अब हम ऊपर के किसी बयान में लिख आए हैं कि तिलिस्मी दारोगा की बदौलत जब नागर और मायारानी में लड़ाई हो गई तो उसी समय मौका पाकर कम्बख्त दारोगा वहां से निकल भागा और उसके थोड़ी ही देर बाद मायारानी भी नागर के धमकाने से डरकर वहां से चली गई।
यद्यपि दारोगा और मायारानी में लड़ाई हो गई थी मगर मेल होने में भी कुछ देर न लगी। कायदे की बात है कि चोर-बदमाश, बेईमान आदि जितने बुरे कर्म करने वाले हैं, प्रकृत्यानुसार कभी-कभी आपस में लड़ भी जाते हैं और लड़ाई यहां तक बढ़ जाती है कि एक के खून का दूसरा प्यासा हो जाता है बल्कि जान का नुकसान भी हो जाता है, मगर थोड़े ही अरसे के बाद फिर आपस में मेल-मिलाप हो जाता है। इसका असल सबब यही है कि बुरे मनुष्यों के हृदय में लज्जा, शान, मान और आन की जगह नहीं होती। उन्हें इस बात का ध्यान नहीं होता है कि फलां ने मुझे ताना मारा था या फलां ने मेरी किसी प्रकार बेइज्जती की थी, अतएव कदापि उसके सामने न जाना चाहिए या किसी तरह उसे अवश्य नीचा दिखाना चाहिए, क्योंकि बुरे मनुष्य तो नीच होते ही हैं, उन्हें अपने नीच कर्मों या अपने साथियों के ताने या लड़ाई से शर्म ही क्यों आने लगी और यही सबब है कि उनकी लड़ाई बहुत दिनों के लिए मजबूत नहीं होती। अगर ऐसा होता तो फूट और तकरार के कारण स्वयं बदमाशों का नाश हो जाता और भले आदमियों को बुरे मनुष्यों से दुःख पाने का दिन नसीब न होता। परमेश्वर की इस विचित्र माया ही ने मायारानी और दारोगा में फिर से मेल करा दिया और राजा वीरेन्द्रसिंह तथा उनके खानदान की बदनसीबी के वृक्ष में पुनः फल लगने लगे जिसका हाल आगे चलकर मायारानी और दारोगा की बातचीत से मालूम होगा।
जिस समय नागर की धमकी से डरकर कुछ सोचती-विचारती मायारानी सदर फाटक के बाहर निकली और गंगा के किनारे की तरफ चली तो थोड़ी ही दूर जाने के बाद तिलिस्मी दारोगा से, जो नाक कटाकर अपनी बदकिस्मती पर रोता-कलपता धीरे-धीरे गंगाजी की तरफ जा रहा था उसकी मुलाकात हुई। जब अपने पीछे किसी के आने की आहट पा दारोगा ने फिरकर देखा तो मायारानी पर निगाह पड़ी। यद्यपि उस समय वहां पर अंधेरा था परन्तु बहुत दिनों तक साथ रहने के कारण एक ने दूसरे को बखूबी पहचान लिया। मायारानी तुरन्त दारोगा के पैरों पर गिर पड़ी और आंसुओं से उसके नापाक पैरों को भिगोती हुई बोली –
“दारोगा साहब, निःसन्देह इस समय आपकी बड़ी बेइज्जती हुई और आप मुझसे रंज हो गये, परन्तु मैं कसम खाकर कहती हूं कि इसमें मेरा कसूर नहीं है। थोड़ी-सी बात जो मैं आपसे कहना चाहती हूं आप कृपा करके सुन लीजिए। इसके बाद यदि आपका दिल गवाही दे कि बेशक मायारानी का दोष है तो आप बेखटके अपने हाथ से मेरा सिर काटा डालिए, मुझे कोई उज्र न होगा, बल्कि मैं प्रतिज्ञापूर्वक कहती हूं कि मैं उस समय अपने हाथ से कलेजे में खंजर मारकर मर जाऊंगी जब मेरी बात सुनने के बाद आप अपने मुंह से कह देंगे कि बेशक कसूर तेरा है, क्योंकि आपको रंज करके मैं इस दुनिया में रहना नहीं चाहती। आप खूब जानते हैं कि इस दुनिया में मेरा सहायक सिवाय आपके दूसरा नहीं, अतएव जब आप ही मुझसे अलग हो जायेंगे तो दुश्मनों के हाथों सिसक-सिसककर मरने की अपेक्षा अपने हाथ से आप ही जान दे देना मैं उत्तम समझती हूं।”
