इसके बाद योग वाली दृष्टि की ओर जाने के पहले एक ही श्लोक - 38वाँ - रह जाता है। वह यों है; 'सुखदु:खे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ। ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।' इसका अर्थ है कि 'जय पराजय, हानि-लाभ और सुख-दु:ख को समान समझ के - यानी इनकी परवाह न करके - लड़ाई के लिए तैयार हो जाओ। फिर तो तुम्हारे पास पाप फटकने भी न पाएगा।' लड़ाई में हार या जीत - दो में एक - जरूरी है। फलत: तदनुसार ही हानि या लाभ भी अनिवार्य है। फिर तो दु:ख या सुख खामख्वाह आता ही है। यही है साधारण नियम। ये चीजें बदली जा सकती हैं भी नहीं। इसलिए इन्हें समान बनाना असंभव है। इसीलिए गीता कहती है कि इनका बाहरी रूप ज्यों का त्यों रहते हुए भी हम इन्हें समान इस तरह बना सकते हैं कि दिल-दिमाग पर इनका कोई खास असर न होने दें। अध्या त्मवाद या वेदांत का यह अटल सिद्धांत है कि सुख-दु:ख के कारण बाहरी पदार्थ नहीं हैं। हम अपने दिल-दिमाग में उन्हें जो स्थान देते या उनका जैसा स्वरूप खड़ा करते हैं तदनुसार ही वे सुख-दु:ख आदि के कारण बनते हैं और नहीं भी बनते हैं। इन्हीं को मानसिक या मनोराज्य के पदार्थ कहते हैं।
दृष्टांत लिए किसी स्त्री को ले सकते हैं। वह तो एक ही प्रकार की होती है - उसका बाहरी रूप तो एक ही होता है। अब यदि वही भली या बुरी हो या सुख-दु:ख पहुँचाने वाली मानी जाए तो सभी को उसके करते समान रूप से ही सुख या दु:ख होना चाहिए। मगर ऐसा तो होता नहीं। एक ही स्त्री किसी के लिए सुखद, किसी के लिए दु:खद और किसी के लिए दोनों में एक भी नहीं होती। जो पुरुष उसे बहन, बेटी या माता मानता है उसकी कुछ और हालत होती है, जो उसे स्त्री मानता है उसकी दूसरी ही और जो उसकी तरफ से निरा उदासीन या लापरवाह है उसकी तीसरी ही दशा होती है। पहली दो हालतों में राग-द्वेष या प्रेम और जलन की जो बातें पाई जाती हैं। वह तीसरी दशा में कतई लापता हैं। वेश्या, धर्मपत्नी और माता के बाहरी रूप में कोई भी अंतर नहीं होता है। एक ही स्त्रीप किसी की माँ, किसी की पत्नी और किसी के लिए वेश्या भी परिस्थितिवश हो सकती है। इसी से वह आरामदेह या तकलीफदेह बन सकती है। सो भी एक ही समय में किसी को आराम देने वाली और किसी को तकलीफ देने वाली। क्यों? इसीलिए न कि पत्नी, वेश्या, माता, बहन आदि के रूप में एक ही स्त्री की जुदा-जुदा कल्पना अलग-अलग लोग अपने मनों में कर लेते हैं? और जो विरागी या मस्तराम ऐसी कोई भी कल्पना नहीं करके लापरवाह रहता है उसे उस स्त्री से सुख या दु:ख कुछ नहीं होता। इसलिए सिद्ध हो जाता है कि किसी भी पदार्थ का बाहरी रूप कुछ नहीं करता। किंतु उसका मानसिक रूप जैसा खड़ा किया जाता है तदनुसार ही वह सुख-दु:खादि का कारण बनता है - उसे वैसा बनना पड़ता है।
