लाठी जाके हाथ में, भैंसें बाकी शान ।
दहसत यों बैठी हुई ,जन-जीवन में आन।।
ऐसी बातें मेरे जेहन में घर कर र्गईं हैं। पुराने जमाने से आज तक लाठी की शान- शौकत में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। अब लाठी का स्थान पिस्तौल और बमों ने ले लिया है। बेचारी लाठी कोने में टिकी रह गयी है। अब तो बूढे-आड़े लोग चलने-फिरने के लिये उसे मजबूरी में हाथ में लेते हैं। तलवार युग के पहले इसकी जो बकत थी ,वह अब खत्म हो गई है, लाठी का अवमूल्यन हो गया है। लेकिन उसका भी एक समय था जब उसके बिना आदमी का काम नहीं चलता था। उसकी प्रशंसा में कसीदे काढ़े जाते थे।
मैं यही कुछ ऊटपटांग सोचते हुये अपने गाँव के धोबी मोहल्ले की सकरी गली से गुजरा और सामने पड़ गया मिश्री धोबी का मकान,जो कभी गली के बीच बहते गन्दे पानी के नाले के कारण कीचड़ युक्त फिसलन भरा
़रास्ता बना रहता था। वहाँ से गुजरने वाले हरेक शख्स को उस कीचड़ से बचने के लिए, मिश्री धोबी के चबूतरे पर चढ़कर चैराहे तक पहुँचना पड़ता।
यह नाला गाँव के पटेल और सरपंच के मकानों के पिछवाड़े से बहता हुआ गली में आता और पंचायत निधि से बने प्रमुख रास्ते के नाले में गिर जाता। धोबी मोहल्ले के लोगों ने नाली बनवाने की गुहार पंचायत में की तो सरपंच ने बात टालने के लिये कह दिया-' आप लोगों की सकरी गली में नाली बनाने की जगह ही नहीं है। पहले अपने घरों को पीछे खिसकाओ फिर पक्की नाली बन पायेगी।'
बात उन दिनों की है जब इस गाँव में कीचड़ और रंग से जमकर होली मचती थी। हर साल ताजिये खूब धूम-धाम से निकाले जाते थे। अनेक हिन्दू भी अपनी मान्याता पूरी हो जाने पर अपनी तरफ से भी ताजिये बनवाते थे। लोग घरों से निकलते और रेबड़ी का थोड़ा-थोड़ा प्रसाद सभी ताजियों पर चढ़ाते। ताजिए दार खुले दिल से सब को तवर्रुख बांटते। मौलवी साहब के हाथ में ली हुई मोर पंखी से सभी को झाड़ा देते चलते। ताजियों की यह यात्रा बहुत विलम-विलम कर चलती। आगे-आगे कई अखाड़े चलते। उनमें हर साल हिन्दू-मुसलमान सभी को अपने- अपने करतब दिखाने का अवसर मिलता था।
उसके बाद वे होली के अवसर की प्रतीक्षा करने लगते थे। सभी जातियों के लोग दोनों ही अवसरों पर अपने-अपने अस्त्र-शस्त्रों के करतब दिखाने में न चूकते। कुस्तीं जमतीं, नाल उठाये जाते, लाठी और तलवार चलाने के करतब भी दिखाये जाते।
इस वर्ष लाठी घुमाने का खेल आकर्षण का केन्द्र बन गया था। इधर मिश्री धोबी तैयारी में था उधर सरपंच जी, दीना महाते से तैयारी करा रहे थे। दीना महाते लम्बे समय से अरमान पाले घूम रहे थे कि लाठी घुमाने में सारे गाँव के सामने अपना परचम फहरा सकें, किन्तु इसमें मिश्री धोबी बाधक बन रहा था।
मिश्री धोबी पिछले कई सालों से इस मामले में अपना अस्तित्व बनाये हुये था। वह गाँव के बड़े-बड़ों की चिन्ता नहीं करता था। गाँव की पंचायत में उसकी अच्छी पूछ-परख थी। वह सच कहने में कभी नहीं चूकता था। सरपंच का भी वह अनेक बार विरोध कर चुका था। इसीलिये सरपंच उसे नीचा दिखाना चाहते थे। दिन-रात दीना महाते के घर चक्कर लगाते रहे थे। दीना महाते भी लाठी चलाने का अभ्यास करने में लगा रहता था। वह सोचता रहता-पिछली साल जब से उस धुब्वट से लाठी धुमाने में हारा हूँ तब से लाठी चलाने के अभ्यास में दिन-रात एक करके उससे जीतने के सपने देखता रहता हूँ।
