(गृहप्रवेश)
गृह में प्रथम प्रवेश - जब गृह निर्मित हो जाय तब गृह में प्रवेश करना चाहिये । विना पूर्ण रूप से निर्मित गृह में प्रवेश करने की शीघ्रता नही करनी चाहिये । गृहनिर्माण के पूर्ण होने के पश्चात गृह-प्रवेश करने मे विलम्ब होने पर उस गृह में देव एवं भुत आदि गणों का वास हो जाता है ॥१॥
जब गृह-निर्माण का कार्य समापन की ओर पहुँचे तब शुभ नक्षत्र, तिथि, वार, शुभ होरा, शुभ मुहूर्त, अंश, करण एवं शुभ लग्न में गृहप्रवेश करना चाहिये ॥२॥
अधिवास
प्रवेश से पूर्व के कृत्य - गृहप्रवेश के एक दिन पूर्व गृह में ब्राह्मण, पशु एवं वृषभ को बसाना चाहिये एवं जल आदि से उन्हे तृप्त कराना चाहिये । स्वाध्याय (वेद-पाठ) तथा होम आदि तथा स्वस्तिवाचन से ब्राह्मण को प्रसन्न करना चाहिये । गृह की सफाई करनी चाहिये । भित्ति पर हरिद्रा (हल्दी), सरसों, कुष्ठ (कूट), वचा के मिश्रण का लेप करना चाहिये तथा भूमि पर चन्दन के जल का छिड़काव करना चाहिये ॥३॥
भवन के उत्तर-पूर्व भाग में निशाकाल में (पूर्वसन्ध्या में) बुद्धिमान मनुष्य को अधिवास-कर्म करना चाहिये । गृह को वितान, पताका तथा रंग-बिरंगे वस्त्रादिकों से मण्डप को सजाना चाहिये ॥४॥
स्थपति को श्वेत वस्त्र, सोने का यज्ञोपवीत, श्वेत पुष्प, श्वेत लेप (चन्दन), सोने एवं रत्नों से युक्त विविध आभूषण को धारण कर प्रसन्न मन से उपस्थित रहना चाहिये ॥५॥
कलश स्थापन
कलश की स्थापना- बुद्धिमान व्यक्ति को पच्चीस जलपूर्ण कलश को नये वस्त्रों से लपेटना चाहिये एवं उनमें सुवर्ण तथा रत्न डालना चाहिये । इन्हे तण्डुल (चावल) से युक्त उपपीठ वास्तुपद पर स्थापित करना चाहिये ॥६॥
इन कलशों के उत्तर दिशा मे बलि के अन्न (देवों को समर्पित करने वाले अन्न) श्वेत, लाल, पीला एवं कृष्ण वर्ण (का चावल), मूँग, पाअस (दूध में पका भात), पका यव, पिङ्गान्न (केसर का चावल), कृसर (खिचड़ी), गुड़ मे पका भात एवं शुद्धान्न (केवल बात) रखना चाहिये ॥७॥
इसके पश्चात् स्थपति पलंग पर बैठता है, जिस पर सुद्नर बिस्तर बिछा होता है, चार दीपक होते है तथा उस पर वस्त्र (चादर) होता है । स्थपति सदैव 'शम्बर' (शुभ वाचक शब्द) बोलता रहता है ॥८॥
एक सुवर्णपात्र में सभी अन्न, बलि एवं चरु (हवन के लिये खीर), रत्न, सुवर्ण, दही, गुड, मधु, फूल, घी, अक्षत, धान का लावा, रजनि, तगरु, कुष्ठ (कूट), अच्छकल्क (हल्दी का मिश्रण) आदि रक्खा जाता है ॥९॥
इसके पश्चात् स्थपति सभी देवों को (वास्तुमण्डल) उनके कोष्ठों में रखता है और निर्मल कलशोम को एक हाथ की पंक्ति में रखता है । तक्षक (स्थपति) इन कलशों को श्वेत पुष्प, यूप (काष्ठ की खूँटी, जिसकी प्रयोग यज्ञभूमि में होता है), दीप तथा गन्ध अर्पित करता है । प्रत्येक देवता को आदरपूर्वक ओंकार से प्रारम्भ कर नमः पर्यन्त नाम लेते हुये बलि प्रदान करता है, ऐसा प्राचीन विद्वानों का मत है । ॥१०॥
बलिविधान
बलिप्रदान - सबसे पहले विधिपूर्वक अज (ब्रह्मा) को नमन करते हुये उन्हे बलि-प्रदान करे । इसके पश्चात् चतुर्मुख ब्रह्मा के चारो दिशाओं मे स्थित देवों को उनके अनुकूल बलि, पुष्प, गन्ध एवं धूप आदि से तृप्त करना चाहिये ॥११-१२॥