इसीलिए 38वें श्लोक में गीता ने इसकी जड़ ही काट दी है। उसने कह दिया है कि अपने दिल-दिमाग पर जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दु:ख का असर होने ही न दो, दिल-दिमाग को यह मौका ही न दो कि इन चीजों का रूप अपने भीतर खड़ा कर सके, ऐसा न होने पाए कि दिल-दिमाग की स्वाभाविक एकरसता, गंभीरता और शांति को, ये सभी अपनी छाया और अपना प्रतिबिंब उस पर डाल के, भंग करें, बिगाड़ें। फिर तो पौ बारह है, फिर तो सब कुछ ठीक है, फिर तो पाप-पुण्य की जड़ ही कट जाती है। पाप-पुण्य के बाप तो ये मानसिक रूप ही हैं, चीजों का मानस पटल पर पड़ा हुआ असर और प्रतिबिंब ही है, छाया ही है। इस प्रकार अध्याीत्मवाद और वेदांत के सिद्धांत के ही आधार पर कर्म करने की बात का प्रतिपादन पूरा किया गया है। क्योंकि जब आत्मा निर्विकार और निर्गुण है, निर्लेप और अजर-अमर है तब तो मानसिक कल्पना के ही चलते वह भटकती है और पाप-पुण्य में पड़ती है, जैसे जंगल में भटक जाने वाला काँटेकुशों में बिधता या चोर-डाकुओं से लुटता है। और जब वही चीज नहीं रही, जब मानसिक समता (balance) बिगड़ने न पाई, तो फिर खतरा ही कहाँ रहा?
अब विचार पैदा होता है कि जिस समता का उल्लेख यहाँ किया गया है उसी का जिक्र आगे कर्मयोग के प्रकरण के 48वें श्लोक में आया है। यहाँ भी 'सुखदु:खे समे कृत्वा' है और वहाँ भी 'सिद्धयसिद्धयो: समो भूत्वा' लिखा है। ऐसी दशा में दोनों एक ही चीज हो जाती है। फिर अध्यायत्मवाद के प्रकरण के अंत और योग के आरंभ के पहले जो 39 श्लोक में बड़ी तपाक के साथ कहा है कि 'तत्त्वज्ञान की बात कह चुके अब योग की बात सुनो', उसका तो कोई मतलब रही नहीं जाता। वह बेकार और निरर्थक मालूम पड़ता है। मगर ऐसा मान भी तो नहीं सकते। गीताकार को क्या इतनी मोटी भी बुद्धि न थी कि यह बात समझ जाएँ? और जो गीता में सांख्य एवं योग के दो मार्गों का बार-बार जिक्र आया है उसका क्या होगा? यह कोई बच्चों की तो बात है नहीं। इसीलिए कुछ अजीब-सा घपला यहाँ आ खड़ा होता है।
यह बात तो जरूर है। यहाँ दिक्कत तो मालूम होती ही है। इसीलिए जरा गौर से कई बातें विचारना है। पहली बात यह है कि हम अध्या त्मवाद के उपसंहार वाले 38वें श्लोक के 'नैवं पापमवाप्स्यसि' तथा कर्मयोग की भूमिका के 39वें श्लोक के 'कर्मबन्धं प्रहास्यसि' शब्दों पर भी विचार करें। पहले शब्द तो इतना ही कहते हैं कि 'ऐसा होने से तुम्हारे पास पाप फटकने न पाएगा।' उनका इस बात से कोई तात्पर्य नहीं है, कोई भी प्रयोजन नहीं है कि आया कर्म पाप-पुण्य पैदा करते हैं या नहीं, कर्मों में पाप-पुण्य पैदा करने की शक्ति है या नहीं। तत्त्वज्ञान और अध्या त्मवाद को इससे कोई भी गर्ज नहीं होती। वह इन बातों की ओर दृष्टि डालना फिजूल समझता है। बल्कि यों कहिए कि वह ऐसा करने को पतन एवं पथभ्रष्टता की निशानी मानता है। वह यह बाल की खाल क्यों खींचने लगा? वह तो इतना ही कहता है कि जब आत्मा निर्लेप है, अकर्त्ता है, जब उसमें कर्म हई नहीं, तो फिर कर्म का फल वह क्यों भोगे? कर्म का फल उसके निकट आए भी क्यों? आने की हिम्मत भी क्यों करे? हाँ, एक ही बात है कि मन में - दिल-दिमाग में - उसकी कल्पना कर ली जाए तो गड़बड़ हो सकती है, होती है। इसीलिए उसने उसी चीज को अंत में रोक दिया है और साफ कह दिया है कि खबरदार, दिल-दिमाग की गंभीरता (serenity) बिगड़ने न पाए। फिर मजाल किसकी कि फँसा सके? ऐसी दशा में जहाँ आग का संबंध ही नहीं वहाँ उसकी लपट, गरमी या आँच आएगी कैसे?