दोनों एक दूसरे से अपने को कम न समझ रहे थे। दोनों ने महीनों से अनवरत लाठी चलाने का अभ्यास किया था। गाँव-मोहल्ले के लोग दोनों से ही दहशत खाते थे।
होली का अवसर आ गया तो दोनों और तीव्र वेग से अभ्यास करने लगे। होली के दिन सुबह से ही फाल्गुनी बयार तेज चलने लगी। मौसम सुहाना हो गया। हुरियारों के दिल होली खेलने के लिये मचलने लगे। दिन के दस बजे तक रंग-गुलाल लेकर लोग हनुमान चैराहे के मन्दिर पर एकत्रित हो गये। गाँव की परिक्रमा देने के लिए होली का दानास चल पड़ा। दीना महाते अपने अखाड़े के साथ आगे-आगे चल रहे थे। मिश्री धोबी अपने अखाडे के साथ गायकों की टोली के संग हो गया। नगड़िया बजाने वाले ने नगड़िया से तरह-तरह की ध्वनियाँ निकालना शुरू कर दीं। मिश्री धोबी फाग गाने लगा-
बारह गज को फेंटा.. हरि को बारह गज को फेंटा .
सब सखियन के मन को भातो,
राधा जी के प्राण सुखातो।।
हरि को बारह गज को फेंटा, हरि को.........
रंग-गुलाल में सराबोर होली का दानास दारुगर मुसलमानों के मोहल्ले में पीपल के पेड़ की घनी छाया में अन्तिम पड़ाव पर पहुँच गया। पहले कुस्तियाँ जमीं ,फिर नाल उठे। हँसी-खुशी से पाले बदलते गये। कार्यक्रम के अन्त में लाठी का खेल देखने के लिये सभी बेसब्र हो उठे थे। कुछ ही क्षणों में दोनों बब्बर शेर आमने-सामने थे।
लोगों के देखते- देखते दोनों ने अपनी- अपनी लाठियाँ उठाकर चूमी। हँसते -मुस्कराते चेहरे लिए मैंदान में उतर गये। कुछ ही क्षणों में दोनों की लाठियाँ एक दूसरे पर बरसने लगीं। दोनों एक दूसरे के बार बचा जाते थे। दोनों की लाठियाँ घमासान चल रहीं थी।
इस समय मुझे याद हो आया एक पौराणिक प्रसंग। एकलव्य और बलराम जी के मध्य ऐसा ही घमासान गदा युद्ध हुआ था। दोनों वीर दो दिन तक अनवरत रूप से लड़ते रहे। कोई हार मानने वाला न दिख रहा था। बद्रिका आश्रम से श्रीकृष्ण जी ने लौटकर उस युद्ध को शान्त कराया था। किन्तु यहाँ कोई श्रीकृष्ण नहीं है जो इनके युद्ध को रोक सके।
सभी हुरियारे दर्शक समझ गये, होली के खेल में विघ्न पैदा होने वाला है। वे अपनी होली को खराब नहीं करना चाहते थे। इसी बीच मिश्री धोबी की एक लाठी दीना महाते के टकुना में जा लगी। इसका मतलब है महाते चूक गया। फिर क्या था लाठी चलाते हुए दीना महाते मिश्री को माँ-बहन की गालियाँ देने लगा।
हार-जीत का फैसला देख सभी तालियाँ बजाने लगे। इस पर महाते का चेहरा और तमतमा गया। गुस्से में वह गाँव वालों को भी गालियाँ बकने लगा।
लाठी चलाते हुए मिश्री ने उसे समझाया-''महाते गालियाँ मत दो। इज्जत सभी के होती है।''
दोनों में लडाई बढ़ते देख, लोगों ने आगे बढ़कर खेल रोक दिया। खेल तो रुक गया किन्तु दीना महाते की ओर से वाकयुद्ध चलता रहा। दीना महाते आपे से बाहर हो चुका था। अनाप-सनाप गालियाँ बके जा रहा था? किन्तु मिश्री ने संतुलन नहीं खेाया था!
