कुँवर वीरेंद्रसिंह तीनों ऐयारों के साथ खोह के अंदर घूमने लगे। तेजसिंह ने इधर-उधर के कई निशानों को देख कर कुमार से कहा - 'बेशक यहाँ का छोटा तिलिस्म तोड़ कर कोई खजाना ले गया। जरूर कुमारी चंद्रकांता को भी उसी ने कैद किया होगा। मैंने अपने उस्ताद की जुबानी सुना था कि इस खोह में कई इमारतें और बाग देखने बल्कि रहने लायक हैं। शायद वह चोर इन्हीं में कहीं मिल भी जाए तो ताज्जुब नहीं।'

कुमार - 'तब जहाँ तक हो सके काम में जल्दी करनी चाहिए।'

तेजसिंह – 'बस हमारे साथ चलिए, अभी से काम शुरू हो जाए।'

यह कह कर तेजसिंह कुँवर वीरेंद्रसिंह को उस पहाड़ी के नीचे ले गए जहाँ से पानी का चश्मा शुरू होता था। उस चश्मे से उत्तर को चालीस हाथ नाप कर कुछ जमीन खोदी।

कुमार से तेजसिंह ने कहा था – 'इस छोटे तिलिस्म के तोड़ने और खजाना पाने की तरकीब किसी धातु के पत्र पर खुदी हुई यहीं जमीन में गड़ी है। मगर इस वक्त यहाँ खोदने से उसका कुछ पता न लगा, हाँ एक खत उसमें से जरूर मिला जिसको कुमार ने निकाल कर पढ़ा। यह लिखा था - 'अब क्या खोदते हो। मतलब की कोई चीज नहीं है, जो था सो निकल गया, तिलिस्म टूट गया। अब हाथ मल के पछताओगे।'

तेजसिंह - (कुमार की तरफ देख कर) 'देखिए यह पूरा सबूत तिलिस्म टूटने का मिल गया।'

कुमार - 'जब तिलिस्म टूट ही चुका है तो उसके हर एक दरवाजे भी खुले होंगे?'

'हाँ, जरूर खुले होंगे', यह कह कर तेजसिंह पहाड़ियों पर चढ़ाते-घुमाते-फिराते कुमार को एक गुफा के पास ले गए जिसमें सिर्फ एक आदमी के जाने लायक राह थी।

तेजसिंह के कहने से एक-एक कर चारों आदमी उस गुफा में घुसे। भीतर कुछ दूर जा कर खुलासी जगह मिली, यहाँ तक कि चारों आदमी खड़े हो कर चलने लगे, मगर टटोलते हुए, क्योंकि बिल्कुल अँधेरा था, हाथ तक नहीं दिखाई देता था। चलते-चलते कुँवर वीरेंद्रसिंह का हाथ एक बंद दरवाजे पर लगा जो धक्का देने से खुल गया और भीतर बखूबी रोशनी मालूम होने लगी।

चारों आदमी अंदर गए, छोटा-सा बाग देखा जो चारों तरफ से साफ, कहीं तिनके का नामो-निशान नहीं, मालूम होता था अभी कोई झाड़ू दे कर गया है। इस बाग में कोई इमारत न थी, सिर्फ एक फव्वारा बीच में था, मगर यह नहीं मालूम होता था कि इसका हौज कहाँ है।

बाग में घूमने और इधर-उधर देखने से मालूम हुआ कि ये लोग पहाड़ी के ऊपर चले गए हैं। जब फव्वारे के पास पहुँचे तो एक बात ताज्जुब की दिखाई पड़ी। उस जगह जमीन पर जनाने हाथ का एक जोड़ा कंगन नजर पड़ा, जिसे देखते ही कुमार ने पहचान लिया कि कुमारी चंद्रकांता के हाथ का है। झट उठा लिया, आँखों से आँसू की बूँदे टपकने लगीं।

तेजसिंह से पूछा - 'यह कंगन यहाँ क्यों कर पहुँचा? इसके बारे में क्या ख्याल किया जाए?'

