सोरठा

बिहरहिं बन चहु ओर प्रतिदिन प्रमुदित लोग सब।
जल ज्यों दादुर मोर भए पीन पावस प्रथम ॥२५१॥
चौपाला

पुर जन नारि मगन अति प्रीती । बासर जाहिं पलक सम बीती ॥
सीय सासु प्रति बेष बनाई । सादर करइ सरिस सेवकाई ॥
लखा न मरमु राम बिनु काहूँ । माया सब सिय माया माहूँ ॥
सीयँ सासु सेवा बस कीन्हीं । तिन्ह लहि सुख सिख आसिष दीन्हीं ॥
लखि सिय सहित सरल दोउ भाई । कुटिल रानि पछितानि अघाई ॥
अवनि जमहि जाचति कैकेई । महि न बीचु बिधि मीचु न देई ॥
लोकहुँ बेद बिदित कबि कहहीं । राम बिमुख थलु नरक न लहहीं ॥
यहु संसउ सब के मन माहीं । राम गवनु बिधि अवध कि नाहीं ॥

दोहा

निसि न नीद नहिं भूख दिन भरतु बिकल सुचि सोच।
नीच कीच बिच मगन जस मीनहि सलिल सँकोच ॥२५२॥

चौपाला

कीन्ही मातु मिस काल कुचाली । ईति भीति जस पाकत साली ॥
केहि बिधि होइ राम अभिषेकू । मोहि अवकलत उपाउ न एकू ॥
अवसि फिरहिं गुर आयसु मानी । मुनि पुनि कहब राम रुचि जानी ॥
मातु कहेहुँ बहुरहिं रघुराऊ । राम जननि हठ करबि कि काऊ ॥
मोहि अनुचर कर केतिक बाता । तेहि महँ कुसमउ बाम बिधाता ॥
जौं हठ करउँ त निपट कुकरमू । हरगिरि तें गुरु सेवक धरमू ॥
एकउ जुगुति न मन ठहरानी । सोचत भरतहि रैनि बिहानी ॥
प्रात नहाइ प्रभुहि सिर नाई । बैठत पठए रिषयँ बोलाई ॥

दोहा

गुर पद कमल प्रनामु करि बैठे आयसु पाइ।
बिप्र महाजन सचिव सब जुरे सभासद आइ ॥२५३॥

चौपाला

बोले मुनिबरु समय समाना । सुनहु सभासद भरत सुजाना ॥
धरम धुरीन भानुकुल भानू । राजा रामु स्वबस भगवानू ॥
सत्यसंध पालक श्रुति सेतू । राम जनमु जग मंगल हेतू ॥
गुर पितु मातु बचन अनुसारी । खल दलु दलन देव हितकारी ॥
नीति प्रीति परमारथ स्वारथु । कोउ न राम सम जान जथारथु ॥
बिधि हरि हरु ससि रबि दिसिपाला । माया जीव करम कुलि काला ॥
अहिप महिप जहँ लगि प्रभुताई । जोग सिद्धि निगमागम गाई ॥
करि बिचार जिँयँ देखहु नीकें । राम रजाइ सीस सबही कें ॥

दोहा

राखें राम रजाइ रुख हम सब कर हित होइ।
समुझि सयाने करहु अब सब मिलि संमत सोइ ॥२५४॥

चौपाला

सब कहुँ सुखद राम अभिषेकू । मंगल मोद मूल मग एकू ॥
केहि बिधि अवध चलहिं रघुराऊ । कहहु समुझि सोइ करिअ उपाऊ ॥
सब सादर सुनि मुनिबर बानी । नय परमारथ स्वारथ सानी ॥
उतरु न आव लोग भए भोरे । तब सिरु नाइ भरत कर जोरे ॥
भानुबंस भए भूप घनेरे । अधिक एक तें एक बड़ेरे ॥
जनमु हेतु सब कहँ पितु माता । करम सुभासुभ देइ बिधाता ॥
दलि दुख सजइ सकल कल्याना । अस असीस राउरि जगु जाना ॥
सो गोसाइँ बिधि गति जेहिं छेंकी । सकइ को टारि टेक जो टेकी ॥

दोहा

बूझिअ मोहि उपाउ अब सो सब मोर अभागु।
सुनि सनेहमय बचन गुर उर उमगा अनुरागु ॥२५५॥

चौपाला

तात बात फुरि राम कृपाहीं । राम बिमुख सिधि सपनेहुँ नाहीं ॥
सकुचउँ तात कहत एक बाता । अरध तजहिं बुध सरबस जाता ॥
तुम्ह कानन गवनहु दोउ भाई । फेरिअहिं लखन सीय रघुराई ॥
सुनि सुबचन हरषे दोउ भ्राता । भे प्रमोद परिपूरन गाता ॥
मन प्रसन्न तन तेजु बिराजा । जनु जिय राउ रामु भए राजा ॥
बहुत लाभ लोगन्ह लघु हानी । सम दुख सुख सब रोवहिं रानी ॥
कहहिं भरतु मुनि कहा सो कीन्हे । फलु जग जीवन्ह अभिमत दीन्हे ॥
कानन करउँ जनम भरि बासू । एहिं तें अधिक न मोर सुपासू ॥