खेल के मैदान में दो दल बन गये। एक ब्राह्मण, बनियों और ठाकुरों का दल तथा दूसरा गाँव की पिछड़ी जातियों का दल। पहले वाले दल का कहना था कि मिश्री ने जान बूझकर माहते को लाठी मारी है। दूसरे दल का कहना था कि महाते खेल की चाल चूक गये। खेल में ऊँच-नीच नहीं होता। अपनी ब्राह्मण जाति की इतनी ही चैधराहट थी तो खेल में उतरना ही नहीं चाहिये था। यदि हमारे मिश्री कक्का की लाठी लग गयी तो इसमें बुरा मानने की बात नहीं है।
दीना महाते के आदमियों का कहना था कि धोबीवाला चाहता तो उन्हें बचा भी सकता था।
जब-जब खेल में मान-सम्मान का प्रश्न खड़ा हो जाता है, तब-तब मर्यादायें सिर धुनने लगतीं हैं। खेल भावना आहत होती है। समाज का संतुलन बिगड़ जाता है।
बातों-बातों में दोनों एक बार फिर लड़ पड़े होते। लोगों ने आगे बढ़कर बीच-बचाव कर दिया। मिश्री धोबी ने धोषणा कर दी-'' जिसे बार करना हो पीछे से न करे। सामने आकर करे। मारना ही है तो वीरों की तरह ललकारकर मारें। मैं उसका हृदय से स्वागत करुँगा।'
होली का वातावरण इतना दूषित हो गया कि धीरे-धीरे करके तमाशबीन वहाँ से खिसकने लगे। कुछ लोग दीना महाते को लेकर वहाँ से चले गये तो मिश्री धोबी भी अपने घर चला आया।
शाम तक घर-घर में यह प्रसंग चर्चा का विषय बन गया। दलित वर्ग पता नहीं कितने युगों बाद आज स्वाभिमान की साँस ले रहा था। दूसरी ओर के लोग यह बर्दास्त नहीं कर पा रहे थे कि दबे-कुचले लोग सिर चढ़ें। अब तो गाँव भर में यह लगने लगा कि योजना बनाकर कभी भी मिश्री धोबी की हत्या की जा सकती है।
मिश्री सोच रहा था कि कोई उस पर बार करे तो सामने आकर करे। कहीं किसी ने धोखे से बार कर दिया तो वह कुछ न कर पायेगा।
दूसरे दिन से जब भी मिश्री घर से निकलता तो चैकन्ना होकर निकलता। वह अकुलानेे लगा-ऐसे इस गाँव में कैसे जिया जा सकता है?
.........फिर जायें तो जायें कहा ?
