कर्तव्यबुद्धि से या लोकसंग्रहार्थ कर्म करने वाले महापुरुषों के ही प्रसंग से गीता की एक और बात भी जानने योग्य है। समदर्शन या ब्रह्मनिष्ठा की हालत में महान पुरुषों की दो गतियाँ हो सकती हैं - ऐसे पुरुष दो प्रकार के हो सकते हैं। एक तो ऐसे जिनकी मानसिक दशा बहुत ऊँची हो, अत्यंत ऊँची हो। वह ऐसी दशा में हो कि उनकी वृत्तियाँ, उनके खयाल नीचे उतरते ही न हों, उतर सकते ही न हों आमतौर से ऐसे लोग आत्मानंद में सदा मग्न रहते हैं। इन्हीं को कहीं-कहीं मस्त राम भी कहा है। उनके लिए इस दुनिया की सारी बातें वैसी ही हैं जैसी भादों की अँधेरी रात में पड़ी चीजें। उन चीजों को कोई देख ही नहीं सकता। ऐसे महानुभाव भी सांसारिक पदार्थों और गतिविधियों को कभी देख सकते नहीं। इन चीजों का यथार्थ ज्ञान उन्हें कभी होता ही नहीं। अँधेरे की चीज को तो टो-टाके जान भी सकते हैं। मगर इनके लिए दुनियावी पदार्थ सर्वथा अज्ञेय हैं। इनके साथ उनका निकटवर्ती संबंध कभी हो ही नहीं सकता; हालाँकि ये पदार्थ औरों के देखने में चारों ओर पड़े मालूम होते हैं। जैसे पानी के भीतर ही पैदा हुआ और पड़ा रहने वाला कमल का पत्ता पानी से निर्लेप एवं असंबद्ध रहता है, वही दशा इनकी है। जहाँ दुनिया की जरा भी पहुँच नहीं उसी मस्ती के ये शिकार हैं - उसी में झूमते हैं और जिसमें दुनिया झूमती है उससे ये महात्मा लाख कोस दूर हैं। गीता ने इन्हें संयमी कहा है - 'तस्यां जागर्ति संयमी' (2। 69) और बताया है कि संसार की ओर से ये बेखबर होते हैं, उधर से सोते रहते हैं। संसार इनके लिए अँधेरी रात या रात की चीज है। इसी से दुनिया इन्हें पागल समझती है।

इन्हीं पागलों और मस्ताने लोगों की दशा को गीता ने सांख्यनिष्ठा और ज्ञान-निष्ठा नाम से भी पुकारा है। वे इतनी ऊँचाई पर होते हैं कि संसार की लपट उन तक पहुँच पाती ही नहीं। इसीलिए शरीरयात्रा की क्रियाओं के होते रहने पर भी इनके भीतर कर्तव्य-बुद्धि कभी पैदा होती ही नहीं। ये लोग कभी भी ऐसा नहीं समझते कि हमारे लिए अमुक कर्तव्य है। कर्तव्याकर्तव्य के खयाल से बहुत ज्यादा ऊपर होने के कारण उसकी सतह या धरातल मे उनका पहुँचना असंभव हो जाता है। उनकी तो दुनिया ही दूसरी होती है, निराली होती है यदि उसे दुनिया कहा जा सके। यही कारण है कि कर्म करने, न करने के जो विधिनिषेध हैं, इस तरह के जो विधान हैं वह उनके लिए हुई नहीं। ये संयमी महात्मा उन विधिनिषेधों और विधानों के दायरे से बाहर हैं। इसीलिए गीता ने साफ कह दिया है कि इन मस्तरामों का कोई भी कर्तव्य रह ही नहीं जाता। 'तस्य कार्यं न विद्यते' (3। 17)। यही है पक्का संन्यास, त्याग या कर्म का छोड़ना। जैसे मदिरा पी के मतवाला हुए आदमी को अपने तन की सुध-बुध नहीं होती, उससे लाख गुने बेसुध ये संन्यासी होते हैं। इनने ने तो महामदिरा की पान कर लिया है। कर्म के विधिनिषेध वचनों की हिम्मत नहीं कि उनके सामने जा सकें। उन्हें सामने जाने में आँच लगती है। इस प्रकार के संन्यासी या कर्मत्यागी कहे जाने वालों में शुकदेव, वामदेव, सनक, सनंदन आदि आ जाते हैं। यही एक प्रकार का कर्म संन्यास है, जिसका मतलब आमतौर से सभी कर्मों के त्याग से न होकर केवल विधानसिद्ध कर्मों के त्याग से ही है।

