही तो सबसे बड़ा लाभ है भारती। यही तो तुम्हारी क्रांति का राजपथ है। वस्त्रहीन, अन्नहीन, ज्ञानहीन दरिद्रों की पराजय ही सत्य हुई। उनके समूचे हृदय में जो विष भरकर उफन उठता है, जगत में वह शक्ति क्या सत्य नहीं है? वही तो मेरा मूलधन है। कहीं भी, किसी भी देश में केवल क्रांति के लिए ही क्रांति नहीं की जा सकती भारती। उसके लिए कोई-न-कोई आधार अवश्य चाहिए। यही तो मेरा आधार है। जो मूर्ख इस बात को नहीं जानता केवल मजदूरी की कमी-बेशी के लिए हड़ताल कराना चाहता है, वह उन लोगों का भी सर्वनाश करता है और देश का भी।”

भारती बोली, “नाव शायद पीछे चली गई भैया।”

डॉक्टर बोले, “मेरी नजर में है बहिन। कहां जाना है, भूला नही हूं।”

भारती बोली, “मुझे इसमें से अलग क्यों कर देना चाहते हो? इतनी देर के बाद यह बात मेरी समझ में आई है। मैं बहुत कमजोर हूं-शायद उनकी तरह ही। आज भी तुम्हारा सारा भरोसा सुमित्रा जीजी पर है। लेकिन यह बात मैं किसी भी तरह नहीं मानूंगी कि इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं, मनुष्य की सारी खोज समाप्त हो चुकी है। एक के मंगल के लिए दूसरे का अमंगल करना ही होगा। इसे मैं किसी भी तरह नहीं मान सकती। तुम्हारे कहने पर भी नहीं।”

“यह मैं जानता हूं बहिन।”

“तुम्हारा काम छोड़कर मैं किसके सहारे रहूंगी? अगर लौटकर न आए तो कैसे जीऊंगी?”

“यह भी मैं जानता हूं।”

“जानते तो तुम सब कुछ हो।.....तब?”

कुछ देर सन्नाटा रहा। फिर भारती बोली, “क्रांति क्या है? इसकी इतनी आवश्यकता क्यों है?- तुम्हारे मुंह से जब सुनती हूं तो मेरा अन्त:करण रोने लगता है। मानव के दु:ख का इतिहास तुमने न जाने कितना देखा है। नहीं तो इस तरह तुमको किसने पागल बनाया है? अच्छा, क्या तुम मुझे अपने साथ नहीं ले जा सकते भैया?”

“तुम क्या पागल हो गई हो भारती?”

“पागल? ऐसा ही होगा। मालूम होता है मैं तुम्हारे काम में बाधक हूं। इसीलिए देश के किसी भी अच्छे काम में काम नहीं आ सकती।”

डॉक्टर बोले, “देश में अच्छे काम करने के असंख्य मार्ग हैं भारती-लेकिन अवसर स्वयं ही खोजना पड़ता है।”

भारती बोली, “मैं यह नहीं कर सकती। तुम ही तैयार करके दे जाओ।”

पलभर मौन रहकर डॉक्टर बोले। उनका हंसता हुआ चेहरा सहसा गम्भीर हो उठा था जिसे अंधेरे में भारती देख नहीं पाई; “देश में छोटी-बड़ी अनेक ऐसी संस्थाएं हैं जो देश के लिए अनेक अच्छे काम करती हैं। पीड़ितों की सेवा, रोगियों के लिए दवा जुटाना, उन्हें सांत्वना देना, बाढ़-पीड़ितों की सहायता-यह ही तुम्हें मार्ग दिखा देंगी भारती। लेकिन मैं तो क्रांतिकारी हूं। मुझमें मोह नहीं, दया नहीं, स्नेह नहीं, पाप-पुण्य मेरे लिए मिथ्या परिहास हैं। यह सब अच्छे काम लड़कों के खेल सरीखे हैं। भारत की स्वाधीनता ही मेरा एकमात्र लक्ष्य है, मेरा एकमात्र साधन है। मेरे लिए यही अच्छा है और यही बुरा भी है। इसके अतिरिक्त मेरे जीवन में मेरे लिए कहीं भी कुछ नहीं है। अब मुझे मत खींचो भारती।”


आज शशि और नवतारा का विवाह है। शशि की सविनय प्रार्थना थी कि रात को डॉक्टर भारती को साथ लेकर आ जाएं और उन लोगों को आशीर्वाद दे जाएं। भारती काले रेपर से अपने शरीर को ढंके चुपचाप कदम बढ़ाती हुई, घाट के किनारे जा खड़ी हुई। डॉक्टर नाव में उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे।

नाव में चढ़कर भारती बोली, “क्या-क्या बातें सोचती हुई आ रही थी, कोई ठिकाना नहीं है। मैं जानती थी कि मुझे बताए बिना तुम कभी नहीं जाओगे। फिर भी भय दूर नहीं होता। अभी दिन ही कितने बीते हैं लेकिन ऐसा लगता था जैसे कितने ही युगों से तुम्हें नहीं देखा है। भैया, मैं तुम्हारे साथ चीनियों के देश में चलूंगी। यह मैं बताए देती हूं।”

डॉक्टर ने हंसते हुए कहा, “मैं भी बताए देता हूं कि तुम इस तरह का कोई काम करने की कोशिश कभी न करना।” यह कहकर उन्होंने भाटे के बहाव में नाव छोड़ दी। बोले, 'इतनी दूर तक आराम से चले जाएंगे। लेकिन नदी में पहुंचकर उलटे बहाव को ठेलकर पहुंचने में बहुत देर हो जाएगी।”

भारती बोली, “हो जाए तो क्या? कौन बड़े शुभ कार्य में भाग लेने जा रहे हो कि समय बीत जाने से हानि होगी। मेरी तो जाने की इच्छा ही नहीं थी। केवल तुम जा रहे हो, इस लिए चल रही हूं। कैसा गंदा काम हो रहा है, बताओ तो।”

पल भर मौन रहकर डॉक्टर ने कहा, “शशि का नवतारा के साथ विवाह बहुत से लोगों के संस्कार में खटक रहा है। शायद यह देश के कानून के भी विरुध्द है, लेकिन यह दोष शशि का तो है नहीं। कानून और उसे बनाने के लिए जो लोग उत्तरदायी हैं उन्हीं का दोष है। मुझे केवल इतना ही क्षोभ है कि शशि ने किसी अन्य स्त्री को प्यार नहीं किया।”

भारती हंसकर बोली, “मान लेती हूं कि शशि बाबू किसी दूसरी स्त्री को प्यार करते, लेकिन वह उन्हें क्यों प्यार करती? उन जैसे आदमी को जान-बूझकर कोई स्त्री प्यार कर सकती है, इस बात की तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकती। अच्छा, तुम्हीं बताओ, क्या कोई कर सकती है?”

