रामपाल के शासनकाल में १०९७ ई. से १०९८ ई. तक में ही तिरहुत में कर्नाट राज्य का उदय हो गया। कर्नाट राज्य का संस्थापक नान्यदेव था। नन्यदेव एक महान शासक था। उनका पुत्र गंगदेव एक योग्य शासक बना। नान्यदेव ने कर्नाट की राजधानी सिमरॉवगढ़ बनाई। कर्नाट शासकों का इस वंश का मिथिला का स्वर्ण युग भी कहा जाता है। वैन वार वंश के शासन तक मिथिला में स्थिरता और प्रगति हुई। नान्यदेव के साथ सेन वंश राजाओं से युद्ध होता रहता था। सामन्त सेनसेन वंश का संस्थापक था। विजय सेन, बल्लाल्सेन, लक्ष्मण सेन आदि शासक बने। सेन वंश के शासकों ने बंगाल और बिहार पर शासन किया। विजय सेन शैव धर्मानुयायी था। उसने बंगाल के देवपाड़ा में एक झील का निर्माण करवाया। वह एक लेखक भी थे जिसने ‘दान सागर’ और ‘अद्‍भुत सागर’ दो ग्रन्थों की रचना की। लक्ष्मण सेन सेन वंश का अन्तिम शासक था। हल्लायुद्ध इसका प्रसिद्ध मन्त्री एवं न्यायाधीश था। गीत गोविन्द के रचयिता जयदेव भी लक्ष्मण सेन शासक के दरबारी कवि थे। लक्ष्मण सेन वैष्णव धर्मानुयायी था।

सेन राजाओं ने अपना साम्राज्य विस्तार क्रम में ११६० ई. में गया के शासक गोविन्दपाल से युद्ध हुआ। ११२४ ई. में गहड़वाल शासक गोविन्द पाल ने मनेर तक अभियान चलाया। जयचन्द्र ने ११७५-७६ ई. में पटना और ११८३ ई. के मध्य गया को अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया। कर्नाट वंश के शासक नरसिंह देव बंगाल के शासक से परेशान होकर उसने तुर्की का सहयोग लिया। उसी समय बख्तियार खिलजी भी बिहार आया और नरदेव सिंह को धन देकर उसे सन्तुष्ट कर लिया और नरदेव सिंह का साम्राज्य तिरहुत से दरभंगा क्षेत्र तक फैल गया। कर्नाट वंश के शासक ने सामान्य रूप से दिल्ली सल्तनत के प्रान्तपति नियुक्‍त किये गये। बिहार और बंगाल पर गयासुद्दीन तुगलक ने १३२४-२५ ई. में आधिपत्य कर लिया। उस समय तिरहुत का शासक हरिसिंह था। वह तुर्क सेना से हार मानकर नेपाल की तराई में जा छिपा। इस प्रकार उत्तरी और पूर्व मध्य बिहार से कर्नाट वंश १३७८ ई. में समाप्त हो गया।

माधवगुप्त की मृत्यु ६५० ई. के बाद उसका पुत्र आदित्य सेनमगध की गद्दी पर बैठा। वह एक वीर योद्धा और कुशल प्रशासक था। अफसढ़ और शाहपुर के लेखों से मगध पर उसका आधिपत्य प्रंआनित होता है। मंदार पर्वत में लेख के अंग राज्य पर आदित्य सेन के अधिकार का उल्लेख है। उसने तीन अश्‍वमेध यज्ञ किये थे। मंदार पर्वत पर स्थित शिलालेख से पता चलता है कि चोल राज्य की विजय की थी। आदित्य सेन के राज्य में उत्तर प्रदेश के आगरा और अवध के अन्तर्गत एक विस्तृत साम्राज्य स्थापित करने वाला प्रथम शासक था। अपने पूर्वगामी गुप्त सम्राटों की परम्परा का पुनरूज्जीवन किया। उसके शासनकाल में चीनी राजदूत वांग यूएन त्से ने दो बार भारत की यात्रा की। कोरियन बौद्ध यात्री के अनुसार उसने बोधगया में एक बौद्ध मन्दिर बनवाया था। आदित्य सेन ने ६७५ ई. तक शासन किया था। आदित्य सेन की ६७५ ई. में मृत्यु के बाद उसका पुत्र देवगुप्त द्वितीय हुआ। उसने भी परम भट्टारक महाधिराज की उपाधि धारण की। चालुक्य लेखों के अनुसार उसे सकलोत्तर पथनाथ कहा गया है। इसके बाद विष्णुगुप्त तथा फिर जीवितगुप्त द्वितीय राजा बने। जीवितगुप्त द्वितीय का काल लगभग ७२५ ई. माना जाता है। जीवितगुप्त द्वितीय का वध कन्‍नौज नरेश यशोवर्मन ने किया। जीवितगुप्त की मृत्यु के बाद उत्तर गुप्तों के मगध साम्राज्य का अन्त हो गया।

