अब हम थोड़ा-सा हाल तिलिस्म का लिखना उचित समझते हैं। पाठकों को याद होगा कि कुंअर इन्द्रजीतसिंह कमलिनी के हाथ से तिलिस्मी खंजर लेकर उस गड़हे या कुएं में कूद पड़े जिसमें अपने छोटे भाई आनन्दसिंह को देखना चाहते थे। जिस समय कुमार ने तिलिस्मी खंजर कुएं के अन्दर किया और उसका कब्जा दबाया तो उसकी रोशनी से कुएं के अन्दर की पूरी-पूरी कैफियत दिखाई देने लगी। उन्होंने देखा कि कुएं की गहराई बहुत ज्यादा नहीं है, बनिबस्त ऊपर के नीचे की जमीन बहुत चौड़ी मालूम पड़ी, और किनारे की तरफ एक आदमी किसी को अपने नीचे दबाये हुए बैठा उसके गले पर खंजर फेरना ही चाहता है।
कुंअर इन्द्रजीतसिंह को यकायक खयाल गुजरा कि यह जुल्म कहीं कुंअर आनन्दसिंह पर ही न हो रहा हो! छोटे भाई की सच्ची मुहब्बत ने ऐसा जोश मारा कि वह अपने को एक पल के लिए भी रोक न सके क्योंकि साथ ही इस बात का भी गुमान था कि देर होने से कहीं उसका काम तमाम न हो जाय, इसलिए बिना कुछ सोचे और बिना किसी से कहे-सुने इन्द्रजीतसिंह उस गड़हे में कूद पड़े। मालूम हुआ कि वह किसी धातु की चादर पर जो जमीन की तरह से मालूम होती थी, गिरे हैं क्योंकि उनके गिरने के साथ ही वह जमीन दो-तीन दफे लचकी और एक प्रकार की आवाज भी हुई। चमकता हुआ एक तिलिस्मी खंजर उनके हाथ में था जिसकी रोशनी में और टटोलने से मालूम हुआ कि वे दोनों आदमी वास्तव में पत्थर के बने हुए हैं जिन्हें देखकर वे गड़हे के अन्दर कूदे थे। इसके बाद कुमार ने इस विचार से ऊपर की तरफ देखा कि कमलिनी या राजा गोपालसिंह को पुकारकर यहां का कुछ हाल कहें मगर गड़हे का मुंह बन्द पाकर लाचार हो रहे। ऊंचाई पर ध्यान देने से मालूम हुआ कि इस गड़हे का ऊपर वाला मुंह बन्द नहीं हुआ, बल्कि बीच में कोई चीज ऐसी आ गई, जिससे रास्ता बन्द हो गया है।
कुमार ने तिलिस्मी खंजर का कब्जा इसलिए ढीला किया कि वह रोशनी बन्द हो जाय जो उसमें से निकल रही है और मालूम हो कि इस जगह बिलकुल अंधेरा ही है या कहीं से कुछ चमक या रोशनी भी आती है, पर वहां पूरा अन्धकार था, हाथ को हाथ दिखाई नहीं देता था, अस्तु लाचार होकर कुमार ने फिर तिलिस्मी खंजर का कब्जा दबाया और उसमें से बिजली की तरह चमक पैदा हुई। उसी रोशनी में कुमार ने चारों तरफ इस आशा से देखना शुरू किया कि किसी तरफ आनन्दसिंह की सूरत दिखाई पड़े मगर सिवाय एक चांदी के सन्दूक के जो उसी जगह पड़ा हुआ था और कुछ दिखाई न दिया। यहां तीन तरफ पक्की दीवार थी जिसमें छोटे-छोटे दरवाजे और एक तरफ जाने का रास्ता इस ढंग का था जिसे हर तौर पर सुरंग कह सकते हैं। कुमार उसी सुरंग की राह आगे की तरफ बढ़े मगर ज्यों-ज्यों आगे जाते थे सुरंग पतली होती जाती थी और मालूम होता था कि हम ऊंची जमीन पर चढ़े चले जा रहे हैं। लगभग सौ कदम जाने के बाद सुरंग खतम हुई और अन्त में एक दरवाजा मिला जो जंजीर से बन्द था और कुंडे में एक ताला लगा हुआ था। कुमार ने खंजर मार के जंजीर काट डाली और धक्का देकर दरवाजा खोला तो सामने उजाला नजर आया। अब तिलिस्मी खंजर की कोई आवश्यकता न थी इसलिए उसका कब्जा ढीला किया और दरवाजा