और 39वें श्लोक वाले शब्द? यह तो कुछ और ही कहते हैं। वह तो कहते हैं कि 'ऐसा होने पर कर्मों में जो बंधकता या बाँधने और फँसाने की शक्ति है वही खत्म हो जाएगी।' मतलब यह है कि ये शब्द आत्मा के अकर्त्तृत्व आदि का खयाल न करके कर्म के स्वरूप का ही खयाल करते हैं - इनकी नजर उसी तरफ है। वह कर्मों में फल देने की ताकत और शक्ति को मान के ही ऐसा उपाय सुझाते है कि वह शक्ति बेकार हो जाए, मारी जाए। जिस तरह भुने जाने पर बीज में अंकुर पैदा करने की ताकत नहीं रहती, खत्म हो जाती है, ठीक उसी तरह कर्म को भी भून देने की बात ये वचन बताते हैं। आत्मा निर्गुण है, कर्त्तृत्वशून्य है, निर्लेप या कि सगुण, कर्त्तृत्वयुक्त और लिपटनेवाली-लिपटानेवाली, इस खोद विनोद में वे नहीं पड़ते। इस गहरे पानी में वे उतरना नहीं चाहते - उतरते नहीं। आत्मा चाहे कुछ भी क्यों न हो, वह करने वाली ही क्यों न हो, फिर भी ऐसी युक्ति की जा सकती है कि कर्म ही भून दिए जाएँ और सब पँवारा ही खत्म हो जाए। अतएव यही कहना ठीक है कि इन वचनों की दृष्टि पहले वालों से ठीक उलटी दिशा में है - दूसरे किनारे है। यदि इसी श्लोक के बाद का 40वाँ श्लोक देखें तो वहाँ की 'प्रत्यवायो न विद्यते' - पाप होता ही नहीं रहता ही नहीं' - ऐसा ही लिखा है। इससे भी यही बात निकलती है कि योगवाली हिकमत या योग की जानकारी से पाप पैदा होने पाता ही नहीं - उसका अस्तित्व ही नहीं रह जाता - उसकी सत्ता होने ही नहीं पाती। फिर वह जाएगा किसके निकट? जो चीज हई नहीं, उससे किसी को खतरा ही क्या। इस प्रकार सांख्य और योग की विशेषता सिद्ध हो जाती है।
दूसरी बात भी है। 38वें श्लोक में युद्धरूप क्रिया या काम के बारे में समत्वबुद्धि की बात नहीं कही गई है। किंतु उसके फलों के ही बारे में। जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दु:ख तो युद्ध के परिणामस्वरूप ही क्रमश: एक के बाद दीगरे होते हैं और उन्हीं के असर से दिल-दिमाग को बचा रखने को कहा है। मगर 48वें श्लोक में जो सिद्धि-असिद्धि में समता या एकरसता की बात कही गई है, वह कर्मों के ही बारे में है और प्रकृत में युद्ध को ही लेकर है। लड़ाई अंत तक हो या बीच में ही रह जाए, खत्म हो जाए इस बात की परवाह कतई न हो यही योग है। इस बात का दिल पर जरा भी असर न हो, यही चीज वहाँ कही गई है। इस प्रकार जहाँ पहली खूबी में कर्म को भूनने की बात है, तहाँ इसमें उसका कोई भी प्रभाव दिल पर न आने देने की बात है। इसी के फलस्वरूप कर्म भुने जाएँगे। यह बुनियादी चीज को ही पकड़ता है। कर्मों का ही असर न होने दिया जाए तो योग हो गया और उनके नतीजों को ही पास में फटकने न दिया गया तो सांख्य हो गया।
