योग शब्द के कितने अर्थ गीता में माने गए हैं यह बात तो आगे बताई जाएगी। मगर गीता का जो अपना योग है, जिसका ताल्लुक कर्मयोग से है और जो गीता की अपनी खास देन है वह जानने की चीज है। यों तो उसका जिक्र कई स्थानों पर आगे भी आया है। लेकिन दूसरे अध्यााय के 'एषा तेऽभिहिता' (39) श्लोक से जिस योग की भूमिका शुरू करके 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' (47) तथा उसके बाद वाले (48वें) श्लोक में जिस योग का वर्णन है वही गीता का निजी योग है। इन दोनों श्लोकों को मिलाकर ही उसका रूप पूरा हुआ है। आगे के 50वें श्लोक में उसी योग का निचोड़ या संक्षिप्त रूप 'योग: कर्मसुकौशलम्' शब्दों में बताया है। लोग कहीं ऐसा न समझ बैठें कि पहले बताया गया योग कोई दूसरी ही चीज है, इसीलिए गीता साफ कहे देती है कि वह और कुछ नहीं है सिवाय कर्म करने की चातुरी, उसकी कुशलता, विशेषता (specialism) के। कोई मनुष्य कर्मों के करने में विशेषज्ञ (specialist) हो जाता है उसे ही योगी या कर्मयोगी कहते हैं। उसे ऐसी हिकमत मालूम हो जाती है कि कर्मों के करते रहने पर भी बंधन में नहीं फँस सकता और निर्वाणमुक्ति या ब्रह्मनिष्ठा प्राप्त कर लेता है। योग शब्द का यों भी युक्ति या उपाय अर्थ माना जाता है और कर्म के संबंध की यह हिकमत भी युक्ति ही तो है।

यह युक्ति, हिकमत या विशेषज्ञता क्या है और कैसे प्राप्त होती है, यही बात 47 और 48 श्लोकों में बताई गई है। अगर कर्म, क्रिया, काम या अमल को हम दायरे या वृत्त के रूप में मान लें तो यह बात समझने में आसानी होगी। तब तो कर्म करने का मतलब होगा मनुष्य का उस वृत्त में घुसना। गीता की नजरों में कर्म करने वाले के लिए कहा गया है कि 'उसका हक या अधिकार सिर्फ कर्म तक ही है' - "कर्मण्येवाधिकारस्ते।" इसका आशय यह है कि हमें उस वृत्त के भीतर ही सीमित या बंधे रहने का ही हक है - हमें उसके भीतर ही रहना चाहिए। परिधि को डाँकना नहीं चाहिए - परिधि डाँकने का यत्न हरगिज करना नहीं चाहिए। 'कर्मणि' के आगे जो 'एव' शब्द है वही डाँकने की मनाही करता है, हमें डाँकने से रोकता है। लेकिन यह तो सूत्र जैसी बात हो जाती है। इसका स्पष्टीकरण हो जाना जरूरी है। इसीलिए 47वें श्लोक के शेष तीन चरण (हिस्से) और पूरा 48वाँ - दोनों ही - यही स्पष्टीकरण करते हैं।

कर्म को वृत्त करार देने पर मान लें कि करने वाले के आगे वह वृत्त है और उसके तथा वृत्त के बीच में किसी और चीज की संभावना है जिससे उसका वृत्त के साथ अत्यंत निकट का संबंध न हो के बीच में वही चीज आ सकती है - आ जाती है और इस तरह वृत्त में घुसने में उसे बाधा पहुँचाती है। उसी तरह वृत्त के भीतर घुसने के बाद वृत्त के बाहर उस आदमी के सामने वृत्त के दूसरे किनारे के उस पार भी कोई वस्तु है। मतलब यों समझें कि हम पूर्व मुख खड़े हैं और हमारे आगे एक वृत्त है। मगर वृत्त और हमारे बीच में भी कोई चीज है या हो सकती है जो हमें वृत्त में जाने से या तो रोकती है, या इतना ही होता है कि हम वृत्त में जाने के पहले उस वस्तु से होकर ही गुजरते हैं और सामने की परिधि पार करके सीधे वृत्त में पूर्व मुख खड़े ही पहुँच जाते हैं। फिर वृत्त में जाने पर जब परिधि का पिछला भाग न देख के सामने वाला ही देखते हैं, तो उसके आगे - परिधि के पार - पूर्व ओर कोई दूसरी वस्तु भी नजर को आकृष्ट करती है, कर सकती है। साथ ही परिधि के भीतर वृत्त में पाँव देने के पहले जो यह कहा गया है कि किसी और चीज से गुजरने के बाद ही वृत्त में पाँव दे सकते हैं, वह चीज एक भी हो सकती है और दो भी। गीता ने शुरू में ज्यादे से ज्यादा दो चीजों की और पीछे चलकर वृत्त के बाहर आगे की एक चीज की संभावना करके उन्हीं तीनों की रोक लिखी है। कर्म करने वालों को उनमें एक पर भी दृष्टि नहीं दौड़ाना चाहिए, एक का भी खयाल - परवाह - नहीं करना चाहिए, यही आदेश 40 और 48 श्लोकों के शेष अंशों में दिया है। इन तीनों के सिवाय दायरे (वृत्त) के भीतर भी वृत्त के अलावा एक चीज है, एक खतरा है। उससे भी आगाह कर दिया गया है। जो इन चार खतरों से बच जाता है वही पक्का योगी या कर्मयोगी होता है, यही गीता का कहना है।

