अपने
सैकड़ों रिश्तेदारों के साथ किसी वन
में एक मुर्गा रहता था। अन्य मुर्गों से वह कहीं ज्यादा
बड़ा और हृष्ट-पुष्ट भी था। उसी वन में एक जंगली
बिल्ली रहती थी। उसने मुर्गे के कई
रिश्तेदारों को मार कर चट कर लिया था। उसकी नज़र अब उस
मोटे मुर्गे पर थी। अनेक यत्न करने पर भी वह उसे पकड़ नहीं पाती थी। अँतत: उस ने जुगत
लगाई और एक दिन उस पेड़ के नीचे पहुँची जिसके ऊपर वह
मुर्गा बैठा हुआ था। बिल्ली ने कहा, " हे
मुर्गे ! मैं तुमसे प्यार करती हूँ। तुम्हारी
सुन्दरता पर मुग्ध हूँ। तुम्हारे पंख और कलगी
बडे आकर्षक हैं। मुझे तुम अपनी पत्नी
स्वीकार करो और तत्काल नीचे आ जाओ, ताकि
मैं तुम्हारी सेवा कर सकूँ।
मुर्गा बड़ा बुद्धिमान् था। उसने कहा :-
मुर्गा बड़ा बुद्धिमान् था। उसने कहा :-
" ओ बिल्ली ! तेरे हैं चार पैर
मेरे हैं दो
ढूँढ ले कोई और वर
तू है क्योंकि
सुन्दर
होते नहीं कभी एक
पक्षी और जंगली जानवर।"
बिल्ली ने मुर्गे को जब फिर से फुसलाना चाहा तो मुर्गे ने उससे कहा,
" ओ बिल्ली तूने मेरे रिश्तेदारों का
खून पिया है। मेरे लिए भी तेरे मन में
कोई दया-भाव नहीं है। तू फिर क्यों
मेरी पत्नी बनने की इच्छा जाहिर कर रही है ?"
मुर्गे के
मुख से कटु सत्य को सुनकर और स्वयं के ठुकराये जाने की
शर्म से वह बिल्ली उस जगह
से तत्काल प्रस्थान कर गयी, और उस पेड़ के आस-पास फिर कभी
भी दिखाई नहीं पड़ी।