तीसरी बात भी है जिससे योग का निरूपण अलग किया गया है। यह ठीक है कि कर्म की सिद्धि-असिद्धि की लापरवाही को ही योग कहते हैं। मगर सवाल तो यह है कि वह हो क्योंकर? जरा देखिए तो सही यह कितनी कठिन चीज है। फल की इच्छा को स्थान न देना, फल की ओर से लापरवाह होना, कर्म में आसक्ति का न होना और कर्मत्याग में आग्रह न रहना - ये चार चीजें बताई गई हैं। इनके बताने और इन पर अमल करने का सीधा मतलब यही है कि हमारी दृष्टि कर्म के ऊपर इस हद तक बँधा गई हो, हमारे मन की एकाग्रता (concentration) कर्म के ऊपर इस तरह पूर्ण और इतनी पक्की हो गई हो कि वह फलेच्छा और फल की तो बात ही जाने दीजिए, वह तो जुदी चीजें हैं, कर्म के त्याग और उसके करने की ओर भी न जा सके! क्या कमाल है! कैसी लासानी एकाग्रता की बात है! किस अलौकिक मनोयोग का निरूपण है! मन कर्म में इतना बँधा है और उस बंधन की सीमा इतनी संकुचित एवं निर्धारित है कि कर्म के आगे जो उसका करना या न करना है उसे भी वह देख नहीं सकता, वहाँ भी वह जा नहीं सकता, वहाँ जाने की भी उसे इजाजत नहीं है! वहाँ भी उसके लिए 'नो एडमिशन' (No admission) ही है। जो बात दिमाग में आने वाली नहीं जँचती वही लिखी गई प्रतीत होती है! क्या खूब!
यह तो ऐसा ही है जैसा कि छुरे की धार पर होकर गुजरना और फिर भी पाँव को कटने से बाल-बाल बचा लेना! यह तो सबके लिए संभव नहीं। यह तो कोई बिरला ही माई का लाल कर सकता है! इस अनोखी दैवी कला का पारंगत तो शायद ही कोई होता है, हो सकता है। ऐसा वही हो सकता है जो प्राणायाम की क्रिया से समूचे शरीर को तौल के ऐसा ऊपर - इतना ऊपर उठा ले कि पाँवों का केवल संबंध ही उस धार पर हो और शरीर का जरा भी भार उस पर न होने पाए। शरीर न तो इतना ऊँचा उठ जाए कि छुरे से संबंध ही टूट जाए, क्योंकि तब तो उसकी धार पर का चलना कहा जाएगा नहीं! और न ऐसा ही उठे कि धार पर जरा भी - नामममात्र को भी - उसका बोझ पड़े, क्योंकि तब तो पाँव ही कट जाएगा! फिर भी पाँव के द्वारा शरीर का संबंध भी धार से बना रहे! उफ, गजब की करामात है! ठीक यही करामात कर्म के बारे में भी करने की बात 48वें श्लोक में कही गई है!