पहले की दो चीजों - दो खतरों - में एक है कर्म के फल का खयाल, उसका चिंतन, उसकी इच्छा, फलेच्छा या फल का संकल्प। मन में फल के स्वरूप की कल्पना करके ही किसी काम में आमतौर से हाथ बढ़ाते जो हैं। दूसरा है कर्म का त्याग या उसका न करना। ऐसा होता है कि या तो यों ही कर्म में जी नहीं लगने के कारण उसे करते ही नहीं; या यदि फल की इच्छा या संभावना ही न हो तो भी कर्म नहीं करते हैं। इसीलिए कर्म के फल की इच्छा की ही तरह अकर्म या कर्म का त्याग, उसे छोड़ देना भी कर्म के पहले ही आ जाता है - यह बात कर्म के दायरे में पाँव देने के पहले ही आ जाती है। दायरे के बाहर आगे जो चीज दायरे में पाँव देने पर आती है और जिससे खतरा है वह है उस कर्म का खुद फल ही। कर्म करने के पहले तो मन में फल का संकल्प मात्र करते हैं। मगर कर्म शुरू कर देने और पूरा करने तक तो साक्षात फल पर ही नजर जा पड़ती है। इसीलिए यह भी एक खतरा है। चौथा खतरा है खुद कर्म से ही - वृत्त या दायरे से ही, यदि कर्म में आसक्ति, संग ममता, अंधप्रेम (blind attachment) हो जाए। यह कर्म की आसक्ति भी भारी खतरनाक है। यह भी याद रखना चाहिए कि जो शुरू के दो खतरों में कर्मत्याग को गिनाया है उसका भी मतलब है कर्म के छोड़ देने की आसक्ति या हठ से ही। जैसे कर्म करने की आसक्ति या हठ बुरा है, ठीक उसी प्रकार उसके न करने का भी हठ खतरनाक है। हठ किसी ओर नहीं होना चाहिए। इसका स्पष्टीकरण अभी हुआ जाता है।

हाँ, तो अब जरा देखें कि इन चारों खतरों की रोक क्योंक कर की गई है। 47वें श्लोक के दूसरे हिस्से को हम यों पाते हैं, 'मा फलेषु कदाचन' - कर्मों के फलों में तो हमारा अधिकार कभी नहीं है। इस तरह वृत्त में पाँव देने के बाद जो आगे वाला खतरा है परिधि के बाहर और जिसे हमने तीसरा कहा है उसे रोक दिया। कर्म के साथ फल का ताल्लुक स्वभावत: होता ही है। इसलिए कर्म के बाद चटपट उसी से रोकना उचित समझा गया। इसके बाद 47वें के शेष - उत्तरार्द्ध - में वृत्त के पहले वाले दो खतरों से रोका है 'मा कर्मफलहेतुभूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि' - "कर्म के फल के कारण मत बनो, अर्थात कर्मफल का खयाल करके काम हर्गिज शुरू न करो।" फल के लिए संकल्प और चिंतन के जरिए ही तो फल तक पहुँचते हैं अब यदि वह संकल्प या चिंतन रहा ही नहीं, फल का खयाल हई नहीं तो 'रहा बाँस न बाजी बाँसुरी' वाली बात हो गई और फल से स्वयमेव ताल्लुक बँधा ही नहीं। यही कारण है कि पहले फल की बात रोक के उसके कारण-स्वरूप फलेच्छा या फल संकल्प की बात पीछे रोकी गई है। क्योंकि फल की इच्छा या संकल्प होने पर तो फल तक पहुँचना रुकी नहीं सकता।

