द्वार का विधान -
मुनियों के वास्तु-परक वाक्य को सुखपूर्वक बुद्धि मे धारण कर (मै मय) ब्राह्मण, राजा (क्षत्रिय), व्यापारी (वैश्य) एवं शूद्रजनों के भवनों के मुख-द्वार की स्थिति, चौड़ाई एवं ऊँचाई तथा पृथक्-पृथक् उनके भेद एवं सज्जा के साथ नामों का उल्लेख करूँगा ॥१॥
द्वार के प्रमाण -
द्वार की चौड़ाई (कम से कम) तीन बित्ता एवं लम्बाई (ऊँचाई) सात बित्ता होनी चाहिये । (पूर्वोक्त) चौड़ाई एवं लम्बाई मे क्रमशः छः एवं बारह अंगुल बढ़ाते हुये पन्द्रह बित्ता चौड़ाई एवं इक्कीस बित्ता (ऊँचाई) ले जानी चाहिये । इस प्रकार द्वार के विस्तार एवं ऊँचाई के पच्चीस प्रकार के प्रमाण बनते है ॥२-३॥
इनमें प्रथम मान शयन-गृह के लिये उपयुक्त है । (आगे के) बारह प्रमाण गृह के होते है । विद्वानों के मतानुसार गृह के बाहर चारो ओर खलूरी के द्वारमान भी यही है । (तत्पश्चात) बारह प्रमाण नगर, ग्राम, दुर्ग एवं राजभवन के होते है । द्वार की ऊँचाई चौड़ाई की दुगुनी एवं छः अंगुल या नौ अंगुल अधिक होनी चाहिये । यह माप सभी के लिये कहा गया है ॥४-५॥
छोटे द्वारो की चौड़ाई के तीन मान प्राप्त होते है- दो बित्ता छः अंगुल, दो बित्ता तीन अंगुल तथा दो बित्ता । उनकी ऊँचाई चौड़ाई की दुगुनी होनी चाहिये । इस प्रमाण में छः अंगुल या दो अंगुल अधिक लेना चाहिये । इस द्वारो से ब्राह्मण आदि (अन्य वर्णों) का प्रवेश प्रशस्त होता है ॥६-७॥
द्वार की ऊँचाई स्तम्भ की ऊँचाई के आथ भाग में साढ़े छः भाग के बराबर एवं विस्तार स्तम्भ की ऊँचाई के नौ भाग में साढ़े आठ भाग के बराबर होनी चाहिये । छोटे एवं मध्यम द्वार प्रत्येक भूमि पर होते है । जिस द्वार की ऊँचाई चौड़ाई की दुगुनी होती है, वह मनुष्यो के आवास के लिये शुभ नही होता है ॥८-९॥
देवालयों में द्वार की उचाई स्तम्भ के आठ भाग में सात, नौ मे आठ तथा दस में नौ भाग के बराबर एवं चौड़ाई उचाई की आधी होनी चाहिये । प्रत्येक तल में उस तल के स्तम्भ के अनुसार द्वार का मा रखना चाहिये ॥१०॥
योगमान
द्वार का योगमान - द्वार के योग के विस्तार का मान स्तम्भ के बराबर, उससे एक चौथाई भाग या उससे आधा भाग अधिक होना चाहिये । उसकी मोटाई चौड़ाई की आधी होनी चाहिये । चौखट का जो भाग उत्तर (लिन्टल) के नीचे एवं वाजन (ऊपरी भाग) तक जाता है, उसकी चौड़ाई त्रिपाद (पौने तीन भाग) होनी चाहिये । ॥११-१२॥
कवाट
कपाट, द्वार का पल्ला - कवाट की चौड़ाई स्तम्भ की चौड़ाई के तीसरे, चौथे या पाँचवे भाग के बराबर होनी चाहिये । देवता, ब्राह्मण एवं राजाओं के द्वार में दो कपाट एवं शेष के लिये एक कपाट कहा गया है । सामन्त एवं प्रमुख आदि के लिये द्वार के दो कपात प्रशस्त होते है ॥१३-१४॥