लांघकर दूसरी तरफ चले गये। कुमार ने अपने को एक हरे-भरे बाग में पाया औैर देखा कि वह बाग मामूली तौर का नहीं है बल्कि उसकी बनावट विचित्र ढंग की है, फूलों के पेड़ बिल्कुल न थे पर तरह-तरह के मेवों के पेड़ लगे हुए थे। हर एक पेड़ के चारों ओर दो-दो हाथ ऊंची दीवार घिरी हुई थी और बीच में मिट्टी भरने के कारण खासा चबूतरा मालूम पड़ता था। इसके अतिरिक्त अर्थात् पेड़ों के चबूतरों को छोड़कर बाकी जितनी जमीन उस बाग में थी सब संगमरमर का फर्श था। पूरब तरफ से एक नहर बाग के अन्दर आई हुई थी और पन्द्रह-बीस हाथ के बाद छोटी-छोटी शाखों में फैल गई थी। जो नहर बाग के अन्दर आई थी उसकी चौड़ाई ढाई हाथ से कम न थी, मगर बाग के अन्दर संगमरमर की छोटी-छोटी सैकड़ों नालियों में उसका जल फैल गया था। उन नालियों के दोनों तरफ की दीवार तो संगमरमर की थी मगर बीच की जमीन पक्की न थी और इसी सबब से यहां की जमीन बहुत तर थी और पेड़ सूखने नहीं पाते थे। बाग के चारों तरफ ऊंची दीवार पर पूरब तरफ एक दालान और कोठरियां थीं, पश्चिम तरफ की दीवार के पास एक संगीन कुआं था और बाग के बीचोंबीच में एक मन्दिर था।
कुमार ने पेड़ों से कई फल तोड़ के खाए और चश्मे का पानी पीकर भूख-प्यास की शान्ति की ओर इसके बाद घूम-घूमकर देखने लगे। उन्हें कुंअर आनन्दसिंह के विषय में चिन्ता थी और चाहते थे कि किसी तरह शीघ्र उनसे मुलाकात हो।
चारों तरफ घूम-फिरकर देखने के बाद कुमार उस मन्दिर में पहुंचे जो बाग के बीचोंबीच में था। वह मन्दिर बहुत छोटा था और उसके आगे का सभामंडप भी चार-पांच आदमियों से ज्यादा के बैठने लायक न था। मन्दिर में प्रतिमा या शिवलिंग की जगह एक छोटा-सा चबूतरा था और इसके ऊपर एक भेड़िए की मूरत बैठाई हुई थी। कुमार उसे अच्छी तरह देखभालकर बाहर निकल आए और सभामंडप में बैठकर खून से लिखी हुई किताब पढ़ने लगे। अब उन्हें उस किताब का मतलब साफ-साफ समझ में आता था। जब तक बखूबी अंधेरा नहीं हुआ और निगाह ने काम दिया तब तक वे उस किताब को पढ़ते रहे, इसके बाद किताब संभालकर उसी जगह लेट गए और सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए।
उस बाग में कुंअर इन्द्रजीतसिंह को दो दिन बीत गए। इस बीच में वे कोई ऐसा काम न कर सके जिससे अपने भाई कुंअर आनन्दसिंह को खोज निकालते या बाग से बाहर निकल जाते या तिलिस्म तोड़ने में ही हाथ लगाते, हां, इन दो दिन के अन्दर वे खून से लिखी हुई तिलिस्मी किताब को अच्छी तरह पढ़ और समझ गये बल्कि उसके मतलब को इस तरह दिल में बैठा लिया कि अब उस किताब की उन्हें कोई जरूरत न रही। ऐसा होने से तिलिस्म का पूरा-पूरा हाल उन्हें मालूम हो गया और वे अपने को तिलिस्म तोड़ने लायक समझने लगे। खाने-पीने के लिए उस बाग में मेवों और पानी की कुछ कमी न थी।