इस पर सहसा यह कहा जा सकता है कि तो फिर कर्म करेंगे ही क्यों? जब न तो फल की परवाह है और फल का संकल्प ही है, तो कर्म की बला में नाहक फँसा क्यों जाए? इसी का उत्तर श्लोक का आखिरी हिस्सा 'मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि' देता है कि खबरदार, अकर्म (कर्म छोड़ने) में आसक्ति या हठ हर्गिज होने न पाए। कर्म का न किया जाना एक चीज है और उसमें - न करने या छोड़ने में - हठ बिलकुल दूसरी ही चीज है। ऐसा हो सकता है कि समय पा के खुद-ब-खुद कर्म छूट जाए। परिस्थिति ऐसी हो जाए कि हजार चाहने पर भी कर्म छोड़ने के अलावा दूसरा चारा होई न। इसलिए अपने आप या मजबूरन कर्म छूट जाए। गीता यह बात मानती है और इसका विरोध उसे इष्ट नहीं। मगर कर्म के छोड़ने का हठ हर्गिज उसे बरदाश्त नहीं। हम कर्म कभी करेंगे ही नहीं चाहे जो भी हो जाए, यही चीज गीता को पसंद नहीं। कर्म के मार्ग में यही उसकी नजरों में तीसरा खतरा है और वह लोगों को इसी से सजग करती है।

लेकिन चौथे खतरे का सामना हो जा सकता है। वृत्त के बाहर परिधि के इधर-उधर के उक्त तीनों खतरों से बचने पर भी चौथा खतरा उसके भीतर ही - दायरे के अन्दर ही - हो सकता है। वह है कर्म के करने का हठ या आसक्ति। इसी को कर्म में संग, कर्म का संग, कर्मसंग या कर्मासंग भी कहते हैं। जैसे सक्ति और आसक्ति का अर्थ एक ही है चिपक जाना या सट जाना और जिसे अंग्रेजी में अटैचमेण्ट (attachment) कहते हैं; ठीक उसी प्रकार संग और आसंग का भी यही अर्थ है। दोनों शब्दों में 'आ' के जुट जाने से चिपकने या लिपटने में सिर्फ अंधापन या हठ (जिद्द) जुट जाता है और इसे 'ब्लाइण्ड अटैचमेण्ट' (blind attachment) कह सकते हैं। मगर 'आ' के न रहने पर भी यही अर्थ होता है। गीता के मत से जैसी ही बुरी अकर्म (कर्मत्याग) की जिद है वैसी ही कर्म की जिद भी। आसक्ति या हठ दोनों का ही बुरा है। इसी हठ को 'ऊँट की पकड़' कहते हैं। ऊँट किसी चीज को एक बार पकड़ने पर छोड़ता ही नहीं। बंदरिया की आसक्ति या अंधप्रीति अपने बच्चे के साथ होती है। फलत: बच्चे के मर जाने पर भी उसे नहीं छोड़ती। किंतु छाती से लिपटाये फिरती है जब तक कि वह खुद टुकड़े-टुकड़े हो के गिर नहीं पड़ता है। यह चीज बुरी है और यही रोकी गई है। हजार कोशिश और दृढ़ संकल्प (determination) के बाद भी कभी-कभी परिस्थितिवश कर्म का छूट जाना अनिवार्य हो जाता है। परिस्थितियाँ किसी के वश की जो नहीं होती हैं। फिर हठ या जिद क्यों? न करने की जिद हो और न तो न करने की ही। जिद ही तो बला है।