द्वार के कपाटों की उचाई साढ़े चार, पाँच, सात, आठ या ग्यारह हाथ होनी चाहिये । यह उचाई भवन के भीतरी भाग की उचाई के अनुसार होनी चाहिये । इसमे आधा भाग गुल्फ (नीचे की चौखट) एवं आधा भाग विमल (ऊपर क चौखट) के लिये होता है । यह दृढ़ता के लिये थोडा मोटा रक्खा जाता है । कपाट के भीतरी भाग में सरप (द्वार के खुलने-बन्द होने पर नियन्त्रण रखने वाला अंग) लगाया जाता है, जिसकी उचाई कपाट के तीन भाग में दो भाग के या पाँच भाग में चार भाग के बराबर होती है । इसके विषय में पहले वर्णन किया जा चुका है ॥१५-१६॥
दो कपाट होने पर एक बड़ा एवं दूसरा छोटा होता है । दाहिनी ओर के कपाट की उचाई के पाँच भाग एवं चौड़ाई के तीन भाग करने चाहिये । (लम्बाई के) तीन भाग को ऊपर एवं नीचे के लिये एवं एक भाग दोनो पार्श्वो के लिये छोडकर मध्य मे बचे द्वारभाग को 'आवार' कहते है । इसे लोहे के पट्टो से इस प्रकार दृढ करना चाहिये, जिससे कि कपाट दृढ हो एवं सुन्दर लगे ॥१७-१९॥
भाजन (साँकेट) का भीतरी व्यास बडे द्वार, मध्य द्वार या छोटे द्वार के अनुसार तीन, चार या पाँच अंगुल का होना चाहिये अथवा (साँकेट के) बाहरी चौडाई का आधा, दो तिहाई, तीन चौथाई या तीसरे भाग के अनुसार होना चाहिये । अथवा इसका माप दस अंगुल या विकासन (घूमने वाली कील) की चौड़ाई के बराबर होनी चाहिये । वेत्र (कील के नोक) को (साँकेट मे) इस प्रकार रखना चाहिये, जिससे कि यह हाथी की सूँड के समान लगे ॥२०-२१॥
कपाट के लिये विषम संख्या के फलक का प्रयोग करना चाहिये एवं मध्य भाग मे जोड नही होना चाहिये । कपाट की भेषणी (सहारा देने वाला भाग) मध्य भाग को छोडकर होनी चाहिये । दो कपाट होने पर दृढ़ता को ध्यान मे रखते हुये भेषणी का प्रयोग (अनावश्यक होने पर) नही करना चाहिये ॥२२-२३॥
तल्प (कपाटफलक) पर तीन, पाँच, सात, नौ या ग्यारह दण्ड लगना चाहिये, जिनकी मोटाई तल्प की आधी एवं चौड़ाई मोटाई की दुगुनी होनी चाहिये । उनकी आकृति अश्व के कन्धे या नख के समान, पीपल के पत्ते के अग्र भाग के समान, स्वस्तिक के समान, घटिका (छोटा घट) या मिर्णका के समान होनी चाहिये । ॥२४-२५॥
कवाट को श्रीमुख, वामदण्ड, पिञ्जरी, गल, अर्गल (कड़ियाँ, श्रृंखलाये) क्षेपण, सन्धिपत्र, गुच्छे, वन, लतागुल्म (झुरमुट), भीतरसे पकडने वाले भाग (हैण्डल) वालाग्र (पूँछ), मध्य भाग में कुण्डल, विषाण (सींग), परिघा एवं क्षुद्र दण्ड (छोटा दण्ड, जिससे द्वार को खुलने से रोका जा सके) से युक्त करना चाहिय ॥२६-२७॥
