गाँव के भोले बाबा बड़े किस्सा-गो हैं। वे और उनके साथ आया एक बूढ़ा सा बैल मंदिर पर रहते हैं। गाँव वालों द्वारा शिव जी के मंदिर पर की जाने वाली चढ़ौती से रूखी-सूखी खाकर दिनभर हंसते खिलखिलाते रहते हैं। सुना है कि पड़ौस के किसी गाँव के अच्छे-खासे बड़े किसान थे, जो किसी बात पर अपने बेटों-बहुओं से अलग हो कर यहाँ आये हैं। किसी को नहीं पता उनका अपने बच्चों से क्या विवाद हुआ? वे भी नहीं बताते, लोग भी नहीं पूछते। भरी दोपहरी और साँझ-सकारे मंदिर पर जुट आये लोगों को, वे गाँव-अनगाँव और देश-परदेश से जुड़े किस्से अक्सर सुनाते रहते हैं। पीपल के पेड़ के नीचे रोज की तरह आज भी लोगों ने उन्हें घेर लिया-

'बाबा, बाबा आज कोई नया किस्सा सुनाओ। '

बाबा ने एक नजर पीपल की छांव में दूसरे सिरे पर अपनी हाथ भर जीभ लटकाये बैठे बूढ़े हड़ियल बैल को ताका और अपनी लम्बी दाड़ी पर हाथ फेरते हुए बोले-'आज मेरा मन बहुत उदास है, हम किसानों को इस नये जमाने ने बहुत दयाहीन कर दिया। किसान की जिंदगी को आसान बनाने वाले और हवा-पानी का विष हर लेने वाले इन प्राणियों को हमने बेहिचक घर से बाहर निकाल दिया। आज आदमियों की नहीं, मैं बैलों की कथा सुनाऊँगा।'

बात कुछ दिनों पहले की है। हमारे गाँव में एक किसान रामभरोसे रहते थे। उसका परिवार दूसरे किसानों की तरह मोटा-खाकर, मोटा पहन कर अपना गुजारा कर रहा था। उसके घर में पत्नी, बेटा-बहू के अलावा दो बैल भी थे। पिछले कुछ दिनों से रामभरोसे के बेटे महेश के मन में बड़ी उथल- पुथल मची थी कि हर साल खेती बिगड़ रही है और पिताजी ने अपने गले से दो बैल बाँध रखे हैं जिनके दाना-भूसा के लिए आये दिन घर में किच-किच होती रहती है, कोई ऐसा मौका हाथ आये कि किसी तरह पिताजी को पटाकर बैलों को घर से भगाया जाये।

एक दिन महेश बोला-' पिताजी पहले आप और दूसरे किसान बैलों के साथ धूप में दिन दिनभर लगे रहते थे तो भी आपका काम नहीं निपट पाता था। अब ट्रेक्टर का जमाना आ गया है, अब तो आराम से ट्रेक्टर के ड्रायवर के बगल में बोनट पर बैठ जाओ,कुछ ही घण्टों में अपना खेत जुतकर तैयार हो जाता है। मैं कितने दिन से कह रहा हूँ कि आप अपने इन बूढें बैलों को किसी व्यापारी को बेच दें, तो अपना इनसे रट्टा कटे। नाहक ही दिन भर उनकी देखभाल में लगा रहना पड़ता है। आपका शरीर अब काम नहीं देता तो भी आप बैलों की सेवा करने में लगे रहते हो। आपको तो मेहनत करने की आदत पड़ गई है। मेरे से तो इतनी मेहनत नहीं बनती। सुबह- सुबह जल्दी उठकर बैलों के लिये सानी करो। जब वे सानी खा लें, उन्हें सार से बाहर निकाल कर खुले मैदान में हवा खाने के लिये बाँधो। उनकी देख- भाल करते रहो। दोपहर कुंआ पर पानी पिलाने के लिये ले जाओ। दोपहर बाद फिर सानी खिलाओं। दिन में मील दो मील घुमा के न लाये तो खुर बढ़ जाते हैं इनके। इस तरह सारे दिन मेहमानों की तरह इनकी सेवा करते रहो।'

'बेटा, हम किसानों के लिए गाय-बैल प्राणाधार है। बहुत से पुराने ग्रंथों में इनकी महिमा बतायी गयी है। मेरे दादाजी अक्सर एक मुहावरा कहते रहते थे कि जो आदमी किसी का कर्ज नहीं चुक पाता तो उसे बैल बनकर उसका कर्ज चुकाना पड़ता है। अब तो हिन्दी साहित्य से यह मुहावरा ही विलुप्त नहीं हो रहा है वल्कि इस मुहावरे के साथ विलुप्त हो रही है हमारी सहयोगी प्राणियों के प्रति सदभावना।