दृढ़ संकल्प और आसक्ति या हठ में फर्क है - दोनों दो चीजें हैं। दृढ़ संकल्प का तो इतना ही मतलब है कि विघ्न-बाधाओं से कदापि विचलित न हो के कर्म करते रहें - चट्टान की तरह अटल रहें - मगर इतने पर भी कर्म छूट जा सकता है। यह जरूरी नहीं कि हम उसे करते ही रहें। परिस्थितियाँ हमें मजबूर कर दे सकती हैं। फलत: दृढ़ संकल्प के होते हुए भी इस तरह कर्म के छूट जाने पर हमें कष्ट न होगा। क्योंकि हमारा तो यही रास्ता है और होना चाहिए कि 'आओ विपत्तियाँ तुम, दु:खों को साथ लाओ। पीटूँगा मैं तुम्हीं को, तुमसे ही या पिटूँगा।' मगर यदि कर्म में आसक्ति या करने की जिद रही, तो हमें मर्मांतक वेदना ऐसी दशा में जरूर हो जाएगी और सारा मजा ही किरकिरा हो जाएगा। ठीक इसी तरह कर्म के त्याग के हजार हठ करने पर भी उसे करने की मजबूरी कभी-कभी हो सकती है और हठ होने से हम उस दशा में तिलमिला जा सकते हैं। यही बात गीता रोकना चाहती है। इसीलिए कर्म के करने या न करने - कर्म या संन्यास दोनों ही - में आसक्ति, जिद या हठ को उसने खतरा करार दिया है और कहा है कि कर्म चाहे पूरा हो या अधूरा ही रह जाए या चाहे हम उसे शुरू ही न कर पाएँ - हर हालत में हमारे दिल-दिमाग की समता या गंभीरता (balance of mind) बिगड़ना नहीं चाहिए। हमें दोनों ही हालतों में, पूरा होने, न होने - कर्म की सिद्धि और असिद्धि - में सम रहना चाहिए - एकरस (unconcerned) रहना चाहिए, जैसा कि जनक ने मिथिलापुरी में आग लगने पर कहा था कि मिथिला जलती है तो जले, मेरा क्या जलता है? - 'मिथिलायां प्रदग्धायां न मे किंचन दह्यते।' यही है योग। इसी योग को प्राप्त करके, काबू में करके - योगस्थ हो के - हमें कर्म करना चाहिए। फल और उसके संकल्प के त्याग का भी असली प्रयोजन यही है कि दिल-दिमाग की गंभीरता और समता - एकरसता (balance) - न बिगड़े।

इन चारों खतरों से बचने का निचोड़ इसी सिद्धि, असिद्धि की समता में ही आ जाता है। इसीलिए इसे ही योग कहा है। फल की तरफ खयाल होने या फल का संकल्प होने पर कुछ भी गड़बड़ होते ही हायतोबा मचती ही है। इसीलिए उससे बचना जरूरी है। ऐसा भी होता है कि काम पूरा होने तथा विजय मिलने पर खुशी के मारे मनुष्य आपे से बाहर हो जाता है और ऐसा न होने या पराजय होने पर रंज के मारे ही आपे से बाहर या बेसुध हो जाता है। दोनों ही हालतों में दिल-दिमाग की समता खत्म हो जाती है। फलत: ऐसा करना चाहिए कि दोनों में एक का भी मौका ही आने न पाए। इसीलिए तो आसक्ति का त्याग जरूरी बताया गया है। पूरे 48वें श्लोक में यही बात खूब सफाई के साथ कही गई है। न रंज के मारे छाती पीटने का और न खुशी के मारे बेहोश होने का ही मौका इसी के चलते आने पाएगा। यही योग है।

इसमें सबसे बड़ी खूबी यह है कि जब कर्म करनेवाले का मन इधर-उधर कहीं भी जरा भी न जा के सिर्फ काम में ही लग जाएगा - वहीं केंद्रीभूत (concentrated) - हो जाएगा, तो वह काम होगा भी ठीक-ठीक। किसी भी काम की पूर्णता के लिए दिल और दिमाग का उसमें लग जाना, उसी में जा के अड़ जाना और लिपट जाना - उससे बाहर न जाना - बुनियादी और मौलिक कारण है। फिर तो वह सिद्ध और पूर्ण हो के ही रहेगा। अधूरेपन की गुंजाइश उसमें रहेगी ही नहीं। दिल और दिमाग में बड़ी ताकत है। जिसे इच्छाशक्ति (will-power) कहते हैं वह यही चीज है। योगियों और सिद्धों के जो अद्भुत काम कहे गए हैं और उनकी सिद्धियों का जो वर्णन मिलता है उसका रहस्य यही है। और जब मन के - दिल और दिमाग के - कहीं इधर-उधर जाने की गुंजाइश रखी ही नहीं गई है, तो वह केंद्रीभूत खामख्वाह होगा ही। फल, उसका संकल्प, कर्म के करने का आग्रह और उसके न करने का हठ - यही चार - ही तो ऐसी चीजें हैं जिनकी ओर मन कर्म के सिलसिले में भटक सकता है, भटकता फिरता है। मगर गीता ने इन चारों का दरवाजा बंद करके उसके लिए कोई रास्ता ही नहीं छोड़ा है कि भाग सके।

