आधी रात का समय है, चांदनी खिली हुई है। मौसम में पूरा-पूरा फर्क पड़ गया है। रात की ठंडी-ठंडी हवा अब प्यारी मालूम होती है। ऐसे समय में उस सड़क पर जो काशी से जमानिया की तरफ गई है दो मुसाफिर धीरे-धीरे काशी की तरफ जा रहे हैं। ये दोनों मुसाफिर साधारण नहीं हैं, बल्कि अमीर बहादुर और दिलावर मालूम पड़ते हैं। दोनों की पोशाक बेशकीमत और सिपाहियाना ठाठ की है, तथा दोनों ही की चाल में दिलेरी और लापरवाही मालूम होती है। खंजर, कटार, तलवार, तीर-कमान और कमन्द से दोनों ही सजे हुए हैं और इस समय मस्तानी चाल से धीरे-धीरे टहलते हुए जा रहे हैं। इनके पीछे-पीछे दो आदमी दो घोड़ों की बागडोर थामे हुए जा रहे हैं, मगर ये दोनों साईस नहीं हैं बल्कि सिपाही और सवार मालूम होते हैं।
दोनों मुसाफिर जाते-जाते ऐसी जगह पहुंचे, जहां सड़क से कुछ हटकर पांच-सात पेड़ों का एक झुण्ड था। दोनों वहां खड़े हो गए और उनमें से एक ने जोर से सीटी बजाई जिसकी आवाज सुनते ही पेड़ों की आड़ में से दस आदमी निकल आए और दूसरी सीटी की आवाज के साथ ही वे उन दोनों आदमियों के पास पहुंच हाथ जोड़कर खड़े हो गए। उन सभी की पोशाक उस समय के डाकुओं की-सी थी। जांघिया पहने हुए, बदन में केवल एक मोटे कपड़े की नीमास्तीन, ढाल-तलवार लगाए और हाथों में एक-एक गंड़ासा लिए हुए थे, और सभी की बगल में एक-एक छोटा बटुआ भी लटक रहा था। इन दसों के आ जाने पर उन दो बहादुरों में से एक ने उनकी तरफ देखा और पूछा, ''उसका कुछ पता लगा?'
एक डाकू - (हाथ जोड़कर) जी हां, बल्कि वह काम भी बखूबी कर आये हैं, जो हम लोगों के सुपुर्द किया गया था और जिसका होना कठिन था।
जवान - उसके साथ और कौन-कौन है?
डाकू - लीला के अतिरिक्त केवल पांच लौंडियां और थीं।
जवान - उसे तुमने किस इलाके में पाया और क्या किया, सो खुलासा कहो।
डाकू - उसने जमानिया की सरहद को छोड़ दिया और काशी रहने का विचार करके उसी तरफ का रास्ता लिया। जब काशीजी की सरहद में पहुंची, तो गंगापुर नामक एक स्थान के पास वाले जंगल में एक दिन तक उसे अटकना पड़ा क्योंकि वह लीला को हालचाल लेने और कई भेदों का पता लगाने के लिए पीछे छोड़ आई थी। हम लोगों को उसी समय अपना काम करने का मौका मिला। मैं कई आदमियों को साथ लेकर काशीराज की तहसील में जो गंगापुर में है घुस गया और कुछ असबाब चुराकर इस तरह भागा कि पहरे वालों को पता लग गया और कई सवारों ने हम लोगों का पीछा किया। आखिर हम लोग उन सवारों को धोखा देकर घुमाते हुए उसी जंगल में ले गए, जिसमें मायारानी थी। जब हम लोग मायारानी के पास पहुंचे, तो चोरी का माल उसी के पास पटककर भाग गये और सवारों ने वहां पहुंच और चोरी का माल मायारानी के पास देखकर उन्हीं लोगों को चोर या चोरों का साथी समझा और उन्हें चारों तरफ से घेर लिया।
जवान - बहुत अच्छा हुआ! शाबाश, तुम लोगों ने अपना काम खूबी के साथ पूरा किया। अच्छा इसके बाद क्या हुआ?