भगवान किसी को बैल का जन्म न दे। अपने कंघे पर हल का जुआ लेकर जब ये पत्थर सी हो चुकी जमीन को चीरते हैं तो इनकी नस-नस हिल जाती है, कितने काम करते हैं बेचारे, हल-बखर में जोत लो तो खेती निपटा लो, बैलगाड़ी मे जोत लो तो मेहमानी कर आओ। हम इनसे दिन-रात मेहनत लेते हैं, बदले में इन्हें क्या देते हैं, भूसा और घर का बासी- कूसी खाना बची तरकारी।  भूसा तो दाना निकाल लेने के बाद छिलके की तरह हमारे लिये बेमतलब रहता है। अब वह ही नदारद है। बेटा, किसान खेतों पर किये गये अपने श्रम का तो मूल्यांकन करता है, अभी तक कोई ऐसा विद्वान मनीषी नहीं हुआ जो इन पशुओं के श्रम का भी मूल्यांकन करता। खेती किसानी में कंघे से कंधा भिड़ाकर मेहनत करते ये जानवर आज कल के हवापानी के लिए कितने मददगार है तुमको शायद पता न हो। इनका गोबर, इनका मूत्र, इनके मुँह से निकली सांस हमारे जीवन के लिए बहुत उपयोगी है। हम जिन्दगी भर इनकी सेवा करें तो भी इनका कर्ज नहीं पटा पायेंगे। इस पर भी तुम्हें इनसे बड़ा कष्ट है, तुम्हें तो यह अच्छा लगता है कि ट्रेक्टर वाले के निहोरे करने उसके घर चक्कर लगायें। उसे मुँह माँगी जुताई के पैसे दें। तुम हो कि काम से जी चुराते हो। अब कह रहे हो कि मैं इन बैलों को किसी व्यापारी को बेच दूँ जिससे वह इन्हें ले जाकर कसाई को बेच देगा। बेटा, मैंने इनकी कमाई खाई है, मैं इन्हें कसाई के हाथों में नहीं पड़ने दे सकता।'

'पिताजी, आप इन्हें नहीं बेचना चाहते हो तो मत बेचो, लेकिन अब आज के युग में इनकी आवश्यकता ही नहीं है। बैलों से खलियान का काम निपटाने में महिनों लग जाते थे। पहले खेत में अनाज कटा कि गाड़ी-बैल से ढोकर उसे खलियान में लाओ फिर उसकी टटिया चलाकर दाँय करो। बैलों के पीछे खुद भी दिन भर चक्कर चलाते रहो। दाँय होने के बाद हवा चलने की प्रतिक्षा करते रहो। कभी- कभी तो हवा चलने की प्रतीक्षा में आठ-दस दिन तक गुजर जाते थे ,तब कहीं वे अनाज के दाने घर में आ पाते थे। अब तो खलियान की भी जरूरत नहीं है, सीधे खेत में ही ट्रेक्टर से अनाज निकलवाकर मण्ड़ी में जे जाओ। काम इतनी तेजी से होता है कि बाद में आराम ही आराम। इस वर्ष फसल काटते-काटते आसमान मे बादल छा गये थे, मौसम खराब हो रहा था, फिर सोसाइटी की किस्त समय सीमा में भरना थी, इसलिये पंजाब से आये हारवेस्टर से डायरेक्ट गेंहूँ निकलवा लिये। अब हम बैलों की झंझट में नहीं पड़ने वाले।

बड़ी देर से उसकी माँ कमला इन बाप- बेटे की बातें सुन रहीं थी। उसे लगा कि बेटा ठीक ही कह रहा है, बोली-' बैल यदि घर में रहेंगे तो उन्हें खिलाओगे क्या? इस वर्ष खेतों से सीधा अनाज निकलवा लिया। ट्रेक्टर वाला भूषा निकलवाने के लिये अलग से पैसे माँग रहा था सो लोभ में फंस गये। सोचा-भूसा तो फिर निकलवा लेंगे। फिर के चक्कर में भूषा निकलवा न पाये। अब यही चिन्ता खाये जा रही है कि इन बैलों का पालन- पोषण कैसे होगा?'