तीसरे दिन दो पहर दिन चढ़े बाद कुछ कार्रवाई करने के लिए कुमार फिर उस भेड़िये की मूरत के पास गए जो मन्दिर में चबूतरे के ऊपर बैठाई हुई थी। वहां कुमार को अपनी कुल ताकत खर्च करनी पड़ी। उन्होंने दोनों हाथ लगाकर भेड़िये को बाईं तरफ इस तरह घुमाया जैसे कोई पेंच घुमाया जाता है। तीन चक्कर घूमने के बाद वह भेड़िया चबूतरे से अलग हो गया और जमीन के अन्दर से घरघराहट की आवाज आने लगी। कुमार उस भेड़िये को एक किनारे रखकर बाहर निकल आए और राह देखने लगे कि अब क्या होता है। घण्टे भर तक बराबर वह आवाज आती रही और फिर धीरे-धीरे कम होकर बन्द हो गई। कुमार फिर उस मन्दिर के अन्दर गए और देखा कि वह चबूतरा जिस पर भेड़िया बैठा हुआ था, जमीन के अन्दर धंस गया और नीचे उतरने के लिए सीढ़ियां दिखाई दे रही हैं। कुमार बेधड़क नीचे उतर गए। वहां पूरा अन्धकार था इसलिए तिलिस्मी खंजर से चांदनी करके चारों तरफ देखने लगे। यह एक कोठरी थी जिसकी चौड़ाई बीस हाथ और लम्बाई पच्चीस हाथ से ज्यादा न होगी। चारों तरफ की दीवारों में छोटे- छोटे कई दरवाजे थे जो इस समय बन्द थे। कोठरी के चारों कोनों में पत्थर की चार मूरतें एक ही रंग-ढंग की और एक ही ठाठ से खड़ी थीं, सूरत-शक्ल में कुछ भी फर्क न था, या था भी तो केवल इतना ही कि एक मूरत के हाथ में खंजर और बाकी तीन मूरतों के हाथ में कुछ भी न था।
कुमार पहले उसी मूरत के पास गए जिसके हाथ में खंजर था। पहले उसकी उंगलियों की तरफ ध्यान दिया। बाएं हाथ की उंगली में अंगूठी थी जिसे निकालकर पहिन लेने के बाद खंजर ले लिया और कमर में लगाकर धीरे से बोले, ''इस तिलिस्म में ऐसे तिलिस्मी खंजर के बिना वास्तव में काम नहीं चल सकता, अब आनन्दसिंह मिल जाय तो यह खंजर उसे दे दिया जाय।''
पाठक समझ ही गये होंगे कि मूरत के हाथ से जो खंजर कुमार ने लिया, वह उसी प्रकार का तिलिस्मी खंजर था जैसा कि पहले से एक कमलिनी की बदौलत कुमार के पास था। इस समय कुंअर इन्द्रजीतसिंह जो कुछ कार्रवाई कर रहे हैं बल्कि खून से लिखी हुई तिलिस्मी किताब के मतलब को समझ अपनी विमल बुद्धि से जांच और ठीक करके करते हैं, तथा आगे के लिए भी पाठकों को ऐसा ही समझना चाहिए।
अब कुमार उन दरवाजों की तरफ गौर से देखने लगे जो चारों तरफ की दीवारों में दिखाई दे रहे थे। उन दरवाजों में केवल चार दरवाजे चार तरफ असली थे और बाकी के दरवाजे नकली थे अर्थात् चार दरवाजों को छोड़कर बाकी दरवाजों के केवल निशान दीवारों में थे मगर ये निशान भी ऐसे थे कि जिन्हें देखने से आदमी पूरा-पूरा धोखा खा जाय।
कुमार पूरब तरफ की दीवार की ओर गये और उस तरफ जो दरवाजा था उसे जोर से लात मारकर खोल डाला, इसके बाद बाएं तरफ के कोने में जो मूरत थी उसे बगल में दाब उठाना चाहा मगर वह उठ न सकी क्योंकि उनके दाहिने हाथ में वह चमकता हुआ तिलिस्मी खंजर था, आखिर कुमार ने खंजर कमर में रख लिया। यद्यपि ऐसा करने से वहां पूर्ण रूप से अन्धकार हो गया मगर कुमार ने इसका कुछ विचार न करके अंधेरे ही में दोनों हाथ उस मूरत की कमर में फंसाकर जोर किया और उसे जमीन से उखाड़कर धीरे-धीरे उस दरवाजे के पास लाए जिसे लात मारकर खोला था। जब चौखट के पास पहुंचे तो उस मूरत को जहां तक जोर से बन पड़ा दरवाजे के अन्दर फेंक दिया और फुर्ती से तिलिस्मी खंजर हाथ में ले रोशनी करके सीढ़ी की राह कोठरी के बाहर निकल आये अर्थात् फिर उसी बाग में चले आये और मन्दिर से कुछ दूर हटकर खड़े हो गये।