कपाट को सभी प्रकार से सुन्दर इन्द्रकील से युक्त करना चाहिये या अन्य धातु से उचित रीति से दृढ करना चाहिये । गुल्फ (निचले भाग),सन्धिस्थान पर एवं ललाट (सामने के भाग) पर इन्द्रकील को शृंग एवं लोहे के पत्र द्वारा प्रयत्नपूर्वक इस प्रकार लगाचा चाहिये, जिससे कि वे दृढ रहे एवं सुन्दर लगे । दो कलियो के बीच में सूई के समान लम्बी पत्र त्रिनेत्रा लगानी चाहिये । चौखट का भीतर धँसा भाग पूरी ऊँचाई का तीसरा भाग होना चाहिये, जिससे कि वह दृढ रहे ॥२८-३०॥
पट्ट के सामने स्कन्धपट्टिका (दोनो कपाटों के मध्य के अवकाश को ढँकने वाली पट्टी) को प्रवेश करते समय दाहिने कपाटफलक पर इस प्रकार लगाना चाहिये, जिससे कि वह सुन्दर प्रतीत हो । इसकी मोटाई कपाटफलक के समान एवं चौडाई मोटाई की दुगुनी होती है । यह पद्मपत्र की आकृति से सुसज्जित होती है । दक्षिण योग पर अर्गल (सिकडी, सिटकिनी) एवं वामयोग पर कपाटफलक होना चाहिये । ॥३१-३२॥
शुभाशुभद्वार
प्रशस्त एवं अप्रशस्त द्वार - विद्वान को (द्वार खोलते समय) बाँये हाथ से कपाटफलक एवं दाहिने हाथ से घटिका (द्वार को खोलने बन्द करने का अवयव) का प्रयोग करना चाहिये । चाहे द्वारफलक एक हो या दो हो । द्वार को खोलने एवं बन्द करते समय उत्पन्न स्वर भेरी के स्वर के समान, गज के स्वर या सिंह के स्वर के समान, वीणा एवं वेणु के स्वर के समान हो तो वह नाद प्रशस्त होता है । कण्ठ से निकले गर्जन के समान, चिल्लाने के समान, गूँजने के समान एवं अन्य प्रकार के स्वर अप्रशस्त होते है ॥३३-३५॥
द्वार के नीचे का भाग एवं ऊपर का भाग समान रूप से खुलना चाहिये । भीतरी अर्गला का उसके छिद्र से (जहाँ फँसाया जाय) छोटा होना या अर्गला एवं योग का आपस में रगडना बन्धुओं के नाश का कारण, शत्रुओं से पीडा एवं सदा उपद्र का कारण होता है । जो द्वार अपने-आप खुले तथा अपने-आप बन्द हो, वह बन्धु-बान्धव के विनाश का, सम्पत्ति की हानि का एवं विपत्ति का कारण होता है ॥३६-३७॥
द्वार का वृक्ष, कोप, चारदिवारी, खम्भा एवं कूप से विद्ध होना (इनका द्वार के सामने होना), देवालय से विद्ध होना, मार्ग से विद्ध होना, बाँबी एवं भस्म से विद्ध होना, सिरा एवं मर्मस्थान से विद्ध होना विष-नाडी के समान (अप्रशस्त) होता है और वह सर्पो का स्थान (मृत्युकारक स्थान) होता है । द्वार गृह का रक्षक एवं दृढ होना चाहिये । ऐसा द्वार विद्वानो को प्रसन्न करता है ॥३८-४०॥
गज के ऊपर बैठकर आते-जाते समय द्वार के कपाट के आघात से यदि ब्राह्मण की मृत्यु हो जाती है तो द्वार राजा के विनाश का कारण बनता है । जब पैदल हो और ऐसी घटना हो तो वह राजा की अवनति का कारण बनता है । यदि राजा बडे द्वार से प्रवेश करता है तो वह निःसन्देह चिरकाल तक जीवित रहता है । वह दूसरे के राज्य पर भी अधिकार प्राप्त करता है एवं कभी भी क्षीण नही होता है ॥४१-४२॥
द्वारस्थान