डॉक्टर बोले, “उसे प्यार करना कठिन तो है ही। इसीलिए तो उसे आशीर्वाद देने के लिए मैं रुक गया। मन में विचार आया कि यदि सच्ची शुभकामना में कोई शक्ति हो तो शशि को उसका फल मिले।”

उनकी आवाज में अचानक गम्भीरता आ जाने के कारण भारती ने बहुत देर चुप रहने के बाद पूछा। “शशि बाबू को प्यार करते हो भैया?”

“हां।”

“क्यों?”

“तुम्हें ही क्यों इतना प्यार करता हूं-क्या इसका कारण बता सकता हूं? शायद इसी तरह हो सकता है।”

भारती ने आदर से पूछा, “अच्छा भैया, तुम्हारे लिए क्या हम दोनों एक ही समान हैं? फिर दूसरे ही पल हंसती-हुई बोली, “फिर भी इतने दिनों में अपना मूल्य बहुत पा गई। चलो, मैं भी तुम्हारे साथ चलकर प्रसन्नता पूर्वक उन्हें आशीर्वाद ....नहीं, नहीं प्रणाम कर आऊं।”

डॉक्टर भी हंस पड़े, बोले, “चलो।”

भारती बोली, “भैया, जैसे समुद्र की थाह नहीं है, उसी तरह तुम्हारी भी कोई थाह नहीं है। स्नेह करो, प्यार कहो, तुम्हारे ऊपर निर्भर होकर कुछ भी दृढ़ता से खड़ा नहीं रह सकता, सभी न जाने कहां समा जाते हैं।”

“पहले जो समुद्र की थाह है। इसलिए इस संबंध में तुम्हारी यह उपमा गलत है।”

भारती बोली, “इस विषय में शायद मैं तुमको सौ बार कह चुकी हूं कि तुम्हारे अतिरिक्त इस संसार में मेरा और कोई नहीं है। तुम्हारे चले जाने पर मैं कहां खड़ी रहूंगी? लेकिन यह बात तुम्हारे कानों तक पहुंचती ही नहीं है। और पहुंचेगी किस तरह भैया, तुम्हारे पास हृदय तो है नहीं। मैं ठीक-ठाक जानती हूं कि एक बार आंख से ओझल होते ही तुम मुझे जरूर भूल जाओगे।”

डॉक्टर बोले, “नहीं, तुम्हारी याद हमेशा बनी रहेगी।”

भारती बोली, “क्या भरोसा लेकर मैं रहूंगी भैया?”

“सौभाग्यवती स्त्रियां जिस भरोसे को लेकर रहती हैं। पति, बाल-बच्चे, घर-द्वार...!”

भारती क्रुध्द होकर बोली, “मैंने अपूर्व बाबू को मुक्त हृदय से प्यार किया था-इस सत्य को तुमसे छिपाया नहीं। उनको पा जाती तो मेरा जीवन धन्य हो जाता। लेकिन इसी कारण तुम मेरा अपमान करते रहते हो, क्यों?”

“अपमान? मैंने तो अपमान नहीं किया भारती।”

आंसू भर जाने के कारण भारती रुंधे गले से बोली, “कैसे नहीं किया? तुम जानते हो कि इस काम में कितनी बाधाएं हैं। तुम जानते हो कि वह मुझे कभी ग्रहण नहीं कर सकते। फिर भी तुम यह बातें कहते हो।”

डॉक्टर ने मुस्कराकर कहा, “स्त्रियों में यही तो सबसे बड़ा दोष है। वह स्वयं एक दिन जो बात कह देती हैं अगर कोई दूसरा वही बात दूसरे दिन कह दे तो वह झटपट मारने दौड़ती हैं। उस दिन सुमित्रा की बात पर तुमने कहा था कि वह किसी दिन किसी को खींचकर पैरों तले ला गिरा देगी। और आज उसी बात को मैंने दोहरा दिया तो रोने लगीं।”

“नहीं, यह बातें मुझसे मत कहो।”

“अच्छा नहीं कहूंगा, लेकिन इस बार की यात्रा से यदि बचकर लौट आया तो यह बात मेरे पैरों के पास गले में आंचल बांधकर तुम्हें स्वीकार करनी पड़ेगी-भैया, मुझसे करोड़ों अपराध हुए हैं। अवश्य ही तुम हाथ देखना जानते हो। नहीं तो मेरे सौभाग्य के बारे में इतनी सच्ची बात कैसे कह सकते थे।”

भारती ने इसका उत्तर नहीं दिया।

कुछ देर चुप रहकर डॉक्टर बोले, तो लगा जैसे उनके कंठ स्वर में एक अद्भुत स्वर आ मिला हो। उन्होंने कहा, “उस रात जब तुम सुमित्रा की बात कह रही थीं भारती, तब मैं उसका उत्तर नहीं दे पाया था। मैं इस पथ का यात्री नहीं हूं। फिर भी तुम्हारे मुंह से सुमित्रा की कहानी सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए थे। संसार में घूमकर अनेक चीजों के बारे में जानकारी प्राप्त की है लेकिन केवल नर-नारी के प्रेम तत्व के संबंध में कुछ भी नहीं जान पाया हूं। बहिन, असम्भव नामक शब्द इस संसार में शायद इन्हीं लोगों के कोश में नहीं लिखा है।”

भारती बोली, “तुम्हारी बात सच हो भैया। वह शब्द तुम लोगों के कोश से भी मिट जाए। सुमित्रा जीजी का भाग्य एक दिन प्रसन्न हो।” थोड़ी देर ठहरकर उसने कहा, “मैंने बहुत सोच-विचार कर लिया है लेकिन उसमें अब मेरा अपना आनंद नहीं है। अब मैं उसकी आशा भी नहीं करती। अपूर्व बाबू को मैं सचमुच ही प्यार करती हूं। भले हों या बुरे हों-मैं अब उनको भूल नहीं सकूंगी, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि उनकी पत्नी न बन पाने पर, उनकी घर-गृहस्थी न कर पाने पर मेरा जीवन व्यर्थ हो जाएगा। मेरे लिए शोक की यह बात नहीं है भैया। मैं सच कह रही हूं कि मुझे शांत मन से आशीर्वाद देकर रास्ता दिखाते जाओ। तुम्हारी तरह मैं भी दूसरों के काम में ही अपने इस जीवन को सार्थक कर डालूंगी। भैया, अपनी इस निराश्रित बहिन को अपना साथी बना लो।”

डॉक्टर चुपचाप नाव चलाने लगे। इतने विनय भरे अनुरोध का उन्होंने उत्तर नहीं दिया।

अंधेरे के कारण भारती उनका चेहरा नहीं देख पाई, लेकिन उनके मौन से उसे आशा बंधी। इस बार उसकी आवाज में स्नेह पूर्ण निवेदन की विविड़ वेदना उभरकर ऊपर तक चली आई। बोली, “ले चलोगे भैया, अपने साथ? तुम्हारे अतिरिक्त इस अंधकार में बूंद भर भी प्रकाश मुझे कहीं नहीं दिखाई पड़ता।”