दोहा

अँतरजामी रामु सिय तुम्ह सरबग्य सुजान।
जो फुर कहहु त नाथ निज कीजिअ बचनु प्रवान ॥२५६॥

चौपाला

भरत बचन सुनि देखि सनेहू । सभा सहित मुनि भए बिदेहू ॥
भरत महा महिमा जलरासी । मुनि मति ठाढ़ि तीर अबला सी ॥
गा चह पार जतनु हियँ हेरा । पावति नाव न बोहितु बेरा ॥
औरु करिहि को भरत बड़ाई । सरसी सीपि कि सिंधु समाई ॥
भरतु मुनिहि मन भीतर भाए । सहित समाज राम पहिँ आए ॥
प्रभु प्रनामु करि दीन्ह सुआसनु । बैठे सब सुनि मुनि अनुसासनु ॥
बोले मुनिबरु बचन बिचारी । देस काल अवसर अनुहारी ॥
सुनहु राम सरबग्य सुजाना । धरम नीति गुन ग्यान निधाना ॥

दोहा

सब के उर अंतर बसहु जानहु भाउ कुभाउ।
पुरजन जननी भरत हित होइ सो कहिअ उपाउ ॥२५७॥

चौपाला

आरत कहहिं बिचारि न काऊ । सूझ जूआरिहि आपन दाऊ ॥
सुनि मुनि बचन कहत रघुराऊ । नाथ तुम्हारेहि हाथ उपाऊ ॥
सब कर हित रुख राउरि राखेँ । आयसु किएँ मुदित फुर भाषें ॥
प्रथम जो आयसु मो कहुँ होई । माथेँ मानि करौ सिख सोई ॥
पुनि जेहि कहँ जस कहब गोसाईँ । सो सब भाँति घटिहि सेवकाईँ ॥
कह मुनि राम सत्य तुम्ह भाषा । भरत सनेहँ बिचारु न राखा ॥
तेहि तें कहउँ बहोरि बहोरी । भरत भगति बस भइ मति मोरी ॥
मोरेँ जान भरत रुचि राखि । जो कीजिअ सो सुभ सिव साखी ॥

दोहा

भरत बिनय सादर सुनिअ करिअ बिचारु बहोरि।
करब साधुमत लोकमत नृपनय निगम निचोरि ॥२५८॥

चौपाला

गुरु अनुराग भरत पर देखी । राम ह्दयँ आनंदु बिसेषी ॥
भरतहि धरम धुरंधर जानी । निज सेवक तन मानस बानी ॥
बोले गुर आयस अनुकूला । बचन मंजु मृदु मंगलमूला ॥
नाथ सपथ पितु चरन दोहाई । भयउ न भुअन भरत सम भाई ॥
जे गुर पद अंबुज अनुरागी । ते लोकहुँ बेदहुँ बड़भागी ॥
राउर जा पर अस अनुरागू । को कहि सकइ भरत कर भागू ॥
लखि लघु बंधु बुद्धि सकुचाई । करत बदन पर भरत बड़ाई ॥
भरतु कहहीं सोइ किएँ भलाई । अस कहि राम रहे अरगाई ॥

दोहा

तब मुनि बोले भरत सन सब सँकोचु तजि तात।
कृपासिंधु प्रिय बंधु सन कहहु हृदय कै बात ॥२५९॥

चौपाला

सुनि मुनि बचन राम रुख पाई । गुरु साहिब अनुकूल अघाई ॥
लखि अपने सिर सबु छरु भारू । कहि न सकहिं कछु करहिं बिचारू ॥
पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढें । नीरज नयन नेह जल बाढ़ें ॥
कहब मोर मुनिनाथ निबाहा । एहि तें अधिक कहौं मैं काहा।
मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ । अपराधिहु पर कोह न काऊ ॥
मो पर कृपा सनेह बिसेषी । खेलत खुनिस न कबहूँ देखी ॥
सिसुपन तेम परिहरेउँ न संगू । कबहुँ न कीन्ह मोर मन भंगू ॥
मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही । हारेहुँ खेल जितावहिं मोही ॥

दोहा

महूँ सनेह सकोच बस सनमुख कही न बैन।
दरसन तृपित न आजु लगि पेम पिआसे नैन ॥२६०॥

चौपाला

बिधि न सकेउ सहि मोर दुलारा । नीच बीचु जननी मिस पारा।
यहउ कहत मोहि आजु न सोभा । अपनीं समुझि साधु सुचि को भा ॥
मातु मंदि मैं साधु सुचाली । उर अस आनत कोटि कुचाली ॥
फरइ कि कोदव बालि सुसाली । मुकुता प्रसव कि संबुक काली ॥
सपनेहुँ दोसक लेसु न काहू । मोर अभाग उदधि अवगाहू ॥
बिनु समुझें निज अघ परिपाकू । जारिउँ जायँ जननि कहि काकू ॥
हृदयँ हेरि हारेउँ सब ओरा । एकहि भाँति भलेहिं भल मोरा ॥
गुर गोसाइँ साहिब सिय रामू । लागत मोहि नीक परिनामू ॥

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