द्वार की स्थिति - देवो, ब्राह्मणो एवं राजाओं का द्वार मध्य में तथा शेश मनुष्यों के आवास का द्वार मध्य भाग के पार्श्व मे होना चाहिये ॥४३॥
बत्तीस पद वास्तुमण्डल मे महेन्द्र, राक्षस, पुष्पदन्त एवं भल्लाट- इन चारो पदो पर द्वार होना चाहिये । ये द्वार अपनी दिशाओं के अधिपति देवों द्वारा संरक्षित होते है । बुद्धिमान व्यक्ति को इसी प्रकार भीतर के द्वार एवं बाहर के द्वारों का समायोजन करना चाहिये । शेष अन्य सभी द्वर दोषयुक्त होते है । ब्रह्मा के समान एवं ब्रह्मा की ओर (बाहर निकलने वाले व्यक्ति की पीठ) वाले द्वार निषिद्ध होते है । प्रलाप करने से क्या लाभ? अन्य स्थान पर द्वार निन्दित होते है ॥४४-४६॥
द्वार के विस्तार का माप सुनिश्चित होना चाहिये । माप से कम या अधिक रोग का कारण होता है । खोलने एवं बन्द करने पर जहाँ इसे रोका जाय, उसी स्थिति मे कपाट का स्थित रहना तथा ऊपर एवं निचे का व्यास एवं लम्बाई बराबर रहे तो वह द्वार प्रशस्त होता है । यदि (खोलने एवं बन्द करने पर द्वार का) स्वर धोबी के वस्त्र धोने जैसा हो तो वह गृहस्वामी के विपत्ति का कारण बनता है ॥४७-४९॥
जलद्वार (जलप्रणाली) को जयन्त, वितथ, सुग्रीव एवं मुख्य के पद पर क्रमशः निर्मित करना चाहिये । अन्य स्थान (जलद्वार के लिये) छोड देना चाहिये ॥५०॥
पर्जन्य, भृश, पूषा, भृंगराज, दौवारिक, शोष, नग एवं अदिति के पद उपद्वार का प्रयोग करना चाहिये । इसे सुरङ्ग कहते है । ये एक या दो तल से युक्त बहुत-सी रक्षाओं (सुरक्षा-बल) से युक्त होते है ॥५१-५२॥
(यहाँ कुछ छूट है; पाठ खण्डित है) । स्तम्भ एवं अधिष्ठान की ऊँ के मान को लेकर जो शेष बचे, उससे उपपीठ की ऊँचाई एवं द्वार की ऊँचाई लेनी चाहिये; जिसका वर्णन पहले किया गया है । सामने द्वार (कपाट) से लगे गुप्त या दिखाई पडने वाले सोपान का निर्माण करना चाहिये । द्वार के योग को द्वारगोपुर के बराबर गहराई मे (भूमि मे) स्थापित करना चाहिये । भवन की बाहरी भित्ति राजभवन एवं अन्य भवनों की सीमा निर्धारित करता है ॥५३-५४॥
गोपुरमान
गोपुर के मान - अब द्वारशोभा से लेकर द्वारगोपुर तक (सभी द्वारो) का विस्तार, लम्बाई एवं ऊँचाई के प्रमाण का वर्णन संक्षेप में क्रमशः किया जा रहा है । प्रथम आवरण द्वारशोभा के पाँच प्रकार के व्यास-मान प्राप्त होते है । ये पाँच, सात, नौ, ग्यारह एवं तेरह हाथ है । द्वारशाला का विस्तार मान पन्द्रह से तेईस हाथ पर्यन्त होता है । द्वार-गोपुर के पच्चीस हाथ से लेकर तैतीस हाथ पर्यन्त पाँच प्रकार के विस्तारमान कहे गये है ॥५५-५८॥
इनकी लम्बाई विस्तार के बराबर या उससे दो तिहाई, चौथाई, आधा या तीन चौथाई भाग अधिक होती है । इसकी उचाई इच्छानुसार या चौड़ाई के बराबर अथवा सात भाग में पाँच भाग या दस मे सात भाग अधिक रखनी चाहिये ॥५९-६०॥