डॉक्टर बोले, “असम्भव है भारती। तुम्हारी बातों ने आज मुझे जोआ की याद दिला दी। तुम्हारी तरह ही उसका अमूल्य जीवन भी अकारण नष्ट हो गया था। भारत की स्वाधीनता के अतिरिक्त मेरा और कोई भी लक्ष्य नहीं है। जीवन में इससे बढ़कर और कोई कामना नहीं है-ऐसी भूल मुझसे कभी नहीं हुई है। स्वाधीनता का अंत नहीं है। धर्म, शांति, काव्य, आनंद, यह सब और भी है। इनके चरम विकास के लिए ही तो स्वाधीनता चाहिए। नहीं तो उसका मूल्य क्या है? इसके लिए मैं तुम्हारी हत्या नहीं कर सकता बहिन। तुम्हारे अंदर जो हृदय-स्नेह, प्रेम, करुणा और माधुर्य से लबालब भर उठा है कि वह मेरे प्रयोजन को पार करके बहुत ऊंचाई तक चला गया है। हाथ बढ़ाने पर भी मैं वहां तक नहीं पहुंच सकता।”

भारती का सर्वांग पुलकित होकर रोमांचित हो उठा। सव्यसाची के गम्भीर हृदय की एक अनुरूप मूर्ति मानो सहसा उसने देख ली। मुक्ति और आनंद से विगलित होकर बोली, “मैं भी तो यही सोचती रही हूं भैया कि तुम्हारे लिए इस संसार का कौन-सा विषय अज्ञात है और अगर ऐसी बात है तो तुम इस षडयंत्र में लुप्त होकर क्यों पड़े हो? मानव का चरम कल्याण तो इनके द्वारा कभी हो ही नहीं सकता।”

डॉक्टर बोले, “ठीक, यही बात है। लेकिन चरम कल्याण का भार हम विधाता के हाथों में ही छोड़कर क्षुद्र मानव के लिए जो सामान्य कल्याण है उसी को करने की चेष्टा करते हैं। अपने देश में स्वाधीन भाव से बात करने, स्वाधीन भाव से चलने-फिरने के अधिकार का ही हमारा दावा है। हम इससे अधिक और कुछ नहीं चाहते भारती।”

भारती बोली, “यह तो सभी चाहते हैं भैया। लेकिन इसके लिए नर-हत्या का षडयंत्र क्यों? इसकी आवश्यकता ही क्या है?” -लेकिन यह बात कहकर भारती लज्जित हो उठी। फिर एक पल रुककर बोली, “मुझे क्षमा करो भैया? मैंने क्रोधावेश में यह झूठी बात कह डाली। मुझे छोड़कर तुम चले जाओगे, मैं यह सोच भी नहीं सकती।”

“यह मैं जानता हूं।”

इसके बाद बहुत देर तक फिर कोई बातचीत नहीं हुई।

उस समय कुछ दिनों स्वदेशी आंदोलन समूचे भारत में फैल चुका था। देश भर के नेतागण देश-उध्दार के उद्देश्य के कानून बनाकर जो जलते हुए भाषण देते हुए घूम रहे थे उन्हीं के सारांश अखबारों में पढ़कर भारती श्रध्दा और विस्मय से भर जाती थी। पिछली रात को ऐसी ही एक रोमांचकारी घटना अखबार में पढ़ने के बाद से आज दिन में उत्तेजना की एक तप्त हवा उसके मन में बहती रही थी। उसी को याद करके वह बोली, “मैं जानती हूं कि अंग्रेजी राज्य में तुम्हारे लिए स्थान नहीं है, लेकिन सारा संसार ही तो उनका नहीं है। वहां जाकर तुम लोग सरल और प्रकट रूप से अपने उद्देश्यों की सिध्दि के लिए चेष्टा कर सकते हो।” अच्छा भैया, कल के बंगला अखबार में....!”

डॉक्टर बीच में ही हंस पड़े, बोले, “बचाओ भारती, हमसे तुलना करके उन पूज्यनीयों का अपमान मत करो।”

भारती बोली, “तुम्हीं उन पर व्यंग्य भरी छींटाकशी कर रहे हो।”

डॉक्टर बोले, “बिल्कुल नहीं, उन लोगों की मैं भक्ति करता हूं और उनके देशोध्दार के लिए किए गए भाषणों को हम लोगों से अधिक उपयोग भी कोई नहीं करता।”

भारती बोली, “तुम लोगों का मार्ग भले ही एक न हो लेकिन उद्देश्य तो एक ही है।”

डॉक्टर बोले, “अभी तक मैं सचमुच हंस रहा था लेकिन अब मैं क्रोध करूंगा भारती। रास्ता एक नहीं है, यह जानी हुई बात है। लेकिन लक्ष्य उससे भी अधिक स्पष्ट है, यह क्या तुम्हारी समझ में नहीं आया? संसार की अनेक जातियां स्वाधीन हैं। इससे बढ़कर दूसरा कोई गौरव मानव जाति के लिए नहीं है। उस स्वाधीनता का दावा करना, उसके लिए चेष्टा करना तो दूर की बात है, उसकी कामना करना, कल्पना करना भी अंग्रेजों के कानून में राजद्रोह माना गया है। मैं उसी अपराध का अपराधी हूं। चिरकाल तक पराधीन रहना ही इस देश का कानून है। इसलिए यह सब चतुर, पूज्य व्यक्ति कानून से बाहर कभी कोई दावा नहीं करते। चीन देश के मंचू राजाओं की तरह इस देश में भी अगर अंग्रेज यह कानून बना देते कि सबको ढाई हाथ लम्बी चोटी रखनी पड़ेगी। तब उस चोटी के विरुध्द भी यह लोग किसी तरह की गैर कानूनी प्रार्थना न करते। यह लोग यह कहकर आंदोलन करते कि ढाई हाथ की चोटी रखने का कानून बनाकर देश के प्रति बहुत बड़ा अन्याय किया गया है। इससे देश का सर्वनाश हो जाएगा इसलिए इसे घटाकर सवा दो हाथ कर दिया जाए।”-इतना कहकर वह अपनी रसिकता से प्रफुल्लित होकर सहसा इस तरह ठठाकर हंस पड़े कि नदी की अंधकारमय नीरवता भी विक्षुब्ध हो उठी।

हंसी रुकने पर भारती बोली, “तुम जो कुछ भी क्यों न कहो, लेकिन यह बात मैं किसी भी तरह नहीं मान सकती कि वह भी देशवासियों के लिए अभिनंदनीय नहीं है। मैं सभी की बात नहीं कर रही हूं। लेकिन जो लोग वास्तव में राजनीतिज्ञ हैं, वास्तव में देश के शुभचिंतक हैं, उनका सारा परिश्रम ही व्यर्थ है। यह बात निस्संकोच स्वीकार कर लेना कठिन है। मत और मार्ग पृथक-पृथक होते हुए भी किसी की उपेक्षा करना शोभा नहीं देता।”

