विजयगढ़ के पास भयानक जंगल में नाले के किनारे एक पत्थर की चट्टान पर दो आदमी आपस में धीरे-धीरे बातचीत कर रहे हैं। चाँदनी खूब छिटकी हुई है जिसमें इन लोगों की सूरत और पोशाक साफ दिखाई पड़ती है। दोनों आदमियों में से जो दूसरे पत्थर पर बैठा हुए हैं उसकी उम्र लगभग चालीस वर्ष की होगी। काला रंग, लंबा कद, काली दाढ़ी, सिर्फ जांघिया और चुस्त कुरता पहने हुए, तीर-कमान और ढाल-तलवार आगे रखे एक घुटना जमीन के साथ लगाए बैठा है। बड़ी-बड़ी काली और कड़ी मूछें ऊपर को चढ़ी हुई हैं, भूरी और खूँखार आँखें चमक रही हैं, चेहरे से बदमाशी और लुटेरापन झलक रहा है। इसका नाम जालिम खाँ है।
दूसरा शख्स जो उसी के सामने वीरासन में बैठा है उसका नाम आफत खाँ है, मेखना कद, लंबी दाढ़ी, चुस्त पायजामा और कुरता पहने, गंडासा सामने और एक छोटी-सी गठरी बाईं तरफ रखे जालिम खाँ की बात खूब गौर से सुनता और जवाब देता है।
जालिम खाँ – 'तुम्हारे मिल जाने से बड़ा सहारा हो गया।'
आफत खाँ – 'इसी तरह मुझको तुम्हारे मिलने से। देखो यह गंडासा, (हाथ में ले कर) इसी से हजारों आदमियों की जानें जाएँगी। मैं सिवाय इसके कोई दूसरा हरबा नहीं रखता। यह जहर से बुझाया हुआ है, जिसे जरा भी इसका जख्म लग जाए फिर उसके बचने की कोई उम्मीद नहीं।'
जालिम – 'बहुत हैरान होने पर तुमसे मुलाकात हुई।'
आफत – 'मुझे तुमसे जरूर मिलना था, इसलिए इश्तिहार चिपका दिए क्योंकि तुम लोगों का कोई ठिकाना तो था नहीं, जहाँ खोजता, लेकिन मुझे यकीन था कि तुम ऐयारी जरूर जानते होगे, इसीलिए ऐयारी बोली में अपना ठिकाना लिख दिया जिससे किसी दूसरे की समझ में न आए कि कहाँ बुलाया है।'
जालिम – 'ऐसी ही कुछ थोड़ी-सी ऐयारी सीखी थी, मगर तुम इस फन में उस्ताद मालूम होते हो, तभी तो बद्रीनाथ को झट गिरफ्तार कर लिया।'
आफत – 'उस्ताद तो मैं कुछ नहीं, मगर हाँ बद्रीनाथ जैसे छोकरे के लिए बहुत हूँ।'
जालिम – 'जो चाहो कहो मगर मैंने तुमको अपना उस्ताद मान लिया, जरा बद्रीनाथ की सूरत तो दिखा दो।'
आफत – 'हाँ-हाँ देखो, धड़ तो उसका गाड़ दिया मगर सिर गठरी में बँधा है, लेकिन हाथ मत लगाना क्योंकि इसको मसाले से तर किया है जिससे कल तक सड़ न जाए।'
इतना कह आफत खाँ ने अपनी बगल वाली गठरी खोली जिसमें बद्रीनाथ का सिर बँधा हुआ था। कपड़ा खून से तर हो रहा था। जितने आदमी उसके साथियों में से उस जगह थे, बद्रीनाथ की खोपड़ी देख खुशी के मारे उछलने लगे।
जालिम – 'यह शख्स बड़ा शैतान था।'
आफत – 'लेकिन मुझसे बच के कहाँ जाता।'
जालिम – 'मगर उस्ताद, तुम एक बात बड़ी बेढ़ब कहते हो कि कल बारह बजे रात को महल में चलना होगा।'
आफत – 'बेढ़ब क्या है, देखो कैसा तमाशा होता है?'
जालिम – 'मगर उस्ताद, तुम्हारे इश्तिहार दे देने से उस वक्त वहाँ बहुत से आदमी इकट्ठे होंगे, कहीं ऐसा न हो कि हम लोग गिरफ्तार हो जाएँ?'
आफत – 'ऐसा कौन है जो हम लोगों को गिरफ्तार करे?'
जालिम – 'तो इसमें क्या फायदा है कि अपनी जान जोखिम में डाली जाए। वक्त टाल के क्यों नहीं चलते?'