एकतलगोपुर
एक तल का गोपुर - द्वारशोभा आदि पाँच गोपुरद्वारों के अलंकरणों का वर्णन किया जा रहा है । (एक तल गोपुर की) लम्बाई के दो, चार या छः भाग करने चाहिये । उसके आधे भाग से नालीगेह (मध्यभाग) बनाना चाहिये। शेष भाग से भित्ति की मोटाई रखनी चाहिये । द्वार मध्य में होना चाहिये । मण्डप के आकार में एवं तीन वर्ग से युक्त इस द्वार का नाम 'श्रीकर' होता है ॥६१-६२॥
उसके चारो ओर एक भाग से महावार (बड़ा मार्ग) निर्मित करना चाहिये । यह ढँका हुआ या खुला हुआ एवं लांगल (हल) के आकार की भित्ति से युक्त हो । वार के ऊपरी भाग तक प्रस्तलस्तुल (संरचनाविशेष) से युक्त सोपान होना चाहिये । यहाँ सकल दुस्तक (अर्थ स्पष्ट नही है ) कोष्ठ, कानन (संरचनाविशेष) एवं मुखपट्टिका निर्मित होनी चाहिये । मध्य स्तम्भ से युक्त मध्य भाग में नासिका होनी चाहिये । महावार पर अष्ट नासियाँ (सजावटी खिड़की) होनी चाहिये । ग्राम मे इसे 'सीता' कहते है । ॥६३-६४-६५॥
(अथवा मुख भाग पर) मुखपट्टिका के युक्त काननकोष्ठ (एक लम्बी निर्मिति) होना चाहिये । इसकी संज्ञा 'श्रीभद्र' है एवं यह सभी स्थान के लिये प्रशस्त है । इस प्रकार एक तल के तीन प्रकार के गोपुरों का वर्णन किया गया । अब दो तल के गोपुरों का वर्णन किया जा रहा है ॥६६-६७॥
द्वितलगोपुर
रतिकान्त
दो तल के गोपुर - (रतिकान्त) - (द्वितल गोपुर में) लम्बाई छः भाग एवं चौड़ाई दो भाग होनी चाहिये । मध्य भाग मे एक भाग चौड़ा एवं तीन भाग लम्बा नालीगृह (कक्ष) होना चाहिये । यह चारो ओर एक भाग मोटी भित्ति से घिरा होना चाहिये तथा उसके आधे भाग से तीन भाग से वार (मार्ग, बरामदा) होना चाहिये । उसके बाहर उसके आधे भाग से तीन भाग चौडा गोपानमञ्चक निर्मित होना चाहिये । अधिष्ठान उपपीठ से युक्त तथा स्तम्भ आदि से सुसज्जित होना चाहिये । महावार अष्टनासियों से युक्त और शिखर कोष्ठक के आकार का होना चाहिये । सामने एवं पीछे दो भाग चौडी महानासी होनी चाहिये । यह भद्र से युक्त, भद्र से रहित या स्तम्भसहित भद्र से युक्त होती है । महावार दक्षिण भाग से सोपान से युक्त होता है । इसका नाम 'रतिकान्त' है एवं यह सभी की प्रसन्नता में वृद्धि करता है ॥६८-७२॥
कान्तविजय
कान्तविजय - उसी शिखर में यदि चार नासियाँ हो तो उसकी संज्ञा 'कान्तविजय' होती है एवं यह सभी की शोभा बढ़ाने वाला होता है ॥७३॥
सुमङ्गल
सुमङ्गल - यदि शिखर हीन (छोटा, चिपटा) हो एवं हारा से युक्त हो तथा वार की बाहरी भित्ति पर चारो ओर नासियाँ निर्मित हो तो उसकी संज्ञा 'सुमङ्गल' होती है । इस प्रकार द्वितल गोपुर का वर्णन किया गया, अब त्रितल गोपुर का वर्णन किया जा रहा है ॥७४॥