उसकी आवाज की गम्भीरता अनुभव करके डॉक्टर चुप हो गए। कुछ देर बाद धीरे से बोले, “भारती, तुमको व्यथा पहुंचाना मेरा अभिप्राय नहीं है। उनके राजनीतिक पांडित्य पर भी मेरी भक्ति कम नहीं है। लेकिन बात क्या है? तुम्हें इसकी वास्तविक जानकारी करा देता हूं बहिन। जब कोई गृहस्थ छोटी रस्सी से गाय को बांधता है तो उस छोटी रस्सी में केवल एक ही नीति रहती है। मैं केवल इतना ही जानता हूं। बिल्कुल पहुंच के बाहर रखे गए खाद्य पदार्थ की ओर जी-जान से मुंह बढ़ाकर उसे चाटने या खाने की गाय की चेष्टा में अवैधता कुछ भी नहीं है। वह नितांत वैधानिक और कानून सम्मत है। उत्साह देने योग्य हृदय हो तो दे सकती हो राजा की ओर से मनाही नहीं है। लेकिन गाय या बैल के इस उद्यम को जो लोग बाहर से देखते हैं, उनके लिए हंसी रोक पाना कठिन हो जाता है।”

भारती हंसकार बोली, “तुम बड़े दुष्ट हो भैया। लेकिन यह बात समझ में नहीं आती कि जिसके प्राण रात-दिन पतले धागे में लटक रहें हों वह दूसरों की बात पर हंसी-मजाक कैसे करता है?”

डॉक्टर ने स्वाभाविक स्वर में कहा, “इसका कारण यह है कि इस समस्या पर पहले ही विचार हो चुका है भारती, जिस दिन से मैंने क्रांतिकारी कामों में भाग लिया है। अब मुझे कुछ सोचना भी नहीं है, शिकायत भी नहीं है। मैं जानता हूं कि मुझे हाथ में पाकर भी जो राजशक्ति मुझे छोड़ देती है, वह तो असमर्थ है या फिर उनके पास फांसी देने के लिए रस्सी नहीं है।”

भारती बोली, “इसीलिए तो मैं तुम्हारे साथ रहना चाहती हूं, भैया। मेरे होते हुए तुम्हारे प्राण ले सके, ऐसी शक्ति संसार में कोई भी नहीं है। यह मैं किसी भी तरह नहीं होने दूंगी।”-कहते-कहते उसकी आवाज भारी हो उठी।

डॉक्टर को इसका पता चल गया। चुपचाप लम्बी सांस लेकर वह बोले, “नाव पर अब ज्वार लग रहा है भारती। अब हमें पहुंचने में देर नहीं होगी।”

भारती बोली, “हटाओ। जाने दो। मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा।”

दो मिनट के बाद उसने पूछा, “इतनी बड़ी राजशक्ति को तुम लोग शारीरिक शक्ति से हिलाकर गिरा सकते हो-इस बात में क्या तुम सचमुच ही विश्वास करते हो भैया?”

डॉक्टर बोले, “करता हूं और पूरे हृदय से करता हूं। इतना बड़ा विश्वास न रहता तो मेरा इतना बड़ा व्रत बहुत दिन पहले ही भंग हो गया होता।”

भारती बोली, “लेकिन शायद धीरे-धीरे अपने कामों में से तुम मुझे निकालते जा रहे हो। ठीक है न भैया?”

डॉक्टर मुस्कराते हुए बोले, “नहीं ऐसी बात नहीं है भारती, लेकिन विश्वास ही तो शक्ति है। विश्वास न रहने से तो संदेह के कारण तुम्हारा कर्त्तव्य कदम-कदम पर बोझ-सा हो उठेगा। संसार में तुम्हारे लिए दूसरे काम हैं बहिन। कल्याणकारी शांतिपूर्ण मार्ग हैं जिस पर तुम अपने सम्पूर्ण हृदय से विश्वास करती हो उसी काम को तुम करो।”

अगाध स्नेह के कारण ही यह व्यक्ति अपने अत्यंत संकटपूर्ण विप्लव के मार्ग से दूर हटा देना चाहता है। इसका भली-भांति अनुभव करके भारती की सजल आंखों से आंसू उमड़ पडे। छिपाकर अंधेरे में धीरे-धीरे आंसू पोंछकर बोली, “भैया, मेरी बात सुनकर नाराज मत होना। इतनी बड़ी राज-शक्ति, कितनी बड़ी सैन्य-शक्ति, कितने उपकरण, युध्द का कितना विचित्र और भयानक आयोजन- इनके सामने तुम्हारा क्रांतिकारी दल कितना-सा है? समुद्र के सामने तुम गोबरैले से भी तो छोटे हो। उसके साथ तुम अपनी शक्ति की परीक्षा किस प्रकार करना चाहते हो? प्राण देना चाहते हो तो जाकर दे दो। लेकिन इससे बड़ा पागलपन मुझे और कोई दिखाई नहीं देता। तुम कहोगे, तब क्या देश का उध्दार नहीं होगा? प्राणों के भय से क्या अलग हटकर खड़ा हो जाऊं? लेकिन मैं यह नहीं कह रही हूं, तुम्हारे पास रहकर तुम्हारे चरित्र से मैं यह जान गई हूं-कि जननी जन्म-भूमि क्या चीज है। उसके चरणों से सर्वस्व अर्पण कर सकने से बढ़कर सार्थकता मनुष्य के लिए और नहीं हो सकती। यह बात भी अगर तुमको देखकर मैं न सीख सकी होऊं तो मुझसे बढ़कर किसी अधम नारी ने जन्म ही नहीं लिया, यह मानना पड़ेगा। लेकिन केवल आत्म-हत्या करके ही कब कौन देश स्वतंत्र हुआ है। तुम्हारी भारती किसी तरह केवल जीवित रहना चाहती है। इतनी बड़ी गलत धारणा मेरे संबंध में कभी मत रखना, भैया।”

डॉक्टर बोले, “ऐसी ही बात है।”

“ऐसी ही बात क्या?”