दारोगा - यद्यपि अभी तक मेरा दिल यही गवाही देता है कि आज तू ही ने मेरी बेइज्जती की और तू ही ने मेरी नाक काटी, परन्तु जब तू मेरे पैरों पर गिरकर साबित किया चाहती है कि इसमें तेरा कोई कसूर नहीं है, तो मुझे भी उचित है कि तेरी बातें सुन लूं और इसके बाद जिसका कसूर हो उसे दण्ड दूं।
माया - (खड़ी होकर और हाथ जोड़कर) बस-बस-बस, मैं इतना ही चाहती हूं।
दारोगा - अच्छा, तो इस जगह खड़े होकर बातें करना उचित नहीं। किसी तरह शहर के बाहर निकल चलना चाहिए बल्कि उत्तम तो यह होगा कि गंगा के पार हो जाना चाहिए फिर एकान्त में जो कुछ कहोगी मैं सुनूंगा।
दोनों वहां से रवाना होकर बात-की-बात में गंगा के किनारे जा पहुंचे। वहां दारोगा ने खूब अच्छी तरह अपनी नाक धोकर मरहम की पट्टी बांधी जो उसके बटुए में मौजूद थी और इसके बाद मल्लाह को कुछ देकर मायारानी को साथ लिए दारोगा साहब गंगा पार हो गये। दारोगा ने वहां भी दम न लिया और लगभग आध कोस के सीधे जाकर एक गांव में पहुंचे जहां घोड़ों के सौदागर लोग रहा करते थे और उनके पास हर प्रकार के कमकीमत और बेशकीमत घोड़े मौजूद रहा करते थे। यहां पहुंचकर दारोगा ने मायारानी से कहा कि “तेरे पास कुछ रुपया-अशर्फी है या नहीं’ इसके जवाब में मायारानी ने कहा कि “रुपये तो नहीं हैं मगर अशर्फियां हैं और जवाहरात का एक डिब्बा भी जो तिलिस्मी बाग से भागते समय साथ लाई थी, मौजूद है।”
आसमान पर सुबह की सफेदी अच्छी तरह फैली न थी। गांव में बहुत कम आदमी जागे थे। मायारानी से पचास अशर्फी लेकर और उसे एक पेड़ के नीचे बैठाकर दारोगा साहब सराय में गये और थोड़ी ही देर में दो घोड़े मय साज के खरीद लाए। मायारानी और दारोगा दोनों घोड़ों पर सवार होकर दक्खिन की तरफ इस तेजी के साथ रवाना हुए कि जिससे जाना जाता था कि इन दोनों को अपने घोड़ों के मरने की कोई परवाह नहीं है, इसके बाद जब एक जंगल में पहुंचे तो दोनों ने अपने-अपने घोड़ों की चाल कम की और बातचीत करते हुए जाने लगे।
दारोगा - अब हम ऐसी जगह आ पहुंचे हैं जहां किसी तरह का डर नहीं है, अब तुम्हें जो कुछ कहना हो कहो।
मायारानी - इसके पहले कि आपके छूटने का हाल आपसे पूछूं, जिस दिन से आप मुझसे अलग हुए हैं उस दिन से लेकर आज तक का अपना किस्सा मैं आपसे कहना चाहती हूं जिसके सुनने से आपको पूरा-पूरा हाल मालूम हो जायगा और आप स्वयं कहेंगे कि मैं हर तरह से बेकसूर हूं।