त्रितलगोपुर
मर्दल
त्रितलगोपुर (मर्दल) - यह गोपुर चार भाग चौडा एवं छः भाग लम्बा होता है । द्वार के दोनो पार्श्वो मे एक-एक भाग के आवास होते है । उसके चारो ओर आधे भाग से भित्ति निर्मित होती है । उसके चारो ओर एक भाग से वार निर्मित होता ह, जिस पर दो नासियाँ निर्मित होती है । दोनो गृह सोपान से युक्त होते है एवं ऊपर भी हारा निर्मित होते है । उन दोनो के मध्य वास्तल (गटर) निर्मित होता है, जिसका माप द्वार की चौड़ाई के बराबर होता है । इस द्वारहर्म्य गोपुर की संज्ञा 'मर्दल' होती है एवं यह राजगृह में निर्मित होता है ॥७५-७८॥
मात्रखण्ड - यह गोपुर छः भाग चौड़ा एवं दस भाग लम्बा होता है । द्वार के दोनो पार्श्वो मे एक भाग से कक्ष निर्मित होते है । दोनो कक्ष आधे भाग मोटी भित्ति से घिरे होते है । उसके बाहर एक भाग से चारो ओर वार निर्मित होता है । उन दोनो के मध्य द्वार की चौड़ाई के बराबर जलस्थल (गटर) निर्मित होता है । उसके बाहर एक भाग से चारो ओर वार निर्मित होता है । उसके चारो ओर महावार (बडा मार्ग, बरामदा) निर्मित होता है, जिस पर नासिकाये निर्मित होती है । इसका शिखर हीन (लगभग चिपटा) होता है एवं ऊपर हार निर्मित होता है । बाहरी वार पर चौदह नासिकाये निर्मित होती है । द्वार, सोपान एवं मार्ग का निर्माण आवश्यकतानुसार करना चाहिये । इस गोपुर की संज्ञा 'मात्रखण्ड' है एवं यह राजाओं को विजय प्रदान करता है । ॥७९-८०-८१-८२-८३॥
श्रीनिकेतन
इस गोपुर द्वार की चौड़ाई आठ भाग एवं लम्बाई दस भाग होती है । नालीगृह (मध्य कक्ष) दो भाग से एवं चारो ओर एक भाग से भित्ति होती है । तत्पश्चात आधे भाग से अलिन्द्र (बरामदा) एवं एक भाग से चारो ओर अन्धार (मार्ग, गलियारा) होता है । इसके पश्चात एक भाग से चारो ओर अलिन्द्र एवं एक भाग से हार (बाहरी भित्ति) निर्मित होता है । कूट की चौड़ाई दो भाग से एवं शाला की लम्बाई छः भाग से होती है । कोष्ठक का विस्तार चार भाग से एवं (उसी प्रकार उसकी) लम्बाई होती है । द्वार का निर्माण एक भाग से चूलहर्म्य से युक्त करना चाहिये । कूट एवं शाला के मध्य मे जल का स्थान होना चाहिये । इस प्रकार आदितल (भूतल) का वर्णन किया गया । अब दूसरे तल के भागों का वर्णन किया जा रहा है ॥८४-८८॥
नाली-गृह, चारो ओर की भित्ति एवं अलिन्द्र पूर्ववर्णन के अनुसार होना चाहिये । आधे भाग से चारो ओर गोपानप्रस्तर से युक्त पिण्डी का निर्माण करना चाहिये । ऊपरी भाग में आठ नासियों से युक्त महावार निर्मित होता है । शिखर कोष्ठक के आकार का होता है एवं इसका विस्तार लम्बाई का आधा होता है । आगे एवं पीछे दो भाग चौड़े महानासियों का निर्माण होता है ॥८९-९०॥