डाकू - इसके बाद की हम लोगों को कुछ भी खबर नहीं है क्योंकि आज्ञानुसार आपके पास हाजिर होने का समय बहुत कम बच गया था इसीलिए फिर उन लोगों का पीछा न किया।
जवान - कोई हर्ज नहीं, हमें इतने ही से मतलब था। अच्छा, अब तुम जाओ जमानिया के पास गंगा के किनारे जो झाड़ी है उसी में परसों रात को किसी समय हम तुम लोगों से मिलेंगे, कदाचित् कोई काम पड़े। (अपने साथी की तरफ देखकर) कहिए देवीसिंहजी, अब इन दोनों सवारों के लिए क्या आज्ञा होती है जो हम लोगों के साथ आये हैं?
देवीसिंह - अगर ये लोग जासूसी का काम अंजाम दे सकें, तो इन्हें काशी भेजना चाहिए।
जवान - ठीक है, और इसके बाद जहां तक जल्द हो, सके, कमलिनीजी से मिलना चाहिए, ताज्जुब नहीं वे कहती हों कि भूतनाथ बड़ा ही बेफिकरा है।
पाठक तो समझ ही गये होंगे कि ये दोनों देवीसिंह और भूतनाथ हैं। डाकुओं और दोनों सवारों को बिदा करने के बाद दोनों ऐयार लौटे और तेजी के साथ जमानिया की तरफ रवाना हुए। इस जगह से जमानिया केवल चार कोस की दूरी पर था इसलिए ये दोनों ऐयार सबेरा होने के पहले ही उस टीले पर जा पहुंचे, जो दारोगा वाले बंगले के पीछे की तरफ था और जहां से दोनों ऐयारों और कुमारों को साथ लिए हुए कमलिनी मायारानी के तिलिस्मी बाग वाले देवमंदिर में गई थी। हम पहले लिख आये हैं कि इस टीले पर एक कोठरी थी जिसमें पत्थर के चबूतरे पर पत्थर ही का एक शेर बैठा हुआ था। वह चबूतरा और शेर देखने में तो पत्थर का मालूम होता था, मगर वास्तव में किसी मसाले का बना हुआ था। दोनों ऐयार उस शेर के पास जाकर खड़े हो गये और बातचीत करने लगे। भूतनाथ और देवीसिंह को इस समय इस बात का गुमान भी न था कि उनके पीछे-पीछे दो औरतें कुछ दूर से आ रही हैं और इस समय भी कोठरी के बाहर छिपकर खड़ी उन दोनों की बातें सुनने के लिए तैयार हैं। इन दोनों औरतों में से एक तो मायारानी और दूसरी नागर है। पाठकों को शायद ताज्जुब हो कि मायारानी को तो चोरी के इल्जाम में काशीराज के सवारों ने गिरफ्तार कर लिया था, फिर वह यहां क्योंकर आई इसलिए थोड़ा हाल मायारानी का इस जगह लिख देना उचित जान पड़ता है।
जब उन सवारों ने चारों तरफ से मायारानी को घेर लिया तब एक दफे तो वह बहुत ही परेशान हुई मगर तुरत ही सम्हल बैठी और फुर्ती के साथ उसने अपने तिलिस्मी तमंचे से काम लिया। उसने तमंचे में तिलिस्मी गोली भरकर उसी जगह जमीन पर मारी जहां आप बैठी हुई थी। एक आवाज हुई और गोली में से बहुत-सा धुआं निकलकर धीरे-धीरे फैलने लगा मगर सवारों ने इस बात पर कुछ ध्यान न दिया और मायारानी तथा उसकी लौंडियों को गिरफ्तार कर लिया। मायारानी के तमंचा चलाने पर सवारों को क्रोध आ गया था इसलिए कई सवारों ने मायारानी की जूतों और लातों से खातिरदारी भी की, यहां तक कि वह बेहाल होकर जमीन पर गिर पड़ी, उसके साथ-ही-साथ लीला तथा और लौंडियों ने भी खूब मार खाई, मगर इस बीच में तिलिस्मी गोली का धुआं हल्का होकर चारों तरफ फैल गया और सभी के आंख-नाक में घुसकर अपना काम कर गया। मायारानी और लीला को छोड़ बाकी जितने वहां थे सबके सब बेहोश हो गये थे। न सवारों को दीन-दुनिया की खबर रही और न मायारानी की लौंडियों को तन-बदन की सुध रही। पाठकों को याद होगा कि बेहोशी का असर न होने के लिए मायारानी ने तिलिस्मी अर्क पी लिया था और वही अर्क लीला को पिलाया था। अभी तक इस अर्क का असर बाकी था जिसने मायारानी और लीला को बेहोश होने से बचाया।
