उसको ‘‘पहले यह जल पी ले’’ इस प्रकार के स्नेह सहित
दिये गये जल के पीने को किया आपने आमन्त्रित,
आया नहीं समीप किन्तु वह, कारण था परिचय अज्ञान
तदनन्तर मेरे देने पर किया उसी जल का वह पान,
इसी बात पर तब मुझसे ही कहा आपने यह हॅंसकर
‘‘करते हैं विश्वास सदा ही सब अपने ही साथी पर,
दोनों ही वनवासी हो ना’’ शकुन्तला इतना कहकर
हुई शान्त तब राजन बोले उससे इस प्रकार कटु स्वर
‘अपना कार्य साधने वाली नारी के असत्य से पुष्ट
वचनों से तो कामीजन ही होते आये हैं आकृष्ट’
कहा गौतमी ने राजन से ‘महाभाग! हैं शब्द अप्रज्ञ,
आश्रम में पाली शकुन्तला है छलकपट भाव अनभिज्ञ’
राजन बोले ‘तापसवृद्धे! अरे मनुष्य जाति से भिन्न
अन्य स्त्रियॉं भी बिन शिक्षा होती हैं पटुता सम्पन्न,
उनमें भी जब परिलक्षित है स्वाभाविक पटुता होना
तो फिर सब प्रकार से शिक्षित नारी का तो क्या कहना,
कोयल अपनी सन्तानों का, पूर्व करें वे गगन गमन
अन्य पक्षियों के द्वारा ही करवाती हैं परिपालन’
क्रोध सहित बोली शकुन्तला ‘अरे अनार्य! सभी को सम
आत्म हृदय अनुमान लगाकर ऐसा समझ रहे हो तुम,
धारण किए धर्म का चोंगा तृण से ढॅंके कूप जैसा
तुझ जैसे का कौन अनुसरण कर सकता है अब ऐसा?,
नृप ने सोचा ‘कपट रहित सा है परिलक्षित इसका क्रोध
जिसके कारण बुद्धि हमारी करती है शंसय का बोध,

क्योंकि इस विस्मृति के कारण दारुण चित्तवृत्ति पाकर
कृत एकान्त प्रणय अस्वीकृत मेरे द्वारा करने पर
अति क्रोधित, अति रक्तवर्ण की ऑंखों वाली ऋषितनया
कुटिल भौंह भेदन से मानों मन्मथ का धनु तोड़ दिया’
प्रकट कहा ‘भद्रे! दुष्यन्त का है चरित्र तो सर्वविदित,
ऐसा तो है नहीं कहीं भी मुझे हो रहा परिलक्षित’
शकुन्तला ने कहा ‘यहॉं पर कदाचार के द्वारा मैं
भलीभॉंति से दुष्चरित्र अब सिद्ध की गई हूँ जो मैं
पौरव का विश्वास मानकर, जिसके मुख मधु भरी हुई
और हाथ में विष वाले के, हाथों में हूँ पड़ी हुई’
करने लगी रुदन यह कहकर पट से अपना मुख ढ़ॅंककर,
तदनन्तर बोले शारंगरव इस सब का अवलोकन कर
‘इस प्रकार से स्वयं की गयी किसी तरह की चंचलता
प्रतिहत हो जाने पर वह ही दे जाती है दाहकता,
अति विशेष, एकान्त मिलन हो सदा परीक्षण के अनुगत
होती है अज्ञात मित्रता शत्रु भावना में परिणत’
नृप बोले ‘हे महानुभावों! क्यों इस पर करके विश्वास
दोषयुक्त शब्दों के द्वारा देते हो मुझको संत्रास?’
तिरस्कार शब्दों में बोले शारंगरव यह स्वर सुनकर
‘सुना आप लोगों ने इनसे इनका यह निकृष्ट उत्तर,
जिसने अपने जन्मकाल से शठता का ना किया पठन
अविश्वास के योग्य हो गया उसके द्वारा किया कथन,
जिन्हें किसी को धोखा देना है विद्या के सम ग्रहणीय
इस प्रकार के वचनों वाले हो जाते हैं विश्वसनीय’