पत्नी कमला की बात सुनकर रामभरोसे को क्रोध आ गया बोले-' तुम दोनों जानते हो कि हमारे बूचा बैल का जन्म तो हीराभुमिया की कृपा से हुआ था। उनने मुझ से स्वप्न में कहा था-' यह बछड़ा, बैल बनकर तुम्हारा पिछले जन्मों का कर्ज पटाने के लिये आ रहा है। तुम भी इसका अच्छी तरह ख्याल रखना।' दूसरा भी कितना सीधा बैल है। इन दोनों बैलों ने हमारी जिन्दगी भर सेवा की है। एक कर्जदार की तरह मेहनत से हमारा जन्म जन्मान्तर का कर्ज पटाया है। तुम दोनों बिलकुल नहीं  नहीं चाहते कि ये बैल घर में रहें। मैं इन्हें कटने के लिये कसाई के हाथों तो बेच नहीं सकता। अब इन टेªक्टरों ने आकर इनका अस्तित्व ही दांव पर लगा दिया। सारे गाँव वाले अपने बैलों को कसाइयों के हाथें बेच रहे हैं और दो चार जो भले लोग हैं वे इन्हें शहर में ले जाकर छोडकऱ आ रहे हैं।'

अब वे महेश की ओर मुँह मोड़कर उसको सुनाते हुये बोले -तुमने शहर  में छोड़े गये पशुओं की हालत नहीं देखी। कचरे में पड़ी पिलास्टिक की पन्नियाँ खा-खाकर मर जाते हैं। वहाँ लोग गायों को तो पुण्य कमाने कें चक्कर में रोटी भी खिला देते हैं। बैलों पर डन्डे फटकारते हैं। उन बैलों तो गन्दगी के ढेरों में सूअरों की तरह मुँह मार- मार कर कुछ खाने को तलाशना पड़ता है कि शायद भाग्य से कुछ मिल जाये।

महेश बोला- पिताजी, इससे तो अच्छा है इन्हें हम कसाइयों के हाथों ही बेच दें, इससे इनकी शहरों में दुर्गति तो नहीं होगी। अपने को भी कुछ पैसे भी मिल जायेंगे। अपने गाँव के समझदार लोग यही कर रहे हैं।'

 

उसकी बात सुनकर वे बोले-' मुझे तुम्हारा और आपने गाँव के लोगों का यह  रवैया ठीक नहीं लगा । जिनकी कमाई खाई है, उन्होंने मेहनत करके हमारा जन्म जन्मान्तर का कर्ज पटाया है। उन्हें अपने हजार-पांच सौ रुपटटी के लिये कसाई के हाथों बेच दें। मेरा मन यह स्वीकार नहीं करता।

महेश बोला- लेकिन अब क्या करें? घर में भूषा नहीं है, वे घर में भूखे मरे इससे अच्छा है उनके भाग्य के सहारे शहर में ले जाकर छोड़ दिया जाये। आँख ओझल सो पहार ओझल, फिर जो उनके भाग्य में होगा सो भोगेंगे। क्या पता सरकार उन्हें पकड़वाकर गायों की गोशाला की तरह किसी बृषभ अभ्यारण्य में पहुँचा दे। वहाँ ये आनन्द से तो रहेंगे।'             

इसी समय पडोस में रहने वाला किसान नारायण उनके यहाँ आ गया। आते ही बोला-'काका, मैं आपकी तरह बड़ा किसान तो नहीं हूँ। मजदूरी करके पेट पालता रहता हूँ। मुझ पर तो केवल बीधा भर जमीन है। उसमें गेंहूँ बोना है। रामेश्वर महाते के घर ट्रेक्टर से बौनी कराने के लिये तीन दिन से चक्कर काट रहा हूँ। उनके मिजाज ही नहीं मिल रहे हैं। कभी कहते हैं इतने छोटे काम के लिये इतने बड़े ट्रेक्टर को ले जाओ, फिर बीधा भर में ट्रेक्टर ठीक ढंग से घूम भी नहीं पायेगा और इस काम में उनका न भाड़ा बनेगा न मजदूरी। अब तो एक ही उपाय दिख रहा है कि आप अपने बैलों को एक दिन के लिये मुझे माँगे दे दें तो मेरा खेत ठिकाने लग जायेगा।'

महेश झट से बोला-' हम अपने बोलों को एक दिन के लिये नहीं, तुम्हें हम हमेशा के लिये ही उन्हें दे सकते हैं। अभी ही ले जाओ। उनकी सेवा करो। उन्हें खिलाओ- पिलाओ और अपनी खेती करते रहो। कुछ छोटे- मोटे ऐसे ही काम तलाश लिया करो जिससे तुम्हारा भी काम चलता रहेगा। अब तुम्हारी यही मजदूरी सही।'

यह सुनकर वह गम्भीर हो गया। बोला-' भैया एक दिन की ही बात है, फिर तो मैं रोज इसी चक्कर में फँस जाउंगा। मजदूरी करने भी नहीं जा पाया करूँगा। हाँ एक काम जरूर कर सकता हूँ आज आपके इन बैलों को लिये जाता हूँ, अपना काम निपटाकर, कल गाँव के सभी लोगों की तरह मैं इन्हें ले जाकर शहर छोड़ आऊँगा।'

महेश ने ही उसे झट से उत्तर दिया-' यह ठीक है, आप आज ही इन्हें हमारे घर से लिये जाओ। क्यों पिता जी, यही ठीक रहेगा ना!'