परंतु तत्त्वज्ञानी या समदर्शनवाले एक दूसरे प्रकार के भी महापुरुष होते हैं और जनक आदि इसी श्रेणी के माने जाते हैं। जिस प्रकार पहली श्रेणी वालों के कर्म अनायास ही छूट जाते हैं ठीक उसी तरह, जिस तरह पकने पर वृंत या वृक्षशाखा से छूट के फल गिर पड़ता है; ठीक उसी प्रकार दूसरी श्रेणीवालों के कर्म जारी ही रहते हैं, जैसे कच्चा फल वृंत या टहनी में लगा रहता है। अगर पका फल बलात टहनी में लगा रखा जाए तो वह सड़ने लगता है और यदि कच्चे को समय से पहले तोड़ा जाए तो वह भी या तो नीरस होता है या सड़ने ही लगता है। बहुत दिनों के संस्कार और अभ्यास के फलस्वरूप जैसे पहली श्रेणीवालों का मन कर्मों से सोलहों आना उपराम और विरागी हो जाता है, ठीक उसी तरह दूसरी श्रेणीवालों का मन कर्मों में ही मजा पाने लगता है। यदि यह बात न हो तो परले दर्जे का लोकसंग्रहार्थ कर्म कभी होई न सके। क्योंकि जो पहुँचे हुए हैं वे सबके-सब यदि विरागी हो जाएँ तो विधान प्राप्त कर्मों को करेगा कौन? और अगर वह न करें तो दूसरों का कर्म तो उस उच्चकोटि का होई नहीं सकता। उसमें कुछ न कुछ अपूर्णता रही जाएगी। करने वाले खुद जो पूर्ण नहीं ठहरे। सृष्टि के नियम के अनुसार इसीलिए एक दल ऐसा होता ही है। संन्यासियों के भी उस दूसरे दल की जरूरत इसीलिए है कि परले दर्जे की मस्ती का नमूना और कोई पेश कर नहीं सकता। फलत: वैसे आदर्श की ओर लोग खिंच नहीं सकते। यह भी एक निराले ढंग का 'लोकसंग्रह' ही है, जो मस्ती के संबंध में संन्यास के रूप में है। इसी को पुराने वृद्धों ने जीते ही पूरा मुर्दा बन जाना लिखा है, जिसमें सुख-दु:ख आदि का कुछ भी असर पड़ी न सके - ये सभी टक्कर मार के हार जाएँ।

गीता ने जिस प्रकार कर्म-संन्यास के इस उच्च आदर्श को माना है और बार-बार उसका उल्लेख किया है उसी प्रकार ज्ञानोत्तर कर्म करने वाली बात को भी स्वीकार करके उसे कई जगह कर्मयोग या योग नाम दिया है और उसे करने वालों को कर्मयोगी और योगी आदि शब्दों से याद किया है (गीता के भाष्य की भूमिका-में शंकराचार्य ने साफ ही कहा है कि समदर्शियों और ब्रह्मज्ञानियों के कर्म को तो हम कर्म मानते ही नहीं, उसे कर्म कहना ही भूल है। क्या भगवान कृष्ण के कर्म को कर्म कहना उचित है? - 'तत्त्वज्ञानिनां कर्म तु कर्मैव न भवति यथा भगवत: कृष्णस्य क्षात्रं चेष्टितम।' कर्म तो उसे ही कहते हैं जिसमें बाँधने, फँसाने या सुख-दु:ख देने की शक्ति हो। मगर समदर्शियों का कर्म तो ऐसा होता नहीं। वह तो ज्ञान के करते जड़-मूल से जल जाता है उससे बंधन नहीं होता, जैसाकि - 'ज्ञानाग्निदग्धकर्माणम्' (4। 19), 'कृत्त्वापि न निबद्धयते' (4। 22), 'समग्रं प्रविलीयते' (4। 23), 'ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते' (4। 37), - आदि गीता वाक्य बताते हैं यही कारण है कि विधानसिद्ध कर्मों के संन्यासी होते हुए भी खुद शंकर लोकसंग्रहार्थ जीवनभर कर्म करते ही रहे। इसमें विधिविधान की तो कोई बात न थी। यह तो स्वभावसिद्ध चीज थी। विधिविधान के अनुसार किए गए कर्म तो बंधक होते हैं और ये वैसे नहीं होते। इसीलिए शंकर ने इन्हें त्यागने पर कभी ज़ोर न दिया।

इस विषय में एक प्रसंग आया है। हिरण्यकशिपु के मारने में नृसिंह को बड़ी दिक्कत का सामना करना पड़ा था। क्योंकि वह न दिन में मर सकता था, न रात में, न जमीन में, न आसमान में और न आदमी से न जानवर से ही। इसीलिए खिचड़ी रूप बना के संध्या समय में अपने हाथ में ले के ही उसे मारने की बात भगवान को सोचनी पड़ी, ऐसा कहा जाता है। आगे भी ऐसी परेशानी न हो इसी खयाल से उनने प्रह्लाद से कहा कि सब पँवारा छोड़ के मेरे साथ ही चलो। लोगों को ज्ञान-ध्यान सिखाना छोड़ो। इस पर प्रह्लाद का जो भोलाभाला, पर अत्यंत काम का, बहुत ही ऊँचे दर्जे का, उत्तर मिला वह इसी गीता के कर्मयोग का पोषक है। वह कहते हैं कि भगवन ऐसा तो अकसर होता है कि सभी ऋषि-मुनि दूसरों की परवाह छोड़ के चुपचाप एकांत में चले जाते और अपनी ही मुक्ति की फिक्र में लग जाते हैं। तो क्या मैं भी आपकी आज्ञा मान के ऐसा ही स्वार्थी बन जाऊँ? हरगिज नहीं। मैं ऐसा नहीं कर सकता। मुझे अकेले मुक्ति नहीं चाहिए। क्योंकि तब तो इन सांसारिक दुखियों-का पुर्साहाल कोई रही न जाएगा। जो आपको इनके हितार्थ बलात इसी तरह खींचे 'प्रायेण देवमुनय: स्वविमुक्तिकामा, मौनं चरन्ति विजने न परार्थनिष्ठा:। नैतान् विहाय कृपणान् विमुमुक्ष एको नान्यं त्वदस्य शरणं भ्रमतोsनुपश्ये।' (भागवत 7। 9। 44)। 'योगस्थ: कुरु कर्माणि' (2। 48) आदि श्लोकों में गीता ने भी यही कहा है।

Please join our telegram group for more such stories and updates.telegram channel