“तुम्हारे संबंध में गलती तो हुई ही है,” यह कहकर कुछ देर के लिए डॉक्टर मौन हो गए। फिर बोले, “भारती, विप्लव का अर्थ है- अत्यंत शीघ्रता से आमूल परिवर्तन। सैन्य बल, विराट युध्द के उपकरण, यह सब मैं जानता हूं। लेकिन शक्ति-परीक्षा तो हम लोगों का लक्ष्य नहीं है। आज जो लोग हमारे शत्रु हैं कल वह ही लोग मित्र भी हो सकते हैं। नीलकांत शक्ति परीक्षण के लिए नहीं गया था, उसने मित्र बनाने के लिए प्राण दिए थे। हाय रे नीलकांत! आज कोई उसका नाम तक नहीं जानता।”

अंधकार के बीच भी भारती ने स्पष्ट रूप से समझ लिया कि देश के बाहर, देश के काम में जिस लड़के ने लोगों की नजरों से बचकर चुपचाप प्राण दे दिए उसे याद करके इस निर्विकार अत्यधिक-संयत व्यक्ति का गम्भीर हृदय पल भर के लिए आलोड़ित हो उठा है। अचानक वह सीधे होकर बैठ गए। बोले, “क्या कह रही थी भारती, गोबरैला? ऐसा ही हो शायद। लेकिन आग की जो चिनगारी गांव-नगर जलाकर भस्म कर देती है वह आकार में कितनी बड़ी होती है? जानती हो? शहर जब जलता है तब वह अपना ईंधन आप ही इकट्ठा करके भस्म होता रहता है। उसके राख होने की सामग्री उसी के अंदर संचित रहती है। विश्व-विध्न के इस नियम का कोई भी राज-शक्ति कभी भी व्यतिक्रम नहीं कर सकती।”

भारती बोली, “भैया तुम्हारी बात सुनने से शरीर कांपने लगता है। जिस राज-शक्ति को तुम जला देना चाहते हो, उसका ईंधन तो हमारे देश के लोग हैं। इतने बड़े लंका कांड की कल्पना करते हुए क्या तुम्हारे मन में करुणा नहीं जागती?”

डॉक्टर ने स्पष्ट शब्दों में कहा, “नहीं। प्रायश्चित शब्द क्या केवल मुंह से कहने के लिए ही है? हमारे पूर्वज-पितामहों के युगों से संचित किए गए पापों को अपरिमेय स्तूप कैसे समाप्त होगा-बता सकती हो? करुणा की अपेक्षा न्याय-धर्म बहुत बड़ी चीज है भारती।”

भारती बोली, “यहां तुम्हारी पुरानी बात है भैया। भारत की स्वतंत्रता के संबंध में रक्तपात के अतिरिक्त और कुछ जैसे तुम्हारे मन में आ ही नहीं सकता, रक्तपात का उत्तर क्या रक्तपात ही हो सकता है? और उसके उत्तर में भी तो रक्तपात के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता। यह प्रश्नोत्तार तो आदम काल से ही होता चला आ रहा है। तब क्या मानव सभ्यता इससे बड़ा उत्तर किसी दिन दे नहीं सकेगी? देश चला गया। लेकिन उससे भी बड़ा जो मनुष्य है वह तो आज भी मौजूद है। मनुष्य-मनुष्य के साथ आपस में लड़ाई-झगड़ा न करके क्या किसी तरह रह नहीं सकते?”

डॉक्टर बोले, “एक अंग्रेज कवि ने कहा है कि पश्चिम और पूर्व किसी दिन भी नहीं मिल सकते।”

भारती बोली, “मूर्ख है वह कवि। कहने दो उसे। तुम ज्ञानी हो। तुमसे मैंने अनेक बार पूछा है, आज भी पूछा रही हूं। होने दो उन्हें पश्चिम या योरोप का मनुष्य। लेकिन है तो वह मनुष्य ही? मनुष्य के साथ मनुष्य क्या किसी प्रकार भी मित्रता नहीं कर सकता। भैया, मैं ईसाई हूं। अंग्रेजों की ऋणी हूं। उनके अनेक सद्गुण मैंने देखे हैं। उन लोगों को इतना बुरा सोचने पर मेरी छाती में शूल-सा बिंध जाता है। लेकिन मुझे गलत मत समझना भैया। मैं बंगाली लड़की हूं। तुम्हारी बहिन हूं। बंगाल की मिट्टी और बंगाल के मनुष्यों को अपने प्राणों से बढ़कर प्यार करती हूं। कौन जानता है, तुमने जिस जीवन को चुन लिया है, उसे देखते हुए शायद आज ही हम लोगों की अंतिम भेंट हो। शांत मन से आज उत्तर देते जाओ जिससे उसी ओर दृष्टि रखकर जीवन भर नजर उठाकर सीधी चल सकूं,” कहते-कहते उसका गला रुंध गया।

डॉक्टर चुपचाप नाव खेते रहे। विलम्ब देखकर भारती के मन में यह विचार आया कि शायद वह इसका उत्तर नहीं देना चाहते। उसने हाथ बढ़ाकर नदी के पानी से मुंह धो डाला। अपने आंचल से अच्छी तरह पोंछकर फिर न मालूम वह क्या प्रश्न करने जा रही थी कि डॉक्टर बोल उठे, “एक तरह के ऐसे सांप होते हैं भारती, जो सांप खाकर ही जीते हैं। तुमने देखे हैं?”

भारती ने कहा, “नहीं, देखे नहीं। केवल सुना है।”

डॉक्टर बोले, “पशुशाला में हैं। एक बार कलकत्ते जाकर अपूर्व को आदेश देना, वह दिखा देगा।”

“मजाक मत करो भैया, अच्छा नहीं होगा।”

“अच्छा नहीं होगा, मैं भी यही कह रहा हूं। उनका पास-पास रहना ठीक नहीं होता, लेकिन विश्वास न हो तो चिड़िया घर के इंचार्ज से पूछ लेना।”

भारती चुप ही रही। डॉक्टर बोले, “तुम उन लोगों के धर्म को मानती हो। उनकी ऋणी हो। उनके अनेक सद्गुण तुमने अपनी आंखों से देखे हैं। लेकिन क्या तुमने देखा है उनकी विश्व को हड़प लेने वाली विराट भूल का परिणाम?” वह लोग इस देश के स्वामी हैं। आज ब्रिटिश सम्पत्ति की तुलना नहीं की जा सकती। कितने जहाज, कितने कल-कारखाने, कितनी हजारों-लाखों इमारतें। मनुष्यों को मार डालने के उपकरणों और आयोजनों का अंत नहीं है। अपने समस्त अभावों और हर प्रकार की आवश्यकताओं को मिटाकर भी अंग्रेजों ने सन् 1910 से लेकर सत्रह वर्षों तक बाहरी देशों को ऋण दिया था-तीन हजार करोड़ रुपए। जानती हो, इस विराट वैभव का उद्गम कहां है? अपने को तुम बंग देश की लड़की बता रही थी न? बंगाल की मिट्टी, बंगाल की जलवायु, बंगाल के मनुष्य, तुम्हारे लिए प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं न? इसी बंगाल की दस लाख नर-नारी प्रति वर्ष मलेरिया से मर जाते हैं। एक युध्दपोत का मूल्य कितना होता है-जानती हो? उनमें से केवल एक के ही खर्च से कम-से-कम दस लाख माताओं के आंसू पोंछे जा सकते हैं। कभी तुमने इस बात पर भी विचार किया है? शिल्प गया, व्यापार गया, धर्म गया, ज्ञान गया-नदियों की छाती सूखकर मरुस्थल बनती जा रही है। किसान को भर पेट खाने को अन्न नहीं मिलता। शिल्पकार विदेशियों के द्वार पर मजदूरी करता है। देश में जल नहीं, अन्न नहीं। गृहस्थ की सर्वोत्तम सम्पदा गोधन भी नहीं। दूध के अभाव में उनके बच्चों को मरते देखा है भारती?”