महेश  देख रहा था,पिता जी टकटकी लगाये बैलों को देख रहे हैं। उन्हें याद आ रहा था -कि घर में इतने पैसे न थे कि बैल जोड़ी खरीद सकें और गाय थी सो बछिया पे बछिया दिये जा रही थी फिर कैसे बूचा के जन्म के लिये हीराभुमिया से मिन्नते की थीं। उन्हीं की कृपा से उसका जन्म हुआ था, आज इस तरह उसे घर से निकाला जा रहा है, यह सोचकर रुआँसे हो कर बोले-' बेटा किसी दिन हम काम के न रहेंगे तो हमें भी ले जाकर शहर छोड़ आना। अरे! जब तक मेरा जीवन है मैं इनकी सेवा करता रहूँगा। नारायण, तुम तो अपना काम निकालकर इन्हें हमारे ही घर छोड़ जाना।'

महेश डाँटते हुए बोला-' नहीं ,नारायण भैया तुम तो इन्हें शहर छोड़कर ही आओगे। पिताजी के हाथ-पाँव चलते नहीं है ये कैसे कर पायेंगे इनकी सेवा! '

उनकी पत्नी बोली-'महेश, ठीक कह रहा है। इनसे अपना शरीर तो सँभल नहीं रहा है। इनसे तो हो गई इनकी सेवा!'

नारायण विवाद में न पड़कर अपना काम निकालना चाहता था। उनकी बातें सुनकर चुप रह गया था। जैसे ही उसने बैलों को खूँटे से खोला, रामभरोसे दोनों बैलों के गले लगकर खूब फूट- फूट कर रोये। इस स्थिति में महेश के सहयोग से नारायण उन बैलों को लेकर जा पाया। रामभरोसे हाथ मलते खड़ा रह गया था।

दूसरे दिन नारायण ने अपनी बोनी की और दिन डूबने से पहले ही उन दोनों बैलों को लेकर शहर निकल गया।

रामभरोसे को आज घर बिना बैलों के सूना- सूना लग रहा था। उसे रह- रह कर अपने बैलों की याद आ रही थी-क्या मजाल कि बौनी के समय एक आँतरा हो जाये। इतने सधकर चलते कि सारा गाँव उनके विवके की प्रशंसा किये बिना न रहता। उनकी भूख भी इतनी नहीं कि खाते ही चले जाये । उनका पेट भरा कि  फिर चाहे मोहन भोग उनके सामने रख दो, उधर देखते भी नहीं थे।

रात को कई बार रामभरोसे उठ कर बैलो की नाद तक गया और हर बार रोते हुए लौटा। अगले दिन से यही क्रम चालू रहा। न रामभरोसे भर पैट खाना खा पा रहे थे न घर के किसी आदमी से ठीक से बात कर रहे थे।

एक पखवारा बीत चला था। बैलों की यादों में रामभरोसा खोये रहते। एक दिन डरते- डरते बेटे से कहा- चल कर किसी दिन उन्हें शहर  में देख भर आते हैं। कैसे रह रहे हैं वे वहाँ?

अगले दिन महेश को शहर  जाना होगा। उसने हाँ कर दी।

अगले दिन उसने अपनी मोटर साइकल तैयार की और पिताजी से बोला -'चलो, आज आपके बैलों से आपको मिला लाता हूँ। मुझे बैंक के काम से शहर  जाना ही है। आप भी चले चलें। मिल जाये तो अपने प्यारे बैलों से मिल लेना। राम भरोसे झट से तैयार होकर उसके साथ मोटर साइकल पर बैठ गया था।

शहर पहुँच कर महेश तो बैंक में अन्दर चला गया। रामभरोसे ने अपने बैलों को ढूढ़ना शुरू किया। इस चैराहे से उस चैराहे पर उन्हें ढूढ़ता रहा। एक सवा घण्टे बाद एक जगह दोंनों बैल साथ- साथ दिख गये। उत्साह से उछल कर वह उनके पास पहुँच गया। उसके उन बैलों के पास जाने पर लोग चिल्लाये-'अरे! बाबा क्या करते हो? उन बैलों के पास नहीं  जाओं, वे मरखा बैल हैं।'