ऊपरी तलो में मध्य स्तम्भ से युक्त प्रवेश का संयोजन आवश्यकतानुसार करना चाहिये । प्रत्येक तल मे दक्षिण भाग मे सोपान निर्मित होता है । अधिष्ठान उपपीथ एवं स्तम्भ आदि से सुसज्जित होते है । ऊह एवं प्रत्यूह (प्रधान एवं अप्रधान भाग) से युक्त इसकी संज्ञा 'श्रीनिकेतन' होती है । शुद्ध (एक) या मिश्रित (अनेक) पदार्थों से निर्मित तीन तल के गोपुरों के तीन प्रकारों का वर्णन किया गया । ये विभिन्न प्रकार की खिड़कियों एवं अन्तःसालो (भीतरी प्राकारों) से युक्त होते है । अब सात तल से प्रारम्भ कर चार तल पर्यन्त गोपुरों का वर्णन किया जा रहा है ॥९१-९४॥
सप्ततलगोपुर
भद्रकल्याण
सात-तल गोपुर (भद्रकल्याण) - इस गोपुर की चौडाई चौदह भाग एवं लम्बाई सोलह भाग होती है । नालीगेह (मध्यकक्ष) दो भाग चौडा एवं छः भाग लम्बा होता है । इसके चारो ओर भित्ति होती है । दो भाग मान के चार अलिन्द्र होते है । चारो ओर आधे भाग से चार हारा का निर्माण करना चाहिये । इसके बाहर चारो ओर एक भाग से अलिन्द्र होता है । एक भाग से हार-भाग एवं आधे भाग से भित्ति होती है । हार के भाग के बराबर दोनो पार्श्वो में पञ्जर निर्मित होते है ॥९५-९७॥
प्रत्येक ऊपरी तल की भूमि प्रतियुक्त होती है । तीसरे तल को खण्डहर्म्य आदि से सुसज्जित एवं जलस्थल से युक्त बनाना चाहिये । प्रत्येक ऊपरी तल की ग्रीव पर चार महावार (बडे बरामदे) होते है । प्रत्येक ऊपरी तल के द्वार के मध्य में स्तम्भ निर्मित करना चाहिये । छत पर छत के माप की पट्टिका एवं विषम संख्या में स्तूपिकाये होनी चाहिये ॥९८-१००॥
इसे तोरणो, झरोखो एवं क्षुद्रनीडो (छोटी सजावटी खिड़कियों) से भली-भाँति अलंकृत करना चाहिये । प्रत्येक तल पर महावार (की भित्तियों) को नासियों से सुसज्जित करना चाहिये । यह द्वार के दोनो पार्श्वो मे तथा कूट और शाला के मध्य मे होता है । इसके पश्चात उपपीठ, चढने के लिये सीढ़ी एवं चार (चलने के लिये मार्ग) होता है । आँगन एवं कूट का सोपान त्रिखण्ड या श्रृङ्गमण्डल (शैली का) होता है । प्रत्येक ऊपरी तल मे सोपान की योजना आवश्यकतानुसार की जानी चाहिये । इस द्वारगोपुर को 'भद्रकल्याण' संज्ञा से अभिहित किया जाता है ॥१०१-१०३॥
सुभद्र
सुभद्र - उसी मे मध्य भाग तथा दोनो पार्श्वो मे नासिका हो तथा सामने एवं पीछे नासियाँ हो तो उसकी संज्ञा 'सुभद्र' होती है ॥१०४॥
भद्रसुन्दर
भद्रसुन्दर - मध्य भाग में दो भाग से जलस्थान तथा दोनो पार्श्वों मे दो भाग प्रमाण से चार नासियों से युक्त सौष्ठिक होता है । इसे 'भद्रसुन्दर' नाम से अभिहित किया गया है । पार्श्व भाग में इसी के विस्तार मे सोलह भाग एवं लम्बाई मे अट्ठारह भाग रक्खा जाता है । इसकी लम्बाई चौड़ाई से चतुर्थांश अधिक होती है । शेष भागो को आवश्यकतानुसार रखना चाहिये । इसका निर्माण एक या अनेक द्रव्यों से क्या जाता है ॥१०५-१०७॥