आफत – 'तुम तो गधे हो, कुछ खबर भी है कि हमने ऐसा क्यों किया?'
जालिम – 'अब यह तो तुम जानो।'
आफत – 'सुनो मैं बताता हूँ। मेरी नीयत यह है कि जहाँ तक हो सके जल्दी से उन लोगों को मार-पीट सब मामला खतम कर दूँ। उस वक्त वहाँ जितने आदमी मौजूद होंगे सभी को बस तुम मुर्दा ही समझ लो, बिना हाथ-पैर हिलाए सभी का काम तमाम करूँ तो सही।'
जालिम – 'भला उस्ताद, यह कैसे हो सकता है?'
आफत - (बटुए में से एक गोला निकाल कर और दिखा कर) 'देखो, इस किस्म के बहुत से गोले मैंने बना रखे हैं जो एक-एक तुम लोगों के हाथ में दे दूँगा। बस वहाँ पहुँचते ही तुम लोग इन गोलों को उन लोगों के हजूम (भीड़) में फेंक देना जो हम लोगों को गिरफ्तार करने के लिए मौजूद होंगे। गिरते ही ये गोले भारी आवाज दे कर फूट जाएँगे और इनमें से बहुत-सा धुआँ निकलेगा जिसमें वे लोग छिप जाएँगे, आँखों में धुआँ लगते ही अंधे हो जाएँगे और नाक के अंदर जहाँ गया कि उन लोगों की जान गई, ऐसा जहरीला यह धुआँ होगा।
आफत खाँ की बात सुन कर सब-के-सब मारे खुशी के उछल पड़े।
जालिम खाँ ने कहा - 'भला उस्ताद, एक गोला यहाँ पटक के दिखाओ, हम लोग भी देख लें तो दिल मजबूत हो जाएगा।'
'हाँ देखो।' यह कह के आफत खाँ ने वह गोला जमीन पर पटक दिया, साथ ही एक आवाज दे कर गोला फट गया और बहुत-सा जहरीला धुआँ फैला जिसको देखते ही आफत खाँ, जालिम खाँ और उनके साथी लोग जल्दी से हट गए इस पर भी उन लोगों की आँखें सूज गईं और सिर घूमने लगा। यह देख कर आफत खाँ ने अपने बटुए में से मरहम की एक डिबिया निकाली और सभी की आँखों में वह मरहम लगाया तथा हाथ में मल कर सुँघाया जिससे उन लोगों की तबीयत कुछ ठिकाने हुई और वे आफत खाँ की तारीफ करने लगे।
जालिम – 'वाह उस्ताद, यह तो तुमने बहुत ही बढ़िया चीज बनाई है।'
आफत – 'क्यों, अब तो महल में चलने का हौसला हुआ?'
जालिम – 'शुक्र है उस पाक परवरदिगार का जिसने तुम्हें मिला दिया। जो काम हम साल भर में करते सो तुम एक रोज में कर सकते हो। वाह उस्ताद वाह। अब तो हम लोग उछलते-कूदते महल में चलेंगे और सभी को दोजख में पहुँचाएँगे, लाओ एक-एक गोला सभी को दे दो।'
आफत – 'अभी क्यों, जब चलने लगेगे दे देंगे, कल का दिन जो काटना है।'
जालिम – 'अच्छा, लेकिन उस्ताद, तुमने इतने दिन पीछे का इश्तिहार क्यों दिया? आज का ही दिन अगर मुकर्रर किया होता तो मजा हो जाता।'
आफत – 'हमने समझा कि बद्रीनाथ जरा चालाक है, शायद जल्दी हाथ न लगे इसलिए ऐसा किया, मगर यह तो निरा बोदा निकला।'
जालिम – 'अब क्या करना चाहिए?'
आफत – 'इस वक्त तो कुछ नहीं, मगर कल बारह बजे रात को महल में चलने के लिए तैयार रहना चाहिए।'
जालिम – 'इसके कहने की कोई जरूरत नहीं, अब तो हम और तुम साथ ही हैं, जब जो कहोगे, करेंगे।'
आफत – 'अच्छा तो आज यहाँ से टल कर किसी दूसरी जगह आराम करना मुनासिब है। कल देखो खुदा क्या करता है। मैं तो कसम खा चुका हूँ कि महल में जा कर बिना सभी का काम तमाम किए एक दाना मुँह में नहीं डालूँगा।'
जालिम – 'उस्ताद, ऐसा नहीं करना चाहिए, तुम कमजोर हो जाओगे।'
आफत – 'बस चुप रहो, बिना खाए हमारा कुछ नहीं बिगड़ सकता।'
इसके बाद वे सब वहाँ से उठ कर एक तरफ को रवाना हो गए।