रामभरोसे ने उनकी एक नहीं सुनी, वह उनके सामने पहुँच गया। वे कचरे मैं मुँह मार- मार कर खाना तलाश रहे थे। बूचा ने सिर उठाकर उसकी ओर गौर से देखा और हुंकारी भर के आगे बढा वे जब तक कुछ समझें तब तक उसने रामभरोसे की कमर में अपने छोटे-मुण्डे सींग वाली खोपड़ी से धीरे से जड्ड मार दी। रामभरोसे के पांव हवा में उठ गये और अगले ही पल वह जमीन में गिर पड़े। कुछ लोग डण्डे लेकर उन बैलों को मारने दौड़ पड़े तो दोनों बैल दूर भाग गये। लोगों ने रामभरोसे को उठाया तो वह बूचे की हरकत से, अचरज में भरा हुआ उठकर खड़ा हो गया।

उधर महेश अपने पिता को तलाश रहा था। मोटर साइकल से उन्हें तलाशता हुआ अंदाजे से वह इसी तरफ बढ़ा चला आया और लोगों की भीड़ देखकर वहाँ रुकगया। एक कह रहा था ये तो रामभरोसे बब्बा दीख रहे हैं, जे बैल के ढिंगा काहे गये।'

दूसरा कह रहा था-' ये दोनों बैल बहुत मरखा हैं। अभी तक चार- छह लोगों को अस्पताल पहुँचा चुके हैं। मैंने इनसे उनके पास जाने की मना की थी, ये नहीं माने। भगवान की कृपा रही कि बच गये।'

महेश लपक कर भीड़ के बीच खड़े पिता के पास पहुँचा-'क्या होगया पिताजी, आपको मार दिया उन बेलों ने?'

राम भरोसा कह रहा था-'बेटा, वो अपना बूचा था। तुमतो जानते हो वो मुझसे कितना लड़ियाता है। बूचा तो घर में भी प्यार से ऐसी ही जड्डें मारा करता था। अब मैं तुम से कहता हूँ कि इन बैलों को इस नरक से छुटकारा दिलाओ ओर अपने घर ले चलो। मैं इनकी सेवा करता रहूँगा।'

महेश उनसे लड़ ही पड़ा-'जैसे-तैसे तो इनसे पिण्ड छूटा है! अब दुबारा इनके चक्कर में मत पड़ो। इनकी किस्मत में हो सो भुगतें। वैसे भी यहाँ आकर ये मरखा हो गये हैं।'

' देखों बेटा कैसे दुबरा गये बेचारे, न भरपेट खाना मिलता न लाड़ प्यार।'

यह सुनकर महेश जोर से बोला-' देख लिये इनके हाल-चाल, इन पर आपका बहुत प्यार उमड़ रहा था। आप अब इनका मोह छोड़ों और मोटर साइकल पर बैठों। ये मरखा हो गये हैं, अब तो नगर पालिका वाले ही इन्हें कहीं पहुँचा देंगे? और बहुत लाड़ आ रहा है तो तुम भी यहीं रह जाओ इनके संग।

रामभरोसे ने सुना तो वे सन्न रह गए, सोचा 'ये वही महेश है जिसके लिए उन्होंने एक बखत खाना खाया, मोटा-सोंटा पहना, कर्ज लिया जिसे बैल की तरह भिड़कर साहूकार के यहाँ काम करके पटाया। यही आज बैलों के साथ उन्हें भी! '

लेकिन वेवश होकर राम भरोसे को मोटर साइकल पर बैठना पड़ा। वह जाते बक्त मुड़मुडकर उन बैलों की ओर देखता जा रहा था। जब तक वे ओझल नहीं हो गये वह उन्हें देखता ही रहा। उसने देखा, वे दोनों बैल भी उसकी ओर डबडबायी आँखेां से देख रहे हैं।

किस्सा पूरा कहते भोले बाबा की आँखों से आँसू बह रहे थे वे बोले ' इस दुनिया में मनुष्य ऐसा प्राणी है जो खुद के अलावा दूसरों की देखभाल कर सकता है जिसके बदले में वह हर प्राणी से भरपूर सेवा भी लेता है लेकिन नया जमाना ऐसा आ गया कि अब किसान अपनी सेवा करने वालों की भी जरूरत नहीं समझता। चाहे वे बैल हों चाहे घर के बूढ़े पुराने लोग।

कहानी पूरी करते-करते भोले बाबा सिसक- सिसक कर रोने लगे थे। पता नहीं किसका दर्द इस तरह उनके कण्ठ से बह निकला था।

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