बन्धुओं के साथ इन्द्र के लिये पूर्व दिशा में, अग्नि के लिये अग्निकोण में, यम के लिये दक्षिण दिशा मे, निऋति एवं उसके पित्रु आदि बन्धु-वर्ग के लिये नैऋत्य कोण में, पश्चिम मे वरुण के लिये, वायव्य कोण में परिवार के साथ अनिल के लिये, सोम के पद पर उत्तर दिशा में मित्रो के साथ सोम के लिये बलि प्रदान करना चाहिये । पूर्वोत्तर दिशा में बन्धु-बान्धवों के सहित शिव के लिये बलि प्रदान करना चाहिये । इस प्रकार सभी दिशाओं एवं कोणों में बलि प्रदान करना चाहिये ॥१३-१४॥
चरकी के लिये ईश पद (के बाहर), विदारी के लिये ज्वलन (के स्थान के बाहर), पूतना के लिये पितृपद के बाहर, इसी प्रकार पापराक्षसी के लिये मारुत के पद के बाहरी भाग पर बलि-कर्म करना चाहिये ॥१५॥
स्तम्भ पर वन (वृक्ष) एवं घास के लिये, दिन में विचरण करने वालों के लिये दिशाओं में, रात्रि मे विचरण करने वालों (राक्षस आदि) के लिये दिक्कोणों मे बलि प्रदान करना चाहिये । सर्प एवं देवताओं के लिये (भूमि के नीचे स्थित देवों के लिये) पृथ्वी पर बलि डालनी चाहिये । धर्म एवं सभी देवों के लिये आकाश की ओर बलि फेंकनी चाहिये । द्वार के वाम भाग में मनु एवं अन्य को तथा शयन पर श्री को बलि प्रदान करना चाहिये ॥१६॥
शालाओं मे, मण्डप में, सभागारो में, मालिकाओं में, मध्य आँगन मे तथा विमान (मन्दिर ) में, मुख्य मण्डप में भवन के आभ्यन्तर देवों का चौसठ पद वास्तु-मण्डल में आवाहन कर गन्ध-पुष्प आदि से उनकी पूजा करनी चाहिये । उनको जल तथा सुन्दर बलि प्रदान करने के पश्चात् जल एवं धूप स्थपति द्वारा प्रदान किया जाना चाहिये । ॥१७-१८॥
उत्तम धूप में तुलसी, सर्ज्जरस (साल वृक्ष का रस), अर्जुन, मञ्जरी, घनवाचक, पटोल (ककड़ी की एक जाति), गुग्गुल, त्रपुष, हिंग, महौषधि (दूर्वा), सरसो तथा कुरवक (सदाबहार पुष्प) होते है ॥१९॥
(उपर्युक्त धूप) प्रभूत धन एवं अन्न प्रदान करता है । भूत, पिशाच एवं राक्षसो को दूर करता है और कीट, सर्प, मक्खी, चूहा, मकड़ी एवं चीटियों का दाह करता है (अर्थात् ये घर से दूर रहते है) ॥२०॥
इसके पश्चात् पात्रों के पश्चिम भाग में धान्य के बिछौने पर तक्षक (स्थपति) के सभी साधन (उपकरण, औजार) रखकर उनको बलि प्रदान करना चाहिये । उस संग्रह के मध्य स्थित होकर उनके लिये (इस प्रकार) कहना चाहिये ॥२१॥
आरोग्य, प्रसन्नता, धन एवं यश की वृद्धि से युक्त, महान कर्म से युक्त, निरन्तर उपद्रवकारी कर्मों से रहित पृथिवी धर्म के मार्ग पर चिर काल तक जीवित रहे । धारानिपात से, जल के प्रकोप से, (गज के) दाँतों द्वारा गिराये जाने से, वायु के प्रकोप से, अग्नि के दाह से और चोरों द्वारा चोरी से इस गृह की रक्षा कीजिये । यह गृह मेरे लिये कल्याणकारी हो ॥२२-२३॥
स्थपतिनिर्गमनम्
स्थपति का निकलना - इस प्रकार कहते हुये सम्पूर्ण साधनों (उपकरणों) को खड़े होकर स्थपति दोनों हाथों से (जोड़ते हुये) एवं शिर से प्रणाम करे । उन सभी उपकरणों को हाथों में अपने लोगों एवं सेवकों के साथ उचित रीति से रखकर सन्तुष्ट मन से बन्धु, पुत्र एवं सहायक आदि के साथ स्थपति अपने घर जाय । इसके पश्चात् सभी बलि के अन्नों को समेट कर गृहदेवताओं के लिये जल मे विधिवत् डाल देना चाहिये ॥२४-२५॥
