जब धीरसेन ने अन्धों के बारे में पूछा तो बूढ़े ने यों कहना शुरू किया

 

'उन्हें अन्धे नहीं, सच पूछा जाए तो अन्धीं कहना चाहिए। वे तीन बहनें हैं। तीनों अन्धीं हैं। उनके आँखें हैं ही नहीं। लेकिन हरेक के माथे पर ठीक बीचों-बीच एक सूराख है। तीनों के लिए एक ही आँख है। तीनों बारी बारी से उसी एक आँख को अपने अपने माथे के सूराख में रख कर देखा करती हैं। फिर भी उससे देखने वाली की नजर मामूली आँख वालों से हजारों गुना पैनी होती है। हरेक को उस आँख से दो मिनट तक देखने का हक रहता है। इसलिए तीनों बारी बारी से दो दो मिनट तक उस आँख का उपयोग करती हैं।

 

अगर उनमें से कोई दो मिनट से ज्यादा उस आँख को अपने पास रख ले तो दूसरी झगड़ने लगती है। उस आँख के बिना तीनों एक मिनट भी नहीं रह सकतीं। अब तुम्हें उस आँख को ले लेना हो तो कैसे लोगे?'  बूढ़े ने पूछा।

 

'अच्छा तो, वे रहती कहाँ हैं।" धीरसेन ने कहा।

 

'वे सूरज या चाँद की रोशनी में बाहर नहीं आ सकतीं। इसलिए साँझ के झुटपुट में वे थोड़ी देर के लिए बाहर आ जाती हैं। जो कोई दिखाई देता है उसे खाकर तुरन्त गायब हो जाती हैं।' बूढ़े ने जवाब दिया।

 

यों बातें करते करते सूरज डूबने लगा अन्धेरा छाने लगा। दोनों एक बड़े मैदान में जा पहुँचे। वहाँ छोटी छोटी कॅटीली झाड़ियों के अलावा और कुछ न था!

 

‘देखो, वे तीनों बुढ़ियाँ यहीं आती हैं। इसलिए अब हमें बड़ी सावधानी से काम लेना है।'

 

बूढ़ा बोल ही रहा था कि कहीं से पैरों की आहट आई। दोनों झाड़ियों की आड़ मे छिप गए। तीनों अन्धी बहनें वहाँ आ गई। तीनों बहुत बूढ़ी थीं। उस समय बीच वाली बुढ़िया आँख लगाए थी। झट तीसरी बुढ़िया ने कहा-

 

'बहन! दो मिनट तो हो गए। अब मेरी बारी है।"

 

क्या मैं जानती नहीं कि मेरे बाद तुम्हारी बारी है। लेकिन जरा ठहरो तो! मुझे मानुस की महक आती है। मालूम होता है कि उन झाड़ियों की आड़ में कोई छिपा है। जरा देखने तो दो?' बीच वाली बुढ़िया ने कहा।

 

‘वाह! हमेशा तुम्हीं देखा करोगी क्या ? क्या मैं नहीं देख सकती कि झाड़ी में कौन छिपा है ? ला, बारी मेरी है; आँख मुझे दे दे! मैं देख कर बता दूंगी कि वह कौन है ?' तीसरी बुढ़िया ने कहा।

 

यह झगड़ा खतम होते होते तीसरी की बारी भी बीत गई। अब पहली की बारी थी। इसलिए उसने कहा-

 

'तुम दोनों फजूल क्यों झगड़ती हो? लाओ, आँख मुझे दे दो! अब मेरी बारी है।' यह सुन कर बीच वाली को गुम्सा आ गया।

 

उसने आँख निकाल कर हथेली पर रख ली और कहा–

 

'अब झगड़ा क्यों? आँख मेरी हथेली पर है। तुम दोनों में जो चाहो उसे ले लो!' यह कह कर वह वहाँ  बैठ गई।

 