दारोगा - ठीक है, जितने विस्तार के साथ तुम कहना चाहो, मैं सुनने के लिए तैयार हूं।
मायारानी ने ब्यौरेवार अपना हाल दारोगा से कहना शुरू किया जिसमें तेजसिंह का पागल बन के तिलिस्मी बाग में आना, चंडूल का पहुंचना, राजा गोपालसिंह का कैद से छूटना, लाडिली का मायारानी से अलग होना, धनपत की गिरफ्तारी, अपना भागना, तिलिस्म का हाल, सुरंग में राजा गोपालसिंह, कमलिनी, लाडिली, भूतनाथ और देवीसिंह का आना, नकली दारोगा का पहुंचना और उससे बातचीत करके धोखा खाना इत्यादि जो कुछ हुआ था सच-सच दारोगा से कह सुनाया, इसके बाद दारोगा की चिठ्ठी पढ़ना और फिर असली दारोगा के विषय में धोखा खाना भी कुछ बनावट के साथ बयान किया जिसे बड़े गौर से दारोगा साहब सुनते रहे और जब मायारानी अपनी बात खतम कर चुकी तो बोले -
दारोगा - अब मुझे मालूम हुआ कि जो कुछ किया हरामजादी नागर ने किया और तू बेकसूर है, या अगर तुझसे किसी तरह का कसूर हुआ भी तो धोखे में हुआ, मगर तेरी जुबानी सब हाल सुनकर मुझे इस बात का बहुत रंज हुआ कि तूने राजा गोपालसिंह के बारे में मुझे पूरा धोखा दिया।
मायारानी - बेशक यह मेरा कसूर है। मगर वह कसूर पुराना हो गया और धोखे में लक्ष्मीदेवी का भेद खुल जाने पर तो अब वह क्षमा के योग्य भी हो गया। अगर आप उस कसूर को भूलकर बचने का उद्योग न करेंगे तो बेशक मेरी और आपकी दोनों की जान दुर्गति के साथ जायगी, क्योंकि मैं फिर भी ढिठाई के साथ कहती हूं कि उस विषय में मेरा और आपका कसूर बराबर है।
दारोगा - बेशक ऐसा ही है, खैर, मैं तेरा कसूर माफ करता हूं क्योंकि तूने इस समय उसे साफ-साफ कह दिया और यह भी निश्चय हो गया कि आज केवल नागर हरामजादी ने...।
मायारानी - (अपने घोड़े को पास ले जाकर और दारोगा का पैर छूकर) केवल माफ ही नहीं बल्कि उद्योग करना चाहिए जिससे राजा गोपालसिंह, वीरेन्द्रसिंह, उनके दोनों लड़के और ऐयार गिरफ्तार हो जायं या दुनिया से उठा दिए जायं।
दारोगा - ऐसा ही होगा और शीघ्र ही इसके लिए मैं उत्तम उद्योग करूंगा। (कुछ सोचकर) मगर मैं देखता हूं कि इस काम के लिए रुपये की बहुत जरूरत है।
मायारानी - रुपये-पैसे की किसी तरह कमी नहीं हो सकती, मेरे पास लाखों रुपये के जवाहरात हैं बल्कि देवगढ़ी का खजाना ऐसा गुप्त है कि सिवाय मेरे कोई दूसरा पा ही नहीं सकता क्योंकि गोपालसिंह को उसकी कुछ भी खबर नहीं है।
दारोगा - (ताज्जुब से) देवगढ़ी का खजाना कैसा मैं भी उस विषय में कुछ नहीं जानता।
मायारानी - वाह, आप क्यों नहीं जानते! वह मकान आप ही ने तो धनपत को दिया था।
दारोगा - ओह देवगढ़ी क्यों कहती हो, शिवगढ़ी कहो!
मायारानी - हां, हां, शिवगढ़ी, शिवगढ़ी, मैं भूल गई थी, नाम में गलती हुई। उसमें बड़ी दौलत है। जो कुछ मैंने धनपत को दिया सब उसी में मौजूद है, धनपत बेचारा कैद ही हो गया, फिर निकालता कौन?
