मायारानी के सिपाही जो दोनों नाबपोशों को गिरफ्तार करने आए थे, धनपत को लिए हुए बाग के पहले दर्जे की तरफ रवाना हुए जहां वे रहा करते थे, मगर वे इच्छानुसार अपने ठिकाने न पहुंच सके, क्योंकि बाग के दूसरे दर्जे के बाहर निकलने का रास्ता मायारानी की कारीगरी से बन्द हो गया था। ये दरवाजे तिलिस्मी और बहुत ही मजबूत थे और इनको खोलना या तोड़ना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव था। पाठकों को याद होगा कि बाग के दूसरे दर्जे और पहले दर्जे के बीच में एक बहुत लम्बी-चौड़ी दीवार थी जिस पर कमन्द लगाकर चढ़ना भी असम्भव था और सीढ़ियों के जरिए उस दीवार पर चढ़ और उसे लांघकर ही एक दर्जे से दूसरे दर्जे में जाना होता था। इस समय जो दरवाजा मायारानी ने तिलिस्मी रीति से बन्द किया है इसी के बाद वह दीवार पड़ती थी जिसे लांघकर सिपाही लोग पहले दर्जे में जाते थे। उस दीवार पर चढ़ने के लिए जो सीढ़ियां थीं वे लोहे की थीं और इस समय दोनों तरफ की सीढ़ियां दीवार के अन्दर घुस गई थीं इसलिए दीवार पर चढ़ना एकदम असम्भव हो गया था।
दरवाजे को तिलिस्मी रीति से बन्द देखकर सिपाही लोग समझ गए कि यह मायारानी की कार्रवाई है। इसलिए उन लोगों के दिल में डर पैदा हुआ और वे सोचने लगे कि कहीं ऐसा न हो कि मायारानी हम लोगों को इसी बाग में फंसाकर मार लाड़े, क्योंकि आखिर वह तिलिस्म की रानी है, मगर यह विचार उन लोगों के दिल में ज्यादा देर तक न रहा क्योंकि राजा गोपालसिंह के साथ दगा किये जाने का जो हाल नकाबपोशों की जुबानी सुना था उस पर उन लोगों को पूरा-पूरा विश्वास हो गया था और इसी सबब से गुस्से के मारे उन सब की अवस्था ही बदली हुई थी।
आखिर धनपत को साथ लिए हुए वे सिपाही यह सोचकर पीछे की तरफ लौटे कि उस चोरदरवाजे की राह से बाहर निकल जायंगे जिस राह से दोनों नकाबपोश बाग के अन्दर घुसे थे, मगर उस ठिकाने पर पहुंचकर भी वे लोग बहुत ही घबराये और ताज्जुब करने लगे क्योंकि उन्हें वह खिड़की कहीं नजर न आई। हां एक निशान दीवार में जरूर पाया जाता था, जिससे यह कहा जा सकता था कि शायद इसी जगह वह खिड़की रही होगी। यह निशान भी मामूली न था बल्कि ऐसा मालूम होता था कि दीवार वाले चोरदरवाजे पर फौलादी चादर जड़ दी गई है। अब उन सिपाहियों को पहले से भी ज्यादा तरद्दुद हुआ क्योंकि सिवाय उन दोनों रास्तों के बाहर निकलने का कोई और जरिया न था। एक बार उन सिपाहियों के दिल में यह भी आया कि मायारानी की तरफ चलना चाहिए, मगर खौफ से ऐसा करने की हिम्मत न पड़ी।
उस समय दिन घण्टे भर से कुछ ज्यादा चढ़ चुका था। सिपाही लोग क्रोध की अवस्था में भी तरद्दुद और घबड़ाहट से खाली न थे और खड़े-खड़े सोच ही रही थे कि किधर जाना और क्या करना चाहिए कि इतने ही में सामने से लीला आती हुई दिखाई पड़ी। जब वह पास पहुंची तो सिपाहियों की तरफ देखकर ऊंची आवाज में बोली, ''तुम लोग अपनी जान के दुश्मन क्यों हो रहे हो क्या तुम जमानिया राज्य के नौकर होकर भी इस बात को भूल गए कि मायारानी एक भारी तिलिस्म की रानी है और जो चाहे कर सकती है दो-चार सौ आदमियों को बरबाद कर डालना उसके लिए एक अदना काम है। अफसोस, ऐसे मालिक के खिलाफ होकर तुम अपनी जान बचाना चाहते हो याद रक्खो कि इस बाग में भूखे-प्यासे मर जाओगे, तुम्हारे किए कुछ भी न होगा। मैं तुम लोगों को समझाती हूं और कहती हूं कि अपने मालिक के पास चलो और उससे माफी मांगकर अपनी जान बचाओ।''
इसी तरह की ऊंच-नीच की बहुत-सी बातें लीला उन सिपाहियों से देर तक कहती रही और सिपाही लोग भी लीला की बात पर गौर कर ही रहे थे कि यकायक बाईं तरफ से एक शंख के बजने की आवाज आई, घूमकर देखा तो वे ही दोनों नकाबपोश दिखाई पड़े जो हाथ के इशारे से उन सिपाहियों को अपनी तरफ बुला रहे थे। उन्हें देखते ही सिपाहियों की अवस्था बदल गई और उनके दिल के अन्दर उम्मीद, रंज, डर और तरद्दुद का चर्खा तेजी के साथ घूमने लगा। लीला की बातों पर जो कुछ सोच कर रहे थे उसे छोड़ दिया और धनपत को साथ लिए हुए इस तरह दोनों नकाबपोशों की तरफ बढ़े जैसे प्यासे पंसाले (पौसारे) की तरफ लपकते हैं।