भारती ने चीखकर उन्हें रोकना चाहा, लेकिन उसके गले से एक अस्फुट शब्द के अतिरिक्त और कुछ नहीं निकला।

सव्यसाची का वह धीमा संयत कंठ स्वर पहले ही कभी अंतर्हित हो चुका था। बोला, “तुम ईसाई हो। तुम्हें याद है, एक दिन कौतूहल वश तुमने यूरोप की ईसाई सभ्यता का स्वरूप जानना चाहा था। उस दिन व्यथा पहुंचने के भय से मैंने नहीं बताया था। लेकिन आज बताता हूं। तुम लोगों की पुस्तक में क्या है, मैं नहीं जानता। सुना है, अच्छी बातें बहुत हैं। लेकिन बहुत दिनों तक एक साथ रहने से उनका वास्तविक स्वरूप मुझसे छिपा नहीं है। लज्जाहीन, नग्न स्वार्थ और पाशविक शक्ति की प्रधानता ही उसका मूलमंत्र है। सभ्यता के नाम पर दुर्बलों और असमर्थों के विरुध्द मनुष्य की बुध्दि ने इससे पहले इतने भयंकर और घातक मूसल का आविष्कार नहीं किया था। पृथ्वी के मानचित्र की ओर आंख उठाकर देखो, यूरोप की विश्व-ग्रासी भूख से कोई भी दुर्बल जाति अपनी रक्षा नहीं कर पाती। देश की मिट्टी, देश की सम्पदा से देश की संतान किस अपराध से वंचित हुई? तुम जानती हो भारती, एक मात्र शक्ति-हीनता के अपराध से। फिर भी न्याय धर्म ही सबसे बड़ा धर्म है और विजित जाति के अशेष कल्याण के लिए ही अधीनता की जंजीर उसके पैरों में डालकर उस पंगु का हर प्रकार का उत्तरदायित्व ढोते रहना ही योरोपियन सभ्यता का परम कर्त्तव्य है। इस परम असत्य का लेखों, भाषणों, मिशनरियों के धर्म-प्रचार में, लड़कों की पाठय-पुस्तकों के द्वारा प्रचार करना ही तुम लोगों की अपनी सभ्यता की राजनीति है।

भारती मिशनरियों के बीच ही इतनी बड़ी हुई है। अनेक महान चरित्र उसने वास्तव में अपनी आंखों से देखे हैं। विशेष रूप से अपने धार्मिक विश्वास पर इस प्रकार से अकारण आक्रमण से व्यथित होकर बोली, “भैया, जिस धर्म का प्रचार करने के लिए जो लोग इस देश में आए हैं, उन लोगों के संबंध में मैं तुमसे बहुत अधिक जानती हूं। उन लोगों के प्रति आज तुम निरपेक्ष भाव से विचार नहीं कर पा रहे हो। योरोपियन सभ्यता ने क्या तुम लोगों की भलाई नहीं की? सती-दाह की प्रथा, गंगा सागर में संतान विसर्जन....।”

डॉक्टर बीच में ही रोककर बोल उठे, “चड़क पूजा के समय पीठ छेदना, संन्यासियों की तलवार पर उछल-कूद मचाना, डकैती, ठगी, विद्रोहियों का उपद्रव, गोड़ा और खासियों की आषाढ़ में नरबलि और भी बहुत से काम हैं जिनकी याद नहीं आ रही भारती।”

भारती ने एक शब्द भी नहीं कहा।

डॉक्टर बोले, “ठहरो, और भी दो बातें याद आ गईं। बादशाहों के जमाने में गृहस्थ लोग बहू-बेटियों और दासियों को अपने घरों में नहीं रख सकते थे। नवाब लोग स्त्रियों के पेट चीरकर बच्चों को देखा करते थे। हाय रे हाय, इसी तरह विदेशियों के लिखे इतिहास ने साधारण और तुच्छ बातों को विपुल और विराट बनाकर देश के प्रति देशवासियों के मन को विमुख कर दिया। मुझे याद है, अपने बचपन में स्कूल की पाठय-पुस्तक में मैंने पढ़ा था-विलायत में बैठकर केवल हम लोगों के कल्याण की चिंता में लगे रहकर राज्य मंत्री की आंखों की नींद और मुंह का अन्न नीरस हो गया है। यह असत्य लड़कों को रटना पड़ता है और पेट के लिए शिक्षकों को जबानी याद कराना पड़ता है और सभ्य राजतंत्र की यही राजनीति है भारती। आज अपूर्व को दोष देना व्यर्थ है।”

अपूर्व की लांछना से भारती मन-ही-मन लज्जित ही नहीं हुई, क्रुध्द भी हो उठी। उसने कहा, “तुमने जो कुछ कहा है सत्य हो सकता है। सम्भव है किसी अत्यंत राजभक्त कर्मचारी ने ऐसा ही किया हो। लेकिन इतने बड़े साम्राज्य की मूल नीति कभी असत्य नहीं हो सकती। उसके ऊपर नींव रखकर इतनी बड़ी विशाल संस्था एक दिन भी टिकी नहीं रह सकती। तुम कहोगे कि अनंत काल की तुलना में वह दिन कितने होते हैं? ऐसे ही साम्राज्य तो इससे पहले भी थे। क्या वह चिरस्थायी हुए? तुम्हारा कहना अगर सत्य भी हो, तो वह भी चिरस्थायी नहीं होगा। लेकिन यह श्रृंखलाबध्द, सुनियंत्रित राज्य है। तुम चाहे कितनी निंदा क्यों न करो, इसकी एकता, इसकी शांति से क्या कोई शुभ लाभ हुआ ही नहीं? पश्चिमी सभ्यता के प्रति कृतज्ञ होने का क्या कोई भी कारण तुम्हें नहीं मिला? अपनी स्वाधीनता तो तुम लोग बहुत दिनों से खो चुके हो और इस बीच राज-शक्ति का परिवर्तन तो अवश्य ही हुआ है। लेकिन तुम्हारे भाग्य का परिवर्तन नहीं हुआ। ईसाई होने के कारण मुझे गलत मत समझ लेना भैया। अपने सभी अपराध विदेशियों के मत्थे मढ़कर ग्लानि में डूबे रहना ही अगर तुम्हारे देश-प्रेम का आदर्श हो तो तुम्हारे उस आदर्श को मैं नहीं अपना सकूंगी। हृदय में इतना विद्वेष भरकर तुम शायद अंग्रेजों की कुछ हानि कर सको, लेकिन उससे भारतवासियों का कुछ भी कल्याण नहीं होगा। इस सत्य को निश्चित रूप से जान लेना।”