दारोगा - बेशक वहां दौलत होगी। इसके सिवाय मुझे भी तुम दौलत से खाली न समझना, अस्तु कोई चिन्ता नहीं, देखा जायगा।
मायारानी - मगर अभी तक यह न मालूम हुआ कि आप कहां जा रहे हैं घोड़े बहुत थक गये हैं, अब यह ज्यादा नहीं चल सकते।
दारोगा - हमें भी अब बहुत दूर नहीं जाना है, (उंगली के इशारे से बताकर) वह देखो जो पहाड़ी है उसी पर मेरा गुरुभाई इन्द्रदेव रहता है, इस समय हम लोग उसी के मेहमान होंगे।
मायारानी - ओहो, अब याद आया, इन्हीं का जिक्र आप अक्सर किया करते थे और कहते थे कि बड़े चालाक और प्रतापी हैं। आपने एक दफे यह भी कहा था कि इन्द्रदेव भी किसी तिलिस्म के दारोगा हैं।
दारोगा - बेशक ऐसा ही है और मैं उसका बहुत भरोसा रखता हूं। उसकी बदौलत मैं अपने को राजा से भी बढ़ के अमीर समझता हूं और वीरेन्द्रसिंह की कैद से छूटकर आजादी के साथ घूमने का दिन भी मुझे उसी के उद्योग से मिला है जिसका हाल मैं तुमसे फिर कहूंगा। वह बड़ा ही धूर्त एवं बुद्धिमान और साथ ही इसके ऐयाश भी है।
मायारानी - उम्र में आपसे बड़े हैं या छोटे?
दारोगा - ओह, मुझसे बहुत छोटा है बल्कि यों कहना चाहिए कि अभी नौजवान है, बदन में ताकत भी खूब है, रहने का स्थान भी बहुत ही उत्तम और रमणीक है, मेरी तरह फकीरी भेष में नहीं रहता बल्कि अमीराना ठाठ के साथ रहता है।
दारोगा की बात सुनकर मायारानी के दिल में एक प्रकार की उम्मीद और खुशी पैदा हुई, आंखों में विचित्र चमक और गालों पर सुर्खी दिखाई देने लगी जो क्षणभर के लिए थी, इसके बाद फिर मायारानी ने कहा –
मायारानी - यह आपकी कृपा है कि ऐसी बुरी अवस्था तक पहुंचने पर भी मैं किसी तरह निराश नहीं हो सकती।
दारोगा - जब तक मैं जीता और तुझसे खुश हूं तब तक तो तू किसी तरह निराश कभी भी नहीं हो सकती मगर अफसोस अभी तीन-चार दिन ही हुए हैं कि इसके पास से तेरी खोज में गया था, आज मेरी नाक कटी देखेगा तो क्या कहेगा?
मायारानी - बेशक उन्हें बड़ा क्रोध आवेगा जब आपकी जबानी यह सुनेंगे कि नागर ने आपकी यह दशा की।
दारोगा - क्रोध! अरे तू देखेगी कि नागर को पकड़वा मंगायेगा और बड़ी दुर्दशा से उसकी जान लेगा। उसके आगे यह कोई बड़ी बात नहीं है! लो, अब हम लोग ठिकाने आ पहुंचे, अब घोड़े से उतरना चाहिए।
इस जगह पर एक छोटी-सी पहाड़ी थी जिसके पीछे की तरफ और दाहिने-बाएं कुछ चक्कर खाता हुआ पहाड़ियों का सिलसिला दूर तक दिखाई दे रहा था। जब ये दोनों आदमी उस पहाड़ी के नीचे पहुंचे तो घोड़े से उतर पड़े क्योंकि पहाड़ी के ऊपर घोड़ा ले जाने का मौका न था और इन दोनों को पहाड़ी के ऊपर जाना था। दोनों घोड़े लम्बी-लम्बी बागडोरों के सहारे एक पेड़ के साथ बांध दिए गए और इसके बाद मायारानी को साथ लिए हुए दारोगा ने उस पहाड़ी के ऊपर चढ़ना शुरू किया। उस पहाड़ी पर चढ़ने के लिए केवल एक पगडण्डी का रास्ता था और वह भी बहुत पथरीला और ऐसा ऊबड़-खाबड़ था कि जाने वाले को बहुत सम्हलकर चढ़ना पड़ता था। यद्यपि पहाड़ी बहुत ऊंची न थी, मगर रास्ते की कठिनाई के कारण इन दोनों को ऊपर पहुंचने में पूरा एक घण्टा लग गया।
