जिस राह से कुँवर वीरेंद्रसिंह वगैरह आया-जाया करते थे और महाराज जयसिंह वगैरह आए थे, वह राह इस लायक नहीं थी कि कोई हाथी, घोड़ा या पालकी पर सवार हो कर आए और ऊपर वाली दूसरी राह में खोह के दरवाजे तक जाने में कुछ चक्कर पड़ता था, इसलिए जीतसिंह ने कुमारी के वास्ते पालकी मँगाई मगर दोनों महाराज और कुँवर वीरेंद्रसिंह किस पर सवार होंगे, अब वे सोचने लगे।
वहाँ खोह में दो घोड़े भी थे जो कुमारी की सवारी के वास्ते लाए गए थे। जीतसिंह ने उन्हें महाराज जयसिंह और राजा सुरेंद्रसिंह की सवारी के लिए तजवीज करके कुमार के वास्ते एक हवादार मँगवाया, लेकिन कुमार ने उस पर सवार होने से इनकार करके पैदल चलना कबूल किया।
उसी बाग के दक्खिन तरफ एक बड़ा फाटक था, जिसके दोनों बगल लोहे की दो खूबसूरत पुतलियाँ थीं। बाईं तरफ वाली पुतली के पास जीतसिंह पहुँचे और उसकी दाहिनी आँख में उँगली डाली, साथ ही उसका पेट दो पल्ले की तरह खुल गया और बीच में चाँदी का एक मुट्ठा नजर पड़ा जिसे जीतसिंह ने घुमाना शुरू किया।
जैसे-जैसे मुट्ठा घुमाते थे वैसे-वैसे वह फाटक जमीन में घुसता जाता था। यहाँ तक कि तमाम फाटक जमीन के अंदर चला गया और बाहर खुशनुमा सब्ज से भरा हुआ मैदान नजर पड़ा।
फाटक खुलने के बाद जीतसिंह फिर इन लोगों के पास आ कर बोले - 'इसी राह से हम लोग बाहर चलेंगे।'
दिन आधी घड़ी से ज्यादा न बीता होगा, जब महाराज जयसिंह और सुरेंद्रसिंह घोड़े पर सवार हो कुमारी चंद्रकांता की पालकी आगे कर फाटक के बाहर हुए। दोनों महाराजों के बीच में दोनों हाथों से दोनों घोड़ों की रकाब पकड़े हुए जीतसिंह बातें करते और इनके पीछे कुँवर वीरेंद्रसिंह अपने ऐयारों को चारों तरफ लिए कन्हैया बने खोह के फाटक की तरफ रवाना हुए।
पहर भर चलने के बाद ये लोग उस लश्कर में पहुँचे जो खोह के दरवाजे पर उतरा हुआ था। रात-भर उसी जगह रह कर सुबह को कूच किया। यहाँ से खूबसूरत और कीमती कपड़े पहन कर कहारों ने कुमारी की पालकी उठाई और महाराज जयसिंह के साथ विजयगढ़ रवाना हुए मगर वे लौंडियाँ भी जो आज तक कुमारी के साथ थीं और यहाँ तक कि उनकी पालकी उठा कर लाई थीं, मुहब्बत की वजह और महाराज सुरेंद्रसिंह के हुक्म से कुमारी के साथ गई।
राजा सुरेंद्रसिंह कुमार को साथ लिए हुए नौगढ़ पहुँचे। कुँवर वीरेंद्रसिंह पहले महल में जा कर अपनी माँ से मिले और कुलदेवी की पूजा करके बाहर आए।
अब तो बड़ी खुशी से दिन गुजरने लगे, आठवें ही रोज महाराज जयसिंह का भेजा हुआ तिलक पहुँचा और बड़ी धुमधाम से वीरेंद्रसिंह को चढ़ाया गया।
पाठक, अब तो कुँवर वीरेंद्रसिंह और चंद्रकांता का वृत्तांत समाप्त ही हुआ समझिए। बाकी रह गई सिर्फ कुमार की शादी। इस वक्त तक सब किस्से को मुख्तसर लिख कर सिर्फ बारात के लिए कई वर्क कागज के रँगना मुझे मंजूर नहीं। मैं यह नहीं लिखना चाहता कि नौगढ़ से विजयगढ़ तक रास्ते की सफाई की गई, केवड़े के जल से छिड़काव किया गया, दोनों तरफ बिल्लौरी हाँडियाँ रोशन की गईं, इत्यादि। आप खुद ख्याल कर सकते हैं कि ऐसे आशिक-माशूक की बारात किस धुमधाम की होगी, इस पर दोनों ही राजा और दोनों ही की एक-एक औलाद। तिलिस्म फतह करने और माल-खजाना पाने की खुशी ने और दिमाग बढ़ा रखा था। मैं सिर्फ इतना ही लिखना पसंद करता हूँ कि अच्छी सायत में कुँवर वीरेंद्रसिंह की बारात बड़े धूमधाम से विजयगढ़ की तरफ रवाना हुई।
