यह तो मालूम हुआ कि कुमारी चंद्रकांता जीती है, मगर कहाँ है और उस खोह में से क्यों कर निकल गई, वनकन्या कौन है, योगी जी कहाँ से आए, तेजसिंह को उन्होंने क्या दिखाया इत्यादि बातों को सोचते और ख्याल दौड़ाते कुमार ने सुबह कर दी, एक घड़ी भी नींद न आई। अभी सवेरा नहीं हुआ कि पलँग से उतर जल्दी के मारे खुद तेजसिंह के डेरे में गए। वे अभी तक सोए थे, उन्हें जगाया।
तेजसिंह ने उठ कर कुमार को सलाम किया। जी में तो समझ ही गए थे कि वही बात पूछने के लिए कुमार बेताब हैं और इसी से इन्होंने आ कर मुझे इतनी जल्दी उठाया है, मगर फिर भी पूछा - 'कहिए क्या है जो इतने सवेरे आप उठे हैं?'
कुमार – 'रात भर नींद नहीं आई, अब जो कुछ कहना हो, जल्दी कहो, जी बेचैन है।'
तेजसिंह – 'अच्छा आप बैठ जाइए, मैं कहता हूँ।'
कुमार बैठ गए और देवीसिंह तथा ज्योतिषी जी को भी उसी जगह बुलवा भेजा। जब वे आ गए, तेजसिंह ने कहना शुरू किया - 'यह तो मुझे अभी तक मालूम नहीं हुआ कि कुमारी चंद्रकांता को कौन ले गया या वह योगी कौन थे और वनकन्या की मदद क्यों करने लगे, मगर उन्होंने जो कुछ मुझे दिखाया वह इतने ताज्जुब की बात थी कि मैं उसे देखने में ही इतना डूबा कि योगी जी से कुछ पूछ न सका और वे भी बिना कुछ खुलासा हाल कहे चलते बने। उस दिन पहले-पहल जब मैं आपको खोह में ले गया, तब वहाँ का हाल जो कुछ मैंने अपने गुरु जी से सुना था आपसे कहा था, याद है?'
कुमार - 'बखूबी याद है।'
तेजसिंह - 'मैंने क्या कहा था?'
कुमार - 'तुमने यही कहा था कि उसमें बड़ा भारी खजाना है, मगर उस पर एक छोटा-सा तिलिस्म भी बँधा हुआ है जो बहुत सहज में टूट सकेगा, क्योंकि उसके तोड़ने की तरकीब तुम्हारे उस्ताद तुम्हें कुछ बता गए हैं।'
तेजसिंह – 'हाँ ठीक है, मैंने यही कहा था। उस खोह में मैंने आपको एक दरवाजा दो पहाड़ियों के बीच में दिखाया था, जिसे योगी ने मुझे इशारे से बताया था। उस दरवाजे को खुला देख मुझे मालूम हो गया कि उस तिलिस्म को किसी ने तोड़ डाला और वहाँ का खजाना ले लिया, उसी वक्त मुझे यह ख्याल आया कि योगी ने उस दरवाजे की तरफ इसीलिए इशारा किया कि जिसने तिलिस्म तोड़ कर वह खजाना लिया है, वही कुमारी चंद्रकांता को भी ले गया होगा। इसी सोच और आश्चर्य में डूबा हुआ मैं एकटक उस दरवाजे की तरफ देखता रह गया और योगी महाराज चलते बने।
तेजसिंह की इतनी बात सुन कर बड़ी देर तक कुमार चुप बैठे रहे, बदहवासी-सी छा गई, इसके बाद सँभल कर बैठे और फिर बोले -
कुमार - 'तो कुमारी चंद्रकांता फिर एक नई बला में फँस गई?'
तेजसिंह – 'मालूम तो ऐसा ही पड़ता है।'
कुमार - 'तब इसका पता कैसे लगे? अब क्या करना चाहिए?'
तेजसिंह – 'पहले हम लोगों को उस खोह में चलना चाहिए। वहाँ चल कर उस तिलिस्म को देखें, जिसे तोड़ कर कोई दूसरा वह खजाना ले गया है, शायद वहाँ कुछ मिले या कोई निशान पाया जाए, इसके बाद जो कुछ सलाह होगी, की जाएगी।'
कुमार - 'अच्छा चलो, मगर इस वक्त एक बात का ख्याल और मेरे जी में आता है।'
तेजसिंह – 'वह क्या?'
कुमार - 'जब बद्रीनाथ को कैद करने उस खोह में गए थे और दरवाजा न खुलने पर वापस आए, उस वक्त भी शायद उस दरवाजे को भीतर से उसी ने बंद कर लिया हो, जिसने उस तिलिस्म को तोड़ा है। वह उस वक्त उसके अंदर रहा होगा।'
तेजसिंह – 'आपका ख्याल ठीक है, जरूर यही बात है, इसमें कोई शक नहीं बल्कि उसी ने शिवदत्त को भी छुड़ाया होगा।'
कुमार - 'हो सकता है, मगर जब छूटने पर शिवदत्त ने बेईमानी पर कमर बाँधी और पीछे मेरे लश्कर पर धावा मारा तो क्या उसी ने फिर शिवदत्त को गिरफ्तार करके उस खोह में डाल दिया? और क्या वह पुर्जा भी उसी का लिखा था, जो शिवदत्त के गायब होने के बाद उसके पलँग पर मिला था?'