मार के सदमे से आधी घड़ी तक तो मायारानी में उठने की सामर्थ्य न रही, इसके बाद जान के खौफ से वह किसी तरह उठी और लीला को साथ लेकर वहां से भागी। बेचारी लौंडियों को, जिन्होंने ऐसे दुःख के समय में भी मायारानी का साथ दिया था, मायारानी ने कुछ भी न पूछा, हां लीला का ध्यान उस तरफ जा पड़ा। उसने अपने ऐयारी के बटुए में से लखलखा निकाला और लौंडियों को सुंखाकर होश में लाने के बाद सभी को भाग चलने के लिए कहा।
लौंडियों को साथ लिए हुए लीला और मायारानी वहां से भागीं मगर घबड़ाहट के मारे इस बात को न सोच सकीं कि कहां छिपकर अपनी जान बचानी चाहिए, अस्तु वे सब सीधे दारोगा वाले बंगले की तरफ रवाना हुईं। उस समय सबेरा होने में कुछ विलम्ब था, वे खौफ के मारे छिपाती-छिपती दिन-भर बराबर चलती गईं और रात को भी कहीं ठहरने की नौबत न आई। आधी रात से कुछ ज्यादा जा चुकी थी जब वे सब दारोगा वाले बंगले पर जा पहुंचीं। इत्तिफाक से नागर भी रास्ते ही में इन लोगों से मिली जो मायारानी से मिलने के लिए मुश्की घोड़ी पर सवार खास बाग की तरफ जा रही थी। इस नागर ने मायारानी को न पहचाना, मगर लीला ने नागर को पहचानकर आवाज दी। नागर जब मायारानी के पास आई तो उसे ऐसी अवस्था में देखकर ताज्जुब करने लगी। मायारानी ने संक्षेप में अपना हाल नागर से कहा जिसे सुन वह अफसोस करने लगी और बोली, ''मुझको भी भूतनाथ पर कुछ-कुछ शक होता है, ताज्जुब नहीं कि उसने धोखा दिया हो, खैर, कोई हर्ज नहीं है मैं बहुत जल्द इस बात का पता लगा लूंगी। आप काशीजी चलकर मेरे मकान में रहिये और देखिये कि मैं भूतनाथ को क्योंकर फंसाती हूं।''
मायारानी और नागर की बातें पूरी न होने पाई थीं कि सामने से दो आदमियों के आने की आहट मालूम हुई। वे दोनों देवीसिंह और भूतनाथ थे। यद्यपि अंधेरे के कारण मायारानी ने उन दोनों को न पहचाना और पहचानने की उसे कोई आवश्यकता भी न थी, मगर जब वे दोनों टीले की तरफ मुड़े, तब मायारानी को शक पैदा हुआ और उसने धीरे से नागर के कान में कहा - ''दोनों टीले पर जा रहे हैं इससे मालूम होता है कि कमलिनी के साथी हैं, क्योंकि उस टीले पर बिना जानकार आदमी के और कोई इस समय कदापि न जायगा।
नागर - हां, मुझे भी यही शक होता है कि ये दोनों कमलिनी के साथी या वीरेन्द्रसिंह के ऐयार हैं और ताज्जुब नहीं कि आपके तिलिस्मी बाग में जाने की नीयत से उस टीले पर जा रहे हों, क्योंकि बाबाजी की जुबानी मैं कई दफे सुन चुकी हूं कि तिलिस्मी बाग में जाने के लिए इस टीले पर से भी एक रास्ता है।
मायारानी - हां, यह तो मैं भी जानती हूं कि इस टीले पर से मेरे तिलिस्मी बाग में जाने का रास्त है मगर इस राह से क्योंकर जाया जा सकता है, इसकी मुझे खबर नहीं है। ताज्जुब नहीं कि खून से लिखी किताब की बदौलत कमलिनी को इन सब रास्तों का हाल मालूम हो गया हो, क्योंकि वह किताब नानक और भूतनाथ की बदौलत कमलिनी के हाथ पहुंची ही होगी।
नागर - बेशक ऐसा ही है। खैर, चलिए इन दोनों के पीछे-पीछे चलें। ताज्जुब नहीं कि बहुत-सी बातों का पता लग जाय।
इसके बाद मायारानी केवल नागर को साथ लिए भूतनाथ और देवीसिंह के पीछे-पीछे छिपकर टीले पर गई और जब वे दोनों ऐयार कोठरी के अन्दर घुसे तो बाहर छिपकर भूतनाथ तथा देवीसिंह आपस में जो बातें करने लगे, उन्हें सुनने लगीं जैसा कि हम ऊपर लिख आए हैं।
उस चबूतरे पर बैठे हुए शेर के पास खड़े होकर भूतनाथ और देवीसिंह नीचे लिखी बातें करने लगे।
भूतनाथ - (शेर के सिर पर हाथ रखकर) तिलिस्म के चौथे दर्जे में जो देवमन्दिर है उसमें जाने का यही रास्ता है।
देवीसिंह - क्या राजा गोपालसिंह से वहां मुलाकात होगी?