नतीजा यह होगा कि कर्म की सांगोपांग पूर्ति तो होगी ही। उसी के साथ उसका फल, परिणाम या नतीजा भी हो के ही रहेगा। उसमें दिक्कत की गुंजाइश रही कहाँ? गड़बड़ी के सभी रास्ते तो बंद होई गए। यह भी कितनी मौजूँ और युक्तियुक्त बात है कि कर्म के फलों को तो कोई सीधे पकड़ सकता नहीं। उन्हें तो कर्म के द्वारा ही पकड़ा जा सकता है। इनसान काम करता है और काम से फल होता है, चाहे बुरा हो या भला। हम सीधे फल तो पैदा करते ही नहीं। हमारे वश की चीज तो कर्म या क्रिया ही है। फल तो है नहीं। फिर हम क्रिया की ही फिक्र क्यों न करें? फल की ओर नाहक क्यों दौड़ें? यह तो मृगतृष्णा की बात ही ठहरी। जो चीज हमारे वश की नहीं, अधिकार की नहीं, उस पर नाहक क्यों दौड़ें और लट्टू हों? फलत: गीता ने जो कहा है कि सिर्फ कर्म में ही अधिकार है, वही तो युक्तिसंगत बात है। वह कोई आश्चर्य की चीज तो है नहीं। और कर्म या अकर्म का हठ तो महज नादानी है, जैसी कि सभी तरह के हठों की बात है।

इस उपदेश का फल यह हुआ कि एक तो कर्म का फल जरूर ही मिलेगा - उसका मिलना एक प्रकार से निश्चित ही समझिए, यदि कोई दैवी बाधा आ न पहुँचे। मगर यह बात फल की इच्छा, लालसा और संकल्प के होने पर संभव नहीं। क्योंिकि 'मन न होय दस-बीस' के अनुसार एक ही मन कभी कर्म की ओर जाएगा तो कभी फल की ओर, कभी उसके त्याग की ओर और कभी उसके करने के हठ की तरफ। कभी उसे कर्म अपनी ओर खींचेगा तो कभी फलेच्छा अपनी तरफ। इस खींचतान में न तो वह कर्म में जमेगा, न वह पूरा उतरेगा और न फल मिलेगा। दूसरी बात - दूसरा लाभ - इससे यह हुआ कि जहाँ पहले फल मिलने पर या न मिलने पर भी कर्म बंधन का - जन्म-मरण का - कारण होता था, तहाँ अब वह बात जाती रही। जैसे भाड़ में डालने पर अन्न में - बीज में - अंकुर पैदा करने की ताकत जाती रहती है। वैसे ही इस योग के फलस्वरूप कर्मों में बंधन की ताकत रही नहीं जाती - वह खतम हो जाती है। दरअसल कर्मों का संस्कार मानसपटल पर जमने पाता ही नहीं। फिर वह जन्म-मरण में फँसायें तो कैसे? जन्म-मरण का तो अर्थ ही है कर्मों के करने का सिलसिला जारी रहना। और इस सिलसिले के लिए उसके संस्कार जरूरी हैं, जैसे बीज में अंकुरजनन की शक्ति। मगर यहाँ तो योग के चलते हम कर्मों के करने या न करने या उनके फलों से कतई प्रभावित होते ही नहीं - तटस्थ या उदासीन रह जाते हैं। तब मानसपटल पर - जो निर्लेप बन गया है - संस्कार कैसे पैदा होगा? संस्कार के लिए उदासीनता की नहीं, किंतु अनुराग, मैत्री या लालसा की जरूरत होती है। जिन चीजों से हम उदासीन हों उनके संस्कार मन में पैदा होते ही नहीं। हाँ, जिनमें मन लगा हो उनके संस्कार जरूर ही पैदा हो जाते हैं। यही कारण है कि इसी योग को कर्म का कौशल कहा है। यही तो कर्म करने की असली कला है - कर्म करने का जादू है, कारीगरी है।

जिस समत्वरूप योग का वर्णन अभी किया गया है उसके संबंध में अनेक बातें जानने की हैं। इसीलिए इस पर बहुत कुछ लिखना बाकी ही है। लेकिन आगे बढ़ने के पहले यहीं पर पूर्वोक्त 47वें श्लोक की एक महत्त्वपूर्ण बात और भी जान लेना जरूरी है। कर्म करने और उसके त्यागने का झमेला कुछ ऐसा है और इधर कुछ गीता के टीकाकारों ने उसे इतना ज्यादा बढ़ा दिया है कि हमें विवश हो के यह लिखना पड़ रहा है। उस श्लोक के पहले चरण के तीन शब्दों 'कर्मणि, एव, अधिकार:' में 'एव' शब्द कुछ विचित्र है। वह 'कर्मणि' के आगे आया है। 'अधिकार:' के आगे भी आ सकता था और ऐसा होने पर अर्थ में कुछ विशेषता आ जाती। एव शब्द किसी बात पर जोर (emphasis) देने के ही लिए आता है। फलत: जिस पदार्थ के वाचक शब्द के बाद आता है उसी पर जोर देता है। यहाँ स्वभावत: कर्म पर ही जोर देता है। उसी के बाद आया जो है। यदि 'अधिकार:' के बाद आता तो अधिकार, वश या काबू पर ही जोर देता। क्योंकि अधिकार शब्द इन्हीं का वाचक है। जोर देने का मतलब यही होता है कि जिस पर जोर होता है उससे अन्य चीजें रोकी जाती हैं। अन्य चीजों से मतलब है उन्हीं से जिनकी संभावना होती है - यानी उसकी विरोधी या संबंध वाली चीजें।