अब तीनों अन्धीं थीं। आँख बीच वाली के हाथ में थी। लेकिन बाकी दोनों को दिखाई नहीं पड़ता था कि हथेली कहाँ है? इसलिए वे इधर-उधर टटोलने लगीं।

 

तब बूढ़े ने धीरसेन के कान में कहा-

 

'यही मौका है! दौड़ जाओ और आँख को उठा लाओ!" धीरसेन दौड़ कर चुपचाप आँख उठा लाया और बूढ़े के हाथ में रख दी।

 

हथेली से आँख के उठते ही बीच वाली अन्धी ने समझा कि दोनों बहनों में से किसी ने उठाई है। दोनों आपस में झगड़ने लगीं। हरेक कहने लगी कि आँख मेरे पास नहीं है। बस, अब उनको एक दूसरे पर शक हो गया। हरेक बुढ़िया यही कहती थी कि आँख किसी ने छिपा ली है। तीनों जोर जोर से चिल्लाने लगीं।

 

बूढ़े को उन पर तरस आ गया। पास जाकर उसने कहा-

 

'पागल औरतो! क्यों बेकार झगड़ती हो ? आँख तो मेरे पास है। मेरा तुम से एक काम है। इसीलिए मैंने आँख उठा ली। सुनता हूँ कि यहीं नजदीक ही एक तीन सिर वाला राक्षस रहता है। जब तक तुम मुझे उसके पास जाने की राह नहीं बताओगी, तब तक यह आँख तुम लोगों को नहीं दूंगा '

 

‘कौन हो जी तुम ? बड़े ढीठ मालूम होते हो? आँख चुरा कर चले हो उलटे हमें ही धमकाने? हम किसी तीन सिर वाले राक्षस को नहीं जानतीं। हमारी आँख हमें लौटा दो और अपनी राह जाओ!' उन बूढ़ियों ने कहा।

 

'मेरे साथ यह चालाकी नहीं चल सकती। तुम को मालूम है कि वह राक्षस कहाँ रहता है।‘

 

‘पता नहीं’

 

अगर तुम यों ही बातें बनाती रहोगी और उसका बताओगी, तो देखना-आँख लेकर मैं यहाँ से चल दूंगा!' बूढ़े ने धमकाया।

 

'वाह! यह कैसी जबर्दस्ती है ! राक्षस का पता अगर हमें मालूम होता तो बता न देती? हमें डराने-धमकाने से क्या फायदा ?' पहली बूढ़ी ने कहा।

 

'इसे धमकाने दो न! देखें, हमारी आँख यह कैसे उठा ले जाता है?' दूसरी बुढ़िया ने कहा।

 

लेकिन बूढ़ा जब चुपचाप आँख लेकर वहाँ से चल पड़ा तब वे हार कर बोलीं-

 

‘यहाँ से दक्खिन की ओर जाओ; कुछ दूर जाने पर तुम्हें एक बड़ा तालाब मिलेगा। उससे थोड़ी दूर पर एक महल में तीन देवकन्याएँ रहती हैं। रात होते ही वे इंद्र-लोक से उतरती हैं और उस तालाब में किलोलें करके नहाती हैं। रात भर उस महल में आराम करके सबेरा होने के पहले फिर अपने लोक को लौट जाती हैं। तीन चीजें उन देवकन्याओं के पास हैं। राक्षस को मारने के लिए तुम्हें वे तीनों चीजें चाहिए। एक तो मन्त्र मुकुट, दूसरी टेढ़ी तलवार और तीसरी जादू की थैली। वे सोते वक्त अपने मुकुट उतार कर लूंटी पर टाँग देती हैं। मुकुट पहने बिना वे देवलोक नहीं पहुँच सकतीं। इसलिए अगर तुम किसी तरह उनके मुकुट चुरा लो तो वे तुम्हें सब कुछ

देने को तैयार हो जाएँगी। उन्हीं की कृपा से तुम राक्षस को मार सकोगे।' उन बूढ़ियों ने कहा।