मौखरि वंश

मौखरि वंश का शासन उत्तर गुप्तकाल के पतन के बाद स्थापित हुआ था। गया जिले के निवासी मौखरि लोग जो चक्रवर्ती गुप्त राजवंश के समय उत्तर गुप्तवंश के लोगों की तरह सामन्त थे। मौखरि वंश के लोग उत्तर प्रदेश के कन्‍नौज में तथा राजस्थान के बड़वा क्षेत्र में तीसरी सदी में फैले हुए थे। मौखरि वंश के शासकों को उत्तर गुप्त वंश के चौथे शासक कुमारगुप्त के साथ युद्ध हुआ था जिसमें ईशान वर्मा ने मौखरि वंश से मगध को छीन लिया था। मौखरि वंश के सामन्त ने अपनी राजधानी कन्‍नौज बनाई। कन्‍नौज का प्रथम मौखरि वंश का सामन्त हरिवर्मा था। उसने ५१० ई. में शासन किया था। उसका वैवाहिक सम्बन्ध उत्तर वंशीय राजकुमारी हर्षगुप्त के साथ हुआ था। ईश्‍वर वर्मा का विवाह भी उत्तर गुप्त वंशीय राजकुमारी उपगुप्त के साथ हुआ था। यह कन्‍नौज तक ही सीमित रहा। यह राजवंश तीन पीढ़ियों तक चलता रहा। हरदा लेख से स्पष्ट होता है कि सूर्यवर्मा ईशान वर्मा का छोटा भाई था। अवंति वर्मा सबसे शक्‍तिशाली तथा प्रतापी राजा था। इसके बाद मौखरि वंश का अन्त हो गया।

बिहार में मध्यकालीन समय अत्यन्त ही उत्क्रमणीय था। राजनीतिक अव्यवस्था के साथ-साथ धार्मिक तनाव भी व्याप्त था। बौद्ध एवं गैर-बौध मतावलम्बियों के बीच तनावपूर्ण सम्बन्ध था। बिहार के राजनीतिक, धार्मिक एवं शासकीय अव्यवस्था की विकट परिस्थितियों में तुर्की आक्रमण प्रारम्भ हुआ।

सामान्यतः ऐसा माना जाता है कि बिहार पर प्रथम आक्रमण प्रथम तुर्क बख्तियार खिलजी ने किया था, परन्तु उसके आक्रमण से पूर्व भी बिहार में तुर्कों का आवागमन था। तुर्कों का प्रारम्भिक प्रभाव क्षेत्र पटना जिले का मनेर था। जहाँ हदारस मोमिन यारिफ बसने आये थे। ११९७-९८ ई. के पश्‍चात्‌ बख्तियार खिलजी ने मगध क्षेत्र में प्रथम आक्रमण किया और लूटा। इसके पश्‍चात उसने आधुनिक बिहार शरीफ (ओदन्तपुरी) पर आक्रमण किया। ओदन्तपुरी विश्‍वविद्यालय के लूटने के बाद नालन्दा विश्‍वविद्यालय को जलाकर तहस-नहस कर दिया। इसी समय उसने आधुनिक बख्तियारपुर शहर को बसाया। इसी दौरान बिहार शरीफ तुर्कों का केन्द्र के रूप में उभरा। १२वीं शताब्दी के अन्त में नालन्दा और औदन्तपुरी के नोकट स्थित अनेक बौद्ध विहारों की बहुलता को देखकर मुसलमान शासकों ने इस प्रदेश का नामकरण बिहार कर दिया। तुर्कों ने सेन शासकों को पराजित किया एवं जयपुर के गुप्त राजाओं को समाप्त किया। बख्तियार खिलजी ने १२०० ई. में नालन्दा और औदन्तपुरी विश्‍वविद्यालय को नष्ट कर दिया। १२०३ ई. में कुतुबुद्दीन ऐबक ने बख्तियार खिलजी को जीते हुए प्रदेशों का अधिकार प्रदान कर दिया। फलतः खिलजी ने औदन्तपुरी पर विजय कर अपनी राजधानी लखनौती में बनाई। १२०४ ई. के बाद बख्तियार खिलजी ने मिथिला के कर्नाट शासक नरसिंह देव के खिलाफ आक्रमण करके उसे भी अधिकार में कर लिया। इसके बाद बख्तियार खिलजी ने बंगाल एवं असोम क्षेत्र में आक्रमण किये। फलतः वह बीमार हो गया। उसी दौरान अलीमर्दन खिलजी ने उसकी हत्या कर दी। उसका शव बिहार शरीफ के इमादपुर मुहल्ला में दफना दिया गया।

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