तेजसिंह कुछ जवाब देना ही चाहते थे कि उनकी निगाह एक कागज पर जा पड़ी जो उसी जगह खत की तरह मोड़ा पड़ा हुआ था। जल्दी से उठा लिया और खोल कर पढ़ा, यह लिखा था -

'बड़ी होशियारी से जाना, ऐयार लोग पीछा करेंगे, ऐसा न हो कि पता लग जाए, नहीं तो तुम्हारा और कुमार दोनों का ही बड़ा भारी नुकसान होगा। अगर मौका मिला तो कल आऊँगी

- वही।'

इस पुरजे को पढ़ कर तेजसिंह किसी सोच में पड़ गए, देर तक चुपचाप खड़े न जाने क्या-क्या विचार करते रहे। आखिर कुमार से न रहा गया, पूछा - 'क्यों क्या सोच रहे हो? इस खत में क्या लिखा है?'

तेजसिंह ने वह खत कुमार के हाथ में दे दी, वे भी पढ़ कर हैरान हो गए, बोले - 'इसमें जो कुछ लिखा है उस पर गौर करने से तो मालूम होता है कि हमारे और वनकन्या के मामले में ही कुछ है, मगर किसने लिखा यह पता नहीं लगता।'

तेजसिंह – 'आपका कहना ठीक है पर मैं एक और बात सोच रहा हूँ जो इससे भी ताज्जुब की है।'

कुमार - 'वह क्या?'

तेजसिंह – 'इन हरफों को मैं कुछ-कुछ पहचानता हूँ, मगर साफ समझ में नहीं आता क्योंकि लिखने वाले ने अपना हरफ छिपाने के लिए कुछ बिगाड़ कर लिखा है।'

कुमार - 'खैर, इस खत को रख छोड़ो, कभी-न-कभी कुछ पता लग ही जाएगा, अब आगे का काम करो।'

फिर ये लोग घूमने लगे, बाग के कोने में इन लोगों को छोटी-छोटी चार खिड़कियाँ नजर आईं, जो एक के साथ एक बराबर-सी बनी हुई थीं। पहले चारों आदमी बाईं तरफ वाली खिड़की में घुसे। थोड़ी दूर जा कर एक दरवाजा मिला जिसके आगे जाने की बिल्कुल राह न थी, क्योंकि नीचे बेढ़ब खतरनाक पहाड़ी दिखाई देती थी।

इधर-उधर देखने और खूब गौर करने से मालूम हुआ कि यह वही दरवाजा है जिसको इशारे से उस योगी ने तेजसिंह को दिखाया था। इस जगह से वह दालान बहुत साफ दिखाई देता था, जिसमें कुमारी चंद्रकांता और चपला बहुत दिनों तक बेबस पड़ी थीं।

ये लोग वापस होकर फिर उसी बाग में चले आए और उसके बगल वाली दूसरी खिड़की में घुसे जो बहुत अँधेरी थी, कुछ दूर जाने पर उजाला नजर पड़ा, बल्कि हद तक पहुँचने पर एक बड़ा-सा खुला फाटक मिला जिससे बाहर होकर ये चारों आदमी खड़े हो, चारों ओर निगाह दौड़ाने लगे।

लंबे-चौड़े मैदान के सिवाय और कुछ न नजर आया। तेजसिंह ने चाहा कि घूम कर इस मैदान का हाल मालूम करें। मगर कई सबबों से वे ऐसा न कर सके। एक तो धूप बहुत कड़ी थी, दूसरे कुमार ने घूमने की राय न दी और कहा - 'फिर जब मौका होगा इसको देख लेंगे। इस वक्त तीसरी व चौथी खिड़की में चल कर देखना चाहिए कि क्या है।'

चारों आदमी लौट आए और तीसरी खिड़की में घुसे। एक बाग में पहुँचते ही देखा वनकन्या कई सखियों को लिए घूम रही है, लेकिन कुँवर वीरेंद्रसिंह वगैरह को देखते ही तेजी के साथ बाग के कोने में जा कर गायब हो गई।

चारों आदमियो ने उसका पीछा किया और घूम-घूम कर तलाश भी किया मगर कहीं कुछ भी पता न लगा, हाँ जिस कोने में जा कर वे सब गायब हुई थीं, वहाँ जाने पर एक बंद दरवाजा जरूर देखा, जिसके खोलने की बहुत तरकीब की मगर न खुला।

उस बाग के एक तरफ छोटी-सी बारहदरी थी। लाचार हो कर ऐयारों के साथ कुँवर वीरेंद्रसिंह उस बारहदरी में एक ओर बैठ कर सोचने लगे - 'यह वनकन्या यहाँ कैसे आई? क्या उसके रहने का यही ठिकाना है? फिर हम लोगों को देख कर भाग क्यों गई? क्या अभी हमसे मिलना उसे मंजूर नहीं?'