जब उन दोनों नकाबपोशों के पास पहुंचे तो एक नकाबपोश ने पुकारकर कहा, ''इस बात से मत घबराओ कि मायारानी ने तुम लोगों को मजबूर कर दिया और इस बाग से बाहर जाने लायक नहीं रक्खा। आओ हम तुम सभी को इस बाग से बाहर कर देते हैं मगर इसके पहले तुम्हें एक ऐसा तमाशा दिखाना चाहते हैं जिसे देखकर तुम बहुत ही खुश हो जाओगे और हद से ज्यादा बेफिक्री तुम लोगों के भाग में पड़ेगी, मगर वह तमाशा हम एकदम से सभी को नहीं दिखाना चाहते। मैं एक कोठरी में (हाथ का इशारा करके) जाता हूं, तुम लोग बारी-बारी से पांच-पांच आदमी आओ और अद्भुत, अद्वितीय, अनूठा तथा आश्चर्यजनक तमाशा देखो।''
इस समय दोनों नकाबपोश जिस जगह खड़े थे उसके पीछे की तरफ एक दीवार थी जो बाग के दूसरे और तीसरे दर्जे की हद को अलग कर रही थी और उसी जगह पर एक मामूली कोठरी भी थी। बात पूरी होते ही दोनों नकाबपोश पांच सिपाहियों को अपने साथ आने के लिए कहकर उस कोठरी के अन्दर घुस गए। इस समय इन सिपाहियों की अवस्था कैसी थी, इसे दिखाना जरा कठिन है। न तो इन लोगों का दिन उन दोनों नकाबपोशों के साथ दुश्मनी करने की आज्ञा देता था और न यही कहता था कि उन दोनों को छोड़ दो और जिधर जाएं जाने दो।
जब दोनों नकाबपोश कोठरी के अन्दर घुस गए तो उसके बाद पांच सिपाही जो दिलावर और ताकतवर थे कोठरी में घुसे और चौथाई घड़ी तक उसके अन्दर रहे। इसके बाद जब वे उस कोठरी के बाहर निकले तो उनके साथियों ने देखा कि उन पांचों के चेहरे से उदासी झलक रही है, आंखों से आंसू की बूंदें टपक रही हैं और वे सिर झुकाए अपने साथियों की तरफ आ रहे हैं। जब पास आए तो उन पांचों की अवस्था एकदम बदल जाने का सबब सिपाहियों ने पूछा जिसके जवाब में उन पांचों ने कहा, ''पूछने की कोई आवश्यकता नहीं है, तुम लोग पांच-पांच आदमी बारी-बारी से जाओ और जो कुछ है अपनी आंखों से देख लो, हम लोगों से पूछोगे तो कुछ भी न बतायेंगे, हां इतना अवश्य कहेंगे कि वहां जाने में किसी तरह का हर्ज नहीं है।''
आपस में ताज्जुब से भरी बातें करने के बाद और पांच सिपाही उस कोठरी के अन्दर घुसे जिसमें दोनों नकाबपोश थे और पहले पांचों की तरह ये पांचों भी चौथाई घड़ी तक उस कोठरी के अन्दर रहे। इसके बाद जब बाहर निकले तो इन पांचों की भी वही अवस्था थी जैसी उन पांचों की जो उनके पहले कोठरी के अन्दर से होकर आए थे। इसके बाद फिर पांच सिपाही कोठरी के अन्दर घुसे और इनकी भी वही अवस्था हुई, यहां तक कि जितने सिपाही वहां मौजूद थे पांच- पांच करके सभी कोठरी के अन्दर से हो आए और सब ही की वही अवस्था हुई जैसी पहले गये हुए पांचों सिपाहियों की हुई थी। धनपत ताज्जुब-भरी निगाहों से यह तमाशा देख और असल भेद जानने के लिए बेचैन हो रहा था मगर इतनी हिम्मत न पड़ती थी कि किसी से कुछ पूछता, क्योंकि नकाबपोशों की आज्ञानुसार सिपाहियों की तरह वह उस कोठरी के अन्दर जाने नहीं पाया था जिसमें दोनों नकाबपोश थे। अन्त में सब सिपाहियों ने आपस में बातें करके इशारे में इस बात का निश्चय कर लिया कि कोठरी के अन्दर उन सभी ने एक ही रंग-ढंग का तमाशा देखा था।
थोड़ी देर बाद दोनों नकाबपोश उस कोठरी के बाहर निकल आए और उनमें से नाटे नकाबपोश ने सिपाहियों की तरफ देखकर कहा, ''धनपत को मेरे हवाले करो!'' सिपाहियों ने कुछ भी उज्र न किया बल्कि बहुत अदब के साथ आगे बढ़कर धनपत को नकाबपोश के हवाले कर दिया। दोनों नकाबपोश उसे साथ लिये हुए फिर उस कोठरी के अन्दर घुस गये और आधे घंटे तक वहां रहे, इसके बाद जब कोठरी के बाहर निकले तो नाटे नकाबपोश ने सिपाहियों से कहा, ''धनपत को हमने ठिकाने पहुंचा दिया है, अब आओ, तुम लोगों को भी इस बाग के बाहर कर दें।'' सिपाहियों ने कुछ भी उज्र न किया और दो-तीन झुण्डों में होकर नकाबपोश के साथ-साथ उस कोठरी के अन्दर गए और गायब हो गए। दोनों नकाबपोश भी उसी कोठरी के अन्दर जाकर गायब हो गये और उस कोठरी का दरवाजा भीतर से बन्द हो गया।
इस पचड़े में दो पहर दिन चढ़ आया, लीला दूर से खड़ी यह तमाशा देख रही थी, जब सन्नाटा हो गया तो वह भी लौटी और उसने इन बातों की खबर मायारानी तक पहुंचाई।