उसकी पत्नी शुक्लो उसे बार-बार समझाने लगी-''जल में रहकर मगर से बैर नहीं लिया जा सकता। अरे! जाके गाँव में रहनों परै, बाकी हाँजू-हाँजू करनों ही परैगी।''
शुक्लो की बातें सुनकर वह निष्र्कष पर पहुँच गया- यह गाँव छोड़ने में ही भलाई है।
मिश्री निर्णयात्मक ढ़ंग से बोला-''यहाँ के पास का गाँव चिटौली भी तो अपनी पटी का ही है। मेरे दादा ने उस गाँव की खूब सेवा की थी। मुझे उनके साथ गूर्जर ़ठाकुरों के कपड़े धोने वहाँ जाना ही पड़ता था। महाते जैसे लोगों से बचाव तो उसी गाँव में जाकर हो सकता है। वहाँ इनकी पहुँच नहीं हो सकती। उस गाँव के लोग यहाँ की स्थिति से परिचित भी हैं। उन्होंने परसों मुझे अपने गाँव में बसने के लिये बैजू नाई के द्वारा बुलावा भी भेज दिया है।
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पति-पत्नी के मध्य हुई यह बात क्षेत्र भर में फैल गई कि मिश्री धोबी गाँव छोड़कर जा रहा है। आस-पास के गाँवों के लोग सहानुभूति व्यक्त करने उसके पास आने लगे। कुछ दूसरी पटी के लोग भीं उसके हालचाल जानने के साथ ही उसके मनकी बात मालूम करने आ धमकते। वह उनसे भी उसी आत्मीयता से मिलता और बिना गिला-शिकवा उसका पूरा सम्मान करता।
एक दिन वह पत्नी से बोला-'' शुक्लो रानी ,समझ नहीं आतो कै क्या मैं चीलरन कै डरसे कथूला ही छोड़ दऊँ।''
शुक्लो बोली-'' सोचो, पूरो कथूला ही खराब हो जाये तो बाय फेंकनोंई परैगो कै नहीं। बोलो.....?' '
वह गद्गद् होकर बोला-' तू सच्ची अर्धागिनी है। तेरी बातों से मैं कभहूँ नहीं जीत पाओ। चलो बाँधो अपनों सामान, कल ही चलतैयें चिटौली गाँव ।''
........और दूसरे दिन वह अपनी घर गृहस्थी का सामान गधे पर लाद कर पत्नी के साथ चिटौली गाँव पहुँच गया।
सारे गाँव ने उसका खूब स्वागत-सत्कार किया। उसके लिये मड़ैया बनाने में गाँव के सभी लोग जुट गये। दो-तीन दिन में तो उसकी मड़ैया मुलुआ प्रजापति के अहाते में बन कर तैयार हो गई। वह उस में रहने लगा। वह समझ गया यहाँ के लोग आदमी की कद्र करना जानते हैं। उसकी कला के पारखी हैं। लगता है उसे लाठी चलाने के हुनर के ढ़ेर सारे चेले मिलने वाले हैं।
उसे यह गाँव जिजमानी की विरासत में मिला। इसकी सेवा करना मेरा फर्ज है।
कुछ ही दिनों में चिटौली गाँव में अखाड़ा सज गया। उस गाँव के लड़के मिश्री धोबी के चेले बन गये और उससे लाठी चलाने की कलायें सीखने लगे।
यह खबर बेतार के तार की तरह सालवई गाँव में पहुँच गई। लोग समझ गये धोबीवाला उस गाँव में जाकर द्रोणाचार्य बन बैठा है। वह बदला लेने के लिये अपने चेले तैयार कर रहा है। वहाँ के लोगों को हमारे विरुद्ध भड़का रहा है।
ऐसी बातें उस गाँव में चर्चा का विषय बन गयीं।
गाँव के बड़े-बड़ों ने मिलकर, इसी समस्या को लेकर हनुमान जी के मन्दिर पर पंचायत की। कुछ का कहना था- 'उससे डरने की जरूरत नहीं है । हमारे हाथ पीछे तो लगे नहीं है , हम भी दीना महाते के निर्देशन में पूरी तैयारी करलें। जब मौका आये तो दो-दो हाथ हो ही जायें। '
.....पर इन बातों से कुछ लोगों को अपने गाँव का अमन- चैन ही खतरे में दिखाई देने लगा। अन्ततः सब ने मिलकर तय किया कि किसी भी स्थिति में मिश्री को इस गाँव में वापस लाया जाये।