इन सब बातों को सोचते-सोचते शाम हो गई मगर किसी की अक्ल ने कुछ काम न किया।

इस बाग में मेवों के दरख्त बहुत थे। और एक छोटा-सा चश्मा भी था। चारों आदमियों ने मेवों से अपना पेट भरा और चश्मे का पानी पी कर उसी बारहदरी में जमीन पर ही लेट गए। यह राय ठहरी कि रात को इसी बारहदरी में गुजारा करेंगे, सवेरे जो कुछ होगा देखा जाएगा।

देवीसिंह ने अपने बटुए में से सामान निकाल कर चिराग जलाया, इसके बाद बैठ कर आपस में बातें करने लगे।

कुमार - 'चंद्रकांता की मुहब्बत में हमारी दुर्गति हो गई, इस पर भी अब तक कोई उम्मीद मालूम नहीं पड़ती।'

तेजसिंह – 'कुमारी सही-सलामत हैं और आपको मिलेंगी इसमें कोई शक नहीं। जितनी मेहनत से जो चीज मिलती है, उसके साथ उतनी ही खुशी में जिंदगी बीतती है।'

कुमार - 'तुमने चपला के लिए कौन-सी तकलीफ उठाई?

तेजसिंह – 'तो चपला ही ने मेरे लिए कौन-सा दुख भोगा? जो कुछ किया, कुमारी चंद्रकांता के लिए।'

ज्योतिषी - 'क्यों तेजसिंह, क्या यह चपला तुम्हारी ही जाति की है?'

तेजसिंह – 'इसका हाल तो कुछ मालूम नहीं कि यह कौन जात है, लेकिन जब मुहब्बत हो गई तो फिर चाहे कोई जात हो।'

ज्योतिषी - 'लेकिन क्या उसका कोई वली वारिस भी नहीं है? अगर तुम्हारी जाति की न हुई तो उसके माँ-बाप कब कबूल करेंगे?'

तेजसिंह – 'अगर कुछ ऐसा-वैसा हुआ तो उसको मार डालूँगा और अपनी भी जान दे दूँगा।'

कुमार - 'कुछ इनाम दो तो हम चपला का हाल तुम्हें बता दें।'

तेजसिंह – 'इनाम में हम चपला ही को आपके हवाले कर देंगे।'

कुमार - 'खूब याद रखना, चपला फिर हमारी हो जाएगी।'

तेजसिंह – 'जी हाँ, जी हाँ, आपकी हो जाएगी।'

कुमार - 'चपला हमारी ही जाति की है। इसका बाप बड़ा भारी जमींदार और पूरा ऐयार था। इसको सात दिन की छोड़ कर इसकी माँ मर गई। इसके बाप ने इसे पाला और ऐयारी सिखाई, अभी कुछ ही वर्ष गुजरे हैं कि इसका बाप भी मर गया। महाराज जयसिंह उसको बहुत मानते थे, उसने उनके बहुत बड़े-बड़े काम किए थे। मरने के वक्त अपनी बिल्कुल जमा-पूँजी और चपला को महाराज के सुपुर्द कर गया, क्योंकि उसका कोई वारिस नहीं था। महाराज जयसिंह इसको अपनी लड़की की तरह मानते हैं और महारानी भी इसे बहुत चाहती हैं। कुमारी चंद्रकांता का और इसका लड़कपन ही से साथ होने के सबब दोनों में बड़ी मुहब्बत है।'

तेजसिंह – 'आज तो आपने बड़ी खुशी की बात सुनाई, बहुत दिनों से इसका खुटका लगा हुआ था, पर कई बातों को सोच कर आपसे नहीं पूछा। भला यह बातें आपको मालूम कैसे हुईं?'

कुमार - 'खास चंद्रकांता की जुबानी।'

तेजसिंह – 'तब तो बहुत ठीक है।'

तमाम रात बातचीत में गुजर गई, किसी को नींद न आई। सवेरे ही उठ कर जरूरी कामों से छुट्टी पा उसी चश्मे में नहा कर संध्या-पूजा की और कुछ मेवा खा जिस राह से उस बाग में गए थे उसी राह से लौट आए और चौथी खिड़की के अंदर क्या है, यह देखने के लिए उसमें घुसे। उसमें भी जा कर एक हरा-भरा बाग देखा, जिसे देखते ही कुमार चौंक पड़े।

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