भारती के शब्दों के कानों में पहुंचते ही सव्यसाची चौंक पड़े। भारती का यह रूप अपरिचित था। यह भावनाएं अप्रत्याशित थीं। जिस धार्मिक विश्वास और सभ्यता के गहरे प्रभाव के बीच पलकर वह बड़ी हुई है उसी के ऊपर आघात होने से उत्तेजित और असहिष्णु होकर जो यह निर्भीक प्रतिवाद कर बैठी वह भले ही कितना ही कठोर और प्रतिकूल क्यों न हो-सव्यसाची की दृष्टि में उसने मानो उसे नई मर्यादा दे डाली।

उसे निरुत्तर देखकर भारती बोली, “तुमने कोई उत्तर नहीं दिया भैया? हिंसा की इतनी बड़ी आग को अपने हृदय में जलाकर तुम और चाहे जो कुछ भी करो, देश की भलाई नहीं कर सकोगे।”

डॉक्टर बोले, “तुमसे तो मैंने अनेक बार कहा है कि जो लोग देश की भलाई करने वाले हैं, वे चंदा इकट्ठा करके अनाथ आश्रम, ब्रह्मचर्याश्रम, वेदांत आश्रम, दरिद्र भंडार आदि तरह-तरह के लोक हितकारी कार्य कर रहे हैं। महान् पुरुष हैं वे। मैं उनकी भक्ति करता हूं। लेकिन मैंने देश की भलाई करने का भार नहीं लिया है, मैंने उसे स्वतंत्र कराने का भार लिया है। मेरे हृदय की आग केवल दो बातों से बुझ सकती है। एक तो अपनी चिता भस्म से, या फिर जिस दिन यह सुन लूंगा कि यूरोप का धर्म, उसकी सभ्यता, नीति, सागर के अतल गर्भ में डूब गई है।”

भारती स्तब्ध रह गई।

वह कहने लगे, “इस विषकुंड का भरपूर सौदा लेकर यूरोप जब समुद्र पार करके पहले पहल व्यापार करने आया था तब उसे केवल जापान पहचान सका था। इसी से आज उसका इतना सौभाग्य है। इसी से आज वह यूरोप के समकक्ष सभ्रांत मित्र बना हुआ है। लेकिन चीन और भारत उसे नहीं पहचान सके। उन दिनों स्पेन का राज्य सारी पृथ्वी पर फैला हुआ था। एक छोटे से जापानी ने स्पेन के एक नाविक से पूछा, “तुम लोगों को इतना अधिक राज्य कैसे मिला?” नाविक ने उत्तर दिया, “बड़ी आसानी से। हम जिस देश को हड़पना चाहते हैं वहां हम पहले बेचने के लिए माल ले जाते हैं। हाथ-पैर जोड़कर उस देश के राजा से मांग लेते हैं थोड़ी-सी जमीन। उसके बाद ले आते हैं पादरी। वह लोग जितने लोगों को ईसाई नहीं बना पाते उससे कहीं अधिक उस देश के प्रचलित धर्म को गाली-गलौज देते हैं। तब लोग बिगड़कर पागल हो जाते हैं और दो-एक को मार डालते हैं। तब हम मंगा लेते हैं अपनी तोप-बंदूकें और सेना। और तत्काल यह प्रमाणित कर देते हैं कि हमारे सभ्य देश के मानव-संहारकारी यंत्र असभ्य देश की अपेक्षा कितने श्रेष्ठ हैं।”-यह कहकर उन्हें विदा करके जापान ने अपने देश में कानून जारी कर दिया कि जब तक सूर्य और चंद्रमा उदित रहेंगे तब तक ईसाई उनके देश में कदम नहीं रखने पाएंगे। रखेंगे तो उन्हें प्राण-दंड दिया जाएगा।

अपने धर्म और धर्म-प्रचारकों के प्रति किए गए इन तीखे आक्षेप से दु:खी होकर भारती बोली, “यह बात मैं पहले भी सुन चुकी हूं। लेकिन जिन जापानियों के प्रति तुम भक्ति रखते हो वह कैसे हैं?”

डॉक्टर बोले, “यह झूठ है कि भक्ति रखता हूं। मैं उनसे घृणा करता हूं। कोरियावासियों को बार-बार बंधक और अभय देकर भी बिना दोष के झूठे बहाने गढ़कर उनके राजा को कैद करके सन् 1910 में जब जापान ने कोरिया राज्य हड़प लिया, मैं शंघाई में था। उस दिन के वह सब अमानुषिक अत्याचार भूल जाने के योग्य नहीं हैं। अभय क्या केवल जापान ने ही दिया था भारती? यूरोप ने भी दिया था। लेकिन शक्तिशाली जापान के विरुध्द अंग्रेजों ने भी मुंह नहीं खोला। उसने कहा, हम लोग एंग्लो-जापानी संधि सूत्र में बंधे हुए हैं और यही बात संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के राष्ट्रपति ने भी अत्यंत स्पष्ट शब्दों में कह दी कि वचन देने से क्या हुआ? जो असमर्थ और शक्तिहीन राष्ट्र अपनी रक्षा नहीं कर सकता तो उसका राज्य नहीं जाएगा तो किसका जाएगा। ठीक ही हुआ। अब हम लोग जाएंगे उनका उध्दार करने? असम्भव है पागलपन है।” यह कहकर सव्यसाची ने एक पल चुप रहकर कहा-” मैं भी कहता हूं भारती कि यह असम्भव है, असंगत है, पागलपन है। दुर्बल का धन शक्तिशाली क्यों नहीं छीन लेगा? इस बात को सभ्य यूरोप की नैतिक बुध्दि सोच भी नहीं सकती।”

भारती अवाक् ही रही।

वह कहने लगे, अठारहवीं शताब्दी के अंतिम भाग में ब्रिटेन का दूत लार्ड मैकार्टनी गया चीनी दरबार में-व्यापर की थोड़ी-सी सुविधा प्राप्त करने के लिए। मंचू नरेश शिनलुंग उन दिनों समस्त चीन के सम्राट थे। वह अत्यंत दयालु थे। दूत की विनीत प्रार्थना से प्रसन्न होकर उन्होंने आशीर्वाद देते हुए कहा, “देखो भैया, हमारे स्वर्ग जैसे साम्राज्य में किसी भी वस्तु का अभाव नहीं है, लेकिन तुम आए हो बहुत दूर से, अनेक कष्ट सहकर। जाओ, केंटन शहर में जाकर व्यापार करो। स्थान देता हूं। तुम सब लोगों का भला होगा।” राजा का यह आशीर्वाद निष्फल नहीं हुआ पचास वर्ष भी नहीं बीतने पाए कि चीन के साथ अंग्रेजों का प्रथम युध्द छिड़ गया।”

भारती ने आश्चर्य में पड़कर पूछा, “क्यों भैया?”

डॉक्टर बोले, “यह चीन का अन्याय था-सम्राट सहसा बोल उठा,” अफीम खाते-खाते हमारी आंखें बंद होती जा रही हैं। बुध्दि-शुध्दि अब नहीं रही, कृपा करके इस चीज का आयात रोक दो।”

“इसके बाद?”