भूतनाथ - अवश्य, बल्कि कमलिनी, लाडिली और दोनों कुमार भी वहां मौजूद होंगे।
देवीसिंह - इस दरवाजे के खोलने की तरकीब राजा गोपालसिंह ने आपको बता दी?
भूतनाथ - हां, राजा गोपालसिंह और कमलिनी ने भी दरवाजे के खोलने की तरकीब बताई थी, मगर यह रास्ता बड़ा ही खतरनाक है। अच्छा, अब मैं दरवाजा खोलता हूं।
इतना कहकर भूतनाथ ने शेर की बाईं आंख में उंगली डाली। आंख अन्दर की तरफ घुस गई और इसके साथ ही शेर ने मुंह खोल दिया। भूतनाथ ने दूसरा हाथ शेर के मुंह में डाला और कोई पेंच घुमाया जिससे उस चबूतरे के आगे वाला पत्थर हटकर जमीन के साथ सट गया जिस पर शेर बैठा हुआ था और नीचे उतरने के लिए रास्ता मालूम पड़ने लगा। देवीसिंह ने बत्ती जलाने का इरादा किया मगर भूतनाथ ने मना किया और कहा कि नहीं, तुम चुपचाप मेरे पीछे-पीछे चले आओ, नीचे उतर जाने के बाद बत्ती जलावेंगे। आगे-आगे भूतनाथ और पीछे-पीछे देवीसिंह, दोनों ऐयार नीचे उतरे और वहां बटुए में से सामान निकालकर भूतनाथ ने मोमबत्ती जलाई। वह एक कोठरी थी जिसमें तीन तरफ तो दीवार थी और एक तरफ की दीवार सुरंग के रास्ते के तौर पर थी अर्थात् उधर से किसी सुरंग में जाने का रास्ता था। कोठरी के बीचोंबीच में लोहे का एक-एक खम्भा था और खम्भे के ऊपर एक गरारीदार पहिया था जिसे भूतनाथ ने घुमाया और देवीसिंह से कहा, ''जिस राह से हम आये हैं उसे यहां से बन्द करने की यही तरकीब है और (हाथ का इशारा करके) यही सुरंग तिलिस्मी बाग के चौथे दर्जे में गई है!'' इसके बाद भूतनाथ और देवीसिंह सुरंग में घुसकर आगे की तरफ बढ़े।
इस सुरंग की चौड़ाई चार हाथ से ज्यादा न होगी। यहां की जमीन स्याह और सफेद पत्थरों से बनी हुई थी अर्थात् एक पत्थर सफेद तो दूसरा स्याह, इसके बाद सफेद और फिर स्याह, इसी तरह दोनों रंग के पत्थर सिलसिलेवार लगे हुए थे। सुरंग के दोनों तरफ की दीवारें लोहे की थीं और थोड़ी-थोड़ी दूर पर लोहे के बनावटी आदमी दीवार के साथ खड़े थे जो अपने लम्बे हाथ फैलाए हुए थे। भूतनाथ ने देवीसिंह की तरफ देखकर कहा, ''इस राह से जाना और अपनी जान पर खेलना एक बराबर है। देखिए बहुत सम्हलकर मेरे पीछे चले आइए और इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखिए कि स्याह पत्थर पर पैर न पड़ने पावे नहीं तो जान न बचेगी। कमलिनी ने मुझे अच्छी तरह समझाकर कहा था कि सुरंग की दीवार के साथ जो लोहे के आदमी हाथ फैलाये खड़े हैं वे उस समय काम करते हैं जब कोई स्याह पत्थर पर पैर रखता है। स्याह पत्थर पर पैर रखते ही वे उसको अपने दोनों हाथों से ऐसा पकड़ लेते हैं कि फिर किसी तरह उनके कब्जे से निकल नहीं सकता। मैं समझता हूं कि इस सुरंग में कई आदमी धोखे में पड़कर मारे गये होंगे, इसलिए उचित है कि मेरे और तुम्हारे दोनों के हाथ में एक-एक मोमबत्ती रहे।