 

अच्छा, तो मैं तुम्हारी आँख पैरों के पास रख देता हूँ। ढूँढ़ लो!' यह कह कर बूढ़े ने आँख वहाँ रख दी। तुरंत वे दोनों वहाँ से उड़ चले।

 

अगर इसके पहले ही आँख बूढ़ियों के हाथ लग जाती तो उनकी खैर न थी। बूढ़ियों की बताई हुई राह पर चल कर थोड़ी देर में वे एक तालाब के पास पहुंचे। उसकी बगल में ही संगमर्मर का बना हुआ एक महल दिखाई दिया। उस महल में तीन सफेद पलंगों पर तीनों देव-कन्याएँ गाढ़ी नींद में पड़ी थीं।

 

रात ज्यादा न थी। थोड़ी ही देर में पौ फटती और तीनों उठ कर अपने लोक को चली जाती। देर करने से सारा मामला बिगड़ जाता। दीवार पर मुकुट चमक रहे थे। बूढ़े ने उनकी तरफ इशारा किया। धीरसेन दबे पाँव गया और चुपके मुकुट उठा लाया। अब देवकन्याओं के चले जाने का कोई डर तो था नहीं!

 

बस, दोनों तालाब के किनारे  जाकर मौज से चिल्ला-चिल्ला कर गाने लगे। इस हो-हल्ले से देव-कन्याओं की नींद उचट गई और वे हड़बड़ा कर मुकुट लेने दौड़ी। लेकिन वहाँ मुकुट कहाँ ? व्याकुल होकर इधर-उधर खोजने लगीं। इतने में उन्हें तालाब किनारे मौज से गाते हुए दो आदमी दिखाई दिए। मुकुट उनके हाथ में थे। यह देख कर उनको बहुत क्रोध आया। वे लपक कर उनके पास गई।

 

लेकिन ये दोनों उनसे क्या कम थे! उन्हें खूब नजदीक आने दिया और पलक मारते आसमान में उड़ कर मुकुट दिखा दिखा कर उन्हें खूब चिढ़ाने लगे। बेचारी परेशान हो गई। मुकुट हाथ में आए बिना वे कुछ नहीं कर सकती थीं। इसलिए रोने-कलपने लगीं-

 

'हमारे मुकुट हमें दे दो!'

 

तब बूढ़े ने उनसे कहा-

 

'अच्छा, मुकुट हम तुम्हें लौटा देंगे। लेकिन इसके बदले तीन चीजें देनी पड़ेंगी। जब तक तुम हमें वे चीजें नहीं दोगी, मुकुट भी नहीं मिलेंगे।'

 

अच्छा, बोलो-तुम क्या चाहते हो?' देव-कन्याओं ने पूछा

 

तब बूढ़े ने अन्धी बूढ़ियों की बताई हुई तीनों चीजें माँगी। लाचार होकर पहली देव-कन्या ने थैली ला दी। वह मृग-चर्म की बनी हुई थी और उस पर सोने का काम किया हुआ था । दूसरी जाकर एक तलवार ले आई। वह बड़ी तेज थी और चमचम कर रही थी। तीसरी ने लोहे का बना हुआ एक मुकुट ला दिया।

 

तीनों चीजें बूढ़े के हाथ में देकर देव-कन्याओं ने कहा- 'लो, अपनी चीजें ! अब हमारे मुकुट हमें दे दो!' तब बूढ़े ने वे तीनों चीजें ले ली और उनके मुकुट उन्हें दे दिए। फिर वे वहाँ से उड़ चले। देव-कन्याएँ भी अपने अपने मुकुट पहन कर मन ही मन भगवान को धन्यवाद देती वहाँ से चली गई। क्योंकि वे मुकुट उन्हें फिर न मिलते तो उनको कभी इन्द्रलोक जाना नसीब न होता।

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