नृप ने कहा ‘सत्यवादी! तो हमने माना कथित वचन
किन्तु इसे ठगकर क्या मिलता?’ शारंगरव ने कहा ‘पतन’
शारंगरव के इस उत्तर पर नृप बोले स्वर अतिक्रमणीय
‘पतन पौरवों को प्रार्थित है वचन नहीं यह विश्वसनीय’
शारद्वत बोला ‘शारंगरव! उत्तर प्रत्युत्तर से क्या?
हमने तो सन्देश कह दिया गुरु के द्वारा दिया गया,
लौट चलें वापस आश्रम हम ऐसी है मेरी सम्मति’
इस प्रकार कहकर तदनन्तर वह बोला राजन के प्रति
‘तो, यह पत्नी रही आपकी, त्याग करो या अंगीकार
क्योंकि सब प्रकार से प्रभुता स्त्री पर होती स्वीकार,
आगे चलो गौतमी! अब तो यह ही अपना शेष विधान’
शारद्वत के यह कहने पर किए तपस्वीजन प्रस्थान
शकुन्तला बोली ‘मैं ऐसे छली गई हूँ इस ठग से,
अब तुम सब भी छोड़ रहे हो मुझको, विमुख हुए ऐसे’
ऐसा कहकर तपस्वियों के पीछे पीछे किया गमन
वह अतिशय असहाय भाव में करती रही करुण क्रन्दन
‘वत्स शारंगरव! सम्बोधित कर रुककर कहा गौतमी ने
‘करती हुई विलाप आ रही शकुन्तला पीछे अपने,
पति के अति कठोर होने पर उसकी परित्यक्ता स्त्री
वह अब कुछ क्या करे अन्यथा शकुन्तला मेरी पुत्री?’
बोले क्रोध सहित शारंगरव शकुन्तला से परुष वचन
‘हे दुष्टा! क्या करती है तू स्वतन्त्रता का अवलम्बन?’
अनापेक्षित शारंगरव से यह स्वर करके कर्ण ग्रहीत
कॉंप गयी आपादशिखा वह शकुन्तला होकर भयभीत

फिर बोले ‘शकुन्तले! यदि तू है वैसी ज्यों नृप कहता
तो फिर तुझ कलंकिनी से क्या रखें प्रयोजन पूज्य पिता?
यदि तू अपने पतिव्रत पद को मान रही हे शुचि समुचित
तब अपने ही पति के कुल में है तेरा दासत्व उचित,
करते है प्रस्थान यहॉं से हम सब, अब तू यहीं ठहर’
अति कठोर शारंगरव का यह दृढ़ निश्चय का स्वर सुनकर
नृप ने कहा ‘अहो तपसी! क्यों धोखा देते हो इनको?
विकसित करता चन्द्र कुमुदिनी तथा दिवाकर पंकज को,
आप जानते ही होंगे कि जितेन्द्रियों के तन की वृत्ति
पर स्त्री स्पर्श भाव से रखती विमुख सदैव प्रवृत्ति’
यह सुनकर शारंगरव बोले ‘जब तुम किए स्त्रियों से
पूर्व वृत्त को भूल गये हो तब अधर्म भीरु कैसे?’
धर्म कष्ट का अनुभव करके नृप ने कहा पुरोहित से
पूँछ रहा हूँ यहॉं जानने अच्छा बुरा आप ही से,
तथा कथित ऐसे वृत्तान्त को भूल गया हूँ इस क्षण में
अथवा मिथ्या बोल रही यह, इस प्रकार के शंसय में
अब होऊॅं मैं इस स्त्री का परित्याग करने वाला
या होऊॅं परदार ग्रहण कर मैं कलंक पाने वाला’
कहा पुरोहित ने विचारकर ‘इसमें आप करें ऐसा’
राजन बोले ‘यथाशीघ्र दें आप मुझे आज्ञा वैसा’
दिए पुरोहित परामर्श यह राजन के इस आग्रह पर
‘प्रसव काल तक तो यह देवी करे वास मेरे गृह पर,
ऐसा क्यों, यदि आप कहें तब, पूर्व साधुओं का सुवचन
‘प्रथम चक्रवर्ती सुत को ही आप जन्म देंगे राजन,

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