भूतनाथ की बातें सुनकर देवीसिंह ताज्जुब करने लगे, आखिर लाचार होकर एक मोमबत्ती और जलाई और तब बड़ी होशियारी से सफेद पत्थरों पर पैर रखते हुए आगे बढ़े। यह सुरंग एकदम सीधी बनी हुई थी और इसकी जमीन हर तरह से साफ थी, जिसका सबब शायद यह हो कि यहां कहीं से गर्द-गुबार के आने की जगह नहीं थी। फिर इस सुरंग में ऐसी कारीगरी भी की गई थी कि किसी-किसी जगह दीवार में से साफ छनी हुई हवा आती और दूसरी राह से निकल जाती थी जिससे सुरंग की हवा हरदम साफ बनी रहती थी और उसमें जहर का असर पैदा नहीं होने पाता था।
लगभग दो सौ कदम जाने के बाद देखा कि दाहिनी तरफ दीवार के साथ वाले लोहे के एक आदमी के दोनों हाथ सिमटे हुए हैं और उनके बीच में हड्डी का एक ढांचा फंसा हुआ है। वह ढांचा मनुष्य के शरीर का था जिसे देखते ही भूतनाथ ने देवीसिंह से कहा, ''देखिये यह धोखा का नमूना है। कोई अनजान आदमी सुरंग में आकर जान दे बैठा है, अनजान कैसे कहें क्योंकि यहां तक तो आ ही चुका था शायद धोखा खा गया हो।'' दोनों ऐयार ताज्जुब से उस पंजर को देखने लगे, पर इसी समय यकायक देवीसिंह की निगाह पीछे की तरफ (जिधर से ये दोनों आये थे) जा पड़ी और एक रोशनी देख देवीसिंह ने ताज्जुब के साथ भूतनाथ से कहा, ''देखिये तो वह रोशनी कैसी है'
भूतनाथ - (बत्ती के आगे हाथ रखकर और गौर से रोशनी की तरफ देखकर) कोई आ रहा है!
देवीसिंह - दो औरतें मालूम पड़ती हैं।
भूतनाथ - ठीक है, शायद लाडिली और कमलिनी हों, क्योंकि सिवाय जानकार के और कोई तो इस सुरंग में आ नहीं सकता।
देवीसिंह - मुझे तो विश्वास नहीं होता कि वे कमलिनी और लाडिली होंगी।
भूतनाथ - शक तो मुझे भी होता है, खैर, चलकर देख ही क्यों न लें।
भूतनाथ और देवीसिंह दोनों फिर पीछे की तरफ लौटे, अर्थात् उस रोशनी की तरफ बढ़े जो यकायक दिखाई दी थी। दो ही कदम बढ़े होंगे कि कोई चीज उनके सामने जमीन पर आकर गिरी और पटाके की-सी आवाज हुई, इसके साथ ही उसमें से बेहोशी पैदा करने वाला जहरीला धुआं निकला। वह तिलिस्मी गोली थी जो मायारानी ने तिलिस्मी तमंचे में भरकर भूतनाथ और देवीसिंह की तरफ चलाई थी। भूतनाथ और देवीसिंह इस गुमान में पीछे की तरफ हटे थे कि शायद वह रोशनी कमलिनी और लाडिली के साथ हो, मगर वास्तव में ये दोनों मायारानी और नागर थीं जिन्होंने छिपकर भूतनाथ और देवीसिंह की बातें सुनी थीं। जब दोनों ऐयार शेर वाला दरवाजा खोलकर तहखाने में उतर गए थे तो चर्खा चलाकर दरवाजा बन्द करने के पहले ही ये दोनों भी दरवाजे के अन्दर घुसकर दो-चार सीढ़ी नीचे उतर आई थीं और इन्होंने वे बातें भी सुन ली थीं जो नीचे उतर जाने के बाद देवीसिंह और भूतनाथ में हुईं।