इसीलिए यहाँ कर्म-संबंधी फल, फलेच्छा, कर्मासक्ति आदि का निषेध हो जाता है, इन पर रोक आ जाती है और दोनों श्लोकों में यही बात आई भी है। यदि 'अधिकार:' के बाद 'एव' रहता तो हक या अधिकार या वश के विरोधी तथा संबंधी पदार्थों पर रोक हो जाती। मगर यहाँ वह बात हई नहीं। फिर भी असली बात जो हमें कहनी है वह तो यह है कि कर्म एवं अधिकार दो में एक के साथ 'एव' के लगने से यहाँ निरालापन आया है। जैसा है वैसी दशा में खामख्वाह कर्म करने में हठ नहीं हो सकता। लेकिन अधिकार के साथ आ जाने पर यही हठ आ जाता। क्यों्कि तब तो स्पष्ट हो जाता कि हमें कर्म छोड़ने का कोई हक हई नहीं और हमें उससे लिपटे रहना होगा। जिस चीज पर आगे रोक लगी है वही चीज तब हो जाती। जहाँ अब अर्थ होता है कि कर्म के अतिरिक्त फलादि का हक हमें नहीं है, तहाँ उलट के अर्थ हो जाता कि हक के सिवाय किसी और का संबंध कर्म के साथ हई नहीं।

जिन दो पदार्थों के बीच में एक पर यह जोर रहता है उन्हीं में दूसरे के साथ एक को यानी पहले को बाँध देता है और बाकियों को, जिनकी संभावना हो, रोक देता है। इसे और भी साफ तौर से यों समझें कि कर्म पर ही यहाँ जोर देने के कारण उसी के अनुकूल या अधीन हक रहता है। कर्म की ही प्रधानता रहती है। हक उसकी छाती पर बैठ के उसे घसीट नहीं सकता। विपरीत इसके यदि अधिकार या हक पर जोर होता तो उसी की प्रधानता होती और कर्म की छाती पर बैठ के वह अपने साथ यानी आदमी के साथ कर्म को घसीटता फिरता। तब कर्म किसी भी दशा में त्याज्य या त्यागने योग्य नहीं रह सकता। मगर वर्तमान दशा में तो हक ही त्याज्य नहीं है। कर्म का त्याग तो हो सकता है। जब हम कर्म करते हैं तो यह कोई नहीं कह सकता कि उस पर हमारा हक नहीं है। इस तरह देखते हैं कि इस 'एव' शब्द का स्थान बदलने से दोनों श्लोकों के बाकी अंशों के साथ पहले चरण का कोई मेल होता ही नहीं।

इतना लिखने का हमारा मतलब दोनों श्लोकों के सभी अंशों में परस्पर मेल या सामंजस्य लाना नहीं है। यह तो गीता के रचयिता का ही काम था कि बेमेल बात न बोलें। हम उस कवि के वकील भी नहीं हैं कि जो कुछ त्रुटि मालूम हो उसे मिटाने की वकालत करें। गीता के कर्त्ता व्यास को वकील की जरूरत ही न थी। वह तो खुद इतने योग्य थे कि ऐसी मोटी भूल कर सकते न थे। हमारा मतलब सिर्फ यह दिखलाने का है कि गीता के अनुसार कर्म की आसक्ति या उससे खामख्वाह लिपटना ठीक नहीं है। उसने कर्म और धर्म के संन्यास - दोनों ही - के लिए गुंजाइश मानी है, दोनों के लिए पूरा स्थान रखा है। वे दोनों ही अपनी-अपनी जगह पर ठीक हैं, उचित हैं, कर्तव्य हैं। खूबी तो यह है कि जिस योग को ले के कुछ लोगों ने इस बात पर जोर दिया है कि गीता तो संन्यास की विरोधिनी है; वह तो कर्म पर ही जोर देती और उसी का समर्थन करती है, वही योग कर्म और कर्मत्याग - कर्म के योग और उसके त्याग - दोनों ही का प्रतिपादक है - उसके भीतर दोनों ही आ जाते हैं!