षट्‌तलगोपुर
छः तल का गोपुर - इस प्रकार सप्ततल गोपुर का वर्णन किया गया है । इसके तीन प्रकार होते है । इसी मे निचले तल को छोड छः तल के गोपुर बनते है; जिन्हे क्रमशः सुबल, सुकुमार एवं सुन्दर कहा गया है ॥१०८-१०९॥
पञ्चतलगोपुर
पाँच तल का गोपुर - द्वार की लम्बाई एवं चौड़ाई चौदह भाग होनी चाहिये । गृह की भित्ति एवं गृह (मध्य कक्ष) पहले के समान होना चाहिये । उसके चारो ओर हार (बाह्य भिति) एवं अलिन्द्र क्रमशः पाँच तथा डेढ़ भाग से होनी चाहिये । अलिन्द्र एवं बाह्य भित्ति की चौड़ाई एक भाग होनी चाहिये । आँगन में दो भाग से सौष्ठिक एवं छः भाग लम्बी शाला होनी चाहिये । कूट एवं शाला के मध्य भाग मे तीन भाग से जलस्थान होना चाहिये । विस्तार में जलस्थान दो भाग से हो एवं तीन महावार से युक्त हो । शेष अंगो का निर्माण पूर्ववर्णित रीति से करना चाहिये । पञ्चतल गोपुर को क्रमशः श्रीच्छन्द, श्रीविशाल एवं विजय कहा गया है । इस प्रकार विभिन्न अंगो से सुशोभित पञ्चतल गोपुर तीन प्रकार के कहे गये है ॥११०-११४॥
चतुस्तलगोपुर
चार तल का गोपुर - उस लम्बाईएवं चौड़ाई मे से दो भाग छोड दिया जाय, दो महावारों से युक्त हो तता कूट एवं कोष्ठ पहले के समान हो (तो वह चतुस्तल गोपुर होता है), यह ललित, कल्याण एवं कोमल- तीन प्रकार का होता है । ये चतुस्तल संज्ञक गोपुर ग्रामो एवं राजभवन के लिये उपयुक्त होते है ॥११५-११६॥
सामान्यविधि
सामान्य नियम - सप्ततल आदि तीन गोपुरों में तीन अलिन्द्र, दो एवं एक अलिन्द्र होते है । शेष मे भित्ति का प्रयोग करना चाहिये । इस प्रकार प्रत्येक के तीन भेद होते है एवं उनका अलंकरण इस प्रकार करना चाहिये, जिससे कि वे सुन्दर एवं दृढ रहे । स्तम्भ एवं प्रस्तर की चौड़ाई एवं लम्बाई पूर्ववर्णित रीति से रखनी चाहिये ।
ऊपरी तल एवं निचले तल के मध्य के स्थान (या संरचना) को 'प्रति' कहते है । गर्भन्यास प्रवेशद्वार के दाहिनी ओर भित्ति के नीचे होना चाहिये ॥११९॥
ब्राह्मण आदि चारो वर्णो के निवास के लिये मय ने एक से लेकर सात तल तक गोपुरो का वर्णन किया है, जिनके इक्कीस भेद बनते है । इनमें से ब्राह्मण आदि को उपयुक्त गोपुर का चयन करना चाहिये । प्रारम्भिक तीन भेद सभी वर्णो के अनुकूल होते है; विशेष रूप से उन लोगो के लिये, जो मनुष्यो मे समृद्धिशालि है । दूसरे ग्राम, अग्रहार, पुर, पत्तन के लिये एवं सभी राजभवन एवं देवालयो के लिये प्रशस्त होते है ॥१२०-१२१॥
 

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