तेजसिंह – 'हो सकता है।'
कुमार - 'तो इससे मालूम होता है कि वह हमारा दोस्त भी है, मगर दोस्त है तो फिर कुमारी को क्यों ले गया?'
तेजसिंह – 'इसका जवाब देना मुश्किल है, कुछ अक्ल काम नहीं करती, सिवाय इसके शिवदत्त के छूटने के बाद भी तो आपको उस खोह में जाने का मौका पड़ा था और हम लोग भी आपको खोजते हुए उस खोह में पहुँचे, उस वक्त चपला ने तो नहीं कहा कि इस खोह में कोई आया था जिसने शिवदत्त को एक दफा छुड़ा के फिर कैद कर दिया। उसने उसका कोई जिक्र नहीं किया, बल्कि उसने तो कहा था कि हम शिवदत्त को बराबर इसी खोह में देखते हैं, न उसने कोई खौफ की बात बताई।'
कुमार - 'मामला तो बहुत ही पेचीदा मालूम पड़ता है, मगर तुम भी कुछ गलती कर गए।'
तेजसिंह – 'मैंने क्या गलती की?'
कुमार - 'कल योगी ने दीवार से निकल कर मुझे कूदने से रोका, इसके बाद जमीन पर लात मारी और वहाँ की जमीन फट गई और वनकन्या निकल आई, तो योगी कोई देवता तो थे ही नहीं कि लात मार के जमीन फाड़ डालते। जरूर वहाँ पर जमीन के अंदर कोई तरकीब है। तुम्हें भी मुनासिब था कि उसी तरह लात मार कर देखते कि जमीन फटती है या नहीं।'
तेजसिंह – 'यह आपने बहुत ठीक कहा, तो अब क्या करें?'
कुमार - 'आज फिर चलो, शायद कुछ काम निकल जाए, अभी खोह में जाने की क्या जरूरत है?'
तेजसिंह – 'ठीक है, चलिए।'
आज फिर कुमार और तीनों ऐयार उस तिलिस्म में गए। मालूमी राह से घूमते हुए उसी दालान में पहुँचे जहाँ योगी निकले थे। जा कर देखा तो वे दोनों सड़ी और जानवरों की खाई हुई लाशें वहाँ न थीं, जमीन धोई–धोई साफ मालूम पड़ती थी। थोड़ी देर तक ताज्जुब में भरे ये लोग खड़े रहे, इसके बाद तेजसिंह ने गौर करके उसी जगह जोर से लात मारी जहाँ योगी ने लात मारी थी।
फौरन उसी जगह से जमीन फट गई और नीचे उतरने के लिए छोटी-छोटी सीढ़ियाँ नजर पड़ीं। खुशी-खुशी ये चारों आदमी नीचे उतरे। वहाँ एक अँधेरी कोठरी में घूम-घूम कर इन लोगों को कोई दूसरा दरवाजा खोजना पड़ा मगर पता न लगा। लाचार हो कर फिर बाहर निकल आए, लेकिन वह फटी हुई जमीन फिर न जुड़ी, उसी तरह खुली रह गई।
तेजसिंह ने कहा - 'मालूम होता है कि भीतर से बंद करने की कोई तरकीब इसमें है जो हम लोगों को मालूम नहीं, खैर, जो भी हो काम कुछ न निकला, अब बिना बाहर की राह इस खोह में आए कोई मतलब सिद्ध न होगा।'
चारों आदमी तिलिस्म के बाहर हुए। तेजसिंह ने ताला बंद कर दिया।
एक रोज टिक कर कुँवर वीरेंद्रसिंह ने फतहसिंह सेनापति को नायब मुकर्रर करके चुनारगढ़ भेज देने के बाद नौगढ़ की तरफ कूच किया और वहाँ पहुँच कर अपने पिता से मुलाकात की। राजा सुरेंद्रसिंह के इशारे से जीतसिंह ने रात को एकांत में तिलिस्म का हाल कुँवर वीरेंद्रसिंह से पूछा। उसके जवाब में जो कुछ ठीक-ठीक हाल था, कुमार ने उनसे कहा।
जीतसिंह ने उसी जगह तेजसिंह को बुलवा कर कहा - 'तुम दोनों ऐयार कुमार को साथ ले कर खोह में जाओ और उस छोटे तिलिस्म को कुमार के हाथ से फतह करवाओ जिसका हाल तुम्हारे उस्ताद ने तुमसे कहा था, जो कुछ हुआ है सब इसी बीच में खुल जाएगा। लेकिन तिलिस्म फतह करने के पहले दो काम करो, एक तो थोड़े आदमी ले जाओ और महाराज शिवदत्त को उनकी रानी समेत यहाँ भेजवा दो, दूसरे जब खोह के अंदर जाना तो दरवाजा भीतर से बंद कर लेना। अब महाराज से मुलाकात करने और कुछ पूछने की जरूरत नहीं, तुम लोग इसी वक्त यहाँ से कूच कर जाओ और रानी के वास्ते एक डोली भी साथ लिवाते जाओ।'
कुँवर वीरेंद्रसिंह ने तीनों ऐयारों और थोड़े आदमियों को साथ ले खोह की तरफ कूच किया। सुबह होते-होते ये लोग वहाँ पहुँचे। सिपाहियों को कुछ दूर छोड़, चारों आदमी खोह का दरवाजा खोल कर अंदर गए।