बेशक, यह बात उलटी-सी लगती है। योग शब्द तो जोड़ने, जुटने या संबंध को - संयोग को - ही कहता है, ऐसा साफ दीखता है। फलत: कर्मयोग का अर्थ है कर्म का संयोग या संबंध। यही उचित भी प्रतीत होता है। मगर कर्मयोग का अर्थ ही कर्म का वियोग या त्याग (संन्यास), यह तो निराली चीज है। लेकिन किया क्या जाए? खुद गीताकार को भी यह चीज सूझी थी - उन्हें इसी तरह का विरोध इस योग में या योग शब्द के अर्थों में प्रतीत हुआ था। फिर भी उसने उसका समर्थन किया। छठे अध्यारय के 23वें श्लोक का पूर्वार्द्ध कुछ इसी तरह की पहेली का खयाल करके ही बनाया गया मालूम होता है। वह है 'तं विद्याद् दु:खसंयोग वियोगं योगसंज्ञितम्।'। इसका आशय यही है कि 'यद्यपि उसे योग कहा जाता है, तथापि वह तो दु:खों के संयोग (संबंध) का वियोग ही है - अर्थात दु:खों का वियोग करने वाला है।' इस तरह वियोग को ही योग नाम दिया गया है ऐसा वह मानते हैं। ठीक वही बात यहाँ भी है। अत: निर्विवाद है कि गीता कर्म करने के हठ की विरोधिनी है।

कर्म से चिपकने और लिपटने के इसी हठ को, जो गुड़ के साथ लिपटे चींटे की तरह अनर्थ और मृत्यु का कारण होता है, गीता ने दूसरे-दूसरे नामों से भी कह के बुरा ठहराया है। अठारहवें अध्या य के 24वें श्लोक में इसी को अहंकार कहा है और 27वें में राग - वहाँ 'रागी' शब्द है - कहा है। चौथे अध्यावय के 19वें श्लोक में इसे ही संकल्प नाम दिया गया है। जिस प्रसंग में और जिस ढंग से ये बातें उन स्थानों में कही गई हैं उससे साफ है कि अहंकार आदि का आशय कर्म का हठ या आसक्ति ही है। इसीलिए निंदित अर्थ में ही उनका प्रयोग भी हुआ है। चौदहवें अध्यााय के 22, 23 श्लोकों में द्वेष, राग और उदासीनता शब्द तथा बारहवें के दसवें में 'मदर्थ' शब्द भी इसी मानी में हैं। और भी ऐसे ही शब्द आए हैं।

मगर इतना ही नहीं है। ठेठ दूसरे अध्यांय से ही शुरू करके अठारहवें अध्यांय तक कम से कम बीस बार संग, आसक्ति, आसक्त आदि आए हैं और सिवाय कर्म में आसक्ति या करने के हठ के त्याग के और कोई अर्थ इनका हो ही नहीं सकता। ये बीस स्थान तो ऐसे हैं जहाँ निस्संदेह कर्मों का हठ बुरा ठहराया गया है। चौथे अध्याीय के 21वें श्लोक में 'केवल' शब्द लिखके इस हठ के त्याग को बड़ी सफाई के साथ दिखाया है। इसी तरह उसी अध्या य के 14वें श्लोक में 'लिम्पंति' शब्द लेप, लीपने या लिपटने के मानी में लिख के बताया गया है कि कर्मों में हमारा लिपटना या कर्मों का हममें लिपटना ठीक नहीं है। यह तो स्पष्ट है कि कर्म तो कोई गुड़, गोबर या गीली मिट्टी नहीं है जो यों ही लिपटेंगे। वे तो हठ, राग या आसक्ति के द्वारा ही मन में लिपट जाते हैं।

लोग ऐसा न समझें कि हमने यों ही बीस जगहों का नाम ले लिया है, इसीलिए प्रत्येक अध्याहय और श्लोकों के अंकों को जान लेना चाहिए ताकि कोई भी आसानी से यह बात जाँच सके। दूसरे अध्या य के 48वें श्लोक का तो व्याख्यान हो ही चुका है जहाँ 'संग' शब्द साफ ही आया है। तीसरे के 7, 9, 19, 25, 28, 29 श्लोकों में; चौथे के 10, 23 में; पाँचवें के 10, 11 में; छठे के 4 में नवें के 9 में और अठारहवें के 6, 9, 10, 22, 24, 26, 34, और 49 श्लोकों में यही बात है। यों ही, मोटामोटी नजर दौड़ाने पर भी यह स्पष्ट हो जाता है। यदि गौर से विचारा जाए तब तो कुछ कहना ही नहीं है। संदिग्ध श्लोकों का तो हमने जिक्र किया ही नहीं है। इस प्रकार कर्म संन्यास में कोई भी बाधा गीता की नजरों में हो नहीं सकती।