“इसके बाद का इतिहास बहुत ही संक्षिप्त-सा है। दो ही वर्ष के अंदर अफीम खाने को राजी होकर और भी पांच बंदरगाहों में केवल पांच रुपए प्रतिशत टैक्स पर व्यापार करने की स्वीकृति देकर और अंत में हांगकांग बंदरगाह दक्षिण में देकर सन् 42 में यह युध्द समाप्त हुआ। ठीक ही हुआ। इतनी सस्ती अफीम पा कर जो मूर्ख खाने में आपत्ति करता है उसका ऐसा प्रायश्चित उचित ही तो था।

भारती बोली, “यह तुम्हारी मनगढ़ंत कहानी है।”

डॉक्टर बोले, “होने दो। कहानी सुनने में है तो अच्छी। और यही देखकर फ्रांसीसी सभ्यता ने कहा था-”मेरे पास अफीम तो नहीं लेकिन इन्सानों की हत्या करने के लिए अच्छे-से-अच्छे यंत्र अवश्य हैं। इसलिए युध्द हुआ। फ्रांसीसियों ने चीन साम्राज्य का अनाम प्रांत छीन लिया और युध्द का खर्च अधिक-से-अधिक व्यापारिक सुविधाएं, ट्रीटी-पोर्ट आदि- ये सब तुच्छ कहानियां हैं। इन्हें रहने दो।”

भारती बोली, “लेकिन भैया, ताली एक ही हाथ से बजती है? चीन का क्या कुछ भी अन्याय नहीं है?”

डॉक्टर बोले, “हो सकता है। लेकिन तमाशा तो यह है कि योरोपियन सभ्यता का अन्याय-बोध दूसरों के घरों पर चढ़ाई करने के लिए ही होता है। उनके अपने देश में ऐसी घटना दिखाई नहीं पड़ती।”

“उसके बाद?”

“बता रहा हूं। जर्मन सभ्यता ने देखा-वाह रे वाह!-यह तो बड़ी मजेदार बात है। हम तो घाटे में ही रह गए....और उसने भी एक जहाज में पादरी भरकर उनके बीच लगा दिया। सन् 1697 में जब वे लोग प्रभु ईसा की महिमा, शांति और न्याय-धर्म का प्रचार कर रहे थे तब चीनियों का एक दल पागल हो उठा और उसने दो परम धार्मिक प्रचारकों के सिर काट डाले....अन्याय....चीन का ही अन्याय था। इसलिए शनटुंग प्रांत जर्मनी के पेट में चला गया। उसके बाद केंटन में विद्रोह हुआ। यूरोप की सभी सभ्यताओं ने एक होकर उसका जो बदला लिया शायद कहीं भी उसकी तुलना नहीं मिल सकती। उस हर्जाने का अपरिमित ऋण चीनी लोग कितने दिनों तक चुकाते रहेंगे यह बात ईसा प्रभु ही जानते हैं। इस बीच ब्रिटिश सिंह, जार के भालू, जापान के सूर्य देव-लेकिन अब नहीं बहिन, मेरा गला सूखता जा रहा है। दु:ख की तुलना में अकेले हम लोगों के सिवा शायद उन लोगों का और कोई साथी नहीं है सम्राट शिनटुंग निर्वाण को प्राप्त हो, उनके आशीर्वाद की बड़ी महिमा है।”

भारती एक बहुत लम्बी सांस खींचकर चुप हो रही।

“भारती।”

“क्या है भैया?”

“चुप क्यों हो?”

“तुम्हारी कहानी की ही बात सोच रही हूं। अच्छा भैया, इसीलिए क्या चीन में तुमने अपना कार्य-क्षेत्र चुना है? जो लोग सैकड़ों अत्याचारों से जर्जरित हैं उनको उत्तेजित कर देना कठिन नहीं है। लेकिन एक बात और है। इस पर क्या तुमने विचार किया है? उन सब निरीह अज्ञानी किसान-मजदूरों का दु:ख तो यों ही यथेष्ट है। उस पर फिर मार-काट, खून-खराबी, शुरू कर देने से तो उनके दु:खों की सीमा नहीं रहेगी।”

डॉक्टर बोले, “निरीह किसान-मजदूरों के लिए दुश्चिन्ता में पड़ने की तुम्हें जरूरत नहीं है भारती। किसी भी देश में वह स्वाधीनता के काम में भाग नहीं लेते, बल्कि बाधा ही डालते हैं। उन लोगों को उत्तेजित करने के लिए, व्यर्थ परिश्रम करने का समय मेरे पास नहीं है। मेरा कारोबार शिक्षित, मध्यवित्त और भद्र लोगों को लेकर ही चलता है। यदि किसी दिन मेरे काम में शामिल होना चाहो भारती तो इस बात को मत भूलना। आइडियल या आदर्श के लिए प्राण दे सकने योग्य मनोबल की आशा, शांति प्रिय, निर्विरोध, निरीह किसानों से करना बेकार है। वह स्वतंत्रता नहीं चाहते, शांति चाहते हैं। जो शांति असमर्थ-अशक्त लोगों की है....।”

भारती व्याकुल होकर बोली, “मैं भी यही चाहती हूं भैया। बल्कि तुम मुझे इसी जड़ता के काम में नियुक्त कर दो। तुम्हारे 'पथ के दावेदार' के सिध्दांत से मेरी सांस रुकती चली जा रही है।”

सव्यसाची ने हंसकर कहा, “अच्छा।”

भारती रुक न सकी। उसी तरह व्यग्र उच्छवास से बोली, “अच्छा शब्द का उच्चारण कर देने के अतिरिक्त क्या कुछ भी कहने को शब्द तुम्हारे पास नहीं हैं भैया?”

“हम लोग आ पहुंचे हैं भारती। सावधानी से बैठ जाओ। चोट न लग जाए।” यह कहकर डॉक्टर ने तेजी से धक्का लगाकर छोटी-सी नाव को अंधेरे में नदी के किनारे लगा दिया। भारती को उतारते हुए उन्होंने कहा, “पानी या कीचड़ नहीं है बहिन, तख्ता बिछा है, उसी पर से चली आओ।”

अंधेरे में नीचे पैर रखकर तृप्ति की सांस लेते हुए भारती बोली, “भैया, तुम्हारे हाथों से आत्म-समर्पण करने के समान निर्विघ्न शांति और कहीं नहीं है।”

लेकिन दूसरी ओर से कोई उत्तर नहीं आया। अंधेरे में दोनों के कुछ दूर आगे बढ़ने पर डॉक्टर ने आश्चर्य भरे स्वर में कहा, “लेकिन बात क्या है? बताओ तो? यह क्या विवाहोत्सव का मकान है, न तो बत्तियों की रोशनी है, न कोई हल्ला-गुल्ला ही है। बेहले का सुर भी नहीं। कहीं चले गए हैं क्या यह लोग?”

दोनों सीढ़ी से चढ़कर चुपचाप ज्यों ही ऊपर पहुंचे, खुले द्वार दिखाई दिया शशि-जो बडे ध्यान से अखबार पढ़ रहा था।

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