अगले दिन ही सरपंच ने अपने आदमी के द्वारा उसे बुलाना भेज दिया-'धोबी कक्का अपने गाँव में लौट आयें।'
मिश्री का वहाँ मन लग गया था। वह वापस लौटने को टालने लगा।
एक दिन सालवई गाँव के लोग दीना महाते को लेकर वहाँ जा पहुँचे। उन्हें आया हुआ देखकर, वहाँ के लोग भी एकत्रित होने लगे।
मुलुआ प्रजापति के द्वार पर चारपाइयाँ डाल दी गयीं। सभी लोग उनपर बैठ गये। पंचायत में चिटौली के पंचों को भी बुला लिया। सरपंच ने प्रस्ताव रखा-' मिश्री कक्का, हम सब तुम्हें लैवे आये हैं। अपने गाँव चलो ।'
पटेल ने बात का समर्थन किया-'अब वहाँ तुम्हें कोई कष्ट नहीं होगा। मैं इसकी जुम्मेदारी लेता हूँ।'
दीना महाते ने मुँह लटकाये हुए कहा-'तुम्हारे बिना गाँव में सूनों-सूनों लगतो। सब गाँव मोय टोकें-टोकें खातो। चल भज्जा भेंहीं चल, सारा गाँव तो तेरे संग है। अब तोसे कोऊ कछू कहे, तब तें हम से कहिये।'
सालवई के लोगों की बात सुनकर ठाकुर तेजसिंह ने कहा-'इसका जाना न जाना मिश्री की इच्छा पर निर्भर है।'
दीना महाते बोला-' हम इनसे हाँ करालें तो?
ठाकुर तेज सिंह मायूस होकर बोले-' हम इन्हें रोकेंगे नहीं। पर वहाँ इस बार इनका अपमान हुआ तो हम यह सहन नहीं करेंगे।'
चिटौली गाँव के लेागों का प्यार देख मिश्री का दिल भर आया, पर सालवई के घर का मोह उसे खींच रहा था।
आखिर में सालवई के लोगों की बात मिश्री टाल नहीं पाया और फिर सालवई लौट आया।
अपने घर को साफ-सूफ कर उसमें रहने लगा। तब चिटौली गाँव की देखा-देखी इस गाँव में भी अखाड़ा सज गया और इस गाँव के लड़के भी उससे लाठी चलाने की कला सीखने आने लगे।
किन्तु इतने समय बाद भी उसके घर के सामने नाला बदस्तूर बह रहा था।
एक दिन मिश्री ने अपने शागिर्दों को बुलाया और कहा-' मैं ये बाहर बहते नाले को बन्द करने जा रहा हूँ । तुम लोग चाहो तो साथ चलो।'
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यह कह कर उसने फावड़ा उठाया और वहाँ जा पहुँचा ,जहाँ से नाला इस गली में मुड़ता था। उसके साथी भी उसके पीछ-पीछे चलकर वहाँ पहुँच गये। मिश्री ने नाले के मुहाने को बन्द कर दिया।
खबर मिलते ही सरपंच और पटेल अपनी-अपनी बन्दूकें लेकर वहाँ आ धमके।
मिश्री डरा नहीं। लाठी लेकर खड़ा रह गया। उसके सार्गिद उसके पीछे खड़े थे। सरपंच स्थिति को समझकर बोला-'मैं समझ गया, अब ये नाला बनवाना ही पड़ेगा। मिश्री कक्का आप चिन्ता नहीं करें, कल से ये नाला बनवाना शुरू कर दूँगा। आज पानी खोल दें।'
मिश्री बोला-'कल से नहीं , चार दिन का समय और देता हूँ नाला बनवा दें। '
यह कह कर उसने नाला खोल दिया और अपने शागिर्दों को लेकर घर लौट आया।
इस बात को अर्द्धसदी व्यतीत होने को है, नाला बन कर कब का पट चुका है और उस पर पक्की गली भी बन गई है। पर आज भी लोग होली के उस दिन की लठियाई को अपनी फागों में गाते नहीं थकते।
गरीब गुरव्वन के मन भाती
बड़़े बड़िन के प्राण सुखाती
दो गज की मिश्री की लाठी ,दो गज की ।
अरे! दो गज की मिश्री की लाठी ,दो गज की ।।