प्रश्न होता है कि यह हो कैसे? यहीं पर मदद करने और इस महान संकट से उबारने के लिए सांख्य या अध्याोत्मज्ञान आ जाता है। ठीक, छुरे पर जुटे शरीर की ही तरह यहाँ मन को बहुत ऊँचा उठना होगा, ऊँचा उठाना होगा। वह इतना ऊपर चला जाए कि कर्म के अलावा बाकी सभी चीजें अनंत दूरी पर - बहुत नीचे दूर - पड़ जाएँ। उन सबों से मन बेलाग हो जाए। मगर उसी के साथ कर्म से संबंध भी जुटा रहे - वह टूटने न पाए। जब तक वह अध्याउत्मदर्शन और तत्त्वज्ञान की पूर्णता के फलस्वरूप बड़ी ऊँचाई (high plane) पर चला नहीं जाता, खामख्वाह गड़बड़ी होगी और खतरा बराबर बना रहेगा कि कभी इधर और कभी उधर जाए। मन की इसी दशा को - इसी ऊँचाई को - चौथे अध्याहय के 'गतसंगस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतस:' (23) श्लोक में 'ज्ञानावस्थितचेता:' या ज्ञानावस्थित चित्त कहा है। वह ज्ञान में डूब जाता है। तीसरे अध्यााय के 'यस्त्वात्मरतिरेव' श्लोक में इसे ही 'आत्मरति:' और 'आत्मतृप्त:' कहा है। जो अमृत में डूबा है उसे शर्बत की परवाह क्यों हो? यही बात यहाँ है। जो आत्मानंद में मस्त है, उसी में तृप्त है, उसी में डूबा है वह इधर-उधर क्योंप जाए? फिर भी एक ओर - सिर्फ कर्म की ओर - जाना भी है ! यही तो निरालापन है! गीता में इस हालत का वर्णन बार-बार आया है। यही ज्ञान की असली अवस्था है और इसी की मदद से मन कर्म के आगे-पीछे बाल भर भी नहीं बहकेगा। नहीं तो वहीं कट जाएगा! यही योग है जिसमें आत्मज्ञान मददगार है।
योग में आत्मज्ञान निहायत जरूरी है और उसी के फलस्वरूप जो सिर्फ कर्म तक ही मन पहुँचने दिया जाता है इसी युक्ति, इसी हिकमत और इसी कला की आगे भी प्रशंसा की गई है। दरअसल योग में तीन चीजें हैं। एक तो कर्म है। दूसरी उसी तक मन या बुद्धि की पहुँच और तीसरी चीज है इसी के लिए जरूरी तथा आधारभूत आत्मदर्शन या आत्मा का साक्षात्कार। इनमें कर्म के सिवाय शेष दो को ही एक साथ मिला के योग के संबंध की बुद्धि, जानकारी या कला कहा गया है 'बुद्धिर्योगेत्विमां शृणु' (2 ।39) में। इन दोनों में भी असली चीज वही आत्मज्ञान है। क्योंकि उसी के बल पर ऊँचे उठ के मन कर्म से आगे जा नहीं सकता है। इसीलिए 'दूरेण ह्यवरं कर्म' (2 ।49) और 'बुद्धियुक्तो जहातीहं' (2 । 50) श्लोकों में कह दिया है कि 'इस बुद्धि या ज्ञान के योग यानी संबंध को हटा देने पर बचा-बचाया कर्म तो रद्दी चीज है, बहुत बुरा है। इसलिए कर्म से पैदा होने वाले अनर्थों से बचने के लिए इसी बुद्धि की शरण जाओ। इसके बिना तो फल की आकांक्षा आदि के चलते दुर्दशा होती है।' 'विपरीत इसके यदि वह इस बुद्धि से युक्त - इससे संबंध - हो जाए, तो पुण्य-पाप दोनों से ही उसका पिंड छूट जाता है। अतएव योग की ही प्राप्ति के लिए कोशिश करो वही तो कर्म की कला, हिकमत या विशेषज्ञता है।'