थोड़ी देर तो कुमार को ऐसा मालूम हुआ कि जमीन कांप रही है और उसके अन्दर बहुत-सी गाड़ियां दौड़ रही हैं। आखिर धीरे-धीरे कम होकर ये दोनों बातें जाती रहीं। इसके बाद कुमार फिर मन्दिर के अन्दर हो गए और सीढ़ियों की राह उस तहखाने में उतर गए जहां पहले गए थे। इस समय वहां तिलिस्मी खंजर की रोशनी की कोई आवश्यकता न थी क्योंकि इस समय कई छोटे- छोटे सुराखों में से रोशनी बखूबी आ रही थी जिसका पहले नाम-निशान भी न था। कुमार चारों तरफ देखने लगे मगर पहले की बनिस्बत कोई नई बात दिखाई न दी। आखिर पूरब तरफ की दीवार के पास गए और उस दरवाजे के अन्दर झांक के देखा जिसे लात मारकर खोला गया था या जिसके अन्दर मूरत को जोर से फेंका था। इस समय इस कोठरी के अन्दर भी चांदना था और वहां की हर एक चीज दिखाई दे रही थी। यह कोठरी बहुत लम्बी-चौड़ी न थी मगर दीवारों में छोटे-छोटे कई खुले दरवाजे दिखाई दे रहे थे, जिससे मालूम होता था कि यहां से कई तरफ जाने के लिए सुरंग या रास्ता है। कुमार ने उस मूरत को गौर से देखा जिसे उस कोठरी के अन्दर फेंका था। उस मूरत की अवस्था ठीक वैसी हो रही थी जैसे कि चूने की कली की उस समय होती है जब थोड़ा-सा पानी उस पर छोड़ा जाता है, अर्थात् टूट-फूट के वह बिल्कुल ही बर्बाद हो चुकी थी। उसके पेट में एक चमकती हुई चीज दिखाई दे रही थी जो पहले तो उसके पेट के अन्दर रही होगी मगर अब पेट फट जाने के कारण बाहर हो रही थी। कुमार ने वह चमकती हुई चीज उठा ली और तहखाने के बाहर निकल मन्दिर के मण्डप में बैठकर सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए।
थोड़ी ही देर बाद धमधमाहट की आवाज से मालूम हुआ कि मन्दिर के अन्दर तहखाने वाली सीढ़ियों पर कोई चढ़ रहा है। कुमार उसी तरफ देखने लगे। यकायक कुंअर आनन्दसिंह आते हुए दिखाई पड़े। बड़े कुमार खुशी के मारे उठ खड़े हुए और आंखों में प्रेमाश्रु की दो-तीन बूंदें दिखाई देने लगीं। आनन्दसिंह दौड़कर अपने बड़े भाई के पैरों पर गिर पड़े। इन्द्रजीतसिंह ने झट से उठाकर गले लगा लिया। जब दोनों भाई खुशी-खुशी उस जगह पर बैठ गए तब इन्द्रजीतसिंह ने पूछा, ''कहो, तुम किस आफत में फंस गए थे और क्योंकर छूटे' कुंअर आनन्दसिंह ने अपने फंस जाने और तकलीफ उठाने का हाल अपने बड़े भाई के सामने कहना शुरू किया।
तिलिस्मी बाग के चौथे दर्जे में कुंअर आनन्दसिंह जिस तरह अपने बड़े भाई से बिदा होकर खूंटियों वाले तिलिस्मी मकान के अन्दर गए थे और चांदी वाले सन्दूक में हाथ डालने के कारण फंस गये थे, उसका इस जगह दोहराना पाठकों का समय नष्ट करना है, हां वह हाल कहने के बाद फिर जो कुछ हुआ और कुमार ने अपने बड़े भाई से बयान किया उसका लिखना आवश्यक है।