परंतु गीता ने तो और भी साफ-साफ यह बात कही है। चौथे अध्यााय के 'योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंच्छिन्नसंशयम्' (41) और पाँचवें अध्याैय के 'संन्यासस्तु महाबाहो दु:खमाप्तुमयोगत:। योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म न चिरेणाधिगच्छति' (6) - इन दो - श्लोकों को देखने से ज्ञात होता है कि गीता संन्यास को न सिर्फ कर्तव्य मानती है, बल्कि उसका रास्ता और मौका भी बताती है। यदि गौर से दोनों श्लोकों को मिलायें तो एक तो यह पता चलता है कि संन्यास की बात दोनों ही में है। दूसरे यह कि संन्यास के पहले कर्म करना जरूरी है। आखिर संन्यास तो कर्मों का त्याग ही ठहरा और जब तक कर्म करें ही न, तबतक त्याग कैसा? जिनके पास जो चीज होई न, वही उसी चीज का त्याग कैसे करेगा? तब तो 'वृद्धा वेश्या तपस्विनी' वाली बात हो जाएगी न? यह भी तो पक्की ही बात है कि जब तक वर्णमाला नहीं सीख लें, तब तक जब कभी छोटी-बड़ी कोई भी पुस्तक पढ़ना चाहेंगे, वर्णमाला सामने खड़ी हो जाया करेगी। यदि उससे पिंड छुड़ाना है तो उसे एक बार पूरा कर लीजिए। दूसरा रास्ता हई नहीं। ऊपर लिखे दोनों श्लोकों का यही आशय है।

चौथे अध्याोय वाले 'योगसंन्यस्तकर्माणं' - कर्मों (योग) के द्वारा ही कर्मों का त्याग या संन्यास हासिल करने वाले का अभिप्राय हमने अच्छी तरह साफ कर दिया है। उसके 'ज्ञानसंछिन्नसंशयम्' का प्रयोजन तो आगे है। वह तो इतना ही कहता है कि 'जिनका संशय ज्ञान के प्रताप से खत्म हो गया है।' ज्ञान तो संन्यास के बाद ही होता है। फलत: सभी प्रकार के संशयों तथा शक-शुभों का खात्मा संन्यास के बाद ही होता है, ऐसा माना गया है। यह भी सही है कि आत्मा-परमात्मा के यथार्थ एवं समयग्दर्शन के लिए शक-संदेहों का निर्मूल हो जाना आवश्यक है। इस प्रकार निर्वाण के लिए संन्यास जरूरी हो गया है। यही कारण है कि उस श्लोक के शेष आधे 'आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय' से साफ पता चलता है कि इस प्रकार आत्मज्ञान या आत्मा की प्राप्ति हो जाने पर ही कर्मों की बंधनशक्ति जाती रहती है।

पाँचवें अध्याीय के उक्त श्लोक का तो साफ ही मतलब है कि 'संन्यास की प्राप्ति तो कर्म (योग) के बिना अत्यंत कष्टसाध्या - अर्थात असंभव - है। विपरीत इसके जो मननशील विवेकी कर्म करता है वह शीघ्र ही संन्यास के योग्य हो के उसे प्राप्त कर लेता है।' इसमें इस बात की पुष्टि कर दी गई है कि संन्यास के लिए कर्म करना जरूरी है। इसीलिए कर्म के बिना वह प्राप्त होता नहीं और कर्म से हो जाता है। कारण तो उसे ही कहते हैं जिसके बिना चीज होई न और जिसके रहने पर अवश्य हो जाए। इसी को पुराने लोगों ने अन्वय और व्यतिरेक कहा है। इस श्लोक के चौथे चरण में संन्यास न लिख के यद्यपि ब्रह्म लिखा है, तथापि ब्रह्म का अभिप्राय संन्यास ही है। श्लोक के शेष तीन चरणों से यह बात साफ हो जाती है। इसके पहले जो कई श्लोक आए हैं उन्हें गौर से पढ़ने से भी यही अभिप्राय निकलता है। इसके सिर्फ दो दृष्टांत गीता से ही देने से बात साफ हो जाएगी।

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