जब दोनों पहाड़ी के ऊपर पहुंचे तो मायारानी ने एक पेड़ के नीचे खड़े होकर देखा कि सामने की तरफ जहां तक निगाह काम करती है, पहाड़-ही-पहाड़ दिखाई दे रहे हैं, जिनकी अवस्था आषाढ़ के उठते हुए बादलों-सी जान पड़ती है। टीले पर टीला, पहाड़ पर पहाड़, क्रमशः बराबर ऊंचा ही होता गया है। यह वही विंध्य की पहाड़ी है जिसका फैलाव सैकड़ों कोस तक चला गया है। इस जगह से जहां इस समय मायारानी खड़ी होकर पहाड़ी के दिलचस्प सिलसिले को बड़े गौर से देख रही है राजा वीरेन्द्रसिंह की राजधानी नौगढ़ बहुत दूर नहीं है परन्तु यह जगह नौगढ़ की हद से बिल्कुल बाहर है।
धूप बहुत तेज थी और भूख-प्यास ने भी सता रक्खा था, इसलिए दारोगा ने मायारानी से कहा, “मैं समझता हूं कि इस पहाड़ पर चढ़ने की थकावट अब मिट गई होगी, यहां देर तक खड़े रहने से काम न चलेगा क्योंकि अभी हम लोगों को कुछ दूर और चलना है और भूख-प्यास से जी बेचैन हो रहा है।”
मायारानी - क्या अभी हम लोगों को और आगे जाना पड़ेगा आपने तो इसी पहाड़ी पर इन्द्रदेव का घर बताया था?
दारोगा - ठीक है मगर उसका मतलब यह न था कि पहाड़ पर चढ़ने के साथ ही कोई मकान मिल जायगा।
मायारानी - खैर, चलिए। अब कितनी देर में ठिकाने पर पहुंचने की आशा कर सकती हूं?
दारोगा - अगर तेजी के साथ चलें तो घण्टे-भर में।
मायारानी - ओफ!
आगे - आगे दारोगा और पीछे-पीछे मायारानी दोनों आगे की तरफ बढ़े। ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते जाते थे, जमीन ऊंची मिलती जाती थी और चढ़ाव चढ़ने के कारण मायारानी का दम फूल रहा था। वह थोड़ी-थोड़ी दूर पर खड़ी होकर दम लेती थी और फिर दारोगा के पीछे-पीछे चल पड़ती थी, यहां तक कि दोनों एक गुफा के मुंह पर जा पहुंचे जिसके अन्दर खड़े होकर बराबर दो आदमी बखूबी जा सकते थे। बाबाजी ने मायारानी से कहा कि “क्या हर्ज है, मैं चलने को तैयार हूं मगर जरा दम ले लूं।”
गुफा के दोनों तरफ चौड़े-चौड़े दो पत्थर थे जिनमें से एक पर दारोगा और दूसरे पर मायारानी बैठ गई। इन दोनों को बैठे अभी ज्यादा देर नहीं हुई थी कि गुफा के अन्दर से एक आदमी निकला जिसने पहली निगाह में मायारानी को और दूसरी निगाह में दारोगा को देखा। मायारानी को देखकर उसे ताज्जुब हुआ मगर जब दारोगा को देखा तो झपटकर उसके पैरों पर गिर पड़ा और बोला, “आश्चर्य है कि आज मायारानी को लेकर आप यहां आये हैं!”