इसके पश्चात् गृह की भली-भाँति सफाई करके कुष्ठ, अगरु एवं चन्दन-मिश्रित जल से तथा कलश के सुगन्धयुक्त मणि एव सुवर्णमिश्रित जल से सिज्चन करना चाहिये । तदनन्तर लावा एवं शालि (चावल) को भवन के भीतर छींटना चाहिये । इसके पश्चात् सम्पूर्ण गृह में आठो प्रकार के अन्न, धन और रत्नों को रखना चाहिये ।॥२६-२७॥
गृहपतिगृहिणीप्रवेशः
गृहस्वामी एवं गृहस्वामिनी का प्रवेश - गृहपति एवं गृहिणी माङ्गलिक प्रतीकों से युक्त, स्वजनों, सेवकों, पुत्रों (सन्तानो), बन्धु-बान्धवों से युक्त होकर अपने उस गृह में जगत्पति ईश्वर का चिन्तन करते हुये प्रवेश करते है, गृह के सभी वस्तुओं से युक्त होता है ॥२८॥
प्रसन्न मन से गृह में प्रवेश कर, गृह मे रखे गये सभी पदार्थों को देखकर गृहपति एवं गृहस्वामिनी को शय्या पर बैठना चाहिये । इसके पश्चात् गृहिणी व्यञ्जनसहित अन्न को लेकर गृह के निमित्त बलि प्रदान करती है । बलि देने से बचे हुये अन्न को गृहिणी अपने कुल के साथ चलने वाली मूल दासी को देती है एवं देवता, ब्राह्मण तथा तक्षक (स्थपति) आदि को धन, रत्न, पशु, अन्न एवं वस्त्रादि देकर तृप्त करती है । ॥२९-३०॥
गृह में सर्वप्रथम आत्मीय जन, गुरुजन (बड़े लोग), मित्रगण, सेवकगण एवं अन्य सम्बन्धियों को भोजन कराना चाहिये । गृहपति एवं गृहिणी अपने गुरुजनों को प्रणाम करे । इसी क्रम से पुत्र-पौत्रों को भी भोजन कराना चाहिये ॥३१॥
गृहस्वामी उस पवित्र गृह में प्रवेश करे, जो जलपूर्ण घटों से युक्त हो, केले के फलयुक्त डाली से युक्त हो, पूग (सुपाड़ी) वृक्ष (की डाली) से युक्त हो, दीप, पीपल के पत्ते, श्वेत पुष्प, अङ्कुरित बीजों से युक्त हो । मांगलिक कन्याओं, निर्मल युवतियों, प्रधान ब्राह्मणों से युक्त हो एवं जिस भवन का द्वार वन्दनवार से सुसज्जित हो ॥३२॥
गृहपति जिस प्रकार विवाह के समय गृहिणी का हाथ पकड़ता है, उसी प्रकार श्वेत वस्त्र, जल एवं जलते हुये दीपक से युक्त होकर, प्रसन्न मन से श्वेत पुष्प एवं वस्त्र धारण कर गृहिणी का हाथ पकड़कर गृह में प्रवेश करे ॥३३॥
विना बलि प्रदान किये, विना भोजन कराये, विना गृह आच्छादित किये, विना गर्भविन्यास किये, ब्राह्मण एवं स्थपति आदि जहाँ तृप्त न किये गये हो या जहाँ विस्तर न हो, ऐसे गृह में प्रवेश करने पर मात्र विपत्ति आती है । दुष्ट ह्रदय (दुःखी मन, अप्रसन्न चित्त) प्रवेश करने वाला गृहपति विपत्ति का भाजन बनता है ॥३४॥
अत्यन्त सन्तुष्ट मन से पुत्र, पत्नी, आत्मीय जनों एवं प्रिय लोगों के साथ गृहस्वामी अपने गृह में प्रवेश करे एवं प्रवेश करने के पश्चात् शुभ वचन उसके कानों में पड़े ॥३५॥
ग्राम, अग्रहार, पुर, पतन आदि में ब्रह्मा के पद पर, दिशाओं एवं दिक्कोणों में बलि प्रदान करना चाहिये । देवालय एवं सरस्वती भवन में चौसठ पद वास्तुमण्डल में सभी देवताओं को बलि प्रदान करना चाहिये ॥३६॥
 

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