प्रियंवदा चुपके से बोली ‘अनुसूये! यह इसका अर्थ-
प्रबल काम प्रभाव के कारण कालहरण में है असमर्थ,
जिससे इसका भाव बॅंधा वह पुरु का कुलमणि कुलनन्दन,
अतः व्यक्त इसकी अभिलाषा, करना ही है अनुमोदन’
अनुसूया बोली ‘सहमत हूँ, वैसा जैसा बोल रही’
प्रियंवदा होकर समक्ष तब शकुन्तला से प्रकट कही
‘सखी! भाग्य से है यह तेरा प्रेमाग्रह तेरे अनुरूप
वह राजर्षि योग्य है तेरे, सब प्रकार है उचित स्वरूप,
नदियॉं कहॉं उतरती, करके सागर के अन्यत्र गमन?
आम्रवृक्ष के अन्य, पल्लवित लता करेगा कौन सहन?’
अनुमोदन पर नृप ने सोचा इसमें क्या है बात विचित्र
यदि शशांकलेखा अनुमोदन करते हैं दोनों नक्षत्र’
अनुसूया ने कहा ‘कौन सा अब होना चाहिए उपाय?
शीघ्र और चुपचाप सखी का जिससे पूर्ण बने अभिप्राय’
प्रियंवदा ने कहा ‘सखी रे! उसमें अब हम हैं तत्पर
है ‘‘चुपचाप’’ इसी की चिन्ता’ शान्त हुई ऐसा कहकर
अनुसूया ने प्रियंवदा से तत्क्षण पूँछा ‘यह कैसे?’
करती व्यक्त विचार उसी क्षण प्रियंवदा बोली ‘ऐसे-
जिसकी स्निग्ध दृष्टि से इसमें होती अभिलाषा सूचित
वह राजर्षि जागने से है लगता सम्प्रति कृश कुंठित’
नृप ने सोचा ‘इस कन्या ने सत्य कहा, मैं हूँ ऐसे,
क्योंकि नित प्रति रात्रिकाल में भुजा न्यस्त इन नेत्रों से
सदा प्रवाहित होने वाले हृदय ताप से अति संतप्त
युगल अश्रुओं द्वारा जिसकी मणियॉं हुई मलिन को प्राप्त,

प्रत्यंचा आघात चिह्न का नहीं किया संस्पर्श कभी
जिसने किया सुशोभित कर को और पहन भी रखा अभी
वह ऐसा यह कनक वलय भी बारम्बार खिसकने पर
मेरे द्वारा मणिबन्धन से किया जा रहा है ऊपर’
कुछ पल चुप रहकर विचारकर बोली प्रियंवदा ‘सखि! देख,
उसके लिए अभी तुम सुन्दर लिख दो एक मदन आलेख,
देव-प्रसाद बहाने से मैं इसे छिपाकर पुष्पों में
ले जाकर अविलम्ब तभी फिर दूँगी उसके हाथों में’
अनुसूया ने कहा ‘सरल सा यह प्रयोग है मुझे भला
किन्तु बता दो मुझको पहले क्या कहती है शकुन्तला’
शकुन्तला ने कहा मध्य में ‘यह विकल्प का कैसा प्रश्न?
किस प्रकार की आज्ञा पर कह होता है विकल्प चिन्तन?’
प्रियंवदा ने कहा ‘अरे फिर दशा प्रसंग निरख अपना
उसके की अनुरूप अभी तुम सोचो सुन्दर पद रचना’
वह बोली ‘मैं सोच रही हूँ, पहले मैं हो लूँ गंभीर,
सखि अपमान भीरु यह मेरा कॉंप रहा है हृदय अधीर’
नृप स्वर स्वगत ‘भीरु! जिससे हो तिरस्कार से आशंकित
वह, यह तेरे सम्मेलन को बैठा है अति उत्कंठित
याचक श्री को प्राप्त करे, या उसे न हो श्री कभी सुलभ
श्री के द्वारा आत्मतुष्टि में कैसे वह होगा दुर्लभ’
दोनों सखियॉं शकुन्तला के साहस को जागृत करती
उसे उसी क्षण धिक्कृत करती बोली ‘यह तू क्या कहती?,
अहा आत्मगुण की अवमानिनि! कौन इस समय अपने से
शान्तिदायिनी शरद् चॉंदनी अरे रोंकता है पट से?’

शकुन्तला ने मन्द विहॅंसकर सखियों से यह बात कही
‘तो इस हेतु नियोजित हूँ मैं’ कहकर बैठी सोच रही
मुग्धित नृप ने मन में सोचा ‘कितना सुन्दर है अवसर,
निर्निमेष नेत्रों से इसको देख रहा हॅूं मैं कातर,
जिसकी एक भ्रू-लता ऊपर उठी हुई है मनभावन
रचना करती हुई पदों की इस शकुन्तला का आनन,
रोमांचित कपोल के द्वारा, ऐसा है यह परिलक्षित,
मेरे प्रति अनुराग प्रिया का मुझे कर रहा हे सूचित’
शकुन्तला ने कहा ‘कर लिया मैनें गीत-वस्तु चिन्तन
किन्तु नहीं है पास हमारे कुछ भी लेखन का साधन’
प्रियंवदा बोली उपाय में ‘इसी शुकोदर सम सुकुमार
नलिनी पत्ते पर वर्णों को स्वयं नखों से अंकित कर’
प्रियंवदा के इसी कथन पर अभिनय करके ऋषितनया
बोली ‘सुनो इसे, अयि सखियों! कहो अर्थसंगत है क्या?’
दोनों बोली ‘गीत पढ़ो तुम, सावधान हैं हम दोनों’
शकुन्तला ने कहा ‘ठीक है, मैं पढ़ती हूँ यथा, सुनो -
‘‘हे निष्कृप! मैं नहीं जानती हृदय तुम्हारा, क्या मन में,
पर अभिलाषा जिन्हें हो गई अति प्रगाढ़ प्रियतम तुम में,
ऐसे, मेरे इन अंगों को कामदेव दिन रात सतत
अपने मदन प्रभाव अग्नि से है कर रहा अधिक सन्तप्त’
सहसा नृप समीप जा बोले ‘हे कृशगात्री! तुम्हें मदन
देता है सन्ताप सदा, पर मुझको तो कर रहा दहन,
दिवस चन्द्रमा को जैसे कि करता है अति कान्तिविहीन
कभी कुमुदिनी को वैसा ही करता है वह नहीं विहीन’

Please join our telegram group for more such stories and updates.telegram channel