यहाँ 50वें श्लोक में जो पुण्य-पाप से पिंड छूटने की बात कही गई है वह ठीक वैसी ही प्रतीत होती है जैसी आत्मज्ञान के फलस्वरूप 38वें श्लोक में बताई गई है। इससे यह खयाल हो सकता है कि ज्ञान और योग में कोई फर्क नहीं है। मगर इसी के बाद के 51वें श्लोक में जो 'हि' शब्द दिया गया है और जिसका अर्थ है 'क्योंकि' उससे पता लगता है कि वह श्लोक पहले के मतलब को स्पष्ट करता है। पहले में जो कुछ इस तरह के शक की गुंजाइश है उसे खुद समझ के ही वह इस पर और भी प्रकाश डालता है। अब जरा 'कर्मजं बुद्धियुक्ता हि' आदि उस श्लोक का अर्थ देखिए। वह यों है, 'क्योंकि बुद्धियुक्त (बुद्धिवाले) मनीषी लोग कर्मों से पैदा होने वाले फलों को छोड़ के जन्ममरण रूप बंधन से छुटकारा पा जाते और निरुपद्रव स्थान में पहुँच जाते हैं।' पहले श्लोकों में जो पुण्य-पाप के त्यागने या उनसे पिंड छूटने की बात कही गई है ठीक उसी का उल्लेख इस श्लोक में 'कर्मों से पैदा होने वाले फलों को छोड़ के' इन शब्दों में किया है और कहा है कि जन्ममरण रूप बंधन से वे छूट जाते हैं। पहले श्लोक के 'बुद्धियुक्ता:' की ही जगह यहाँ 'मनीषिण' कहा है।
अब यदि इन सभी बातों को मिला के गौर करें तो पता चलेगा कि भूमिका वाले 39, 40 श्लोकों में जो कुछ कहा गया है कि योग के करते कर्मों की बंधनशक्ति खत्म हो जाती है और पुण्य-पाप होने पाते ही नहीं, वही बात यहाँ समर्थन के रूप में दुहराई गई है। इसीलिए श्लोक में 'बंधा' शब्द भी आया है। असलियत यह है कि कर्मों में ही जो मन बुद्धि जम गई है उसका परिणाम यह होता है कि बंधन से छुटकारा मिलता है। कर्म से हट के एकाएक बंधन पर जा पहुँचे और उसे खत्म किया! कर्म और बंधन के बीच में कई सीढ़ियाँ पड़ती हैं। योगवाले उन्हें फाँद जाते हैं! कर्म का तो सबसे पहले तत्काल फल होता ही है जय-पराजय आदि के रूप में। फिर उसके बाद दूसरा फल आता है जिसे पुण्य-पाप कहते हैं। तब कहीं जाके बंधन आता है उन्हीं पुण्य-पापों के फलस्वरूप। योग के चलते कर्म और बंधन के बीच के इन दो फलों - दो सीढ़ियों से साबका पड़ता ही नहीं। उनसे कोई भी नाता नहीं होता - वह होते ही नहीं। फिर बंधन यानी जन्ममरण कैसा? सांख्य या ज्ञान में भी बंधन तो होता नहीं। मगर बीच के दो फल होते हैं जरूर; हालाँकि आत्मा से उनका कोई भी नाता न होने के कारण वे उसमें सटते नहीं। क्योंकि कर्म ही जब उसमें सटता नहीं, है नहीं, तो उसके फल कैसे आएँगे? विपरीत इसके योग में कर्म आत्मा में आए और सटे तो क्या और न सटे तो क्या? वहाँ इससे कोई मतलब हई नहीं। मगर बीचवाले फल नहीं सटते यह पक्का है। पहले पक्ष में पक्कापक्की कर्म ही नहीं सटता है और इसी से ये फल नहीं सटते। मगर इस पक्ष में पक्कापक्की यह नहीं सटते हैं। फिर कर्म सटके भी क्या करेगा? दोनों का यही मौलिक भेद - बुनियादी फर्क - यहाँ साफ हो जाता है।