छोटे कुमार ने कहा - ''जब मेरा हाथ सन्दूक में फंस गया तो मैंने छुड़ाने के लिए बहुत कुछ उद्योग किया मगर कुछ न हुआ और घण्टों तक फंसा रहा। इसके बाद एक आदमी चेहरे पर नकाब डाले हुए मेरे पास आया और बोला, ''घबराइए मत, थोड़ी देर और सब्र कीजिए, मैं आपको छुड़ाने का बन्दोबस्त करता हूं।'' इस बीच में वह जमीन हिलने लगी जहां मैं था, बल्कि तमाम मकान तरह-तरह के शब्दों से गूंज उठा। ऐसा मालूम होता था मानो जमीन के नीचे सैकड़ों गाड़ियां दौड़ रही हैं। वह आदमी जो मेरे पास आया था, यह कहता हुआ ऊपर की तरफ चला गया कि ''मालूम होता है कुमार और कमलिनी ने इस मकान के दरवाजे पर बखेड़ा मचाया है, मगर यह काम अच्छा नहीं किया।'' थोड़ी ही देर बाद वह नकाबपोश नीचे उतरा और बराबर नीचे चला गया, मैं समझता हूं कि दरवाजा खोलकर आपसे मिलने गया होगा अगर वास्तव में आप ही दरवाजे पर होंगे।''
इन्द्रजीतसिंह - हां दरवाजे पर उस समय मैं ही था और मेरे साथ कमलिनी और लाडिली भी थीं, अच्छा, तब क्या हुआ
आनन्दसिंह - तो क्या आपने कोई कार्रवाई की थी
इन्द्रजीतसिंह - की थी, उसका हाल पीछे कहूंगा, पहले तुम अपना हाल कहो।
आनन्दसिंह ने फिर कहना शुरू किया -
''उस आदमी को नीचे गये हुए चौथाई घड़ी भी न हुई होगी कि जमीन यकायक जोर से हिली और मुझे लिए हुए सन्दूक जमीन के अन्दर घुस गया, उसी समय मेरा हाथ छूट गया और सन्दूक से अलग होकर इधर-उधर मैं टटोलने लगा क्योंकि वहां बिल्कुल ही अंधकार था, यह भी न मालूम होता था कि किधर दीवार है और किधर जाने का रास्ता है। ऊपर की तरफ, जहां सन्दूक धंस जाने से गड्ढा हो गया था देखने से भी कुछ मालूम न होता था, लाचार मैंने एक तरफ का रास्ता लिया और बराबर ही चलते जाने का विचार किया परन्तु सीधा रास्ता न मिला, कभी ठोकर खाता, कभी दीवार में अड़ता, कभी दीवार थामे घूमकर चलना पड़ता। जब दुःखी हो जाता तो पीछे की तरफ लौटना चाहता था, मगर लौट न सकता था क्योंकि लौटते समय तबीयत और भी घबड़ाती और गर्मी मालूम होती थी, लाचार आगे की तरफ बढ़ना पड़ता। इस बात को खूब समझता था कि मैं आगे ही की तरफ बढ़ता हुआ बहुत दूर नहीं जा रहा हूं बल्कि चक्कर खा रहा हूं, मगर क्या करूं लाचार था, अक्ल कुछ काम न करती थी। इस बात का पता लगाना बिल्कुल ही असम्भव था कि दिन है कि रात, सुबह है या शाम, बल्कि वही दिन है या कि दूसरा दिन, मगर जहां तक मैं सोच सकता हूं कि इस खराबी में आठ-दस पहर बीत गये होंगे। कभी तो मैं जीवन से निराश हो जाता, कभी यह सोचकर कुछ ढाढ़स होती कि आप मेरे छुड़ाने का जरूर कुछ उद्योग करेंगे। इसी बीच में मुझे कई खुले हुए दरवाजों के अन्दर पैर रखने और फिर उसी या दूसरे दरवाजे की राह से बाहर निकलने की नौबत आई, मगर छुटकारे की कोई सूरत नजर न आई। अन्त में एक कोठरी के अन्दर पहुंचकर बदहवास हो जमीन पर गिर पड़ा क्योंकि भूख-प्यास के मारे दम निकल जाता था। इस अवस्था में भी कई पहर बीत गये, आखिर इस समय से घण्टे भर पहले मेरे काम में आवाज आई जिससे मालूम हुआ कि इस कोठरी के बगल वाली कोठरी का दरवाजा किसी ने खोला है। मुझे यकायक आपका खयाल हुआ। थोड़ी ही देर बाद जमीन हिलने लगी और तरह-तरह के शब्द होने लगे। आखिर यकायक उजाला हो गया, तब मेरी जान में जान आई, बड़ी मुश्किल से मैं उठा, सामने का दरवाजा खुला हुआ पाया, निकल के दूसरी कोठरी में पहुंचा जहां दरवाजे के पास ही देखा कि पत्थर का एक आदमी पड़ा है जिसका शरीर पानी में पड़े हुए चूने की कली की तरह फूला-फटा हुआ है। इसके बाद मैं तीसरी कोठरी में गया और फिर सीढ़ियां चढ़कर आपके पास पहुंचा।''
कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने अपने छोटे भाई के हाल पर बहुत अफसोस किया और कहा - ''यहां मेवों की और पानी की कोई कमी नहीं है, पहले तुम कुछ खा-पी लो, फिर मैं अपना हाल तुमसे कहूंगा।''
दोनों भाई वहां से उठे और खुशी-खुशी मेवेदार पेड़ों के पास जाकर पके हुए और स्वादिष्ट मेवे खाने लगे। छोटे कुमार बहुत भूखे और सुस्त हो रहे थे, मेवे खाने और पानी पीने से उनका जी ठिकाने हुआ और फिर दोनों भाई उसी मंदिर के सभा-मण्डप में आ बैठे तथा बातचीत करने लगे। कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने अपना पूरा-पूरा हाल अर्थात् जिस तरह यहां आये थे और जो कुछ किया था आनन्दसिंह से कह सुनाया और इसके बाद कहा, ''खून से लिखी इस किताब को अच्छी तरह पढ़ जाने से मुझे बहुत फायदा हुआ। यदि तुम भी इसे इसी तरह पढ़ जाओ और याद कर जाओ तो फिर इसकी आवश्यकता न रहे और दोनों भाई शीघ्र ही इस तिलिस्म को तोड़ के नाम और दौलत पैदा करें। साथ ही इसके यह बात भी समझ लो कि बाग में आकर तुम्हारा पता लगाने की नीयत से जो कुछ मैंने किया, उससे इतना नुकसान अवश्य हुआ कि अब बिना तिलिस्म तोड़े हम लोग यहां से निकल नहीं सकते।''
आनन्दसिंह - (कुछ सोचकर) यदि ऐसा ही है और आपको निश्चय है कि इस रिक्तग्रंथ के पढ़ जाने से हम लोग अवश्य तिलिस्म तोड़ सकेंगे तो मैं इसी समय इसका पढ़ना आरम्भ करता हूं, परन्तु इसमें बहुत से शब्द ऐसे हैं जिनका मतलब समझ में नहीं आता...।
इन्द्रजीतसिंह - ठीक है, मगर मैं अभी कह चुका हूं कि तुम्हें खोजता हुआ जब मैं खूंटियों वाले मकान के पास पहुंचा तो राजा गोपालसिंह ने...।
आनन्दसिंह - (बात काटकर) जी हां, मुझे बखूबी याद है, आपने कहा था कि राजा गोपालसिंह ने कोई ऐसी तरकीब आपको बताई है कि जिससे केवल रिक्तग्रंथ ही नहीं बल्कि हर एक तिलिस्मी किताब को पढ़कर उसका मतलब आप बखूबी समझ सकेंगे, अस्तु, मेरे कहने का मतलब यह था कि जब तक आप वह मुझे न बताएंगे तब तक...।
इन्द्रजीतसिंह - (हंसकर) इतनी उलझन डालने की क्या जरूरत थी! मैं तो स्वयं ही वह भेद तुमसे कहने को तैयार हूं, अच्छा सुनो।
कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने तिलिस्मी किताबों को पढ़कर समझने का भेद जो राजा गोपालसिंह से सुना था, आनन्दसिंह को बताया। इतने ही में मन्दिर के पीछे की तरफ चिल्लाने की आवाज आई, तो दोनों भाइयों का ध्यान एकदम उस तरफ चला गया और तब यह आवाज सुनाई पड़ी, ''अच्छा-अच्छा, तू मेरा सिर काट ले। मैं भी यही चाहती हूं कि अपनी जिन्दगी में इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह को दुःखी न देखूं। हाय इन्द्रजीतसिंह, अफसोस, इस समय तुम्हें मेरी कुछ भी खबर न होगी!''
इस आवाज को सुनकर इन्द्रजीतसिंह बेचैन हो गये और जल्दी से आनन्दसिंह से यह कहते हुए कि 'कमलिनी की आवाज मालूम पड़ती है!' मन्दिर के पीछे की तरफ झपटे और आनन्दसिंह भी उनके पीछे-पीछे चले।