विजयगढ़ में जनवासे की तैयारी सबसे बढ़ी-चढ़ी थी। बारात पहुँचने के पहले ही समा बँधा हुआ था, अच्छी-अच्छी खूबसूरत और गाने के इल्म को पूरे तौर पर जानने वाली रंडियों से महफिल भरी हुई थी, मगर जिस वक्त बारात पहुँची, अजब झमेला मचा।
बारात के आगे-आगे महाराज शिवदत्त बड़ी तैयारी से घोड़े पर सवार सरपेंच बाँधे कमर से दोहरी तलवार लगाए, हाथ में झंडा लिए, जनवासे के दरवाजे पर पहुँचे, इसके बाद धीरे-धीरे कुल जुलूस पहुँचा। दूल्हा बने हुए कुमार घोड़े से उतर कर जनवासे के अंदर गए।
कुमार वीरेंद्रसिंह का घोड़े से उतर कर जनवासे के अंदर जाना ही था कि बाहर हो-हल्ला मच गया। सब कोई देखने लगे कि दो महाराज शिवदत्त आपस में लड़ रहे हैं। दोनों की तलवारें तेजी के साथ चल रही हैं और दोनों ही के मुँह से यही आवाज निकल रही है – 'हमारी मदद को कोई न आए, सब दूर से तमाशा देखें।' एक महाराज शिवदत्त तो वही थे जो अभी-अभी सरपेंच बाँधे हाथ में झंडा लिए घोड़े पर सवार आए थे और दूसरे महाराज शिवदत्त मामूली पोशाक पहने हुए थे मगर बहादुरी के साथ लड़ रहे थे।
थोड़ी ही देर में हमारे शिवदत्त को (जो झंडा उठाए घोड़े पर सवार आए थे) इतना मौका मिला कि कमर में से कमंद निकाल, अपने मुकाबले वाले दुश्मन महाराज शिवदत्त को बाँध लिया और घसीटते हुए जनवासे के अंदर चले। पीछे-पीछे बहुत से आदमियों की भीड़ भी इन दोनों को ताज्जुब भरी निगाहों से देखती हुई अंदर पहुँची।
हमारे महाराज शिवदत्त ने दूसरे साधारण पोशाक पहने हुए महाराज शिवदत्त को एक खंबे के साथ खूब कस कर बाँध दिया और एक मशालची के हाथ से, जो उसी जगह मशाल दिखा रहा था मशाल ले कर उनके हाथ में थमाई, आप कुँवर वीरेंद्रसिंह के पास जा बैठे। उसी जगह सोने का जड़ाऊ बर्तन गुलाबजल से भरा हुआ रखा था, उससे रूमाल तर करके हमारे महाराज ने अपना मुँह पोंछ डाला। पोशाक वही, सरपेंच वही, मगर सूरत तेजसिंह बहादुर की।
अब तो मारे हँसी के पेट में बल पड़ने लगा। पाठक, आप तो इस दिल्लगी को खूब समझ गए होंगे, लेकिन अगर कुछ भ्रम हो गया तो मैं लिखे देता हूँ।
हमारे तेजसिंह अपने कौल के मुताबिक महाराज शिवदत्त की सूरत बना सरपेंच (फतह का सरपेंच जो देवीसिंह लाए थे) बाँध झंडा ले कुमार की बारात के आगे-आगे चले थे, उधर असली महाराज शिवदत्त जो महाराज सुरेंद्रसिंह से जान बचा, तपस्या का बहाना कर जंगल में चले गए थे कुँवर वीरेंद्रसिंह की बारात की कैफियत देखने आए। फकीरी करने का तो बहाना ही था असल में तो तबीयत से बदमाशी और खुटाई गई नहीं थी।
महाराज शिवदत्त बारात की कैफियत देखने आए मगर आगे-आगे झंडा हाथ में लिए अपनी सूरत देख समझ गए कि किसी ऐयार की बदमाशी है। क्षत्रीपन का खून जोश में आ गया, गुस्से को सँभाल न सके, तलवार निकाल कर लड़ ही गए। आखिर नतीजा यह हुआ कि उनको महफिल में मशालची बनना पड़ा और कुँवर वीरेंद्रसिंह की शादी खुशी-खुशी कुमारी चंद्रकांता के साथ हो गई।
(चंद्रकांता समाप्त)