दारोगा - हां, एक भारी आवश्यकता पड़ जाने के कारण ऐसा करना पड़ा। कहो, तुम अच्छे तो हो बहुत दिन पर दिखाई दिए।
आदमी - जी, आपकी कृपा से बहुत अच्छा हूं, हाल ही में जब आप यहां आये थे तो मैं एक जरूरी काम के लिए भेजा गया था इसी से आपके दर्शन न कर सका, कल जब मैं लौटकर आया तो मालूम हुआ कि बाबाजी आये थे, पर एक ही दिन रहकर चले गये (आश्चर्य के ढंस से) मगर यह नाक पर पट्टी कैसे बंधी है?
दारोगा - कल लड़ाई में एक आदमी ने बेकसूर मुझे जख्मी किया, इसी से पट्टी बांधने की आवश्यकता हुई!
आदमी - (क्रोध में आकर) किसकी मौत आई है जिसने हम लोगों के होते आपके साथ ऐसा किया! जरा नाम तो बताइये!
दारोगा - अब आया हूं तो अवश्य सब-कुछ कहूंगा, पहले यह बताओ कि इस समय तुम जाते कहां हो?
आदमी - एक काम के लिए महाराज ने भेजा है, संध्या होने के पहले ही लौट आऊंगा, यदि आज्ञा हो तो महाराज के पास जाकर आपके आने का संवाद दूं!
दारोगा - नहीं-नहीं, इस आवश्यकता नहीं है, मैं चला जाऊंगा, तुम जाओ, जब लौटो तो रात को बातचीत होगी।
आदमी - जो आज्ञा।
दारोगा का पैर छूकर वह आदमी वहां से तेजी के साथ चला गया और इसके बाद मायारानी ने दारोगा से कहा, “अफसोस, यहां तक नौबत आ पहुंची, कि अब हर एक आदमी बारह पर्दे के अन्दर रहने वाली मायारानी को खुल्लमखुल्ला देख सकता है जैसा कि अभी इस गैर आदमी ने देखा।”
दारोगा - तुझे इस बात का अफसोस न करना चाहिए। समय ने जब तुझे अपने घर से बाहर कर दिया, रिआया से बदतर बना दिया, हुकूमत छीनकर बेकार कर दिया बल्कि यों कहना चाहिए कि वास्तव में छिपकर जान बचाने लायक कर दिया, तो पर्दे और इज्जत का खयाल कैसा! किस जात-बिरादरी के वास्ते क्या तुझे आशा है कि राजा गोपालसिंह अब तुझे अपनी बनाकर रखेगा कभी नहीं। फिर लज्जा का ढकोसला क्यों हां समय ने अगर तेरा नसीब चमकाया और तू हम लोगों की मदद से गोपालसिंह, वीरेन्द्रसिंह तथा उसके लड़कों पर फतह पाकर पुनः तिलिस्म की रानी हो गई तो तुझे उस समय आज की निर्लज्जता की परवाह न रहेगी क्योंकि रुपये वालों का ऐब जमाना नहीं देखता, रुपये वाले की खातिर में कमी नहीं होती, रुपये वाले को कोई दोष नहीं लगता, और रुपये वालों की पहली अवस्था पर कोई ध्यान नहीं देता। फिर इसके लिए सोचने-विचारने से क्या फायदा तू आज से अपने को मर्द समझ ले और मर्दों की ही तरह जो कुछ मैं सलाह दूं वह कर।
मायारानी - बात तो आपने ठीक कही, वास्तव में ऐसा ही है! अब आज से मैं ऐसी तुच्छ बातों पर ध्यान न दूंगी। अच्छा, जहां चलना हो चलिए, मैं बखूबी आराम कर चुकी, हां यह तो बताइये कि वह आदमी कौन था और उसने मुझे पहचाना कैसे?
दारोगा - वह इन्द्रदेव का ऐयार है, मुझसे मिलने के लिए बराबर आया करता था, यही सबब है कि तुझे पहचानता है, और फिर ऐयारों से यह बात कुछ दूर नहीं है कि तुझ-सी मशहूर को पहचान लिया।
इसके बाद दारोगा उठ खड़ा हुआ और मायारानी को अपने पीछे-पीछे आने के लिए कहकर गुफा के अन्दर रवाना हुआ।