मगर गीता ने इन दोनों विचारों को एकांगी और अधूरा माना है। उसके मत से हमें आदमी के स्वभाव का खयाल करके दोनों ही को मिलाना और उन्हीं के आधार पर कर्म, अकर्म, कर्म के त्याग या ग्रहण और कर्तव्य-अकर्तव्य का निश्चय करना चाहिए। भौतिक हाड़-मांस और दिल-दिमाग से हम मनुष्य को जुदा कर सकते नहीं और ये भौतिक पदार्थ स्वभावत: दुनियाबी हानि-लाभों और बुरे-भलों की ही तरफ झुकते और दौड़ते हैं। उन्हीं को पहचानते और पकड़ते हैं और उन्हीं से अपना गँठजोड़ करते हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह बच्चा माँ की सूरत-शकल या आवाज को सुनते ही उधर दौड़ पड़ता है और उसी से जा लिपटता है। इसमें दलील की तो गुंजाइश नहीं। यह तो कठोर सत्य है।

मगर इसमें धोखा और खामी रह जाती है, इस बात की इसमें पूरी संभावना बराबर बनी रहती है। कारण अधिकांश लोगों का सांसारिक लाभ या नुकसान किसमें है, इस बात का निर्णय प्राय: असंभव है। इसके लिए जितने भी तरीके सुझाए गए हैं, सबके-सब अधूरे एवं दोषपूर्ण हैं। अल्पमत और बहुमत का निश्चय वर्तमान मानव-समाज के लिए निहायत पेचीदा पहेली है। इसी झमेले में दुनिया तबाह हो रही है। ऐसा भी होता है कि तुच्छ निजी स्वार्थ ही कभी-कभी जनहित जँचने लगता है। इसीलिए सांसारिक हिताहित या हानि-लाभ के सिवाय आध्याीत्मिक दृष्टि का भी पुट इसमें आ जाना जरूरी हो जाता है। इससे तुच्छ स्वार्थ का तो मौका रही नहीं जाता। साथ ही, बहुमत के निर्णय की परेशानी से भी पिंड छूट जाता है। गीता की जो अध्याात्म दृष्टि है उसमें कुछ ऐसी शक्ति और जड़ी-बूटी की ताकत है कि हर काम की बाहरी रूपरेखा को बदल के वह उसे सुंदर, निर्दोष और कल्याणमय बना देती है।

इसका यह मतलब हर्गिज नहीं है कि इसके चलते कर्तव्य-अकर्तव्य के संसार में अंधेर मच जाएगी; यह सभी के बाहरी रूप को पलटने वाली मानी जो जाती है। बात ऐसी नहीं है। इस दृष्टि के फलस्वरूप आमतौर से अच्छे माने जाने वाले कामों में प्रवृत्ति और दूसरों से निवृत्ति तो एक तरह का नियम बन जाती है, स्वभाव बन जाती है। मगर अपवादस्वरूप अगर कभी संयोगवश उलट-फेर भी हुई, तो भी गड़बड़ होने नहीं पाती और इसके करते वैसे ही मौके पर ऊपर से बुरे दीखने वाले कामों और अमलों की कायापलट हो जाती है। फलत: कहीं भी पश्चात्ताप या अफसोस की गुंजाइश रह नहीं जाती। यदि कहें तो कह सकते हैं कि सांसारिक दृष्टि और परख में जो कमी और मानव स्वभाव में जो त्रुटि रह जाती है उसी की पूर्ति कर्तव्याकर्तव्य के बारे में यह अध्यावत्म दृष्टि करती है। यह बात प्रसंगवश आगे दिखाई जाएगी।

लेकिन एक बात यहीं पर जान लेना जरूरी है। गीता के सिद्धांत के अनुसार किसी भी क्रिया का, काम का, अमल का, ऐक्शन (action) का बाहरी रूप कोई चीज नहीं है। किसी भी काम को बाहर से, ऊपर से या यों ही देख-सुन के हम उसे भला या बुरा नहीं कह सकते। ठोस या स्थूल पदार्थों की बात है कि उनका जो रूप देखा-सुना जाता है आमतौर से वही सही और असली माना जाता है और उसी के मुताबिक उन्हें हेय या उपादेय, त्याज्य या ग्राह्य माना जाता है। मगर यह बात कर्मों या अमलों के बारे में लागू नहीं है। ऊपर से जिन कामों को हम सुंदर, कर्तव्य और ग्राह्य मानते हैं वह ठीक उलटे हो सकते हैं। यही हालत बुरे, कर्तव्य तथा त्याज्य कामों की भी समझी जानी चाहिए। गीता के मत से हिंसा अहिंसा और अहिंसा हिंसा हो सकती है, हो जाती है। यही बात सभी कर्मों के संबंध में लागू है। गीता तो इस संबंध में यह मानती है कि करने वालों की भावना, धारणा, निश्चय, मानसिक संकल्प और दिल की पुकार उन कर्मों के बारे में कैसी है, वे किस विचार और खयाल से उन कामों को करते हैं, उनके मानसिक पटल पर कौन-सा स्थान किस तरह का उन कर्मों को मिला है, उनके और उनके फलों के संबंध में उन्हें ममता और आसक्ति है या नहीं वे उन कर्मों से और उनके फलों से अपने दिल और दिमाग के जरिए लिपटे हैं या नहीं, इत्यादि बातों का फैसला ही, इन्हीं की असलियत ही उन कामों को बुरा या भला, उचित या अनुचित बनाती

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