वाराणसी के निकट कभी एक
शीलवान गृहस्थ रहता था, जिसके घर के
सामने का मार्ग वाराणसी को जाता था। उस
मार्ग के किनारे एक गहरा कुआँ था जिसके निकट
लोगों ने पुण्य-लाभ हेतु जानवरों को पानी पिलाने के
लिए एक द्रोणि बाँध रखी थी। अनेक आते-जाते राहगीर जब कुएँ
से पानी खींचते तो जानवरों के लिए
भी द्रोणि में पानी भर जाते।
एक दिन वह गृहस्थ भी उस राह से गुजरा। उसे प्यास
लगी। वह उस कुएँ के पास गया और पानी खींचकर अपनी प्यास
बुझाई। तभी उसकी दृष्टि प्यास से छटपटाते एक
बंदर पर पड़ी जो कभी कुएँ के पास जाता तो कभी द्रोणि के पास। गृहस्थ को उस
बंदर पर दया आई। उसने कुएँ से जल खींचकर खाली द्रोणि को
भर दिया। बंदर ने तब खुशी-खुशी द्रोणि
में अपना मुँह घुसाया और अपनी प्यास
बुझा ली। फिर बंदर उस गृहस्थ को मुँह चिढ़ा-चिढ़ा कर डराने
लगा। गृहस्थ जो उस समय निकट के पेड़ की छाँव
में आराम कर रहा था बुदबुदाया, "अरे! जब तू प्यास
से तड़प रहा था, तो मैंने तेरी प्यास
बुझायी। अब तू मेरे साथ ऐसी धृष्टता कर रहा है। क्या तू और कोई
अच्छा कर्त्तव्य नहीं दिखा सकता!"
बंदर ने तब कहा, "हाँ मैं और भी अच्छा काम कर
सकता हूँ।" फिर वह कूदता हुआ उस पेड़ के ऊपर पहुँच गया जिसके नीचे राहगीर विश्राम कर रहा था। पेड़ के ऊपर
से उसने राहगीर के सिर पर विष्ठा की और कूदता हुआ वहाँ
से भाग खड़ा हुआ। खिन्न राहगीर ने तब फिर से पानी खींचकर अपने चेहरे व कपड़ों को
साफ किया और अपनी राह पर आगे बढ़
गया।